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भुवनकोशवर्णने पर्वतनदीवर्षादिवर्णनम् -
सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान -
श्रीनारायण उवाच गिरी मेरुं च पूर्वेण द्वौ चाष्टादशयोजनैः । सहस्रैरायतौ चोदग्द्विसहस्रं पृथूच्चकौ ॥ १ ॥ जठरो देवकूटश्च तावेतौ गिरिवर्यकौ । मेरोः पश्चिमतोऽद्री द्वौ पवमानस्तथापरः ॥ २ ॥ पारियात्रश्च तौ तावद्विख्यातौ तुङ्गविस्तरौ । मेरोर्दक्षिणतः ख्यातौ कैलासकरवीरकौ ॥ ३ ॥ प्रागायतौ पूर्ववृत्तौ महापर्वतराजकौ । एवं चोत्तरतो मेरोस्त्रिशृङ्गमकरौ गिरी ॥ ४ ॥ एतैश्चाद्रिवरैरष्टसंख्यैः परिवृतो गिरिः । सुमेरुः काञ्चनगिरिः परिभ्राजन् रविर्यथा ॥ ५ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! सुमेरुगिरिके पूर्वमें अठारह हजार योजन लम्बाई तथा दो हजार योजन चौड़ाई तथा ऊँचाईवाले दो पर्वत हैं । वे दोनों श्रेष्ठ पर्वत जठर और देवकूट हैं । सुमेरुके पश्चिममें भी दो पर्वत हैं; उनमें पहला पवमान और दूसरा पारियात्र नामसे विख्यात है । वे दोनों पर्वत जठर तथा देवकूटके ही समान ऊँचाई तथा विस्तारवाले कहे गये हैं । सुमेरुके दक्षिणमें कैलास और करवीर नामसे विख्यात दो पर्वत हैं; ये दोनों विशाल पर्वतराज पहलेके ही समान लम्बाई तथा चौड़ाईवाले हैं । इसी प्रकार सुमेरुके उत्तरमें त्रिशुंग और मकर नामक दो पर्वत स्थित हैं । सूर्यकी भाँति सदा प्रकाश करता हुआ यह सुवर्णमय सुमेरुपर्वत इन्हीं आठों पर्वतश्रेष्ठोंसे चारों तरफसे घिरा हुआ है ॥ १-५ ॥
मेरोर्मूर्धनि धातुर्हि पुरी पङ्कजजन्मनः । मध्यतश्चोपक्लृप्तेयं दशसाहस्रयोजनैः ॥ ६ ॥
इस सुमेरुपर्वतके शिखरपर ठीक मध्यमें पायोनि ब्रह्माजीकी पुरी है । यह दस हजार योजनके विस्तारमें विराजमान है ॥ ६ ॥
समानचतुरस्रां च शातकौम्भमयीं पुरीम् । वर्णयन्ति महात्मानः परावरविदो बुधाः ॥ ७ ॥ तां पुरीमनुलोकानामष्टानामीशिषां पराः । पुर्यः प्रख्यातसौवर्णरूपास्ताश्च यथादिशम् ॥ ८ ॥ यथारूपं सार्धनेत्रसहस्रप्रमिताः कृताः ।
तत्त्वज्ञानी विद्वान् महात्मागण समचौकोर इस स्वर्णमयी पुरीके विषयमें कहते हैं कि उस पुरीके चारों ओर आठ लोकपालोंकी श्रेष्ठ पुरियाँ प्रसिद्ध हैं । सुवर्णमयी वे पुरियाँ दिशा तथा रूपके अनुसार स्थापित हैं । ढाई हजार योजनके विस्तारमें इनकी रचना की गयी है । ७-८.५ ॥
मेरोर्नव पुराणि स्युर्मनोवत्यमरावती ॥ ९ ॥ तेजोवती संयमनी तथा कृष्णाङ्गनापरा । श्रद्धावती गन्धवती तथा चान्या महोदया ॥ १० ॥ यशोवती च ब्रह्मेन्द्रवह्न्यादीनां यथाक्रमम् ।
इस प्रकार सुमेरुपर्वतपर ब्रह्मा तथा इन्द्र, अग्नि आदि लोकपालोंकी क्रमशः मनोवती, अमरावती, तेजोबती, संयमनी, कृष्णांगना, श्रद्धावती, गन्धवती, महोदया और यशोवती-ये नौ पुरियाँ प्रतिष्ठित हैं ॥ ९-१०.५ ॥
तत्रैव यज्ञलिङ्गस्य विष्णोर्भगवतो विभोः ॥ ११ ॥ वामपादाङ्गुष्ठनखनिर्भिन्नस्य च नारद । अण्डोर्ध्वभागरन्ध्रस्य मध्यात्संविशती दिवः ॥ १२ ॥ मूर्धन्यवततारेयं गङ्गा संविशती विभो । लोकानामखिलानां च पापहारिजलाकुला ॥ १३ ॥ इयं च साक्षाद्भगवत्पदी लोकेषु विश्रुता ।
हे नारद ! यज्ञमूर्ति सर्वव्यापी भगवान् विष्णुके बायें पैरके अँगूठेके नखसे आघातके कारण ब्रह्माण्डके ऊपरी भागमें हुए छिद्रके मध्यसे गंगा प्रकट हुई और हे विभो ! वे स्वर्गके शिखरपर आकर रुक गयीं । सम्पूर्ण प्राणियोंके पापोंका नाश करनेवाले जलसे परिपूर्ण ये गंगा संसारमें साक्षात् विष्णपदीके नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ ११-१३.५ ॥
कालेन महता सा तु युगसाहस्रकेण तु ॥ १४ ॥ दिवो मूर्धानमागत्य देवी देवनदीश्वरी । यत्तद्विष्णुपदं नाम स्थानं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ १५ ॥ औत्तानपादिर्यत्रास्ते ध्रुवः परमपावनः । भगवत्पादयुगलं पद्मकोशरजो दधत् ॥ १६ ॥ अद्याप्यास्ते स राजर्षिः पदवीमचलां श्रितः ।
हजार युगका अत्यन्त दीर्घ समय बीतनेपर सम्पूर्ण देवनदियोंकी स्वामिनी वे भगवती गंगा स्वर्गके शिखरपर जहाँ आयी थीं, वह स्थान तीनों लोकमें 'विष्णुपद' नामसे विख्यात है । यह वही स्थान है, जहाँ उत्तानपादके पुत्र परम पवित्र ध्रुव रहते हैं । भगवान्के दोनों चरणकमलोंके पवित्र पराग धारण किये हुए वे परम पुण्यात्मा राजर्षि ध्रुव अचल पदवीका आश्रय लेकर आज भी वहींपर विराजमान हैं । १४-१६.५ ॥
गंगाके प्रवाहको जाननेवाले तथा सभी प्राणियोंके हितकी कामना करनेवाले उदारहृदय सप्तर्षि भी वहीं रहते हैं और उनकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥ १७.५ ॥
आत्यन्तिकी सिद्धिरियं तपतां सिद्धिदायिनी ॥ १८ ॥ आद्रियन्ते च शिरसा जटाजूटोषितेन च ।
आत्यन्तिकी सिद्धि (मोक्ष)-स्वरूपिणी ये गंगा तपस्या करनेवाले पुरुषोंको सिद्धि देनेवाली हैं-ऐसा समझकर सिरपर जटाजूट धारण करनेवाले वे सिद्धगण उनमें निरन्तर स्नान करते रहते हैं ॥ १८.५ ॥
ततो विष्णुपदाद्देवी नैकसाहस्रकोटिभिः ॥ १९ ॥ विमानैराकुले देवयानेऽवतरती च सा । चन्द्रमण्डलमाप्लाव्य पतन्ती ब्रह्यसद्यनि ॥ २० ॥ चतुर्धा भिद्यमाना सा ब्रह्मलोके च नारद । चतुर्भिर्नामभिर्देवी चतुर्दिशमभिसृता ॥ २१ ॥ सरितां च नदीनां च पतिमेवान्वपद्यत ।
तत्पश्चात् वे गंगा विष्णुपदसे चलकर हजारोंकरोड़ों विमानोंसे व्याप्त देवमार्गपर अवतरित होती हुई चन्द्रमण्डलको आप्लावित करके ब्रह्मलोकमें पहुँचीं । हे नारद ! वहाँ ब्रह्मलोकमें वे देवी गंगा चार भागोंमें विभक्त होकर चार नामोंसे चारों दिशाओंमें प्रवाहित हुई और अन्तमें वे नद तथा नदियोंके स्वामी समुद्र में मिल गयीं ॥ १९-२१.५ ॥
सीता चालकनन्दा च चतुर्भद्रेति नामभिः ॥ २२ ॥ सीता च ब्रह्मसदनाच्छिखरेभ्यः क्षमाभृताम् । केसराभिधनाम्ना च प्रस्रवन्ती च स्वर्णदी ॥ २३ ॥ गन्धमादनमूर्ध्नीह पतिता पापहारिणी । अन्तरेण तु भद्राश्ववर्षं प्राच्यां समागता ॥ २४ ॥ क्षारोदधिं गता सा तु द्युनदी देवपूजिता ।
सीता, चतुः (चक्षु), अलकनन्दा और भद्राइन चार नामोंसे वे प्रसिद्ध हैं । उनमेंसे सभी पापोंका शमन करनेवाली सीता नामसे विख्यात गंगा ब्रह्मलोकसे उतरकर केसर नामक पर्वतोंके शिखरसे गिरती हुई गन्धमादनपर्वतके शिखरपर गिरी और वहाँसे भद्राश्ववर्षके बीचसे होती हुई पूर्व दिशामें चली गयीं । इसके बाद देवताओंसे पूजित वे देवनदी गंगा क्षारोदधिमें जाकर मिल गयीं ॥ २२-२४.५ ॥
तदनन्तर चक्षु नामवाली दूसरी गंगा माल्यवान्पर्वतके शिखरसे निकली और अत्यन्त वेगके साथ बहती हुई केतुमालवर्षमें आ गयीं । पुनः देववन्द्या वे देवनदी गंगा पश्चिम दिशामें आ गयीं और अन्तमें सागरमें समाविष्ट हो गयीं ॥ २५-२६.५ ॥
ततस्तृतीया धारा तु नाम्ना ख्याता च नारद ॥ २७ ॥ पुण्या चालकनन्दा वै दक्षिणेनाब्जभूपदात् । वनानि गिरिकूटानि समतिक्रम्य चागता ॥ २८ ॥ हेमकूटं गिरिवरं प्राप्तातोऽपीह निर्गता । अतिवेगवती भूत्वा भारतं चागतापरा ॥ २९ ॥ दक्षिणं जलधिं प्राप्ता तृतीया सा सरिद्वरा । यस्याः स्नानाय सरतां मनुजानां पदे पदे ॥ ३० ॥ राजसूयाश्वमेधादि फलं तु न हि दुर्लभम् ।
हे नारद ! तीसरी वह पुण्यमयी धारा अलकनन्दा नामसे विख्यात है । वह ब्रह्मलोकके दक्षिणसे होकर बहुत-से वनों और पर्वत-शिखरोंको पार करके पर्वतश्रेष्ठ हेमकूटपर पहुँची । यहाँसे भी निकलकर वह अत्यन्त वेगके साथ बहती हुई भारतवर्षमें आ गयी । इसके बाद नदियोंमें श्रेष्ठ अलकनन्दा नामक वह तीसरी नदी दक्षिण समुद्र में मिल गयी, जिसमें स्नानके लिये प्रस्थान करनेवाले मनुष्योंको पग-पगपर राजसूय तथा अश्वमेध आदिका फल भी दुर्लभ नहीं है ॥ २७-३०.५ ॥
ततश्चतुर्थी धारा तु भृङ्गवत्पर्वतात्पुनः ॥ ३१ ॥ भद्राभिधा संस्रवन्ती कुरून्सन्तर्प्य चोत्तरान् । समुद्रं समनुप्राप्ता गङ्गा त्रैलोक्यपावनी ॥ ३२ ॥
तदनन्तर भद्रा नामक चौथी धारा भंगवान्पर्वतसे निकली । तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली यह गंगा उत्तर कुरुप्रदेशोंको भलीभाँति तृप्त करती हुई अन्त में समुद्र में मिल गयी ॥ ३१-३२ ॥
अन्ये नदाश्च नद्यश्च वर्षे वर्षेऽपि सन्ति हि । बहुशो मेरुमन्दारप्रसूताश्चैव नारद ॥ ३३ ॥
हे नारद ! अन्य बहुतसे नद और नदियाँ प्रत्येक वर्षमें हैं । प्रायः ये सभी मेरु और मन्दारपर्वतसे ही निकले हुए हैं ॥ ३३ ॥
तत्रापि भारतं वर्षं कर्मक्षेत्रमुशन्ति हि । अन्यानि चाष्टवर्षाणि भौमस्वर्गप्रदानि च ॥ ३४ ॥ स्वर्गिणां पुण्यशेषस्य भोगस्थानानि नारद । पुरुषाणां चायुतायुर्वज्राङ्गा देवसन्निभाः ॥ ३५ ॥ पुरुषा नागसाहस्रैर्दशभिः परिकल्पिताः । महासौरतसन्तुष्टाः कलत्राढ्याः सुखान्विताः ॥ ३६ ॥ एकवर्षोनके चायुष्याप्तगर्भाः स्त्रियोऽपि हि । त्रेतायुगसमः कालो वर्तते सर्वदैव हि ॥ ३७ ॥
उन नौ वर्षों में भारतवर्ष कर्मक्षेत्र कहा गया है । अन्य आठ वर्ष पृथ्वीपर रहते हुए भी स्वर्ग-भोग प्रदान करनेवाले हैं । हे नारद ! ये वर्ष स्वर्गमें रहनेवाले पुरुषों के शेष पुण्योंको भोगनेके स्थान हैं । देवताओंके समान स्वरूप तथा वज्रतुल्य अंगोंवाले उन पुरुषोंकी आयु दस हजार वर्ष होती है । दस हजार हाथियोंके बलसे सम्पन्न वे पुरुष स्त्रियोंसे समन्वित, यथेच्छ कामक्रीडासे सन्तुष्ट तथा सुखी रहते हैं । वहाँकी स्त्रियाँ अपनी आयु समाप्त होनेके एक वर्ष पूर्वतक गर्भ धारण करती हैं । वहाँपर सदा त्रेतायुगके समान समय विद्यमान रहता है ॥ ३४-३७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने पर्वतनदीवर्षादिवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने पर्वतनदीवर्धादिवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥