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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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भुवनकोशवर्णनेऽरुणोदादिनदीनां निसर्गस्थानवर्णनम् -
भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
अरुणोदा नदी या तु मया प्रोक्ता च नारद ।
मन्दरान्निपतन्ती सा पूर्वेणेलावृतं प्लवेत् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! मैंने अरुणोदा नामक जिस नदीका वर्णन किया है, वह मन्दरपर्वतसे निकलकर इलावृतके पूर्व भागमें प्रवाहित होती है ॥ १ ॥

यज्जोषणाद्‍भवान्याश्चानुचरीणां स्त्रियामपि ।
यक्षगन्धर्वपत्‍नीनां देहगन्धवहोऽनिलः ॥ २ ॥
वासयत्यभितो भूमिं दशयोजनसंख्यया ।
भगवतीकी अनुचरी स्त्रियों तथा यक्षों और गन्धर्वोकी पत्नियोंके अरुणोदाके जलमें स्नान करनेसे उनके शरीरकी दिव्य गन्धसे उसका जल सुवासित हो जाता है । उस सुगन्धको लेकर बहता हुआ पवन चारों ओरकी दशयोजनपर्यन्त भूमिको सुगन्धित कर देता है ॥ २.५ ॥

एवं जम्बूफलानां च तुङ्गदेशनिपातनात् ॥ ३ ॥
विशीर्यतामनस्थीनां कुञ्जराङ्गप्रमाणिनाम् ।
रसेन च नदी जम्बूनाम्नी मेर्वाख्यमन्दरात् ॥ ४ ॥
पतन्ती भूमिभागे च दक्षिणेलावृतं गता ।
इसी प्रकार पर्वतकी अधिक ऊँचाईसे गिरनेके कारण हाथीके शरीरके समान विशाल आकारवाले गुठलीरहित जम्बू-फलोंके फटनेसे निकले हुए रसके द्वारा जम्बू नामक नदी बन गयी । वह मेरुमन्दरसे पृथ्वीतलपर गिरती हुई इलावृतवर्षसे दक्षिणकी ओर प्रवाहित होने लगी ॥ ३-४.५ ॥

देवी जम्बूफलास्वादतुष्टा जम्ब्वादिनी स्मृता ॥ ५ ॥
तत्रत्यानां च लोकानां देवनागर्षिरक्षसाम् ।
पूजनीयपदा मान्या सर्वभूतदयाकरी ॥ ६ ॥
पावनी पापिनां रोगनाशिनी स्मरतामपि ।
कीर्तिता विघ्नसंहर्त्री माननीया दिवौकसाम् ॥ ७ ॥
कोकिलाक्षी कामकला करुणा कामपूजिता ।
कठोरविग्रहा धन्या नाकिमान्या गभस्तिनी ॥ ८ ॥
एभिर्नामपदैः कामं जपनीया सदा नृणाम् ।
जम्बू-फलके स्वादसे सन्तुष्ट होनेवाली भगवती 'जम्ब्वादिनी' नामसे विख्यात हैं । वहाँकै देवता, नाग, ऋषि, राक्षस तथा अन्य लोगोंके लिये सभी प्राणियोंपर दया करनेवाली ये भगवती मान्य तथा पूजाके योग्य हैं । ये स्मरण करनेवाले पापियोंको पवित्र कर देनेवाली तथा उनके रोगोंको नष्ट कर देनेवाली हैं । देवताओंकी भी वन्दनीया इन भगवतीका कीर्तन करनेसे विघ्नोंका नाश हो जाता है । कोकिलाक्षी, कामकला, करुणा, कामपूजिता, कठोरविग्रहा, धन्या, नाकिमान्या, गभस्तिनी-इन नामोंका उच्चारण करके मनुष्योंको सदा देवीका जप करना चाहिये ॥ ५-८.५ ॥

जम्बूनदीरोधसोर्या मृत्तिकातीरवर्तिनी ॥ ९ ॥
जम्बूरसेनानुविद्ध्यमाना वाय्वर्कयोगतः ।
विद्याधरामरस्त्रीणां भूषणं विविधं महत् ॥ १० ॥
जाम्बूनदं सुवर्णं च प्रोक्तं देवविनिर्मितम् ।
यत्सुवर्णं च विबुधा योषिद्‌‍भिः कामुकाः सदा ॥ ११ ॥
मुकुटं कटिसूत्रं च केयूरादीन्प्रकुर्वते ।
जम्बूनदीके तटोंपर विद्यमान जो मिट्टी है, वह जम्बू-रससे सिक्त होकर और पुनः सूर्य तथा वायुके सम्पर्कसे सुवर्ण बन जाती है । उसीसे विद्याधरों और देवताओंकी स्त्रियोंके अनेक उत्तम आभूषण बने हैं, वह जाम्बूनद सुवर्ण देवनिर्मित कहा गया है । सदा अपनी स्त्रियोंकी कामना पूर्ण करनेवाले देवतागण उसी सुवर्णसे मुकट, करधनी और केयूर आदिका निर्माण करते हैं । ९-११.५ ॥

महाकदम्बः सम्प्रोक्तः सुपार्श्वगिरिसंस्थितः ॥ १२ ॥
तस्य कोटरदेशेभ्यः पञ्च धाराश्च याः स्मृताः ।
सुपार्श्वगिरिमूर्ध्नीह पतन्त्येता भुवं गताः ॥ १३ ॥
मधुधाराः पञ्च तास्तु पश्चिमेलावृतं प्लुताः ।
याश्चोपभुज्यमानानां देवानां मुखगन्धभृत् ॥ १४ ॥
वायुः समन्ततोऽगच्छञ्छतयोजनवासनः ।
कदम्बका एक विशाल वृक्ष सुपार्श्वपर्वतपर विराजमान बताया गया है । उसके कोटरोंसे जो पाँच धाराएँ निकली हुई बतायी गयी हैं, वे सुपार्श्वगिरिके शिखरपर गिरकर पृथ्वीतलपर आयीं । वे पाँचों मधुधाराएँ इलावृतवर्षके पश्चिमभागमें प्रवाहित होती हैं । इनका सेवन करनेवाले देवताओंके मुखकी सुगन्धि लेकर प्रवाहित होता हुआ पवन चारों ओर सौ योजनतककी भूमिको सुवासित कर देता है ॥ १२-१४.५ ॥

धारेश्वरी महादेवी भक्तानां कार्यकारिणी ॥ १५ ॥
देवपूज्या महोत्साहा कालरूपा महानना ।
वसते कर्मफलदा कान्तारग्रहणेश्वरी ॥ १६ ॥
करालदेहा कालाङ्गी कामकोटिप्रवर्तिनी ।
इत्येतैर्नामभिः पूज्या देवी सर्वसुरेश्वरी ॥ १७ ॥
भक्तोंका काम सिद्ध करनेवाली महादेवी धारेश्वरी वहाँ वास करती हैं । देवपूज्या, महोत्साहा, कालरूपा, महानना, कर्मफलदा, कान्तारग्रहणेश्वरी, करालदेहा, कालांगी और कामकोटिप्रवर्तिनी-इन नामोंसे सर्वसुरेश्वरी भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ १५-१७ ॥

एवं कुमुदरूढो यो नाम्ना शतबलो वटः ।
तत्स्कन्धेभ्योऽधोमुखाश्च नदाः कुमुदमूर्धतः ॥ १८ ॥
पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरादिभिः ।
शय्यासनाद्याभरणैः सर्वे कामदुघाश्च ते ॥ १९ ॥
उत्तरेणेलावृतं ते प्लावयन्ति समन्ततः ।
इसी प्रकार कुमुदपर्वतके ऊपर शतबल नामसे प्रसिद्ध जो वट-वृक्ष है, उसकी शाखाओंसे नीचे गिरते हुए रससे बहुतसे नद हो गये हैं । कुमुदगिरिके शिखरसे नीचेकी ओर गिरनेवाले वे सभी नद दूध, दही, मधु, घी, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन तथा आभूषण आदिके द्वारा सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं । वे इलावृतवर्षके उत्तरभागकी सम्पूर्ण भूमिको आप्लावित किये रहते हैं ॥ १८-१९.५ ॥

मीनाक्षी तत्तले देवी देवासुरनिषेविता ॥ २० ॥
नीलाम्बरा रौद्रमुखी नीलालकयुता च सा ।
नाकिनां देवसंघानां फलदा वरदा च सा ॥ २१ ॥
अतिमान्यातिपूज्या च मत्तमातङ्गगामिनी ।
मदनोन्मादिनी मानप्रिया मानप्रियान्तरा ॥ २२ ॥
मारवेगधरा मारपूजिता मारमादिनी ।
मयूरवरशोभाढ्या शिखिवाहनगर्भभूः ॥ २३ ॥
एभिर्नामपदैर्वन्द्या देवी सा मीनलोचना ।
जपतां स्मरतां मानदात्री चेश्वरसङ्‌गिनी ॥ २४ ॥
इन्हींके तटपर देवताओं और दानवोंद्वारा नित्य उपासित भगवती मीनाक्षी प्रतिष्ठित हैं । नीलाम्बरा, रौद्रमुखी, नीलालकयुता, अतिमान्या, अतिपूज्या, मत्तमातंगगामिनी, मदनोन्मादिनी, मानप्रिया, मानप्रियान्तरा, मारवेगधरा, मारपूजिता, मारमादिनी, मयूरवरशोभाया तथा शिखिवाहनगर्भभू-इन नामोंसे युक्त पदोंके द्वारा स्वर्गवासी देवताओंको अभीष्ट फल तथा वर प्रदान करनेवाली देवीकी वन्दना करनी चाहिये । सदा परब्रह्मसे सांनिध्य रखनेवाली वे भगवती मीनाक्षी जप तथा ध्यान करनेवाले प्राणियोंको सम्मान प्रदान करती हैं ॥ २०-२४ ॥

तेषां नदानां पानीयपानानुगतचेतसाम् ।
प्रजानां न कदाचित्स्याद्वलीपलितलक्षणम् ॥ २५ ॥
क्लमस्वेदादिदौर्गन्ध्यं जरामयमृतिभ्रमाः ।
शीतोष्णवातवैवर्ण्यमुखोपप्लवसंचयाः ॥ २६ ॥
नापदश्चैव जायन्ते यावज्जीवं सुखं भवेत् ।
नैरन्तर्येण तत्स्याद्वै सुखं निरतिशायकम् ॥ २७ ॥
उन नदोंका जल पीनेसे चैतन्य प्राप्त करनेवाले प्राणियोंके शरीरपर झुर्रियों तथा केशोंकी सफेदीके लक्षण कभी नहीं दिखायी पड़ते । थकान, पसीने आदिमें दुर्गन्धि, जरा, रोग, भय, मृत्यु, भ्रम, शीत एवं उष्ण वायु-विकार, मुखपर उदासी एवं अन्य आपत्तियाँ कभी नहीं उत्पन्न होती हैं और जीवनपर्यन्त प्राणीको सुख मिलता है और वह सुख पूर्णरूपसे निरन्तर बढ़ता ही रहता है ॥ २५-२७ ॥

तत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सन्निवेशं च तद्‌गिरेः ।
सुवर्णमयनाम्नो वै सुमेरोः पर्वताः पृथक् ॥ २८ ॥
गिरयो विंशतिपराः कर्णिकाया इवेह ते ।
केसरीभूय सर्वेऽपि मेरोर्मूलविभागके ॥ २९ ॥
परितश्चोपक्लृप्तास्ते तेषां नामानि शृण्वतः ।
कुरङ्गः कुरगश्चैव कुसुम्भोऽथो विकङ्कतः ॥ ३० ॥
त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतङ्गो रुचकस्तथा ।
निषधश्च शिनीवासः कपिलः शङ्ख एव च ॥ ३१ ॥
वैदूर्यश्चारुधिश्चैव हंसो ऋषभ एव च ।
नागः कालञ्जरश्चैव नारदश्चेति विंशतिः ॥ ३२ ॥
हे नारद ! अब मैं उस सुमेरु नामक सुवर्णमय पर्वतके अवान्तर पर्वतोंका वर्णन करूँगा । इस पर्वतसे पृथक् बीस पर्वत हैं, जो कर्णिकाके समान हैं । उनके मूलभागमें सुमेरुपर्वत है और उसको चारों ओरसे घेरकर वे सभी पर्वत पुष्पके केसरके रूपमें विराजमान हैं । उनके नाम ये है-शृण्वत, कुरंग, कुरग, कुसुम्भ, विकंकत, त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, अरुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद-ये बीस पर्वत हैं ॥ २८-३२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनेऽरुणोदादिनदीनां
निसर्गस्थानवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने रुणोदादिनदीनां निसर्गस्थानवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥


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