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भुवनकोशवर्णने क्रौञ्चशाकपुष्करद्वीपवर्णनम् -
क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन -
नारद उवाच शिष्टद्वीपप्रमाणं च वद सर्वार्थदर्शन । येन विज्ञातमात्रेण परानन्दमयो भवेत् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे सर्वार्थदर्शन ! अब आप शेष द्वीपोंके परिमाण बतलाइये, जिन्हें जाननेमात्रसे मनुष्य परम आनन्दमय हो जाता है ॥ १ ॥
श्रीरानारायण उवाच कुशद्वीपस्य परितो घृतोदावरणं महत् । ततो बहिः क्रौंचद्वीपो द्विगुणः स्यात्स्वमानतः ॥ २ ॥ क्षीरोदेनावृतो भाति यस्मिन्क्रौंचाद्रिरस्ति च । नामनिर्वर्तकः सोऽयं द्वीपस्य परिवर्तते ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] कुशद्वीपके चारों ओर घृतके समुद्रका महान् आवरण है । उसके बाहर उससे दूने परिमाणवाला काँचद्वीप है, जो अपने ही समान विस्तारवाले क्षीरसमुद्रसे घिरा हुआ सुशोभित होता है । उसमें क्रौंच नामक पर्वत विद्यमान है, उसीके कारण इसका नाम क्रौंचद्वीप पड़ गया ॥ २-३ ॥
योऽसौ गुहस्य शक्त्या च भिन्नकुक्षिः पुराभवत् । क्षीरोदेनासिच्यमानो वरुणेन च रक्षितः ॥ ४ ॥
पूर्वकालमें स्वामी कार्तिकेयकी शक्तिके प्रहारसे इसका कटिप्रदेश कट गया था, किंतु क्षीरसमुद्रसे सिंचित और वरुणदेवसे रक्षित होकर यह पुनः स्थिर हो गया ॥ ४ ॥
घृतपृष्ठो नाम यस्य विभाति किल नायकः । प्रियव्रतात्मजः श्रीमान् सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ५ ॥ स्वद्वीपं तु विभज्यैव सप्तधा स्वात्मजान्ददौ । पुत्रनामसु वर्षेषु वर्षपान्सन्निवेशयन् ॥ ६ ॥
इस द्वीपके शासक प्रियव्रतपुत्र घृतपृष्ठ थे । सम्पूर्ण लोकके वन्दनीय उन श्रीमान्ने अपने द्वीपको सात वर्षों में विभक्त करके अपने सात पुत्रोंको दे दिया । इस प्रकार पुत्रोंके ही नामवाले वर्षोंके अधिपतिके रूपमें पुत्रोंको नियुक्त करके उन्होंने स्वयं भगवान् श्रीहरिका आश्रय ग्रहण कर लिया ॥ ५-६ ॥
स्वयं भगवतस्तस्य शरणं सञ्जगाम ह । आमो मधुरुहश्चैव मेघपृष्ठः सुधामकः ॥ ७ ॥ भ्राजिष्ठो लोहितार्णश्च वनस्पतिरितीव च । नगा नद्यश्च सप्तैव विख्याता भुवि सर्वतः ॥ ८ ॥ शुक्लो वै वर्धमानश्च भोजनश्चोपबर्हणः । नन्दश्च नन्दनः सर्वतोभद्र इति कीर्तिताः ॥ ९ ॥
आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामक, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति-ये उनके सात पुत्र हैं । [उनके वर्षों में] सात पर्वत तथा सात नदियाँ इस सम्पूर्ण भूमण्डलपर प्रसिद्ध हैं । शुक्ल, वर्धमान, भाजन, उपबहण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र-ये पर्वत कहे गये हैं । ७-९ ॥
अभया अमृतौघा चार्यका तीर्थवतीति च । वृत्तिरूपवती शुक्ला पवित्रवतिका तथा ॥ १० ॥ एतासामुदकं पुण्यं चातुर्वर्ण्येन पीयते । पुरुषऋषभौ तद्वद् द्रविणाख्यश्च देवकः ॥ ११ ॥ एते चतुर्वर्णजाताः पुरुषा निवसन्ति हि । तत्रत्याः पुरुषा आपोमयं देवमपां पतिम् ॥ १२ ॥ पूर्णेनाञ्जलिना भक्त्या यजन्ते विविधक्रियाः । आपः पुरुषवीर्याः स्थ पुनन्तीर्भूर्भुवः स्वरः ॥ १३ ॥ ता नः पुनीतामीवघ्नीः स्पृशतामात्मना भुवः । इति मन्त्रजपान्ते च स्तुवन्ति विविधैः स्तवैः ॥ १४ ॥
अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, शुक्ला और पवित्रवतिका-ये सात नदियाँ हैं । इन नदियोंका पवित्र जल वहाँकै चार वर्णोके समुदायद्वारा पीया जाता है । पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवकये चार वर्णोके पुरुष वहाँ निवास करते हैं । वहाँकै पुरुष जलसे भरी हुई अंजलिके द्वारा विविध क्रियाएँ करते हुए भक्तिपूर्वक जलके स्वामी जलरूप भगवान् वरुणदेवकी उपासना इस प्रकार करते हैं-'हे जलदेवता ! आपको परमात्मासे सामर्थ्य प्राप्त है । आप भूः, भुवः और स्व:-इन तीनों लोकोंको पवित्र करते हैं; क्योंकि आप स्वरूपसे पापोंका नाश करनेवाले हैं । हम अपने शरीरसे आपका स्पर्श करते हैं, आप हमारे अंगोंको पवित्र करें'-इस मन्त्रके जपके पश्चात् वे विविध स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करते हैं ॥ १०-१४ ॥
एवं परस्तात्क्षीरोदात्परितश्चोपवेशितः । द्वात्रिंशल्लक्षसंख्याकयोजनायाममाश्रितः ॥ १५ ॥ स्वमानेन च द्वीपोऽयं दधिमण्डोदकेन च । शाकद्वीपो विशिष्टोऽयं यस्मिच्छाको महीरुहः ॥ १६ ॥ स्वक्षेत्रव्यपदेशस्य कारणं स हि नारद । प्रैयव्रतोऽधिपस्तस्य मेधातिथिरिति स्मृतः ॥ १७ ॥ विभज्य सप्त वर्षाणि पुत्रनामानि तेषु च । सप्त पुत्रान्निजान् स्थाप्य स्वयं योगगतिं गतः ॥ १८ ॥ पुरोजवो मनःपूर्वजवोऽथ पवमानकः । धूम्रानीकश्चित्ररेफो बहुरूपोऽथ विश्वधृक् ॥ १९ ॥
इसी प्रकार क्षीरसमुद्रसे आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप फैला हुआ है । यह द्वीप भी अपने ही समान परिमाणवाले दधिमण्डोदक समुद्रसे घिरा हुआ है । यह शाकद्वीप एक विशिष्ट द्वीप है, जिसमें 'शाक' नामक एक विशाल वृक्ष स्थित है । हे नारद ! वही वृक्ष इस क्षेत्रके नामका कारण है । प्रियव्रतपुत्र मेधातिथि उस द्वीपके अधिपति कहे जाते हैं । वे इस द्वीपको सात वर्षों में विभाजित करके उनमें उन्हींके समान नामवाले अपने सात पुत्रोंको नियुक्तकर स्वयं योगगतिकी प्राप्तिके उद्देश्यसे निकल पड़े । पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधृक्-ये उनके सात पुत्र थे ॥ १५-१९ ॥
मर्यादागिरयः सप्त नद्यः सप्तैव कीर्तिताः । ईशान ऊरुशृङ्गोऽथ बलभद्रः शतकेशरः ॥ २० ॥ सहस्रस्रोतको देवपालोऽप्यन्ते महाशनः । एतेऽद्रयः सप्त चोक्ताः सरिन्नामानि सप्त च ॥ २१ ॥ अनघा प्रथमाऽऽयुर्दा उभयस्पृष्टिरेव च । अपराजिता पञ्चपदी सहस्रश्रुतिरेव च ॥ २२ ॥
इसकी मर्यादा (सीमा) निश्चित करनेवाले सात प्रसिद्ध पर्वत हैं तथा सात ही नदियाँ हैं । ईशान, उरुशृंग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महाशन-ये सात पर्वत वहाँ विद्यमान कहे गये हैं । इसी तरह वहाँकी सात नदियोंके भी नाम हैं-अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहखति और निजधृति-ये सात परम पवित्र नदियाँ बतायी गयी हैं ॥ २०-२२ ॥
ततो निजधृतिश्चोक्ताः सप्त नद्यो महोज्ज्वलाः । तद्वर्षपुरुषाः सर्वे सत्यव्रतक्रतुव्रतौ ॥ २३ ॥ दानव्रतानुव्रतौ च चतुर्वर्णा उदीरिताः । भगवन्तं प्राणवायुं प्राणायामेन संयुताः ॥ २४ ॥ यजन्ति निर्धूतरजस्तमसः परमं हरिम् । अन्तः प्रविश्य भूतानि यो बिभर्त्यात्मकेतुभिः ॥ २५ ॥ अन्तर्यामीश्वरः साक्षात्पातु नो यद्वशे इदम् ।
उस वर्षके सभी पुरुष सत्यव्रत, क्रतुव्रत, दानव्रत और अनुव्रत-इन चार वर्णीवाले कहे गये हैं । वे प्राणायामके द्वारा अपने रजोगुण तथा तमोगुणको नष्ट करके प्राणवायुरूप परमेश्वर भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार उपासना करते हैं । जो प्राणादिवृत्तिरूप अपनी ध्वजाओंके सहित प्राणियोंके भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत् जिनके अधीन है, वे साक्षात् अन्तर्यामी भगवान् वायु हमारी रक्षा करें ॥ २३-२५.५ ॥
परस्ताद्दधिमण्डोदात्ततस्तु बहुविस्तरः ॥ २६ ॥ पुष्करद्वीपनामायं शाकद्वीपद्विसंगुणः । स्वसमानेन स्वादूदकेनायं परिवेष्टितः ॥ २७ ॥
इसी प्रकार उस दधिमण्डोद समुद्रसे आगे बहुत विस्तारवाला पुष्कर नामक अन्य द्वीप है, यह शाकद्वीपसे दो गुने विस्तारका है । यह अपने समान विस्तारवाले स्वादिष्ट जलके समुद्रसे चारों ओरसे घिरा हुआ है ॥ २६-२७ ॥
यत्रास्ते पुष्करं भ्राजदग्निचूडानिभानि च । पत्राणि विशदानीह स्वर्णपत्रायुतायुतम् ॥ २८ ॥ श्रीमद्भगवतश्चेदमासनं परमेष्ठिनः । कल्पितं लोकगुरुणा सर्वलोकसिसृक्षया ॥ २९ ॥
अग्निकी शिखाके समान प्रकाशमान विशाल पंखुड़ियोंवाला तथा लाखों स्वर्णमय पत्रोंवाला एक पुष्कर (कमल) इस द्वीपमें विराजमान है । समस्त लोकोंकी रचना करनेकी कामनासे लोकगुरु श्रीहरिने भगवान् ब्रह्माके आसनके रूपमें उस कमलकी रचना की ॥ २८-२९ ॥
तद्द्वीप एक एवायं मानसोत्तरनामकः । अर्वाचीनपराचीनवर्षयोरवधिर्गिरिः ॥ ३० ॥ उच्छ्रायायामयोः संख्यायुतयोजनसम्मिता । यत्र दिक्षु च चत्वारि चतसृषु पुराणि ह ॥ ३१ ॥ इन्द्रादिलोकपालानां यदुपर्यर्कनिर्गमः । मेरुं प्रदक्षिणीकुर्वन् भानुः पर्येति यत्र हि ॥ ३२ ॥
उस द्वीपमें उसके पूर्वी तथा पश्चिमी वर्षोंकी सीमा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नामक एक ही पर्वत है । यह दस हजार योजन ऊँचा तथा इतना ही विस्तृत है । इसकी चारों दिशाओंमें इन्द्र आदि लोकपालोंके चार पुर हैं और इनके ऊपरसे होकर सूर्य निकलते हैं और वे सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए संवत्सरात्मक चक्रके रूपमें देवताओंके दिन (उत्तरायण) तथा रात (दक्षिणायन)के क्रमसे घूमते हुए परिक्रमण करते रहते हैं ॥ ३०-३२ ॥
उस द्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र वीतिहोत्र उसे दो वर्षों में बाँटकर वर्षोंके ही नामवाले अपने दो पुत्रों रमण तथा धातकीको उन वर्षोंका स्वामी नियुक्त करके स्वयं अपने बड़े भाइयोंकी भौति भगवान् श्रीहरिकी भक्तिमें संलग्न हो गये ॥ ३३-३४ ॥
उन वर्षों में निवास करनेवाले शीलसम्पन्न पुरुष ब्रह्मसालोक्यादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्मयोगके द्वारा ब्रह्मस्वरूप परमेश्वरकी इस प्रकार उपासना करते हैं-'कर्मफलस्वरूप, ब्रह्मके साक्षात् विग्रह, एकान्तस्वभाव, अद्वैत तथा शान्तस्वरूप जिन परमेश्वरकी लोग अर्चना करते हैं, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है' ॥ ३५-३६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनं क्रौञ्चशाकपुष्करद्वीपवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इति श्रीमदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने क्रौञ्चशाकपुष्करद्वीपवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥