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सूर्यगतिवर्णनम् -
लोकालोकपर्वतका वर्णन -
नारायण उवाच ततः परस्तादचलो लोकालोकेति नामकः । अन्तराले च लोकालोकयोर्यः परिकल्पितः ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] उसके आगे लोकालोक नामक पर्वत है, जो प्रकाशित तथा अप्रकाशित-दो प्रकारके लोकोंका विभाग करनेके लिये उनके मध्यमें स्थित है ॥ १ ॥
यावदस्ति च देवर्षे ह्यन्तरं मानसोत्तरात् । सुमेरोस्तावती शुद्धा काञ्चनी भूमिरस्ति हि ॥ २ ॥ दर्पणोदरतुल्या सा सर्वप्राणिविवर्जिता । यस्यां पदार्थः प्रहितो न किञ्चित्प्रत्युदीयते ॥ ३ ॥ अतः सर्वप्राणिसङ्घरहिता सा च नारद । लोकालोक इति व्याख्या यदत्र परिकल्पिता ॥ ४ ॥ लोकालोकान्तरे चास्य वर्तते सर्वदा स्थितिः ।
हे देवर्षे ! मानसोत्तरपर्वतसे लेकर सुमेरुपर्वततक जितना अन्तर है, उतनी भूमि सुवर्णमयी तथा दर्पणके समान स्वच्छ है । वह भूमि सर्वसाधारण प्राणियोंसे रहित है । इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती । अतः हे नारद ! वह भूमि [देवताओंके अतिरिक्त सभी प्राणिसमुदायसे रहित है । इस पर्वतको लोकालोक जो कहा गया है, वह इसीलिये; क्योंकि यह सूर्यसे प्रकाशित तथा अप्रकाशित दो भागोंके मध्य स्थित है ॥ २-४.५ ॥
ईश्वरेण स लोकानां त्रयाणामन्तगः कृतः ॥ ५ ॥ सूर्यादीनां ध्रुवान्तानां रश्मयो यद्वशादिह । अर्वाचीनाश्च त्रीँल्लोकानातन्वानाः कदापि हि ॥ ६ ॥ पराचीनत्वभाजो हि न भवन्ति च नारद ।
भगवान्ने त्रिलोकीकी सीमा निर्धारित करनेके लिये उस पर्वतका निर्माण किया है । हे नारद ! सूर्य आदिसे लेकर ध्रुवपर्यन्त सभी ग्रहोंकी किरणें उसके अधीन होनेके कारण उसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करती हैं और दूसरी ओरके लोक प्रकाशित नहीं हो पाते ॥ ५-६.५ ॥
तावदुन्नहनायामः पर्वतेन्द्रो महोदयः ॥ ७ ॥ एतावाँल्लोकविन्यासोऽयं संस्थामानलक्षणैः । कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिभिर्गणितस्य च ॥ ८ ॥ भूगोलस्य चतुर्थांशो लोकालोकाचलो मुने । तस्योपरि चतुर्दिक्षु ब्रह्मणा चात्मयोनिना ॥ ९ ॥ निवेशिता दिग्गजा ये तन्नामानि निबोधत । ऋषभः पुष्पचूडोऽथ वामनोऽथापराजितः ॥ १० ॥ एते समस्तलोकस्य स्थितिहेतव ईरिताः ।
यह अति विशाल पर्वतराज जितना ऊँचा है, उतना ही विस्तृत है । लोकोंका विस्तार इतना ही है । गणितशास्त्रके विद्वानोंने स्थिति, मान और लक्षणके अनुसार सम्पूर्ण भूगोलका परिमाण पचास करोड़ योजन निश्चित किया है । हे मुने ! उस भूगोलका चौथाई भाग (साढ़े बारह करोड़ योजन) केवल यह लोकालोकपर्वत ही है । उसके ऊपर चारों दिशाओंमें स्वयम्भू ब्रह्माजीने जिन चार दिग्गजोंको नियुक्त किया है, उनके नाम हैं-ऋषभ, पुष्पचूड, वामन और अपराजित । इन दिग्गजोंको समस्त लोकोंकी स्थितिका कारण कहा गया है ॥ ७-१०.५ ॥
तेषां च स्वविभूतीनां बहुवीर्योपबृंहणम् ॥ ११ ॥ विशुद्धसत्त्वं चैश्वर्यं वर्धयन्भगवान् हरिः । आस्ते सिद्ध्यष्टकोपेतो विष्वक्सेनादिसंवृतः ॥ १२ ॥ निजायुधैः परिवृतो भुजदण्डैः समन्ततः । आस्ते सकललोकस्य स्वस्तये परमेश्वरः ॥ १३ ॥ आकल्पमेवं वेषं स गतो विष्णुः सनातनः । स्वमायारचितस्यास्य गोपीथायात्मसाधनः ॥ १४ ॥
भगवान् श्रीहरि उन दिग्गजों तथा अपनी विभूतिस्वरूप इन्द्र आदि लोकपालोंकी विविध शक्तियोंके विकास और उनमें विशुद्ध गुण तथा ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेके उद्देश्यसे आठों सिद्धियोंसहित विष्वक्सेन आदि पार्षदोंसे घिरे हुए सदा उस लोकालोकपर्वतपर विराजमान रहते हैं । सम्पूर्ण लोकके कल्याणके लिये चारों भुजाओंमें अपने शंख, चक्र, गदा तथा पद्मइन आयुधोंसे सुशोभित होते हुए भगवान् श्रीहरि वहाँ सर्वत्र विराजमान हैं । अपने मायारचित इस जगत्की रक्षाके लिये स्वयं साधनस्वरूप वे सनातन भगवान् अपने लीलामयरूपसे ऐसे वेषको धारण किये वहाँ कल्पपर्यन्त प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ ११-१४ ॥
योऽन्तर्विस्तार एतेन ह्यलोकपरिमाणकम् । व्याख्यातं यद्बहिर्लोकालोकाचल इतीरणात् ॥ १५ ॥ ततः परस्ताद्योगेशगतिं शुद्धा वदन्ति हि । अण्डमध्यगतः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम् ॥ १६ ॥ सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्यः स्युः पञ्चविंशतिः । मृतेऽण्ड एष एतस्मिञ्जातो मार्तण्डशब्दभाक् ॥ १७ ॥ हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्डसमुद्भवः ।
लोकालोकपर्वतके अन्तर्वर्ती भागका जो विस्तार कहा गया है, इसीसे उसके दूसरी ओरके अलोक प्रदेशके परिमाणकी व्याख्या समझ लेनी चाहिये । विद्वान् लोग कहते हैं कि उसके आगे योगेश्वरोंकी ही विशुद्ध गति सम्भव है । पृथ्वी तथा स्वर्गके बीच में जो ब्रह्माण्डका केन्द्र है, वही सूर्यकी स्थिति है । सूर्य तथा ब्रह्माण्डगोलकके बीच सभी ओर पचीस करोड़ योजनकी दूरी है । इस मृत ब्रह्माण्डमें सूर्यके विराजमान रहनेके कारण इनका नाम 'मार्तण्ड' पड़ा और हिरण्यमय ब्रह्माण्डसे उत्पन्न होनेके कारण इन्हें 'हिरण्यगर्भ' कहा जाता है ॥ १५-१७.५ ॥
सूर्येण हि विभज्यन्ते दिशः खं द्यौर्महीभिदा ॥ १८ ॥ स्वर्गापवर्गौ नरका रसौकांसि च सर्वशः । देवतिर्यङ्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम् ॥ १९ ॥ सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः । एतावान्भूमण्डलस्य सन्निवेश उदाहृतः ॥ २० ॥ एतेन हि दिवो मानं वर्णयन्ति च तद्विदः । द्विदलानां च निष्पावादीनां च दलयोर्यथा ॥ २१ ॥
दिशा, आकाश, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, स्वर्ग, अपवर्ग, नरक और पाताल-इन सभीका भलीभांति विभाजन सूर्यके ही द्वारा किया जाता है । देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य, रेंगकर चलनेवाले जन्तुओं, वृक्ष तथा अन्य सभी प्रकारके जीवसमूहोंकी आत्मा सूर्य ही हैं । ये नेत्रेन्द्रियके स्वामी हैं । हे नारद ! भूमण्डलका इतना ही विस्तार बतलाते हैं, जैसे कि चना-मटर आदिके दो दलोंमेंसे एकका स्वरूप जान लेनेपर दूसरेका अनुमान कर लिया जाता है ॥ १८-२१ ॥
अन्तरेण तयोरन्तरिक्षं तदुभयसन्धितम् । यन्मध्यगश्च भगवान् भानुर्वै तपतां वरः ॥ २२ ॥
उन द्यूलोक तथा पृथ्वीलोकके मध्य में अन्तरिक्ष स्थित है । अन्तरिक्ष उन दोनोंका सन्धिस्थान है । इसके मध्य में स्थित रहकर तपनेवाले ग्रहोंमें श्रेष्ठ भगवान् सूर्य चमकते हुए अपनी ऊष्मासे तीनों लोकोंको प्रतप्त करते हैं ॥ २२ ॥
आतपेन त्रिलोकं च प्रतपत्येव भासयन् । उत्तरायणमासाद्य गतिमान्द्यं वितन्वते ॥ २३ ॥ आरोहणस्थानमसौ गत्वाहो दैर्ध्यमाचरेत् । दक्षिणायनमासाद्य गतिशैघ्र्यं वितन्वते ॥ २४ ॥ अवरोहस्थानमसौ गच्छन्ह्रस्वं दिनं चरेत् ।
उत्तरायण होनेपर सूर्य मन्दगतिसे चलने लगते हैं । उत्तरायण उनका आरोहणस्थान है, जहाँ पहुँचनेपर दिनमें वृद्धि होने लगती है । दक्षिणायनकी स्थिति प्राप्त करके वे तीव्र गति धारण कर लेते हैं । दक्षिणायन उनका अवरोहस्थान है, जिसपर सूर्यके चलनेपर दिन छोटा होने लगता है ॥ २३-२४.५ ॥
विषुवत्संज्ञमासाद्य गतिसाम्यं वितन्वते ॥ २५ ॥ समस्थानमथासाद्य दिनसाम्यं करोति च । यदा च मेषतुलयोः सञ्चरेद्धि दिवाकरः ॥ २६ ॥ समानानि त्वहोरात्राण्यातनोति त्रयीमयः । वृषादिपञ्चसु यदा राशिष्वर्को विरोचते ॥ २७ ॥ तदाहानि च वर्धन्ते रात्रयोऽपि ह्रसन्ति च । वृश्चिकादिषु सूर्यो हि यदा सञ्चरते रविः ॥ २८ ॥ तदापीमान्यहोरात्राणि भवन्ति विपर्ययात् ॥ २९ ॥
विषुवत् नामक स्थानपर पहुँचनेपर सूर्यकी गतिमें समानता आ जाती है । इस समस्थानपर सूर्यके आनेपर दिनके परिमाणमें समानता आ जाती है । जब वेदस्वरूप भगवान् सूर्य मेष और तुला राशिपर संचरण करते हैं, तब दिन और रात समान होने लगते हैं । जब सूर्य वृष आदि पाँच राशियोंपर होते हैं, तब दिन बढ़ने लगते हैं और रातें छोटी होने लगती हैं । इसी प्रकार जब सूर्य वृश्चिक आदि पाँच राशियोंपर गति करते हैं, तब दिन और रातमें इसके विपरीत परिवर्तन होते हैं ॥ २५-२९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे सूर्यगतिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयाँ संहितायामष्टमस्कन्धे सूर्यगतिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥