हे सुरश्रेष्ठ ! सभी ग्रहोंके तीन ही स्थान हैं । वे स्थान हैं-जारद्गव, ऐरावत तथा वैश्वानर; जिनमें जारद्गव मध्यमें, ऐरावत उत्तरमें तथा वैश्वानर दक्षिणमें यथार्थतः निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ २.५ ॥
अश्विनी कृत्तिका याम्या नागवीथीति शब्दिता ॥ ३ ॥ रोहिण्यार्द्रा मृगशिरो गजवीथ्यभिधीयते । पुष्याश्लेषा तथाऽऽदित्या वीथी चैरावती स्मृता ॥ ४ ॥ एतास्तु वीथयस्तिस्र उत्तरो मार्ग उच्यते ।
अश्विनी, भरणी और कृत्तिकाको नागवीथी कहा जाता है । रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्राको गजवीथी कहा जाता है । इसी प्रकार पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषाको ऐरावती-२७९वीथी कहा गया है । ये तीनों वीथियाँ उत्तरमार्ग कही गयी हैं ॥ ३-४.५ ॥
तथा द्वे चापि फल्गुन्यौ मघा चैवार्षभी मता ॥ ५ ॥ हस्तश्चित्रा तथा स्वाती गोवीथीति तु शब्दिता । ज्येष्ठा विशाखानुराधा वीथी जारद्गवी मता ॥ ६ ॥ एतास्तु वीथयस्तिस्रो मध्यमो मार्ग उच्यते ।
मघा, पूर्वाफाल्बानी और उत्तराफाल्नीको आर्षभीवीथी माना गया है । हस्त, चित्रा तथा स्वातीको गोवीथी कहा गया है और इसी प्रकार ज्येष्ठा, विशाखा तथा अनुराधाको जारद्गवीवीथी कहा गया है । इन तीनों वीथियोंको मध्यममार्ग कहा जाता है ॥ ५-६.५ ॥
मूलाषाढोत्तराषाढा अजवीथ्यभिशब्दिता ॥ ७ ॥ श्रवणं च धनिष्ठा च मार्गी शतभिषक् तथा । वैश्वानरी भाद्रपदे रेवती चैव कीर्तिता ॥ ८ ॥ एतास्तु वीथयस्तिस्रो दक्षिणो मार्ग उच्यते ।
मूल, पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ अजवीथी नामसे पुकारी जाती है । श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषाको मार्गावीथी कहा जाता है और इसी तरह पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती वैश्वानरीवीथीके नामसे प्रसिद्ध हैं । ये तीनों वीथियाँ दक्षिणमार्ग कही जाती हैं । ७-८.५ ॥
जब सूर्यका रथ उत्तरायण मार्गपर रहता है, उस समय उसके दोनों पहियेके अक्षोंसे आबद्ध पवनरूपी पाशसे बँधकर ध्रुवद्वारा उसका कर्षण 'आरोहण' कहा गया है । उस समय मण्डलके भीतर रथ चलनेसे गतिकी मन्दता हो जाती है । हे सुर श्रेष्ठ ! इस मन्द गतिमें दिनकी वृद्धि और रातका ह्रास होने लगता है । यही सौम्यायनका क्रम है । इसी प्रकार जब वह रथ दक्षिणायन मार्गपर पाशद्वारा खींचा जाता है, तब वह अवरोहण गति होती है । उस समय मण्डलके बाहरसे गति होनेके कारण सूर्यकी गतिमें तीव्रता हो जाती है । उस समय दिनका छोटा तथा रातका बड़ा होना बताया गया है ॥ ९-१२.५ ॥
विषुव मार्गपर सूर्यका रथ पाशद्वारा किसी ओर न खींचे जानेके कारण साम्य स्थिति बनी रहती है । इसमें मण्डलके मध्यसे गति होनेसे दिन तथा रातके मानमें समानता होती है ॥ १३.५ ॥
आकृष्येते यदा तौ तु ध्रुवेण समधिष्ठितौ ॥ १४ ॥ तदाभ्यन्तरतः सूर्यो भ्रमते मण्डलानि च । ध्रुवेण मुच्यमानेन पुना रश्मियुगेन तु ॥ १५ ॥ तथैव बाह्यतः सूर्यो भ्रमते मण्डलानि च ।
जब ध्रुवकी प्रेरणासे दोनों वायुपाश खींचे जाते हैं, उस समय भीतरके मण्डलोंमें ही सूर्य चक्कर लगाते हैं । पुन: ध्रुवके द्वारा दोनों पाशोंके मुक्त किये जाते ही सूर्य बाहरके मण्डलोंमें चक्कर लगाने लगते हैं ॥ १४-१५.५ ॥
तस्मिन्मेरौ पूर्वभागे पुर्यैन्द्री देवधानिका ॥ १६ ॥ दक्षिणे वै संयमनी नाम याम्या महापुरी । पश्चान्निम्लोचनी नाम वारुणी वै महापुरी ॥ १७ ॥ तदुत्तरे पुरी सौम्या प्रोक्ता नाम विभावरी ।
उस मेरुपर्वतपर पूर्वभागमें इन्द्रकी पुरी 'देवधानिका' और दक्षिणभागमें यमराजकी 'संयमनी' नामक विशाल पुरी विद्यमान है । पश्चिममें वरुणदेवकी 'निम्लोचनी' नामक महान् पुरी है और उस मेरुके उत्तर-भागमें चन्द्रमाकी'विभावरी' नामक परी बतायी गयी है ॥ १६-१७.५ ॥
ऐन्द्रपुर्यां रवेः प्रोक्त उदयो ब्रह्मवादिभिः ॥ १८ ॥
ब्रह्मवादियोंके द्वारा कहा गया है कि सूर्यका उदय इन्द्रकी पुरीमें होता है और वे मध्याहकालमें संयमनीपरीमें पहुँचते हैं । सूर्यके निम्लोचनीपुरीमें पहुँचनेपर सायंकाल और विभावरीपुरीमें पहुँचनेपर आधी रात होती है । वे भगवान् सूर्य सभी देवताओंके पूज्य हैं ॥ १८-१९ ॥
संयमन्यां च मध्याह्ने निम्लोचन्यां निमीलनम् । विभावर्यां निशीथः स्यात्तिग्मांशोः सुरपूजितः ॥ १९ ॥ प्रवृत्तेश्च निमित्तानि भूतानां तानि सर्वशः । मेरोश्चतुर्दिशं भानोः कीर्तितानि मया मुने ॥ २० ॥
हे मुने ! सुमेरुपर्वतके चारों ओर सूर्यके जिस परिभ्रमणसे जीवधारियोंकी सभी क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, उसका वर्णन मैंने कर दिया ॥ २० ॥
मेरुस्थानां सदा मध्यं गत एव विभाति हि । सव्यं गच्छन्दक्षिणेन करोति स्वर्णपर्वतम् ॥ २१ ॥ उदयास्तमये चैव सर्वकालं तु सम्मुखे । दिशास्वशेषासु तथा सुरर्षे विदिशासु च ॥ २२ ॥ यैर्यत्र दृश्यते भास्वान्स तेषामुदयः स्मृतः । तिरोभावं च यत्रैति तत्रैवास्तमनं रवेः ॥ २३ ॥ नैवास्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः । उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः ॥ २४ ॥
सुमेरुपर रहनेवालोंको सूर्य सदा मध्यमें विराजमान प्रतीत होते हैं । सूर्यका रथ सुमेरुके बायें चलते हुए वायुकी प्रेरणासे दायें हो जाता है । अतः उदय तथा अस्त-समयोंमें सर्वदा वह सामने ही पड़ता है । हे देवर्षे ! सभी दिशाओं तथा विदिशाओंमें रहनेवाले जो लोग सूर्यको जहाँ देखते हैं, उनके लिये वह सूर्योदय तथा जहाँ सूर्य छिप जाते हैं, वहाँके लोगोंके लिये वह सूर्यास्त माना गया है । सर्वदा विद्यमान रहनेवाले सूर्यका न तो उदय होता है और न अस्त ही होता है, उनका दर्शन तथा अदर्शन ही उदय और अस्त नामसे कहा गया है ॥ २१-२४ ॥
शक्रादीनां पुरे तिष्ठन्स्पृशत्येष पुरत्रयम् । विकर्णौ द्वौ विकर्णस्थस्त्रीन्कोणान्द्वे पुरे तथा ॥ २५ ॥ सर्वेषां द्वीपवर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः । यैर्यत्र दृश्यते भानुः सैव प्राचीति चोच्यते ॥ २६ ॥
जिस समय सूर्य इन्द्र आदिकी पुरीमें पहुँचते हैं, उस समय उनके प्रकाशसे तीनों लोक प्रकाशित होने लगते हैं । दो विकर्ण, उनके तीन कोण तथा दो पुरियाँ-सबमें सूर्यको किरणसे प्रकाश फैल जाता है । सम्पूर्ण द्वीप और वर्ष सुमेरुके उत्तरमें स्थित हैं । जो लोग सूर्यको जहाँ उदय होते देखते हैं, उनके लिये वही पूर्व दिशा कही जाती है ॥ २५-२६ ॥
तद्वामभागतो मेरुर्वर्ततेति विनिर्णयः । यदि चैन्द्र्याः प्रचलते घटिका दशपञ्चभिः ॥ २७ ॥ याम्यां तदा योजनानां सपादं कोटियुग्मकम् । सार्धद्वादशलक्षाणि पञ्चनेत्रसहस्रकम् ॥ २८ ॥ प्रक्रामति सहस्रांशुः कालमार्गप्रदर्शकः ।
उसके वाम भागमें मेरुपर्वत है-ऐसा सुनिश्चित है । काल तथा मार्गके प्रदर्शक हजार किरणोंवाले सूर्य जब इन्द्रपुरीसे संयमनीपुरीको जाते हैं, तब वे पन्द्रह घड़ीमें सवा दो करोड़ बारह लाख पचहत्तर हजार योजनकी दूरी तय करते हैं ॥ २७-२८.५ ॥
एवं ततो वारुणीं च सौम्यामैन्द्रीं सहस्रदृक् ॥ २९ ॥ पर्येति कालचक्रात्मा द्युमणिः कालबुद्धये ।
इसी प्रकार सहस्र नेत्रोंवाले कालचक्रात्मा सूर्य कालज्ञान करानेके लिये वरुणलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोकका भ्रमण करते हैं ॥ २९.५ ॥
तथा चान्ये ग्रहाः सोमादयो ये दिग्विचारिणः ॥ ३० ॥ नक्षत्रैः सह चोद्यन्ति सह चास्तं व्रजन्ति ते ।
चन्द्रमा आदि अन्य आकाशचारी जो भी ग्रह हैं, वे नक्षत्रोंके साथ उदय तथा अस्त होते रहते हैं ॥ ३०.५ ॥
एवं मुहूर्तेन रथो भानोरष्टशताधिकम् ॥ ३१ ॥ योजनानां चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि भ्रमति प्रभुः । त्रयीमयश्चतुर्दिक्षु पुरीषु च समीरणात् ॥ ३२ ॥ प्रवहाख्यात्सदा कालचक्रं पर्येति भानुमान् ।
इस प्रकार भगवान् सूर्यका वेदमय रथ एक मुहूर्तमें चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है । प्रवह नामक वायुके प्रभावसे वह तेजस्वी कालचक्र चारों दिशाओंमें स्थित चारों पुरियोंपरसे घूमता रहता है ॥ ३१-३२.५ ॥
सूर्यके रथके एक चक्केमें बारह अरे, तीन धुरियाँ तथा छ: नेमियाँ हैं; विद्वान् लोग उस चक्केको एक संवत्सरकी संज्ञा प्रदान करते हैं । इस रथकी धुरीका एक सिरा सुमेरुपर्वतके शिखरपर और दूसरा मानसोत्तरपर्वतके शिखरपर स्थित है । इस धुरीमें लगा हुआ जो पहिया है, वह तेल निकालनेवाले यन्त्र (कोल्हू)-के पहियेकी भाँति घूमता रहता है और सूर्य भी उस मानसोत्तरपर्वतके ऊपर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ३३-३५.५ ॥
उस धुरीमें जिसका मूल भाग लगा हुआ है, ऐसी ही एक दूसरी धुरी है, जिसकी लम्बाई पहली धुरीकी चौथाई है । ध्रुवसे लगी हुई वह धुरी तैलयन्त्रकी धुरीके सदृश कही गयी है ॥ ३६.५ ॥
रथके ऊपरी भागमें जगत्के स्वामी सूर्यके बैठनेका स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा तथा उसका चतुर्थाश अर्थात् नौ लाख योजन चौड़ा बताया गया है । उतना ही परिमाणवाला सूर्यके रथका जूआ भी है । रथके सारथि (अरुण) के द्वारा उस जूएमें जुते हुए गायत्री आदि छन्दोंके नामवाले सात घोड़े जगत्के प्राणियोंके कल्याणके लिये भगवान् सूर्यका वहन करते रहते हैं ॥ ३७-३९.५ ॥
उसी प्रकार बालखिल्य आदि साठ हजार ऋषिगण जो परिमाणमें अँगूठेके पोरके बराबर कहे गये हैं, सूर्यके सम्मुख स्थित होकर मनोहर वैदिक मन्त्रोंद्वारा उनका स्तवन करते हैं । वैसे ही अन्य जो सभी ऋषि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता हैं-उनमेंसे एक-एक करके ये सातों दो-दो मिलकर प्रत्येक महीने परमेश्वर सूर्यकी उपासना करते हैं । ४१-४३ ॥
इस प्रकार वे विश्वव्यापी देवदेवेश्वर भगवान् सूर्य प्रतिक्षण दो हजार दो योजनकी दूरी चलते हुए नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन मार्गवाले भूमण्डलकी निरन्तर परिक्रमा करते रहते हैं ॥ ४४-४५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने सूर्यगतिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने सूर्यगतिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥