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अतलवितलसुतललोकवर्णनम् -
अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन -
श्रीनारायण उवाच प्रथमे विवरे विप्र अतलाख्ये मनोरमे । मयपुत्रो बलो नाम वर्ततेऽखर्वगर्वकृत् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे विप्र ! अतल नामसे विख्यात पहले परम सुन्दर विवरमें मय दानवका पुत्र 'बल' नामक अति अभिमानी दैत्य रहता है ॥ १ ॥
षण्णवत्यो येन सृष्टा मायाः सर्वार्थसाधिकाः । मायाविनो याश्च सद्यो धारयन्ति च काश्चन ॥ २ ॥ जृम्भमाणस्य यस्यैव बलस्य बलशालिनः । स्त्रीगणा उपपद्यन्ते त्रयोलोकविमोहनाः ॥ ३ ॥ पुंश्चल्यश्चैव स्वैरिण्यः कामिन्यश्चेति विश्रुताः । या वै बिलायनं प्रेष्ठं प्रविष्टं पुरुषं रहः ॥ ४ ॥ रसेन हाटकाख्येन साधयित्वा प्रयत्नतः । स्वविलासावलोकानुरागस्मितविगूहनैः ॥ ५ ॥
जिसने सभी प्रकारकी कामनाओंकी सिद्धि करानेवाली छियानवे प्रकारकी मायाएँ रची हैं, जिनमेंसे कुछ मायाओंको मायावी लोग शीघ्र ही धारण कर लेते हैं तथा जिस बलवान् दैत्य बलके जम्हाई लेते ही तीनों लोकोंके लोगोंको मोहित कर देनेवाली बहुत-सी स्त्रियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । वे पुंश्चली, स्वैरिणी और कामिनीइन नामोंसे प्रसिद्ध हैं, जो अपने प्रिय पुरुषको बिलरूप भवनमें एकान्तमें ले जाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक हाटक नामक रस पिलाकर शक्तिसम्पन्न बना देती हैं । तत्पश्चात् वे स्त्रियाँ अपने हाव-भाव, कटाक्ष, प्रेमपूर्ण व्यवहार, मुसकान, आलिंगन, मधुर वार्तालाप, प्रणयभाव आदिसे उन्हें आकर्षित करके उनके साथ रमण करती हैं ॥ २-५ ॥
उस हाटक-रसका पान कर लेनेपर मनुष्य स्वयंको बहुत बड़ा मानने लगता है और अपनेको दस हजार हाथियोंके समान महान् बलवान् मानता हुआ मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ-मदान्धकी भाँति ऐसा बढ़चढ़कर बोलने लगता है ॥ ६-७ ॥
एवं प्रोक्ता स्थितिश्चात्र अतलस्य च नारद । द्वितीयविवरस्यात्र वितलस्य निबोधत ॥ ८ ॥
हे नारद ! इस प्रकार मैंने अतललोककी स्थितिका वर्णन कर दिया । अब आप वितल नामक द्वितीय विवरके विषयमें सुनिये ॥ ८ ॥
भूतलाधस्तले चैव वितले भगवान्भवः । हाटकेश्वरनामायं स्वपार्षदगणैर्वृतः ॥ ९ ॥ प्रजापतिकृतस्यापि सर्गस्य बृंहणाय च । भवान्या मिथुनीभूय आस्ते देवाधिपूजितः ॥ १० ॥
भूतलके नीचे वितल नामक विवरमें हाटकेश्वर नामसे प्रसिद्ध ये भगवान् शिव अपने पार्षदगणोंसे निरन्तर घिरे रहते हैं । देवताओंसे सुपूजित ये भगवान् शिव ब्रह्माकी रची गयी सृष्टिके विस्तारके लिये भवानीके साथ रमण करते हुए यहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ९-१० ॥
भवयोर्वीर्यसम्भूता हाटकी सरिदुत्तमा । समिद्धो मरुता वह्निरोजसा पिबतीव हि ॥ ११ ॥ तन्निष्ठ्यूतं हाटकाख्यं सुवर्णं दैत्यवल्लभम् । दैत्याङ्गना भूषणार्हं सदा तं धारयन्ति हि ॥ १२ ॥
वहाँ भगवान् शंकर और पार्वतीके तेजसे हाटकी नामक श्रेष्ठ नदी प्रादुर्भूत है । वायुसे प्रज्वलित अग्निदेव महान् ओजपूर्वक उसका जल पीते रहते हैं । उस समय उनके द्वारा निष्ठयूत (त्यक्त थूक) दैत्योंके लिये अत्यन्त प्रिय हाटक नामक सुवर्ण बन जाता है । दैत्योंकी स्त्रियाँ आभूषण-योग्य उस सुवर्णको सदा धारण किये रहती हैं ॥ ११-१२ ॥
तद्बिलाधस्तलात्प्रोक्तं सुतलाख्यं बिलेश्वरम् । पुण्यश्लोको बलिर्नामा आस्ते वैरोचनिर्मुने ॥ १३ ॥ महेन्द्रस्य च देवस्य चिकीर्षुः प्रियमुत्तमम् । त्रिविक्रमोऽपि भगवान् सुतले बलिमानयत् ॥ १४ ॥ त्रैलोक्यलक्ष्मीमाक्षिप्य स्थापितः किल दैत्यराट् । इन्द्रादिष्वप्यलब्धा या सा श्रीस्तमनुवर्तते ॥ १५ ॥
हे मुने ! उस वितलके नीचे सुतल नामक विवर कहा गया है, जो सभी बिलोंमें श्रेष्ठ है । यहाँ विरोचनके पवित्र कीर्तिवाले बलि नामक पुत्र रहते हैं । देवराज इन्द्रका परम प्रिय कार्य करनेकी इच्छासे वामनरूप त्रिविक्रम भगवान् विष्णु बलिको इस सुतलमें लाये और उन्होंने तीनों लोकोंकी लक्ष्मी सन्निविष्ट करके दानवराज बलिको यहाँ स्थापित किया । इन्द्र आदि देवताओंके पास भी जो लक्ष्मी नहीं है, वह उस बलिके पीछे-पीछे चलती है ॥ १३-१५ ॥
तमेव देवदेवेशमाराधयति भक्तितः । व्यपेतसाध्वसोऽद्यापि वर्तते सुतलाधिपः ॥ १६ ॥
बलि उन्हीं देवदेवेश्वर श्रीहरिकी भक्तिपूर्वक आराधना करते हैं । वे सुतलके अधिपतिके रूपमें आज भी वहाँ निर्भय होकर रहते हैं ॥ १६ ॥
भूमिदानफलं ह्येतत्पात्रभूतेऽखिलेश्वरे । वर्णयन्ति महात्मानो नैतद्युक्तं च नारद ॥ १७ ॥ वासुदेवे भगवति पुरुषार्थप्रदे हरौ । एतद्दानफलं विप्र सर्वथा नहि युज्यते ॥ १८ ॥ यस्यैव देवदेवस्य नामापि विवशो गृणन् । स्वकीयकर्मबन्धीयगुणान्विधुनुतेऽञ्जसा ॥ १९ ॥ यत्क्लेशबन्धहानाय सांख्ययोगादिसाधनम् । कुर्वते यतयो नित्यं भगवत्यखिलेश्वरे ॥ २० ॥ न चायं भगवानस्माननुजग्राह नारद । मायामयं च भोगानामैश्वर्यं व्यतनोत्परम् ॥ २१ ॥ सर्वक्लेशाधिहेतुं तदात्मानुस्मृतिमोषणम् ।
बलिके लिये यह सुतललोककी प्राप्ति अखिल जगत्के स्वामी तथा दानपात्रभूत भगवान् विष्णुको दिये गये भूमिदानका ही फल है-ऐसा महात्मालोग कहते हैं, किंतु हे नारद ! यह समीचीन नहीं है । हे विप्र ! चारों पुरुषार्थोको देनेवाले वासुदेव भगवान् श्रीहरिको दिये गये दानका इसे फल समझना किसी भी तरहसे उचित नहीं है । क्योंकि कोई विवश होकर भी उन देवाधिदेवके नामका उच्चारण करके अपने कर्मबन्धनरूपी पाशको शीघ्र ही काट देता है । योगीलोग उस क्लेशरूपी बन्धनको काटनेके लिये अखिल जगत्के स्वामीमें भक्ति रखते हुए सांख्ययोग आदिका साधन करते हैं । हे नारद ! इन भगवान्ने हम देवताओंपर कोई अनुग्रह नहीं किया है, जो कि उन्होंने भोगोंका परम मायामय ऐश्वर्य इन्द्रको देनेके लिये यह प्रयत्न किया था, क्योंकि यह ऐश्वर्य तो सभी कष्टोंका मूल कारण है और परमात्माकी स्मृतिको मिटानेवाला है ॥ १७-२१.५ ॥
यं साक्षाद्भगवान् विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः ॥ २२ ॥ याञ्जाछलेनापहृतं सर्वस्वं देहशेषकम् । अप्राप्तान्योपाय ईशः पाशैर्वारुणसंभवैः ॥ २३ ॥ बन्धयित्वावमुच्यापि गिरिदर्यामिवाब्रवीत् । असाविन्द्रो महामूढो यस्य मन्त्री बृहस्पतिः ॥ २४ ॥ प्रसन्नमिममत्यर्थमयाचल्लोकसम्पदम् । त्रैलोक्यमिदमैश्वर्यं कियदेवातितुच्छकम् ॥ २५ ॥
जिस समय समस्त उपायोंका सहज ज्ञान रखनेवाले साक्षात् विष्णुने कोई अन्य उपाय न देखकर याचनाके छलसे उस बलिका सर्वस्व छीन लिया और उसके पास केवल शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुणके पाशोंमें बाँधकर पर्वतकी गुफामें छोड़ दिये जानेपर उसने कहा था जिसके मन्त्री बृहस्पति हों, वे इन्द्र इतने महान् मूर्ख हैं ! जो कि उन्होंने परम प्रसन्न श्रीहरिसे सांसारिक सम्पत्तिकी याचना की । त्रिलोकीका यह ऐश्वर्य भला कितना नगण्य है । जो भगवान्के आशीर्वादोंका वैभव छोड़कर लोकसम्पत्तिकी कामना करता है, वह मूर्ख है ॥ २२-२५ ॥
आशिषां प्रभवं मुक्त्वा यो मूढो लोकसम्पदि । अस्मत्पितामहः श्रीमान् प्रह्लादो भगवत्प्रियः ॥ २६ ॥ दास्यं वव्रे विभोस्तस्य सर्वलोकोपकारकः । पित्र्यमैश्वर्यमतुलं दीयमानं च विष्णुना ॥ २७ ॥ पितर्युपरते वीरे नैवैच्छद्भगवत्प्रियः । तस्यातुलानुभावस्य सर्वलोकोपधीमतः ॥ २८ ॥
सम्पूर्ण लोकका उपकार करनेवाले तथा भगवत्प्रिय मेरे पितामह श्रीमान् प्रह्लादने उन प्रभुसे दास्यभावकी याचना की थी । उनके पराक्रमी पिता हिरण्यकशिपुकी मृत्युके पश्चात् भगवान् विष्णुके द्वारा दी जानेवाली अतुलनीय पितृसम्पदाको ग्रहण करनेकी थोड़ी भी इच्छा उन भगवत्प्रिय प्रह्लादने नहीं की थी ॥ २६–२८ ॥
अस्मद्विधो नाल्पपक्वेतरदोषोऽवगच्छति । एवं दैत्यपतिः सोऽयं बलिः परमपूजितः ॥ २९ ॥ सुतले वर्तते यस्य द्वारपालो हरिः स्वयम् । एकदा दिग्विजये राजा रावणो लोकरावणः ॥ ३० ॥ प्रविशन्सुतले येन भक्तानुग्रहकारिणा । पादाङ्गुष्ठेन प्रक्षिप्तो योजनायुतमत्र हि ॥ ३१ ॥
अतुलनीय अनुभाववाले तथा सम्पूर्ण लोकोंके उपकारकी बुद्धिवाले उन प्रह्लादका प्रभाव मुझ-जैसा दोषोंका आगार पुरुष भला कैसे जान सकता है । इस प्रकारके विचारोंवाले परमपूज्य दानवराज बलि थे, जिनके द्वारपालके रूपमें स्वयं श्रीहरि सुतलमें विराजमान रहते हैं । एक समयकी बात है, जगत्को रुलानेवाला रावण दिग्विजयके उद्देश्यसे सुतललोकमें प्रवेश कर रहा था, इतने में भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन श्रीहरिके पैरके अँगूठेकी ठोकरसे वह दस हजार योजन दूर जा गिरा था ॥ २९-३१ ॥