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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
विंशोऽध्यायः

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तलातलादिलोकवर्णनेऽनन्तवर्णनम् -
तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
ततोऽधस्ताद्विवरकं तलातलमुदीरितम् ।
दानवेन्द्रो मयो नाम त्रिपुराधिपतिर्महान् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-उस सुतलके नीचेके विवरको 'तलातल' कहा गया है । वहाँ त्रिपुराधिपति मय नामक महान् दानव रहता है ॥ १ ॥

त्रिलोक्याः शङ्करेणायं पालितो दग्धपूस्त्रयः ।
देवदेवप्रसादात्तु लब्धराज्यसुखास्पदः ॥ २ ॥
त्रिलोकीकी रक्षाके लिये भगवान् शंकरने उसकी तीनों पुरियाँ भस्म करके उसके यहाँ रहनेकी व्यवस्था कर दी । उसे देवाधिदेव शिवकी कृपासे यहाँ सुखदायक राज्य प्राप्त हो गया है ॥ २ ॥

आचार्यो मायिनां सोऽयं नानामायाविशारदः ।
पूज्यते राक्षसैर्घोरैः सर्वकार्यसमृद्धये ॥ ३ ॥
अपने समस्त कार्योक अभ्युदयके लिये बड़े-बड़े भयानक राक्षसगण अनेक प्रकारको माया रचनेमें परम प्रवीण उस मायावियोंके भी गुरु मयकी पूजा करते हैं ॥ ३ ॥

ततोऽधस्तास्तुविख्यातं महातलमिति स्फुटम् ।
सर्पाणां काद्रवेयाणां गणः क्रोधवशो महान् ॥ ४ ॥
अनेकशिरसां विप्र प्रधानान्कीर्तयामि ते ।
कुहकस्तक्षकश्चैव सुषेणः कालियस्तथा ॥ ५ ॥
महाभोगा महासत्त्वाः क्रूराः क्रूरस्वजातयः ।
पतत्रिराजाधिपतेरुद्विग्नाः सर्व एव ते ॥ ६ ॥
स्वकलत्रापत्यसुहृत्कुटुम्बस्य च सङ्गताः ।
प्रमत्ता विहरन्त्येव नानाक्रीडाविशारदाः ॥ ७ ॥
उस तलातलके नीचे अति प्रसिद्ध 'महातल' नामक विस्तृत विवर है । उसमें कद्रूसे उत्पन्न हुए अनेक सिरोंवाले क्रोधी सोका एक बहुत बड़ा समूह रहता है । हे विप्र ! उनमें प्रधान सोके नाम आपको बताता हूँ-कुहक, तक्षक, सुषेण और कालिय । ये विशाल फनवाले, महान् शक्तिसे सम्पन्न तथा अत्यन्त भयानक होते हैं । इनकी जाति ही बड़ी क्रूर होती है । वे सभी केवल पक्षिराज गरुडसे ही आतंकित रहते हैं । अनेक प्रकारकी क्रीडा करने में परम दक्ष ये सर्प अपनी स्त्रियों, सन्तानों, सुहदों तथा परिवारजनोंके साथ प्रमत्त होकर वहाँ विहार करते रहते हैं ॥ ४-७ ॥

ततोऽधस्ताच्च विवरे रसातलसमाह्वये ।
दैतेया निवसन्त्येव पणयो दानवाश्च ये ॥ ८ ॥
निवातकवचा नाम हिरण्यपुरवासिनः ।
कालेया इति च प्रोक्ताः प्रत्यनीका हविर्भुजाम् ॥ ९ ॥
उसके भी नीचे 'रसातल' नामवाले विवरमें 'पणि' नामके दैत्य और दानव रहते हैं, जो निवातकवच, हिरण्यपुरवासी और कालेय कहे गये हैं । देवताओंसे इनकी शत्रुता रहती है ॥ ८-९ ॥

महौजसश्चोत्पत्त्यैव महासाहसिनस्तथा ।
सकलेशस्य च हरेस्तेजसा हतविक्रमाः ॥ १० ॥
बिलेशया इव सदा विवरे निवसन्ति हि ।
ये वै वाग्भिः सरमया शक्रदूत्या निरन्तरम् ॥ ११ ॥
मन्त्रवर्णाभिरसुरास्ताडिता बिभ्यति स्म ह ।
वे जन्मसे ही महान् पराक्रमी तथा साहसी होते हैं, किंतु अखिल जगत्के स्वामी भगवान् श्रीहरिके तेजसे कुण्ठित पराक्रमवाले होकर वे सोकी भाँति छिपकर सदा उस विवरमें पड़े रहते हैं । इन्द्रकी दूती सरमाके मन्त्र-वर्णरूप* वाक्योंके प्रभावसे असुर कष्ट पा चुके हैं-इसी बातका स्मरण करके वे हमेशा भयभीत रहते हैं ॥ १०-११.५ ॥

ततोऽप्यधस्तात्पाताले नागलोकाधिपालकाः ॥ १२ ॥
वासुकिप्रमुखाः शङ्खः कुलिकः श्वेत एव च ।
धनञ्जयो महाशङ्खो धृतराष्ट्रस्तथैव च ॥ १३ ॥
शङ्खचूडः कम्बलाश्वतरो देवोपदत्तकः ।
महामर्षा महाभोगा निवसन्ति विषोल्बणाः ॥ १४ ॥
इससे भी नीचे स्थित 'पाताललोक में मुख्यरूपसे वासुकि, शंख, कुलिक, श्वेत, धनंजय, महाशंख, धृतराष्ट्र, शंखचूड, कम्बल, अश्वतर और देवोपदत्तक आदि महान् क्रोधी, बड़े-बड़े फोंवाले तथा महान् विषधर सर्प निवास करते हैं; वे सब नागलोकके अधिपालक हैं ॥ १२-१४ ॥

पञ्चमस्तकवन्तश्च फणासप्तकभूषिताः ।
केचिद्दशफणाः केचिच्छतशीर्षास्तथापरे ॥ १५ ॥
सहस्रशिरसः केऽपि रोचिष्णुमणिधारकाः ।
पातालरन्ध्रतिमिरनिकरं स्वमरीचिभिः ॥ १६ ॥
उनमें कोई सर्प पाँच फनोंवाले, कोई सात फनोंवाले और कोई दस फनोंवाले हैं । कुछ सर्पोक सौ सिर तथा कुछके हजार सिर हैं । हे देवर्षे ! जगमगाती हुई मणियाँ धारण करनेवाले वे क्रोधयुक्त सर्प अपनी मणियोंके तेजसे पाताल-विवरके घोर अन्धकार-समूहको नष्ट कर देते हैं ॥ १५-१६ ॥

विधमन्ति च देवर्षे सदा सञ्जातमन्यवः ।
अस्य मूलप्रदेशे हि त्रिंशत्साहस्रकेऽन्तरे ॥ १७ ॥
योजनैः परिसंख्याते तामसी भगवत्कला ।
अनन्ताख्या समास्ते हि सर्वदेवप्रपूजिता ॥ १८ ॥
इस पाताललोकके नीचे तीस हजार योजनकी दूरीपर भगवान् श्रीहरिकी एक तामसी कला विराजमान है । सम्पूर्ण देवताओंसे सम्यक् पूजित इस कलाका नाम अनन्त है ॥ १७-१८ ॥

अहमित्यभिमानस्य लक्षणं यं प्रचक्षते ।
सङ्कर्षणं सात्वतीयाः कर्षणं द्रष्ट्टदृश्ययोः ॥ १९ ॥
अहंरूप अभिमानका लक्षण होनेके कारण यह द्रष्टा तथा दृश्यका कर्षण करके एक कर देती है, इसीलिये पांचरात्र आगमके अनुयायी इसे संकर्षण कहते हैं ॥ १९ ॥

इदं भूमण्डलं यस्य सहस्रशिरसः प्रभोः ।
अनन्तमूर्तेः शेषस्य ध्रियमाणं च शीर्षके ॥ २० ॥
हजार सिरोंवाले इन अनन्तमूर्ति भगवान् शेषके एक सिरपर रखा हुआ यह गोलाकार समग्र भूमण्डल सरसोंके दानेकी भाँति दिखायी पड़ता है ॥ २० ॥

पृध्वीगोलमशेषं हि सिद्धार्थ इव लक्ष्यते ।
यस्य कालेन देवस्य सञ्जिहीर्षोः समं विभोः ॥ २१ ॥
चराचरं भ्रुवोरन्तर्विवरादुदपद्यत ।
साङ्कर्षणो नाम रुद्रो व्यूहैकादशशोभितः ॥ २२ ॥
समय आनेपर जब ये भगवान् अनन्त चराचर जगत्के संहारकी इच्छा करते हैं, तब इनकी भौंहोंके विवरसे ग्यारह रुद्रोंसे सुशोभित विग्रहवाले सांकर्षण नामक रुद्र प्रकट हो जाते हैं ॥ २१-२२ ॥

त्रिलोचनश्च त्रिशिखं शूलमुत्तम्भयन्स्वयम् ।
उदतिष्ठन्महासत्त्वो महाभूतक्षयङ्करः ॥ २३ ॥
ये रुद्र तीन नेत्रोंसे शोभा पाते हैं, ये स्वयं तीन नोकोंवाला त्रिशूल लेकर खड़े हो जाते हैं । असीम शक्तिसे सम्पन्न ये रुद्र अखिल प्राणिजगत्का संहार करनेवाले हैं ॥ २३ ॥

यस्याङ्‌घ्रिकमलद्वन्द्वशोणाच्छनखमण्डले ।
विराजन्मणिबिम्बेषु महाहिपतयोऽनिशम् ॥ २४ ॥
एकान्तभक्तियोगेन सह सात्त्वतपुङ्गवैः ।
प्रणमन्तः स्वमूर्ध्ना ते स्वमुखानि समीक्षते ॥ २५ ॥
स्फुरत्कुण्डलमाणिक्यप्रभामण्डलभाञ्ज्यपि ।
सुकपोलानि चारूणि गण्डस्थलद्युमन्ति च ॥ २६ ॥
उन भगवान् शेषनागके दोनों चरणकमलोंके नख स्वच्छ तथा लाल मणियोंके समान देदीप्यमान हैं । जब बड़े-बड़े नागराज एकान्तभक्तिसे युक्त होकर प्रधान भक्तोंके साथ भगवान् शेषके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं, तब उन्हें माणिक्यजटित कुंडलकी प्रभासे प्रकाशित अपने मुख, सुन्दर कपोल तथा गण्डस्थल उनके मणिसदृश नखोंमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं ॥ २४-२६ ॥

नागराजकुमार्योऽपि चार्वङ्गविलसत्त्विषः ।
विशदैर्विपुलैस्तद्वद्धवलैः सुभगैस्तथा ॥ २७ ॥
रुचिरैर्भुजदण्डैश्च शोभमाना इतस्ततः ।
चन्दनागुरुकाश्मीरपङ्कलेपेन भूषिताः ॥ २८ ॥
वहाँ नागराजोंकी सुन्दर तथा कान्तियुक्त अंगोंवाली कमारियाँ भी रहती हैं । लम्बी, विशाल, स्वच्छ, सुन्दर तथा मनोहर भुजाओंसे सुशोभित वे कुमारियाँ इधरउधर घूमा करती हैं । वे अपने अंगोंमें चन्दन, अगुरु और कस्तूरीका लेपन किये रहती हैं ॥ २७-२८ ॥

तदभिमर्षसञ्जातकामावेशसमायुताः ।
ललितस्मितसंयुक्ताः सव्रीडं लोकयन्ति च ॥ २९ ॥
अनुरागमदोन्मत्तविघूर्णारुणलोचनम् ।
करुणावलोकनेत्रं च आशासानास्तथाशिषः ॥ ३० ॥
उन भगवान् संकर्षणके स्पर्शजन्य कामावेशसे समन्वित तथा मधुर मुस्कानसे युक्त होकर उन अनुरागमदसे उन्मत्त विघृणित रक्त नेत्रोंवाले तथा करुणापूर्ण दृष्टिवाले भगवान्को वे नागकन्याएँ आशीर्वादकी आशासे लज्जापूर्वक निहारती रहती हैं ॥ २९-३० ॥

सोऽनन्तो भगवान्देवोऽनन्तसत्त्वो महाशयः ।
अनन्तगुणवार्धिश्च आदिदेवो महाद्युतिः ॥ ३१ ॥
संहृतामर्षरोषादिवेगो लोकशुभाय च ।
आस्ते महासत्त्वनिधिः सर्वदेवप्रपूजितः ॥ ३२ ॥
ध्यायमानः सुरैः सिद्धैरसुरैश्चोरगैस्तथा ।
विद्याधरैश्च गन्धर्वैर्मुनिसङ्घैश्च नित्यशः ॥ ३३ ॥
अनन्त पराक्रमवाले, अत्यन्त उदार हदयवाले, अनन्त गुणोंके सागर, महान् तेजस्वी, क्रोध-रोष आदिके वेगोंको रोकनेवाले, असीम शक्तिके आगारस्वरूप वे आदिदेव भगवान् अनन्त सभी देवताओंसे प्रपूजित होकर सिद्धों, देवताओं, असुरों, नागों, विद्याधरों, गन्धवों और मुनिगणोंके द्वारा निरन्तर ध्यान किये जाते हुए लोकोंके कल्याणार्थ वहाँ विराजमान रहते हैं । ३१-३३ ॥

अनारतमदोन्मत्तलोकविह्वललोचनः ।
वाक्यामृतेन विबुधान्स्वपार्षदगणानपि ॥ ३४ ॥
आप्यायमानः स विभुर्वेजयन्तीं स्रजं दधत् ।
अम्लानाभिनवैः स्वच्छैस्तुलसीदलसञ्चयैः ॥ ३५ ॥
माद्यन्मधुकरव्रातघोषश्रीसंयुतां सदा ।
नीलवासा देवदेव एककुण्डलभूषितः ॥ ३६ ॥
हलस्य ककुदि न्यस्तसुपीवरभुजोऽव्ययः ।
महेन्द्रः काञ्चनीं यद्वद्वरत्रां च मतङ्गमः ।
उदारलीलो देवेशो वर्णितः सात्त्वतर्षभैः ॥ ३७ ॥
निरन्तर प्रेमके मदसे मुग्ध एवं विहल नेत्रोंवाले वे भगवान् अपनी अमृतमयी वाणीसे सभी देवताओं तथा अपने पार्षदगणोंको भी सन्तुष्ट किये रहते हैं । वे कभी भी न मुरझानेवाले निर्मल और नवीन तुलसीदलोंसे सुशोभित वैजयन्तीकी माला धारण किये रहते हैं । वह माला मतवाले भौंरोंके समूहोंकी मधुर गुंजारसे सदा सुशोभित रहती है । वे देवदेव भगवान् शेष नीले रंगका वस्त्र धारण करते हैं और उनके कानमें केवल एक कुंडल सुशोभित रहता है । वे अविनाशी भगवान् अपनी विशाल भुजा हलकी मूठपर रखे रहते हैं । सुवर्णमयी पृथ्वीको अपने सिरपर धारण किये हुए भगवान् शेष पीठपर हौदा रखे किसी मतवाले हाथीकी भाँति सुशोभित होते हैं । इस प्रकार श्रेष्ठ भगवद्‌भक्तोंने उदार लीलाओंवाले भगवान् शेषका वर्णन किया है । ३४-३७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे
तलातलादिलोकवर्णनेऽनन्तवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामष्टमस्कन्धे तलातलादिलोकवर्णनेऽनन्तवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥


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