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प्रकृतिचरित्रवर्णनम् -
प्रकृतितत्त्वविमर्श; प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन -
श्रीनारायण उवाच गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती । सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-सृष्टिविधानमें मूलप्रकृति पाँच प्रकारकी कही गयी है-गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री ॥ १ ॥
नारद उवाच आविर्बभूव सा केन का वा सा ज्ञानिनांवर । किं वा तल्लक्षणं साधो बभूव पञ्चधा कथम् ॥ २ ॥ सर्वासां चरितं पूजाविधानं गुण ईप्सितः । अवतारः कुत्र कस्यास्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ ! आप कृपापूर्वक बतायें कि किस निमित्त उनका आविर्भाव होता है, उनका स्वरूप क्या है, उनका लक्षण क्या है तथा वे किस प्रकार पाँच रूपोंमें प्रकट हुई । हे साधो ! इन सभी स्वरूपोंका चरित्र, पूजाविधान, अभीष्ट गुण तथा किसका अवतार कहाँ हुआ-यह सब विस्तारपूर्वक मुझे बतायें ॥ २-३ ॥
श्रीनारायण उवाच प्रकृतेर्लक्षणं वत्स को वा वक्तुं क्षमो भवेत् । किञ्चित्तथापि वक्ष्यामि यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रतः ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे वत्स ! देवी प्रकृतिके सम्पूर्ण लक्षण कौन बता सकता है ? फिर भी धर्मराजके मुखसे मैंने जो सुना है, उसे यत्किंचित् रूपसे बताता हूँ ॥ ४ ॥
प्रकृष्टवाचकः प्रश्न कृतिश्च सृष्टिवाचकः । सृष्टौ प्रकृष्टा या देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता ॥ ५ ॥ गुणे सत्त्वे प्रकृष्टे च प्रशब्दो वर्तते श्रुतः । मध्यमे रजसि कृश्च तिशब्दस्तमसि स्मृतः ॥ ६ ॥ त्रिगुणात्मस्वरूपा या सा च शक्तिसमन्विता । प्रधाना सृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेन कथ्यते ॥ ७ ॥
'प्र' अक्षर प्रकृष्टका वाचक है और 'कृति' से सृष्टिका बोध होता है । जो देवी सृष्टिप्रक्रियामें प्रकृष्ट हैं, वे ही प्रकृति कही गयी हैं । 'प्र' शब्द प्रकृष्ट सत्त्वगुण, 'कृ' रजोगुण और 'ति' शब्द तमोगुणका प्रतीक कहा गया है । जो त्रिगुणात्मिका हैं, वे ही सर्वशक्तिसे सम्पन्न होकर प्रधानरूपसे सृष्टिकार्यमें संलग्न रहती हैं, अतः उन्हें 'प्रकृति' या 'प्रधान' कहा जाता है ॥ ५-७ ॥
प्रथमे वर्तते प्रश्न कृतिश्च सृष्टिवाचकः । सृष्टेरादौ च या देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता ॥ ८ ॥
प्रथमका बोधक 'प्र' और सृष्टिवाचक कृति' शब्दके संयोगसे सृष्टिके प्रारम्भमें जो देवी विद्यमान रहती हैं, उन्हें प्रकृति कहा गया है ॥ ८ ॥
सृष्टिके लिये योगमायाका आश्रय लेकर परमात्मा दो रूपोंमें विभक्त हो गये, जिनका दक्षिणार्ध भाग पुरुष और वामा भाग प्रकृति कहा जाता है ॥ ९ ॥
सा च ब्रह्मस्वरूपा च नित्या सा च सनातनी । यथाऽऽत्मा च तथा शक्तिर्यथाग्नौ दाहिका स्थिता ॥ १० ॥
वे ब्रह्मस्वरूपा हैं, नित्या हैं और सनातनी हैं । जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति अभिन्नरूपसे स्थित है, वैसे ही परमात्मा और प्रकृतिरूपा शक्ति भी अभिन्न हैं ॥ १० ॥
अत एव हि योगीन्द्रैः स्त्रीपुम्भेदो न मन्यते । सर्वं ब्रह्ममयं ब्रह्मञ्छश्वत्सदपि नारद ॥ ११ ॥
हे ब्रह्मन् ! हे नारद ! इसीलिये योगीजन परमात्मामें स्त्री और पुरुषभावसे भेद नहीं मानते और सब कुछ ब्रह्ममय है-ऐसा निरन्तर चिन्तन करते हैं ॥ ११ ॥
स्वेच्छामयस्येच्छया च श्रीकृष्णस्य सिसृक्षया । साऽऽविर्बभूव सहसा मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ १२ ॥ तदाज्ञया पञ्चविधा सृष्टिकर्मविभेदिका । अथ भक्तानुरोधाद्वा भक्तानुग्रहविग्रहा ॥ १३ ॥
स्वतन्त्रभाववाले श्रीकृष्णकी इच्छासे वे मूलप्रकृति भगवती सृष्टि करनेकी कामनासे सहसा प्रकट हो गयौं । उनकी आज्ञासे भिन्न-भिन्न कर्मोकी अधिष्ठात्री होकर एवं भक्तोंके अनुरोधसे उनपर अनुग्रह करनेहेतु विग्रह धारण करनेवाली वे पाँच रूपोंमें अवतरित हुई । १२-१३ ॥
गणेशमाता दुर्गा या शिवरूपा शिवप्रिया । नारायणी विष्णुमाया पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी ॥ १४ ॥ ब्रह्मादिदेवैर्मुनिभिर्मनुभिः पूजिता स्तुता । सर्वाधिष्ठातृदेवी सा शर्वरूपा सनातनी ॥ १५ ॥
जो गणेशमाता दुर्गा शिवप्रिया तथा शिवरूपा हैं, वे ही विष्णुमाया नारायणी हैं तथा पूर्णब्रह्म स्वरूपा हैं । ब्रह्मादि देवता, मुनि तथा मनुगण सभी उनकी पूजा-स्तुति करते हैं । वे सबकी अधिष्ठात्रीदेवी हैं, सनातनी हैं तथा शिवस्वरूपा हैं ॥ १४-१५ ॥
धर्मसत्यपुण्यकीर्तिर्यशोमङ्गलदायिनी । सुखमोक्षहर्षदात्री शोकार्तिदुःखनाशिनी ॥ १६ ॥
वे धर्म, सत्य, पुण्य तथा कीर्तिस्वरूपा हैं; वे यश, कल्याण, सुख, प्रसन्नता और मोक्ष भी देती हैं तथा शोक, दुःख और संकटोंका नाश करनेवाली हैं ॥ १६ ॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणा । तेजःस्वरूपा परमा तदधिष्ठातृदेवता ॥ १७ ॥
वे अपनी शरणमें आये हुए दीन और आर्तजनोंकी निरन्तर रक्षा करती हैं । वे ज्योतिस्वरूपा हैं, उनका विग्रह परम तेजस्वी है और वे भगवान् श्रीकृष्णके तेजकी अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ १७ ॥
सर्वशक्तिस्वरूपा च शक्तिरीशस्य सन्ततम् । सिद्धेश्वरी सिद्धिरूपा सिद्धिदा सिद्धिरीश्वरी ॥ १८ ॥ बुद्धिर्निद्रा क्षुत्पिपासा छाया तन्द्रा दया स्मृतिः । जातिः क्षान्तिश्च भ्रान्तिश्च शान्तिः कान्तिश्च चेतना ॥ १९ ॥ तुष्टिः पुष्टिस्तथा लक्ष्मीर्धृतिर्माया तथैव च । सर्वशक्तिस्वरूपा सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ २० ॥
वे सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और महेश्वरकी शाश्वत शक्ति हैं । वे ही साधकोंको सिद्धि देनेवाली, सिद्धिरूपा, सिद्धेश्वरी, सिद्धि तथा ईश्वरी हैं । बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति तथा माया-ये इनके नाम हैं । वे परमात्मा श्रीकृष्णके पास सर्वशक्तिस्वरूपा होकर स्थित रहती हैं ॥ १८-२० ॥
उक्तः श्रुतौ श्रुतगुणश्चातिस्वल्पो यथागमम् । गुणोऽस्त्यनन्तोऽनन्ताया अपरां च निशामय ॥ २१ ॥
श्रुतियोंमें इनके प्रसिद्ध गुणोंका थोड़ेमें वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमोंमें भी वर्णन उपलब्ध है । उन अनन्ताके अनन्त गुण हैं । अब दूसरे स्वरूपके विषयमें सुनिये ॥ २१ ॥
शुद्धसत्त्वस्वरूपा या पद्मा सा परमात्मनः । सर्वसम्पत्स्वरूपा सा तदधिष्ठातृदेवता ॥ २२ ॥
जो शुद्ध सत्त्वरूपा महालक्ष्मी हैं, वे भी परमात्माकी ही शक्ति हैं, वे सर्वसम्पत्स्वरूपिणी तथा सम्पत्तियोंकी अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ २२ ॥
कान्तातिदान्ता शान्ता च सुशीला सर्वमङ्गला । लोभमोहकामरोषमदाहङ्कारवर्जिता ॥ २३ ॥
वे शोभामयी, अति संयमी, शान्त, सुशील, सर्वमंगलरूपा हैं और लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, अहंकारादिसे रहित हैं ॥ २३ ॥
भक्तानुरक्ता पत्युश्च सर्वाभ्यश्च पतिव्रता । प्राणतुल्या भगवतः प्रेमपात्रं प्रियंवदा ॥ २४ ॥ सर्वसस्यात्मिका देवी जीवनोपायरूपिणी । महालक्ष्मीश्च वैकुण्ठे पतिसेवारता सती ॥ २५ ॥
भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाली, अपने स्वामीके लिये सबसे अधिक पतिव्रता, प्रभुके लिये प्राणतुल्य, उनकी प्रेमपात्र तथा प्रियवादिनी, सभी धन-धान्यकी अधिष्ठात्री तथा आजीविकास्वरूपिणी वे देवी सती महालक्ष्मी वैकुण्ठमें अपने स्वामी भगवान् विष्णुकी सेवामें तत्पर रहती हैं ॥ २४-२५ ॥
स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मीश्च राजसु । गृहेषु गृहलक्ष्मीश्च मर्त्यानां गृहिणां तथा ॥ २६ ॥ सर्वप्राणिषु द्रव्येषु शोभारूपा मनोहरा । कीर्तिरूपा पुण्यवतां प्रभारूपा नृपेषु च ॥ २७ ॥ वाणिज्यरूपा वणिजां पापिनां कलहाङ्कुरा । दयारूपा च कथिता वेदोक्ता सर्वसम्मता ॥ २८ ॥ सर्वपूज्या सर्ववन्द्या चान्यां मत्तो निशामय ।
वे स्वर्गमें स्वर्गलक्ष्मी, राजाओंमें राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्योंके घरमें गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थोंमें शोभारूपसे विराजमान रहती हैं । वे मनोहर हैं । वे पुण्यवान् लोगोंमें कीर्तिरूपसे, राजपुरुषोंमें प्रभारूपसे, व्यापारियोंमें वाणिज्यरूपसे तथा पापियोंमें कलहरूपसे विराजती हैं । वे दयारूपा कही गयी हैं, वेदोंमें उनका निरूपण हुआ है, वे सर्वमान्य, सर्वपूज्य तथा सबके लिये वन्दनीय हैं । अब आप अन्य स्वरूपके विषयमें मुझसे सुनिये ॥ २६-२८.५ ॥
वाग्बुद्धिविद्याज्ञानाधिष्ठात्री च परमात्मनः ॥ २९ ॥ सर्वविद्यास्वरूपा या सा च देवी सरस्वती । सा बुद्धिः कविता मेधा प्रतिभा स्मृतिदा नृणाम् ॥ ३० ॥ नानाप्रकारसिद्धान्तभेदार्थकलना मता । व्याख्याबोधस्वरूपा च सर्वसन्देहभञ्जिनी ॥ ३१ ॥ विचारकारिणी ग्रन्थकारिणी शक्तिरूपिणी । स्वरसङ्गीतसन्धानतालकारणरूपिणी ॥ ३२ ॥ विषयज्ञानवाग्रूपा प्रतिविश्वोपजीविनी । व्याख्यावादकरी शान्ता वीणापुस्तकधारिणी ॥ ३३ ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा च सुशीला श्रीहरिप्रिया । हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसन्निभा ॥ ३४ ॥ यजन्ती परमात्मानं श्रीकृष्णं रत्नमालया । तपःस्वरूपा तपसां फलदात्री तपस्विनाम् ॥ ३५ ॥ सिद्धिविद्यास्वरूपा च सर्वसिद्धिप्रदा सदा । यया विना तु विप्रौघो मूको मृतसमः सदा ॥ ३६ ॥ देवी तृतीया गदिता श्रुत्युक्ता जगदम्बिका । यथागमं यथाकिञ्चिदपरां त्वं निबोध मे ॥ ३७ ॥
जो परमात्माकी वाणी, बुद्धि, विद्या तथा ज्ञानकी अधिष्ठात्री हैं; सभी विद्याओंकी विग्रहरूपा हैं, वे देवी सरस्वती हैं । वे मनुष्योंको बुद्धि, कवित्व शक्ति, मेधा, प्रतिभा और स्मृति प्रदान करती हैं । वे भिन्नभिन्न सिद्धान्तोंके भेद-निरूपणका सामर्थ्य रखनेवाली, व्याख्या और बोधरूपिणी तथा सारे सन्देहोंका नाश करनेवाली कही गयी हैं । वे विचारकारिणी, ग्रन्थकारिणी, शक्तिरूपिणी तथा स्वर-संगीत-सन्धान तथा तालकी कारणरूपा हैं । वे ही विषय, ज्ञान तथा वाणीस्वरूपा हैं; सभी प्राणियोंकी संजीवनी शक्ति हैं; वे व्याख्या और वाद-विवाद करनेवाली हैं; शान्तिस्वरूपा हैं तथा वीणा और पुस्तक धारण करनेवाली हैं । वे शुद्ध सत्त्वगुणमयी, सुशील तथा श्रीहरिकी प्रिया हैं । उनकी कान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और श्वेत कमलके समान है । रत्नमाला लेकर परमात्मा श्रीकृष्णका जप करती हुई वे साक्षात् तप:स्वरूपा हैं तथा तपस्वियोंको उनकी तपस्याका फल प्रदान करनेवाली हैं । वे सिद्धिविद्यास्वरूपा और सदा सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली हैं । जिनकी कृपाके बिना विप्रसमूह सदा मूक और मृततुल्य रहता है, उन श्रुतिप्रतिपादित तथा आगममें वर्णित तृतीया शक्ति जगदम्बिका भगवती सरस्वतीका यत्किंचित् वर्णन मैंने किया । अब अन्य शक्तिके विषयमें आप मुझसे सुनिये ॥ २९-३७ ॥
माता चतुर्णां वर्णानां वेदाङ्गानां च छन्दसाम् । सन्ध्यावन्दनमन्त्राणां तन्त्राणां च विचक्षणा ॥ ३८ ॥ द्विजातिजातिरूपा च जपरूपा तपस्विनी । ब्रह्मण्यतेजोरूपा च सर्वसंस्काररूपिणी ॥ ३९ ॥
वे विचक्षण सावित्री चारों वर्गों, वेदांगों, छन्दों, सन्ध्यावन्दनके मन्त्रों एवं समस्त तन्त्रोंकी जननी हैं । वे द्विजातियोंकी जातिरूपा हैं; जपरूपिणी, तपस्विनी, ब्राह्मणोंकी तेजरूपा और सर्वसंस्काररूपिणी हैं ॥ ३८-३९ ॥
वे ब्रह्मप्रिया सावित्री और गायत्री परम पवित्र रूपसे विराजमान रहती हैं, तीर्थ भी अपनी शुद्धिके लिये जिनके स्पर्शकी इच्छा करते हैं ॥ ४० ॥
शुद्धस्फटिकसंकाशा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी । परमानन्दरूपा च परमा च सनातनी ॥ ४१ ॥ परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाणपददायिनी । ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठातृदेवता ॥ ४२ ॥ यत्पादरजसा पूतं जगत्सर्वं च नारद । देवी चतुर्थी कथिता पञ्चमीं वर्णयामि ते ॥ ४३ ॥
वे शुद्ध स्फटिककी कान्तिवाली, शुद्धसत्त्वगुणमयी, सनातनी, पराशक्ति तथा परमानन्दरूपा हैं । हे नारद ! वे परब्रह्मस्वरूपा, मुक्तिप्रदायिनी, ब्रह्मतेजोमयी, शक्तिस्वरूपा तथा शक्तिकी अधिष्ठातृदेवता भी हैं, जिनके चरणरजसे समस्त संसार पवित्र हो जाता है । इस प्रकार चौथी शक्तिका वर्णन कर दिया । अब पाँचवीं शक्तिके विषयमें आपसे कहता हूँ ॥ ४१-४३ ॥
पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी । प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा ॥ ४४ ॥ सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता । वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसा समा ॥ ४५ ॥ परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी । परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता ॥ ४६ ॥
जो पंच प्राणोंकी अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियोंमें परम सुन्दरी, परमात्माके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्णकी वामांगार्धस्वरूपा और गुणतेजमें परमात्माके समान ही हैं; वे परावरा, सारभूता, परमा, आदिरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी, धन्य, मान्य और पूज्य हैं । ४४-४६ ॥
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः । रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता ॥ ४७ ॥ रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी । गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका ॥ ४८ ॥ परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी । निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी ॥ ४९ ॥
वे परमात्मा श्रीकृष्णके रासक्रीडाकी अधिष्ठातृदेवी हैं, रासमण्डलमें उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डलसे सुशोभित हैं; वे देवी रासेश्वरी, सुरसिका, रासरूपी आवासमें निवास करनेवाली, गोलोकमें निवास करनेवाली, गोपीवेष धारण करनेवाली, परम आहादस्वरूपा, सन्तोष तथा हर्षरूपा, आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं ॥ ४७-४९ ॥
निरीहा निरहङ्कारा भक्तानुग्रहविग्रहा । वेदानुसारिध्यानेन विज्ञाता मा विचक्षणैः ॥ ५० ॥
वे इच्छारहित, अहंकाररहित और भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाली हैं । बुद्धिमान् लोगोंने वेदविहित मार्गसे ध्यान करके उन्हें जाना है ॥ ५० ॥
दृष्टिदृष्टा न सा चेशैः सुरेन्द्रैर्मुनिपुङ्गवैः । वह्निशुद्धांशुकधरा नानालङ्कारभूषिता ॥ ५१ ॥ कोटिचन्द्रप्रभा पुष्टसर्वश्रीयुक्तविग्रहा । श्रीकृष्णभक्तिदास्यैककरा च सर्वसम्पदाम् ॥ ५२ ॥
वे ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनिश्रेष्ठोंके दृष्टिपथमें भी नहीं आती । वे अग्निके समान शुद्ध वस्त्रोंको धारण करनेवाली, विविध अलंकारोंसे विभूषित, कोटिचन्द्रप्रभासे युक्त और पुष्ट तथा समस्त ऐश्वर्योसे समन्वित विग्रहवाली हैं । वे भगवान् श्रीकृष्णकी अद्वितीय दास्यभक्ति तथा सम्पदा प्रदान करनेवाली हैं ॥ ५१-५२ ॥
अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या । यत्पादपद्मसंस्पर्शात्पवित्रा च वसुन्धरा ॥ ५३ ॥ ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वैर्दृष्टा च भारते । स्त्रीरत्नसारसम्भूता कृष्णवक्षःस्थले स्थिता ॥ ५४ ॥ यथाम्बरे नवघने लोला सौदामनी मुने । षष्टिवर्षसहस्राणि प्रतप्तं ब्रह्मणा पुरा ॥ ५५ ॥ यत्पादपद्मनखरदृष्टये चात्मशुद्धये । न च दृष्टं च स्वप्नेऽपि प्रत्यक्षस्यापि का कथा ॥ ५६ ॥ तेनैव तपसा दृष्टा भुवि वृन्दावने वने । कथिता पञ्चमी देवी सा राधा च प्रकीर्तिता ॥ ५७ ॥
वाराहकल्पमें उन्होंने [व्रजमण्डलमें] वृषभानुको पुत्रीके रूपमें जन्म लिया, जिनके चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वी पवित्र हुई । ब्रह्मादि देवोंके द्वारा भी जो अदृष्ट थीं, वे भारतवर्षमें सर्वसाधारणको दृष्टिगत हुईं । हे मुने ! स्त्रीरत्नोंमें सारस्वरूप वे भगवान् श्रीकृष्णके वक्षःस्थलमें उसी प्रकार सुशोभित हैं, जैसे आकाशमण्डलमें नवीन मेघोंके बीच विद्युत्लता सुशोभित होती है । पूर्वकालमें ब्रह्माजीने आत्मशुद्धिहेतु जिनके चरणकमलके नखके दर्शनके लिये साठ हजार वर्षांतक तपस्या की, किंतु स्वप्नमें भी नखज्योतिका दर्शन नहीं हुआ; साक्षात् दर्शनकी तो बात ही क्या ? उन्हीं ब्रह्माने पृथ्वीतलके वृन्दावनमें तपस्याके द्वारा उनका दर्शन किया । मैंने पाँचवीं देवीका वर्णन कर दिया; वे ही राधा कही गयी हैं ॥ ५३-५७ ॥
गंगा गोलोकादि दिव्य लोकोंमें जानेके लिये सुखद सीढ़ीके समान, तीर्थोंको पावन करनेवाली तथा नदियोंमें श्रेष्ठतम हैं । भगवान् शंकरके जटाजूटमें मुक्तामालकी भाँति सुशोभित होनेवाली वे गंगा भारतवर्षमें तपस्वीजनोंकी तपस्याको शीघ्र सफल करती रहती हैं । उनका जल चन्द्रमा, दुग्ध और श्वेत कमलके समान धवल है और वे शुद्ध सत्त्वरूपिणी हैं । वे निर्मल, निरहंकार, साध्वी और नारायणप्रिया हैं ॥ ६२-६४ ॥
प्रधानांशस्वरूपा च तुलसी विष्णुकामिनी । विष्णुभूषणरूपा च विष्णुपादस्थिता सती ॥ ६५ ॥ तपःसंकल्पपूजादिसङ्घसम्पादिनी मुने । सारभूता च पुष्पाणां पवित्रा पुण्यदा सदा ॥ ६६ ॥
विष्णुवल्लभा तुलसी भी भगवतीकी प्रधानांशस्वरूपा हैं । वे सती सदा भगवान् विष्णुके चरणपर विराजती हैं और उनकी आभूषणरूपा हैं । हे मुने ! उनसे तप, संकल्प और पूजादिके सभी सत्कर्माका सम्पादन होता है, वे सभी पुष्योंकी सारभूता हैं तथा सदैव पवित्र एवं पुण्यप्रदा हैं ॥ ६५-६६ ॥
वे अपने दर्शन एवं स्पर्शसे शीघ्र ही मोक्षपद देनेवाली हैं । कलिके पापरूप शुष्क ईंधनको जलानेके लिये वे अग्निस्वरूपा हैं । जिनके चरणकमलके संस्पर्शसे पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है और तीर्थ भी जिनके दर्शन तथा स्पर्शसे स्वयंको पवित्र करनेके लिये कामना करते हैं ॥ ६७-६८ ॥
यया विना च विश्वेषु सर्वकर्म च निष्फलम् । मोक्षदा या मुमुक्षूणां कामिनी सर्वकामदा ॥ ६९ ॥ कल्पवृक्षस्वरूपा या भारते वृक्षरूपिणी । भारतीनां प्रीणनाय जाता या परदेवता ॥ ७० ॥
जिनके बिना सम्पूर्ण जगत्में सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं । जो मुमुक्षुजनोंको मोक्ष देनेवाली हैं, कामिनी हैं और सब प्रकारके भोग प्रदान करनेवाली हैं । कल्पवृक्षस्वरूपा जो परदेवता भारतीयोंको प्रसन्न करनेके लिये भारतवर्षमें वृक्षरूपमें प्रादुर्भूत हुई ॥ ६९-७० ॥
कश्यपकी पुत्री मनसादेवी भी शक्तिके प्रधान अंशसे प्रकट हुई हैं । वे भगवान् शंकरकी प्रिय शिष्या हैं तथा अत्यन्त ज्ञानविशारद हैं । नागराज अनन्तकी बहन, नागोंसे पूजित नागमाता, नागोंपर शासन करनेवाली, सुन्दरी तथा नागवाहिनी हैं । वे बड़े-बड़े नागगणोंसे समन्वित, नागरूपी आभूषणसे भूषित, नागराजोंसे वन्दित, सिद्धा, योगिनी तथा नागोंपर शयन करनेवाली हैं ॥ ७१-७३ ॥
विष्णुरूपा विष्णुभक्ता विष्णुपूजापरायणा । तपःस्वरूपा तपसां फलदात्री तपस्विनी ॥ ७४ ॥ दिव्यं त्रिलक्षवर्षं च तपस्तप्त्वा च या हरेः । तपस्विनीषु पूज्या च तपस्विषु च भारते ॥ ७५ ॥
वे भगवान् विष्णुको परम भक्त हैं, वे विष्णुपूजामें लगी रहती हैं और विष्णरूपा हैं । वे तपरूपिणी हैं, तपस्वियोंको उनके तपका फल प्रदान करती हैं और तपस्विनी हैं । दिव्य तीन लाख वर्षांतक भगवान् श्रीहरिकी तपस्यामें निरत रहकर वे भारतवर्षके तपस्वियों तथा तपस्विनियोंमें पूज्य हुई । ७४-७५ ॥
सभी मन्त्रोंकी अधिष्ठात्री देवी मनसा ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान रहती हैं । ब्रह्मध्यानमें सदा निरत वे परमा ब्रह्मस्वरूपा ही हैं । वे पतिव्रता, श्रीकृष्णके अंशसे प्रकट महामुनि जरत्कारुकी पत्नी और तपस्वियोंमें श्रेष्ठ आस्तीक मुनिकी माता हैं । ७६-७७ ॥
प्रधानांशस्वरूपा या देवसेना च नारद । मातृकासु पूज्यतमा सा षष्ठी च प्रकीर्तिता ॥ ७८ ॥
हे नारद ! भगवतीकी प्रधान अंशस्वरूपा जो मातृकाओंमें पूज्यतम देवसेना हैं, वे ही षष्ठी नामसे कही गयी हैं । ७८ ॥
वे पुत्र-पौत्र आदि प्रदान करनेवाली, तीनों लोकोंकी जननी तथा पतिव्रता हैं । वे मूलप्रकृतिकी षष्ठांशस्वरूपा हैं, इसलिये षष्ठी कही गयी हैं ॥ ७९ ॥
स्थाने शिशूनां परमा वृद्धरूपा च योगिनी । पूजा द्वादशमासेषु यस्या विश्वेषु सन्ततम् ॥ ८० ॥ पूजा च सूतिकागारे पुरा षष्ठदिने शिशोः । एकविंशतिमे चैव पूजा कल्याणहेतुकी ॥ ८१ ॥
शिशुओंके जन्मस्थानपर ये योगिनी परम वृद्धारूपमें विराजमान रहती हैं । समस्त जगत्में बारह महीने सदा इनकी पूजा होती रहती है । सूतिकागृहमें बालकके जन्मके छठे दिन तथा इक्कीसवें दिन उनकी पूजा कल्याणकारिणी होती है ॥ ८०-८१ ॥
ये षष्ठीमाता मुनियोंसे वन्दित, नित्य कामना पूर्ण करनेवाली, दयारूपा एवं सदा रक्षा करनेवाली पराशक्ति हैं । जल, थल, आकाश और गृहमें भी बालकोंके कल्याणमें सदा निरत रहती हैं । ८२.५ ॥
मंगलचण्डिका भी देवी मूलप्रकृतिकी प्रधान अंशस्वरूपा हैं । वे प्रकृतिदेवीके मुखसे प्रकट हुई हैं और सदा सभी प्रकारके मंगल प्रदान करनेवाली हैं । उत्पत्तिके समय वे मंगलरूपा तथा संहारके समय कोपरूपिणी हैं । इसीलिये विद्वानोंने इन्हें मंगलचण्डी कहा है । प्रत्येक मंगलवारको सर्वत्र इनकी पूजा होती है । ये पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य, यश और मंगल प्रदान करती हैं । प्रसन्न होकर ये सभी नारियोंकी सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली हैं । वे महेश्वरी रुष्ट होनेपर क्षणमात्रमें समस्त सृष्टिका संहार करनेमें सक्षम हैं ॥ ८३-८६ ॥
पराशक्तिके प्रधान अंशरूपसे कमललोचना भगवती कालीका प्राकट्य हुआ है । वे शुभनिशुम्भके साथ युद्धकालमें जगदम्बा दुर्गाके ललाटसे प्रकट हुई हैं एवं दुर्गाके अर्धाशसे उत्पन्न होकर उन्हींके समान गुण और तेजसे सम्पन्न हैं । वे करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान, पुष्ट तथा उज्ज्वल विग्रहवाली हैं । वे बलशालिनी पराशक्ति सभी शक्तियोंमें प्रधान रूपसे विराजमान हैं । परम योगरूपिणी वे देवी सभी प्रकारकी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं । वे प्रभु श्रीकृष्णकी अनुगामिनी हैं और अपने तेज, पराक्रम तथा गुणोंमें श्रीकृष्णके समान ही हैं ॥ ८७–९० ॥
श्रीकृष्णके चिन्तनमें संलग्न रहनेके कारण वे सनातनी कृष्णवर्णा हो गयीं । अपने नि:श्वासमात्रसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका संहार करने में वे समर्थ हैं । फिर भी लोकशिक्षणके लिये लीलापूर्वक उन्होंने दैत्योंसे युद्ध किया । पूजासे प्रसन्न होकर वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-सब कुछ देनेमें समर्थ हैं; ब्रह्मा आदि देवता, मुनि, मनुगण तथा सभी मनुष्य उनकी उपासना करते हैं ॥ ९१-९२.५ ॥
भगवती प्रकृतिके प्रधान अंशरूपसे वे वसुन्धरादेवी प्रकट हुई हैं । वे सभी प्राणीपदार्थोंकी आधाररूपा हैं तथा सभी प्रकारके शस्योंके स्वरूपवाली कही गयी हैं । वे रत्नोंकी निधि हैं । रत्नगर्भा तथा समस्त समुद्रोंकी आश्रयरूपा हैं । वे राजा-प्रजा सभीसे सदा पूजित तथा वन्दित हैं, वे सभीकी आश्रय तथा सब प्रकारकी सम्पत्ति प्रदान करनेवाली हैं, जिनके बिना चराचर सम्पूर्ण जगत् निराधार हो जाता है ॥ ९३-९५.५ ॥
प्रकृतेश्च कला या यास्ता निबोध मुनीश्वर ॥ ९६ ॥ यस्य यस्य च या पत्नी तत्सर्वं वर्णयामि ते । स्वाहादेवी वह्निपत्नी प्रतिविश्वेषु पूजिता ॥ ९७ ॥ यया विना हविर्दानं न ग्रहीतुं सुराः क्षमाः । दक्षिणा यज्ञपत्नी च दीक्षा सर्वत्र पूजिता ॥ ९८ ॥ यया विना हि विश्वेषु सर्वकर्म हि निष्फलम् । स्वधा पितॄणां पत्नी च मुनिभिर्मनुभिर्नरैः ॥ ९९ ॥ पूजिता पितृदानं हि निष्कलं च यया विना । स्वस्तिदेवी वायुपत्नी प्रतिविश्वेषु पूजिता ॥ १०० ॥ आदानं च प्रदानं च निष्फलं च यया विना ।
हे मुनीश्वर ! अब आप देवी प्रकृतिको जो-जो कलाएँ हैं, उन्हें सुनिये । जिस-जिस देवताकी जो भार्या हैं, उन सबका मैं वर्णन करता हूँ । सभी लोकोंमें पूज्या स्वाहा-देवी अग्निदेवकी भार्या हैं, जिनके बिना देवगण यज्ञभाग प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं हो पाते । यज्ञदेवकी पत्नी दीक्षा तथा दक्षिणा हैं, जो सर्वत्र पूजित हैं तथा जिनके बिना लोकोंमें किये गये सभी कर्म निष्फल रहते हैं । पितृदेवोंकी पत्नी स्वधादेवी हैं । ये मुनियों, मनुओं तथा मनुष्योंसे पूजित हैं; जिनके बिना किया गया कोई भी पितृकर्म निष्फल रहता है । वायुदेवकी पत्नी स्वस्तिदेवी हैं, प्रत्येक लोकमें उनकी पूजा होती है । उनके बिना किया गया आदान-प्रदान निष्फल रहता है ॥ ९६-१००.५ ॥
भगवान् गणपतिकी पत्नी पुष्टिदेवी हैं, जो समस्त संसारमें पूजित हैं और जिनके बिना नर-नारी क्षीण शरीरवाले रहते हैं । भगवान् अनन्तकी पत्नी तुष्टि हैं, वे सभीसे बन्दित तथा पूजित हैं, जिनके बिना संसारमें सभी लोग सन्तुष्ट नहीं रहते । ईशानदेवकी पत्नी सम्पत्तिदेवी हैं, जिनकी सभी देव-मानव पूजा करते हैं तथा जिनके बिना संसारमें सभी लोग दरिद्र रहते हैं ॥ १०१-१०३.५ ॥
धृतिः कपिलपत्नी च सर्वैः सर्वत्र पूजिता ॥ १०४ ॥ सर्वे लोका अधैर्याश्च जगत्सु च यया विना । सत्यपत्नी सती मुक्तैः पूजिता च जगत्प्रिया ॥ १०५ ॥ यया विना भवेल्लोको बन्धुतारहितः सदा । मोहपत्नी दया साध्वी पूजिता च जगत्प्रिया ॥ १०६ ॥ सर्वे लोकाश्च सर्वत्र निष्फलाश्च यया विना । पुण्यपत्नी प्रतिष्ठा सा पूजिता पुण्यदा सदा ॥ १०७ ॥ यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतसमं मुने । सुकर्मपत्नी संसिद्धा कीर्तिर्धन्यैश्च पूजिता ॥ १०८ ॥
धृतिदेवी भगवान् कपिलकी पत्नी हैं, वे सभीके द्वारा सर्वत्र पूजित हैं, संसारमें जिनके बिना सभी लोग धैर्यहीन रहते हैं । सतीदेवी सत्यदेवकी पत्नी हैं जिन्हें सभी चाहते हैं; वे मुक्तलोगोंके द्वारा पूजित हैं और जगत्प्रिय हैं । इनके बिना लोग बन्धुत्वविहीन हो जाते हैं । दयादेवी मोहकी पत्नी हैं, वे साध्वी सबसे पूजित और जगत्प्रिय हैं । जिनके बिना सभी लोग सर्वत्र निष्कल हो जाते हैं । प्रतिष्ठादेवी पुण्यदेवकी पत्नी हैं । वे पुण्यदायिनी तथा सर्वत्र पूजित हैं, जिनके अभावमें सभी प्राणी जीवित रहते भी मृतकतुल्य हो जाते हैं । कीर्तिदेवी सुकर्मदेवकी पत्नी कही गयी हैं, जिनकी पूजा सौभाग्यशाली लोग करते हैं और जिनके बिना सम्पूर्ण संसार यशहीन होकर मृतकतुल्य हो जाता है ॥ १०४-१०८ ॥
यया विना जगत्सर्वं यशोहीनं मृतं यथा । क्रिया तूद्योगपत्नी च पूजिता सर्वसम्मता ॥ १०९ ॥ यया विना जगत्सर्वं विधिहीनं च नारद । अधर्मपत्नी मिथ्या सा सर्वधूर्तैश्च पूजिता ॥ ११० ॥ यया विना जगत्सर्वमुच्छिन्नं विधिनिर्मितम् । सत्ये अदर्शना या च त्रेतायां सूक्ष्मरूपिणी ॥ १११ ॥ अर्धावयवरूपा च द्वापरे चैव संवृता । कलौ महाप्रगल्भा च सर्वत्र व्यापिका बलात् ॥ ११२ ॥ कपटेन समं भ्रात्रा भ्रमते च गृहे गृहे ।
उद्योगदेवकी पत्नी क्रियादेवी हैं, जो सभीके द्वारा पूजित तथा मान्य हैं, हे नारद ! इनके बिना सम्पूर्ण जगत् विधिहीन हो जाता है । अधर्मकी पत्नी मिथ्यादेवी हैं, जिन्हें सभी धूर्तजन पूजते हैं तथा जिनके बिना विधिनिर्मित धूर्त-समुदायरूप जगत् नष्ट हो जाता है । सत्ययुगमें ये मिथ्यादेवी तिरोहित रहती हैं, त्रेतायुगमें सूक्ष्मरूपमें रहती हैं, द्वापरमें आधे शरीरवाली होकर रहती हैं; किंतु कलियुगमें महाप्रगल्भ होकर ये बलपूर्वक सर्वत्र व्याप्त रहती हैं और अपने भाई कपटके साथ घरघर घूमती-फिरती हैं ॥ १०९-११२.५ ॥
शान्तिर्लज्जा च भार्ये द्वे सुशीलस्य च पूजिते ॥ ११३ ॥ याभ्यां विना जगत्सर्वमुन्मत्तमिव नारद । ज्ञानस्य तिस्रो भार्याश्च बुद्धिर्मेधाधृतिस्तथा ॥ ११४ ॥ याभिर्विना जगत्सर्वं मूढं मत्तसमं सदा । मूर्तिश्च धर्मपत्नी सा कान्तिरूपा मनोहरा ॥ ११५ ॥ परमात्मा च विश्वौघो निराधारो यया विना । सर्वत्र शोभारूपा च लक्ष्मीर्मूर्तिमती सती ॥ ११६ ॥
हे नारद ! सुशीलकी शान्ति और लज्जा नामक दो सर्वपूजित भार्याएँ हैं, जिनके बिना यह समस्त जगत् उन्मत्तकी भाँति हो जाता है । ज्ञानकी तीन पलियाँ हैं-बुद्धि, मेधा और धृति; जिनके बिना सारा संसार मूर्ख तथा मत्त बना रहता है । धर्मकी पत्नी मूर्ति अत्यन्त मनोहर कान्तिवाली हैं, जिनके बिना परमात्मा तथा विश्वसमूह भी निराधार रहते हैं । ये सर्वत्र शोभारूपा, लक्ष्मीरूपिणी, मूर्तिमयी, साध्वी, श्रीरूपा, मूर्तिरूपा, सभीकी मान्य, धन्य और अतिपूज्य हैं ॥ ११३-११६ ॥
श्रीरूपा मूर्तिरूपा च मान्या धन्यातिपूजिता । कालाग्नी रुद्रपत्नी च निद्रा सा सिद्धयोगिनी ॥ ११७ ॥ सर्वे लोकाः समाच्छन्ना यया योगेन रात्रिषु । कालस्य तिस्रो भार्याश्च संध्या रात्रिर्दिनानि च ॥ ११८ ॥ याभिर्विना विधाता च संख्यां कर्तुं न शक्यते । क्षुत्पिपासे लोभभार्ये धन्ये मान्ये च पूजिते ॥ ११९ ॥ याभ्यां व्याप्तं जगत्सर्वं नित्यं चिन्तातुरं भवेत् । प्रभा च दाहिका चैव द्वे भार्ये तेजसस्तथा ॥ १२० ॥ याभ्यां विना जगत्स्रष्टा विधातुं च न हीश्वरः ।
रुद्रकी पत्नी कालाग्नि हैं । वे ही सिद्धयोगिनी तथा निद्रारूपा हैं, जिनके संयोगसे रात्रिमें सभी लोग निद्रासे व्याप्त हो जाते हैं । कालकी तीन पलियाँ हैंसन्ध्या, रात्रि और दिवा । जिनके बिना विधाता भी कालकी गणना नहीं कर सकते । लोभकी दो पलियाँ क्षुधा और पिपासा हैं, ये धन्य, मान्य और पूजित हैं । जिनसे व्याप्त यह सम्पूर्ण जगत् नित्य ही चिन्ताग्रस्त रहता है । तेजकी दो पत्नियाँ प्रभा और दाहिका हैं, जिनके बिना जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्मा सृष्टि करनेमें समर्थ नहीं होते ॥ ११७-१२०.५ ॥
कालकी दो पुत्रियाँ मृत्यु और जरा हैं, जो ज्वरकी प्रिय पलियाँ हैं । जिनके द्वारा सृष्टि-विधानके अन्तर्गत ब्रह्माका बनाया यह संसार नष्ट होता रहता है । निद्राकी एक पुत्री तन्द्रा और दूसरी प्रीति-ये दोनों सुखकी पत्नियाँ हैं । जिनसे हे नारद ! ब्रह्माके द्वारा निर्मित यह सारा जगत् व्याप्त है । वैराग्यकी दो पत्नियाँ श्रद्धा और भक्ति सभीकी पूज्या हैं, जिनसे हे मुने ! यह जगत् निरन्तर जीवन्मुक्तके समान हो जाता है ॥ १२१-१२३.५ ॥
देवताओंकी माता अदिति हैं और गायोंकी उत्पत्ति सुरभिसे हुई है । दैत्योंकी माता दिति, कद्, विनता और दनु-सृष्टिनिर्माणमें इनका उपयोग हुआ है । ये सभी प्रकृतिदेवीकी कलाएँ कही गयी हैं ॥ १२४-१२५ ॥
कला अन्याः सन्ति बह्व्यस्तासु काश्चिन्निबोध मे । रोहिणी चन्द्रपत्नी च संज्ञा सूर्यस्य कामिनी ॥ १२६ ॥ शतरूपा मनोर्भार्या शचीन्द्रस्य च गेहिनी । तारा बृहस्पतेर्भार्या वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ॥ १२७ ॥ अहल्या गौतमस्त्री साप्यनसूयात्रिकामिनी । देवहूतिः कर्दमस्य प्रसूतिर्दक्षकामिनी ॥ १२८ ॥
प्रकृतिदेवीकी अन्य बहुत-सी कलाएँ हैं, उनमेंसे कुछके विषयमें मुझसे सुनिये । चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणी, सूर्यकी पत्नी संज्ञा, मनुकी पत्नी शतरूपा, इन्द्रकी पत्नी शची, बृहस्पतिकी पत्नी तारा, वसिष्ठकी पत्नी अरुन्धती, गौतमऋषिकी पत्नी अहल्या और अत्रिकी भार्या अनसूया, कर्दमकी पत्नी देवहूति तथा दक्षकी भार्या प्रसूति हैं ॥ १२६-१२८ ॥
पितॄणां मानसी कन्या मेनका साम्बिकाप्रसूः । लोपामुद्रा तथा कुन्ती कुबेरकामिनी तथा ॥ १२९ ॥ वरुणानी प्रसिद्धा च बलेर्विन्ध्यावलिस्तथा । कान्ता च दमयन्ती च यशोदा देवकी तथा ॥ १३० ॥ गान्धारी द्रौपदी शैव्या सा च सत्यवती प्रिया । वृषभानुप्रिया साध्वी राधामाता कुलोद्वहा ॥ १३१ ॥ मन्दोदरी च कौसल्या सुभद्रा कौरवी तथा । रेवती सत्यभामा च कालिन्दी लक्ष्मणा तथा ॥ १३२ ॥ जाम्बवती नाग्नजितिर्मित्रविन्दा तथापरा । लक्ष्मणा रुक्मिणी सीता स्वयं लक्ष्मीः प्रकीर्तिता ॥ १३३ ॥ काली योजनगन्धा च व्यासमाता महासती । बाणपुत्री तथोषा च चित्रलेखा च तत्सखी ॥ १३४ ॥ प्रभावती भानुमती तथा मायावती सती । रेणुका च भृगोर्माता राममाता च रोहिणी ॥ १३५ ॥ एकनन्दा च दुर्गा सा श्रीकृष्णभगिनी सती । बह्व्यः सत्यः कलाश्चैव प्रकृतेरेव भारते ॥ १३६ ॥
पितरोंकी मानसी कन्या मेनका हैं, जो अम्बिकाकी माता हैं । लोपामुद्रा, कुन्ती, कुबेरपली, वरुणपत्नी, बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, कान्ता, दमयन्ती, यशोदा, देवकी, गान्धारी, द्रौपदी, हरिश्चन्द्रकी सत्यवादिनी तथा प्रिय भार्या शैव्या, वृषभानुप्रिया राधाकी माता तथा कुलका उद्वहन करनेवाली पतिव्रता वृषभानुभार्या, मन्दोदरी, कौसल्या, सुभद्रा, कौरवी, रेवती, सत्यभामा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, जाम्बवती, नाग्नजिती, मित्रविन्दा, रुक्मिणी, साक्षात् लक्ष्मी कही जानेवाली सीता, काली, व्यासमाता महासती योजनगन्धा, बाणपुत्री उषा, उसकी सखी चित्रलेखा, प्रभावती, भानुमती, साध्वी मायावती, परशुरामकी माता रेणुका, बलरामकी माता रोहिणी और श्रीकृष्णकी बहन दुर्गारूपी एकनन्दा-ये सब प्रकृतिदेवीकी कलारूपा अनेक शक्तियाँ भारतवर्षमें विख्यात हैं ॥ १२९-१३६ ॥
जो-जो ग्रामदेवियाँ हैं, वे सभी प्रकृतिकी कलाएँ हैं । देवीके कलांशका अंश लेकर ही प्रत्येक लोकमें स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं । इसलिये किसी नारीके अपमानसे प्रकृतिका ही अपमान माना जाता है । जिसने वस्त्र, अलंकार और चन्दनसे पति-पुत्रवती साध्वी ब्राह्मणीका पूजन किया; उसने मानो प्रकृतिदेवीका ही पूजन किया है । इसी प्रकार जिसने आठ वर्षकी विप्रकन्याका वस्त्र, अलंकार तथा चन्दनसे पूजन सम्पन्न कर लिया, उसने स्वयं प्रकृतिदेवीकी पूजा कर ली । उत्तम, मध्यम अथवा अधम-सभी स्त्रियाँ प्रकृतिसे ही उत्पन्न होती हैं ॥ १३७-१४० ॥
प्रकृतिदेवीके सत्त्वांशसे उत्पन्न स्त्रियोंको उत्तम जानना चाहिये । वे सुशील एवं पतिव्रता होती हैं । उनके राजस अंशसे उत्पन्न स्त्रियाँ मध्यम कही गयी हैं, वे प्रायः भोगप्रिय होती हैं । वे सुख-भोगादिके वशीभूत होती हैं तथा अपने ही कार्य में सदा तत्पर रहती हैं । अधम स्त्रियाँ प्रकृतिके तामस अंशसे उत्पन्न हैं, उनका कुल अज्ञात रहता है । वे कलहप्रिय, कटुभाषिणी, धूर्त, स्वच्छन्द विचरण करनेवाली तथा कुलका नाश करनेवाली होती हैं । जो पृथ्वीपर कुलटा, स्वर्गमें अप्सराएँ तथा अन्य पुंश्चली नारियाँ हैं: वे प्रकृतिके तामसांशसे प्रकट कही गयी हैं । इस प्रकार मैंने प्रकृतिदेवीके सभी रूपोंका वर्णन कर दिया ॥ १४१-१४४ ॥
भगवती प्रकृतिके वे सभी रूप पृथ्वीपर पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें पूजित हैं, सर्वप्रथम राजा सुरथने दुर्गतिका नाश करनेवाली दुगदिवीका पूजन किया था । तत्पश्चात् रावणका वध करनेकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रने उनका पूजन किया था । तभीसे जगज्जननी दुर्गा तीनों लोकोंमें पूजित हैं ॥ १४५-१४६ ॥
जो प्रारम्भमें दक्षकन्या सतीके रूपमें प्रकट हुई और दैत्य-दानवोंका संहार करनेके उपरान्त यज्ञमें पतिनिन्दाके कारण देहत्याग करके हिमवान्की भार्यासे उत्पन्न हुई और उन्होंने पुन: पशुपति भगवान् शंकरको पतिरूपमें प्राप्त किया । हे नारद ! बादमें स्वयं श्रीकृष्णरूप गणेश तथा विष्णुकी कलाओंसे युक्त स्कन्द-ये उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए । १४७-१४८.५ ॥
राजा मंगलने सर्वप्रथम लक्ष्मीजीकी पूजा की थी । उसके बाद तीनों लोकोंमें देवता, मुनि और मनुष्योंने उनकी पूजा की । राजा अश्वपतिने सावित्रीदेवीकी सर्वप्रथम पूजा की, तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें देवता तथा श्रेष्ठ मुनियोंसे वे पूजित हुई । ब्रह्माने सर्वप्रथम भगवती सरस्वतीको पूजा की थी । तत्पश्चात् वे तीनों लोकोंमें देवताओं तथा श्रेष्ठ मुनियोंद्वारा पूजित हुईं । कार्तिकपूर्णिमाको गोलोकके रासमण्डलमें सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्णने गोप-गोपियों, बालक-बालिकाओं, सुरभि तथा गायोंके साथ राधारानीका पूजन किया था । तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें परमात्माकी आज्ञासे ब्रह्मादि देवों तथा मुनियोंद्वारा पुष्प, धूपादिसे भक्तिपूर्वक परम प्रसन्नताके साथ वे निरन्तर पूजित तथा वन्दित होने लगीं ॥ १४९-१५४.५ ॥
पृथिव्यां प्रथमं देवी सुयज्ञेनैव पूजिता ॥ १५५ ॥ शङ्करेणोपदिष्टेन पुण्यक्षेत्रे च भारते । त्रिषु लोकेषु तत्पश्चादाज्ञया परमात्मनः ॥ १५६ ॥ पुष्पधूपादिभिर्भक्त्या पूजिता मुनिभिः सदा ।
भगवान् शंकरके उपदेशसे पृथ्वीपर पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें राजा सुयज्ञके द्वारा सर्वप्रथम इन भगवतीका पूजन किया गया । तदनन्तर परमात्माको आज्ञासे तीनों लोकोंमें पुष्प, धूप आदिसे मुनियोंके द्वारा ये निरन्तर भक्तिपूर्वक पूजित होने लगीं ॥ १५५-१५६.५ ॥
कला या याः समुद्भूता पूजितास्ताश्च भारते ॥ १५७ ॥ पूजिता ग्रामदेव्यश्च ग्रामे च नगरे मुने । एवं ते कथितं सर्वं प्रकृतेश्चरितं शुभम् ॥ १५८ ॥ यथागमं लक्षणं च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १५९ ॥
भारतवर्ष में प्रकृतिदेवीकी जो-जो कलाएँ प्रकट हुई, वे सभी पूजित हैं । हे मुने ! प्रत्येक ग्राम और नगरमें वे ग्रामदेवियाँ पूजित हैं । इस प्रकार मैंने आगमोंके अनुसार प्रकृतिदेवीका सम्पूर्ण शुभ चरित्र तथा स्वरूप आपको बता दिया; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १५७-१५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे प्रकृतिचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्खयां संहितायां नवमस्कन्धे प्रकृतिचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥