[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
देवीपूजनविधिनिरूपणम् -
देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन -
नारद उवाच धर्मश्च कीदृशस्तात देव्याराधनलक्षणः । कथमाराधिता देवी सा ददाति परं पदम् ॥ १ ॥ आराधनविधिः को वा कथमाराधिता कदा । केन सा दुर्गनरकाद्दुर्गा त्राणप्रदा भवेत् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे तात ! देवीके आराधनरूपी धर्मका स्वरूप क्या है ? किस प्रकारसे उपासना करनेपर वे देवी परम पद प्रदान करती हैं ? उनकी आराधनाकी विधि क्या है ? कैसे, कब और किस स्तोत्रसे आराधना करनेपर वे भगवती दुर्गा कष्टप्रद नरकरूपी दुर्गसे उद्धार करके त्राणदायिनी होती हैं ? ॥ १-२ ॥
श्रीनारायण उवाच देवर्षे शृणु चित्तैकाग्र्येण मे विदुषां वर । यथा प्रसीदते देवी धर्माराधनतः स्वयम् ॥ ३ ॥ स्वधर्मो यादृशः प्रोक्तस्तं च मे शृणु नारद ।
श्रीनारायण बोले-हे विद्वद्वर ! हे देवर्षे ! जिस प्रकार धर्मपूर्वक आराधना करनेसे देवी स्वयं प्रसन्न हो जाती हैं, उसे अब आप एकाग्रचित्त होकर मुझसे सुनिये । हे नारद ! जैसा स्वधर्मका स्वरूप बताया गया है, उसे भी आप मुझसे सुनिये ॥ ३.५ ॥
अनादाविह संसारे देवी सशृजिता स्वयम् ॥ ४ ॥ परिपालयते घोरसङ्कटादिषु सा मुने । सा देवी पूज्यते लोकैर्यथावत्तद्विधिं शृणु ॥ ५ ॥
हे मुने ! इस अनादि संसारमें सम्यक्प से पूजित होनेपर वे देवी घोर संकटोंमें स्वयं रक्षा करती हैं । वे भगवती जिस प्रकार लोकमें पूजी जाती हैं, वह विधि सुनिये ॥ ४-५ ॥
तृतीया तिथिको भगवतीके पूजनकर्ममें उन्हें दुग्ध अर्पण करना चाहिये और श्रेष्ठ ब्राह्मणको दुग्धका दान करना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्य सभी प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ८ ॥
चतुर्थ्यां पूजनेऽपूपा देया देव्यै द्विजाय च । अपूपा एव दातव्या न विघ्नैरभिभूयते ॥ ९ ॥
चतुर्थकि दिन पूआ अर्पण करके देवीका पूजन करना चाहिये और ब्राह्मणको पूआ ही दान करना चाहिये; ऐसा करनेसे मनुष्य विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता ॥ ९ ॥
अष्टमीको भगवतीको नारियलका नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और ब्राह्मणको भी नारियलका दान करना चाहिये, ऐसा करनेवाला मनुष्य सभी सन्तापोंसे रहित हो जाता है ॥ १३ ॥
नवम्यां लाजमम्बायै चार्पयित्वा द्विजाय च । दत्त्वा सुखाधिको भूयादिह लोके परत्र च ॥ १४ ॥
नवमीके दिन भगवतीको लावा अर्पण करनेके बाद ब्राह्मणको भी लावाका दान करनेसे मनुष्य इस लोकमें तथा परलोकमें परम सुखी रहता है ॥ १४ ॥
दशम्यामर्पयित्वा तु देव्यै कृष्णतिलान्मुने । ब्राह्मणाय प्रदत्त्वा तु यमलोकाद्भयं न हि ॥ १५ ॥
हे मुने ! दशमी तिथिको भगवतीको काले तिल अर्पित करने और ब्राह्मणको उसी तिलका दान करनेसे मनुष्यको यमलोकका भय नहीं रह जाता ॥ १५ ॥
एकादश्यां दधि तथा देव्यै चार्पयते तु यः । ददाति ब्राह्मणायैतद्देवीप्रियतमो भवेत् ॥ १६ ॥
जो मनुष्य एकादशी तिथिको भगवतीको दधि अर्पित करता है और ब्राह्मणको भी दधि प्रदान करता है, वह देवीका परम प्रिय हो जाता है ॥ १६ ॥
द्वादश्यां पृथुकान्देव्यै दत्त्वाचार्याय यो ददेत् । तानेव च मुनिश्रेष्ठ स देवीप्रियतां व्रजेत् ॥ १७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! जो द्वादशीके दिन भगवतीको चिउड़ेका भोग लगाकर आचार्यको भी चिउड़ेका दान करता है, वह भगवतीका प्रियपात्र बन जाता है ॥ १७ ॥
त्रयोदश्यां च दुर्गायै चणकान्प्रददाति च । तानेव दत्त्वा विप्राय प्रजासन्ततिमान्भवेत् ॥ १८ ॥
जो त्रयोदशीको भगवतीको चना अर्पित करता है और ब्राह्मणको चनेका दान करता है, वह प्रजाओं तथा सन्तानोंसे सदा सम्पन्न रहता है ॥ १८ ॥
चतुर्दश्यां च देवर्षे देव्यै सक्तून्प्रयच्छति । तानेव दद्याद्विप्राय शिवस्य दयितो भवेत् ॥ १९ ॥
हे देवर्षे ! जो मनुष्य चतुर्दशीके दिन भगवतीको सत्तू अर्पण करता है और ब्राह्मणको भी सत्तू प्रदान करता है, वह भगवान शंकरका प्रिय हो जाता है ॥ १९ ॥
पायसं पूर्णिमातिथ्यामपर्णायै प्रयच्छति । ददाति च द्विजाग्र्याय पितृनुद्धरतेऽखिलान् ॥ २० ॥
जो पूर्णिमा तिथिको भगवती अपर्णाको खीरका भोग लगाता है और श्रेष्ठ ब्राह्मणको खीर प्रदान करता है, वह अपने सभी पितरोंका उद्धार कर देता है ॥ २० ॥
तत्तिथौ हवनं प्रोक्तं देवीप्रीत्यै महामुने । तत्तत्तिथ्युक्तवस्तूनामशेषारिष्टनाशनम् ॥ २१ ॥
हे महामुने ! देवीकी प्रसन्नताके लिये उसी तिथिको हवन भी बताया गया है । जिस तिथिमें नैवेद्यके लिये जो वस्तु बतायी गयी है, उसी वस्तुसे उन-उन तिथियोंमें हवन करनेसे सभी विपत्तियोंका नाश हो जाता है ॥ २१ ॥
रविवारे पायसं च नैवेद्यं परिकीर्तितम् । सोमवारे पयः प्रोक्तं भौमे च कदलीफलम् ॥ २२ ॥
रविवारको खीरका नैवेद्य अर्पण करना चाहिये । सोमवारको दूध और मंगलवारको केलेका भोग लगाना बताया गया है ॥ २२ ॥
बुधवारे च सम्प्रोक्तं नवनीतं नवं द्विज । गुरुवारे शर्करां च सितां भार्गववासरे ॥ २३ ॥ शनिवारे घृतं गव्यं नैवेद्यं परिकीर्तितम् ।
हे द्विज ! बुधको ताजा मक्खन भोगके लिये कहा गया है । गुरुवारको रक्त शर्करा, शुक्रवारको श्वेत शर्करा और शनिवारको गायका घृत नैवेद्यके रूपमें बताया गया है ॥ २३.५ ॥
सप्तविंशतिनक्षत्रनैवेद्यं श्रूयतां मुने ॥ २४ ॥ घृतं तिलं शर्करां च दधि दुग्धं किलाटकम् । दथिकूर्ची मोदकं च फेणिकां घृतमण्डकम् ॥ २५ ॥ कंसारं वटपत्रं च घृतपूरमतः परम् । वटकं कोकरसकं पूरणं मधु सूरणम् ॥ २६ ॥ गुडं पृथुकद्राक्षे च खर्जूरं चैव चारकम् । अपूपं नवनीतं च मुद्गं मोदक एव च ॥ २७ ॥ मातुलिङ्गमिति प्रोक्तं भनैवेद्यं च नारद ।
हे मुने ! अब सत्ताईस नक्षत्रोंमें दिये जानेवाले नैवेद्यके विषयमें सुनिये । घी, तिल, चीनी, दही, दूध, मलाई, लस्सी, लड़, फेणिका, घृतमण्ड (शक्करपारा), कंसार (गेहूँके आटे तथा गुड़से निर्मित पदार्थ विशेष), वटपत्र (पापड़), घेवर, वटक (बड़ा), कोकरस (खजूरका रस), घृतमिश्रित चनेका चूर्ण, मधु, सूरन, गुड़, चिउड़ा, दाख, खजूर, चारक, पूआ, मक्खन, मूंगका लडु और विजौरा नींबू-हे नारद ! ये सत्ताईस नक्षत्रोंके नैवेद्य बताये गये हैं ॥ २४-२७.५ ॥
विष्कम्भादिषु योगेषु प्रवक्ष्यामि निवेदनम् ॥ २८ ॥ पदार्थानां कृतेष्वेषु प्रीणाति जगदम्बिका । गुडं मधु घृतं दुग्धं दधि तक्रं त्वपूपकम् ॥ २९ ॥ नवनीतं कर्कटीं च कूष्माण्डं चापि मोदकम् । पनसं कदलं जम्बुफलमाम्रफलं तिलम् ॥ ३० ॥ नारङ्गं दाडिमं चैव बदरीफलमेव च । धात्रीफलं पायसञ्च पृथुकं चणकं तथा ॥ ३१ ॥ नारिकेलं जम्भफलं कसेरुं सूरणं तथा । एतानि क्रमशो विप्र नैवेद्यानि शुभानि च ॥ ३२ ॥ विष्कम्भादिषु योगेषु निर्णीतानि मनीषिभिः ।
अब विष्कम्भ आदि योगोंमें नैवेद्य अर्पणके विषयमें कहूँगा । इन पदार्थोंको अर्पित करनेसे जगदम्बिका . प्रसन्न होती हैं । गुड़, मधु, घी, दूध, दही, मट्ठा, पूआ, मक्खन, ककड़ी, कोहड़ा, लड्डु, कटहल, केला, जामुन, आम, तिल, संतरा, अनार, बेरका फल, आमला, खीर, चिउड़ा, चना, नारियल, जम्भफल (जम्भीरा), कसेरू और सूरन-हे विप्र ! ये शुभ नैवेद्य क्रमशः विष्कम्भ आदि योगोंमें [भगवतीको] अर्पण करनेके लिये विद्वानोंके द्वारा निश्चित किये गये हैं ॥ २८-३२.५ ॥
हे मुने ! इसके बाद अब मैं भिन्न-भिन्न करणोंके नैवेद्यके बारेमें बताऊँगा । कंसार, मण्डक, फेनी, मोदक, वटपत्र, लड्डू, घृतपूर, तिल, दही, घी और मधु-ये करणोंके नैवेद्य बताये गये हैं, जिन्हें आदरपूर्वक भगवतीको अर्पण करना चाहिये ॥ ३३-३४.५ ॥
हे नारदमुने ! अब मैं देवीको प्रसन्न करनेवाले दूसरे श्रेष्ठ विधानका वर्णन करूँगा, उस सम्पूर्ण विधानको आदरपूर्वक सुनिये । चैत्रमासके शुक्लपक्षमें तृतीया तिथिको महुएके वृक्षमें भगवतीकी भावना करके उनका पूजन करे और नैवेद्यमें पाँच प्रकारके भोज्य-पदार्थ अर्पित करे । इसी प्रकार बारहों महीनोंके शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको पूजन-विधानके साथ क्रमश: नैवेद्य अर्पित करे । हे नारद ! वैशाखमासमें गुड़मिश्रित पदार्थ निवेदित करना चाहिये । ज्येष्ठ-महीनेमें भगवतीको प्रसन्नताके लिये मधु अर्पित करना चाहिये । आषाड़-महीनेमें नवनीत और महुएके रससे बना हुआ पदार्थ अर्पित करना चाहिये ॥ ३५-३९ ॥
श्रावणे दधि नैवेद्यं भाद्रमासे च शर्करा । आश्विने पायसं प्रोक्तं कार्तिके पय उत्तमम् ॥ ४० ॥ मार्गे फेण्युत्तमा प्रोक्ता पौषे च दधिकूर्चिका । माघे मासि च नैवेद्यं मृतं गव्यं समाहरेत् ॥ ४१ ॥ नारिकेलं च नैवेद्यं फाल्गुने परिकीर्तितम् । एवं द्वादशनैवेद्यैर्मासे च क्रमतोऽर्चयेत् ॥ ४२ ॥
श्रावण-मासमें दही, भाद्रपद-मासमें शर्करा, आश्विन-मासमें खीर तथा कार्तिक-मासमें दूधका नैवेद्य उत्तम कहा गया है । मार्गशीर्ष-महीनेमें फेनी एवं पौष-माहमें दधिचिका (लस्सी) का नैवेद्य उत्तम कहा गया है । मायके महीनेमें गायके घीका नैवेद्य अर्पण करना चाहिये; फाल्गुनके महीने में नारियलका नैवेद्य बताया गया है । इस प्रकार बारह महीनोंमें बारह नैवेद्योंसे क्रमशः भगवतीको पूजा करनी चाहिये ॥ ४०-४२ ॥
मंगला, वैष्णवी, माया, कालरात्रि, दुरत्यया, महामाया, मतंगी, काली, कमलवासिनी, शिवा, सहस्रचरणा और सर्वमंगलरूपिणी-इन नामोंका उच्चारण करते हुए महुएके वृक्षमें भगवतीकी पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् सभी कामनाओंकी सिद्धि तथा व्रतकी पूर्णताके लिये महुएके वृक्षमें स्थित देवेशी महेश्वरीकी इस प्रकार स्तुति करनी चाहिये ॥ ४३-४५ ॥
कमलके समान नेत्रोंवाली आप जगद्धात्रीको नमस्कार है । आप महामंगलमूर्तिस्वरूपा महेश्वरी महादेवीको नमस्कार है । [हे देवि !] परमा, पापहन्त्री, परमार्गप्रदायिनी, परमेश्वरी, प्रजोत्पत्ति, परब्रह्मस्वरूपिणी, मददात्री, मदोन्मत्ता, मानगम्या, महोन्नता, मनस्विनी, मुनिध्येया, मार्तण्डसहचारिणी-ये आपके नाम हैं । हे लोकेश्वरि ! हे प्राज्ञे ! आपकी जय हो । हे प्रलयकालीन मेघके समान प्रतीत होनेवाली ! देवता और दानव महामोहके विनाशके लिये आपकी उपासना करते हैं । ४६-४९ ॥
आप यमलोक मिटानेवाली, यमराजपूज्या, यमकी अग्रजा और यमनिग्रहस्वरूपिणी हैं । हे परमाराध्ये ! आपको बार-बार नमस्कार है । आप समस्वभावा, सर्वेशी, सर्वसंगविवर्जिता, संगनाशकरी, काम्यरूपा, कारुण्यविग्रहा, कंकालक्रूरा, कामाक्षी, मीनाक्षी, मर्मभेदिनी, माधुर्यरूपशीला, मधुरस्वरपूजिता, महामन्त्रवती, मन्त्रगम्या, मन्त्रप्रियंकरी, मनुष्यमानसगमा और मन्मथारिप्रियंकरी-इन नामोंसे विख्यात हैं ॥ ५०-५३ ॥
पीपल, वट, नीम, आम, कैथ एवं बेरमें निवास करनेवाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि क्षीरवृक्षस्वरूपिणी हैं । दुग्धवल्लीमें निवास करनेवाली, दयनीय, महान् दयालु, कृपालुता एवं करुणाकी साक्षात् मूर्तिस्वरूपा एवं सर्वज्ञजनोंकी प्रियस्वरूपिणि ! आपकी जय हो ॥ ५४-५५ ॥
जो मनुष्य भगवतीको प्रसन्न करनेवाले इस स्तोत्रका नित्य पाठ करता है, उसे किसी प्रकारके शारीरिक या मानसिक रोगका भय नहीं होता और उसे शत्रुओंका भी कोई भय नहीं रहता । इस स्तोत्रके प्रभावसे अर्थ चाहनेवाला अर्थ प्राप्त कर लेता है, धर्मके अभिलाषीको धर्मकी प्राप्ति हो जाती है, कामीको काम सुलभ हो जाते हैं और मोक्षकी इच्छा रखनेवालेको मोक्ष प्राप्त हो जाता है । इस स्तोत्रके पाठसे ब्राह्मण वेदसम्पन्न, क्षत्रिय विजयी, वैश्य धनधान्यसे परिपूर्ण और शूद्र परम सुखी हो जाता है । जो मनुष्य श्राद्धके समय मनको एकाग्र करके इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसके पितरोंकी एक कल्पतक स्थायी रहनेवाली अक्षय तृप्ति हो जाती है ॥ ५७-६० ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने देवताओंके द्वारा देवीकी की गयी आराधना तथा पूजाके विषयमें आपको भलीभाँति बता दिया । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवतीकी उपासना करता है, वह देवीलोकका अधिकारी हो जाता है ॥ ६१ ॥
हे ब्रह्मपुत्र ! भगवतीके अनुग्रहसे मनुष्य जहाँ-तहाँ पूजित होता है और मानको ही धन माननेवाले पुरुषोंमें सम्माननीय हो जाता है । उसे स्वप्नमें भी नरकोंका भय नहीं रहता । महामाया भगवतीकी कृपासे देवीका भक्त पुत्र तथा पौत्रोंसे सदा सम्पन्न रहता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ६३-६४ ॥
हे नारद !] यह जो मैंने आपसे महादेवीके पूजनका वर्णन किया है, वह नरकसे उद्धार करनेवाला तथा सम्पूर्ण रूपसे मंगलकारी है । हे मुने ! चैत्र आदि महीनोंमें क्रमसे महुएके वृक्षमें भगवतीकी पूजा करनी चाहिये । हे अनघ ! जो मनुष्य मधूक नामक वृक्षमें सम्यकरूपसे पूजन करता है; उसे रोग, बाधा आदिका कोई भय उत्पन्न नहीं होता ॥ ६५-६७ ॥
अब मैं देवी मूलप्रकृतिके श्रेष्ठ पंचकसे सम्बन्धित अन्य प्रसंगका वर्णन कर रहा हूँ । यह प्रसंग अपने नाम, रूप और प्रादुर्भावसे सम्पूर्ण जगत्को आनन्दित कर देनेवाला है । हे मुने ! यह प्रकृतिपंचक कुतूहल उत्पन्न करनेवाला तथा मुक्तिप्रदायक है; आख्यान तथा माहात्म्यसहित इसका श्रवण कीजिये ॥ ६८-६९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे देवीपूजनविधिनिरूपणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्खयां संहितायामष्टमस्कन्धे देवीपूजन विधिनिरूपणं नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ ॥ अष्टमः स्कन्धः समाप्तः ॥