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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
तृतीयोऽध्यायः

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ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनम् -
परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्प बालकका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
अथ डिम्भो जले तिष्ठन्यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।
ततः स काले सहसा द्विधाभूतो बभूव ह ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-वह बालक जो पहले जलमें छोड़ दिया गया था, ब्रह्माजीकी आयुपर्यन्त जलमें ही पड़ा रहा । उसके बाद वह समय आनेपर अचानक ही दो रूपोंमें विभक्त हो गया ॥ १ ॥

तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः ।
क्षणं रोरूयमाणश्च स्तनान्धः पीडितः क्षुधा ॥ २ ॥
उनमेंसे एक बालक शतकोटि सूर्योंकी आभासे युक्त था; माताके स्तनपानसे रहित वह भूखसे व्याकुल होकर बार-बार रो रहा था ॥ २ ॥

पित्रा मात्रा परित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।
ब्रह्माण्डासंख्यनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ॥ ३ ॥
माता-पितासे परित्यक्त होकर आश्रयहीन उस बालकने जलमें रहते हुए अनन्त ब्रह्माण्डनायक होते हुए भी अनाथकी भाँति ऊपरकी ओर दृष्टि डाली ॥ ३ ॥

स्थूलास्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ।
परमा्णुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाप्यसौ ॥ ४ ॥
तेजसा षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः ।
आधारः सर्वविश्वानां महाविष्णुश्च प्राकृतः ॥ ५ ॥
जैसे परमाणु सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म होता है, वैसे ही वह स्थूलसे भी स्थूल था । स्थूलसे भी स्थूलतम होनेसे वे देव महाविराट् नामसे प्रसिद्ध हुए । परमात्मा श्रीकृष्णके तेजसे सोलहवें अंशके रूपमें तथा प्रकृतिस्वरूपा राधासे उत्पन्न होनेके कारण यह सभी लोकोंका आधार तथा महाविष्णु कहा गया । ४-५ ॥

प्रत्येकं लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।
अस्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः ॥ ६ ॥
संख्या चेद्‌रजसामस्ति विश्वानां न कदाचन ।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ॥ ७ ॥
प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
उसके प्रत्येक रोमकूपमें अखिल ब्रह्माण्ड स्थित थे, उनकी संख्या श्रीकृष्ण भी बता पानेमें समर्थ नहीं हैं । जैसे पृथिवी आदि लोकोंमें व्याप्त रजकणोंकी संख्या कोई निर्धारित नहीं कर सकता, उसी प्रकार उसके रोमकूपस्थित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिकी संख्या भी निश्चित नहीं है । प्रत्येक ब्रह्माण्डमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विद्यमान हैं ॥ ६-७.५ ॥

पातालाद्‌ ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम् ॥ ८ ॥
तत ऊर्ध्वं च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्‌ बहिरेव सः ।
तत ऊर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः ॥ ९ ॥
नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् ।
पातालसे ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है । उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्डसे बाहर है । उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तारवाला गोलोक है । जैसे श्रीकृष्ण नित्य और सत्यस्वरूप हैं, वैसे ही यह गोलोक भी है ॥ ८-९.५ ॥

सप्तद्वीपमिता पृध्वी सप्तसागरसंयुता ॥ १० ॥
ऊनपञ्चाशदुपद्वीपासंख्यशैलवनान्विता ।
ऊर्ध्वं सप्त स्वर्गलोका ब्रह्यलोकसमन्विताः ॥ ११ ॥
पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।
यह पृथ्वी सात द्वीपोंवाली तथा सात महासागरोंसे समन्वित है । इसमें उनचास उपद्वीप हैं और असंख्य वन तथा पर्वत हैं । इसके ऊपर सात स्वर्गलोक हैं, जिनमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है । इसके नीचे सात पाताल-लोक भी हैं; यह सब मिलाकर ब्रह्माण्ड कहा जाता है ॥ १०-११.५ ॥

ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परम् ॥ १२ ॥
ततः परश्च स्वर्लोको जनलोकस्तथा परः ।
ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ॥ १३ ॥
ततः परं ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।
एवं सर्वं कृत्रिमं च बाह्याभ्यन्तरमेव च ॥ १४ ॥
तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।
जलबुद्‌बुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ॥ १५ ॥
पृथ्वीसे ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है । उसके भी ऊपर तप्त स्वर्णकी आभावाला ब्रह्मलोक है । ब्रह्माण्डके बाहर-भीतर स्थित रहनेवाले ये सब कृत्रिम हैं । हे नारद ! उस ब्रह्माण्डके नष्ट होनेपर उन सबका विनाश हो जाता है । क्योंकि जलके बुलबुलेकी तरह यह सब लोक-समूह अनित्य है ॥ १२-१५ ॥

नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ प्रोक्तौ शश्वदकृत्रिमौ ।
प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डं परिनिश्चितम् ॥ १६ ॥
एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा ।
प्रत्येकं प्रतिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ १७ ॥
तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।
दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ॥ १८ ॥
भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽप्यधो नागाश्चराचराः ।
गोलोक और वैकुण्ठ सनातन, अकृत्रिम और नित्य बताये गये हैं । महाविष्णुके प्रत्येक रोमकूपमें ब्रह्माण्ड स्थित रहते हैं । इनकी संख्या श्रीकृष्ण भी नहीं जानते, फिर दूसरेकी क्या बात ? प्रत्येक ब्रह्माण्डमें अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विराजमान रहते हैं । हे पुत्र ! देवताओंकी संख्या वहाँ तीस करोड़ है । दिगीश्वर, दिक्पाल, ग्रह, नक्षत्र आदि भी ब्रह्माण्डमें विद्यमान रहते हैं । पृथ्वीपर चार वर्णके लोग और उसके नीचे पाताललोकमें नाग रहते हैं । इस प्रकार ब्रह्माण्डमें चराचर प्राणी विद्यमान हैं ॥ १६-१८.५ ॥

अथ कालेऽत्र स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ॥ १९ ॥
डिम्भान्तरे च शून्यं च न द्वितीयं च किञ्चन ।
चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ॥ २० ॥
तदनन्तर उस विराट्स्वरूप बालकने बार-बार ऊपरकी ओर देखा; किंतु उस गोलाकार पिण्डमें शून्यके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं था । तब वह चिन्तित हो उठा और भूखसे व्याकुल होकर बारबार रोने लगा ॥ १९-२० ॥

ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।
ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ २१ ॥
नवीनजलदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।
सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकातरम् ॥ २२ ॥
जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।
चेतनामें आकर जब उसने परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान किया तब उसे सनातन ब्रह्मज्योतिके दर्शन हुए । नवीन मेघके समान श्याम वर्ण, दो भुजाओंवाले, पीताम्बर धारण किये, मुसकानयुक्त, हाथमें मुरली धारण किये, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये व्याकुल पिता परमेश्वरको देखकर वह बालक प्रसन्न होकर हँस पड़ा ॥ २१-२२.५ ॥

वरं तदा ददौ तस्मै वरेशः समयोचितम् ॥ २३ ॥
मत्समो ज्ञानयुक्तश्च क्षुत्पिपासादिवर्जितः ।
ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ॥ २४ ॥
निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो भव ।
जरामृत्युरोगशोकपीडादिवर्जितो भव ॥ २५ ॥
तब वरके अधिदेव प्रभुने उसे यह समयोचित वर प्रदान किया-हे वत्स ! तुम मेरे समान ही ज्ञानसम्पन्न, भूख-प्याससे रहित तथा प्रलयपर्यन्त असंख्य ब्रह्माण्डके आश्रय रहो । तुम निष्काम, निर्भय तथा सभीको वर प्रदान करनेवाले हो जाओ; जरा, मृत्यु, रोग, शोक, पीडा आदिसे रहित हो जाओ ॥ २३-२५ ॥

इत्युक्त्वा तस्य कर्णे स महामन्त्रं षडक्षरम् ।
त्रिःकृत्वश्च प्रजजाप वेदाङ्‌गप्रवरं परम् ॥ २६ ॥
प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।
वह्निजायान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ २७ ॥
ऐसा कहकर उसके कानमें उन्होंने वेदोंके प्रधान अंगस्वरूप श्रेष्ठ षडक्षर महामन्त्रका तीन बार उच्चारण किया । आदिमें प्रणव तथा इसके बाद दो अक्षरोंवाले कृष्ण शब्दमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें स्वाहासे संयुक्त यह परम अभीष्ट मन्त्र (ॐ कृष्णाय स्वाहा) सभी विघ्नोंका नाश करनेवाला है । ॥ २६-२७ ॥

मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः ।
श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥ २८ ॥
प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै ॥ २९ ॥
मन्त्र देकर प्रभुने उसके आहारकी भी व्यवस्था की । हे ब्रह्मपुत्र ! उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ । प्रत्येक लोकमें वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णुका होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुषके होते हैं ॥ २८-२९ ॥

निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।
नैवेद्ये चैव कृष्णस्य न हि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥ ३० ॥
यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा ॥ ३१ ॥
उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्णको तो नैवेद्यसे कोई प्रयोजन नहीं है । भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं ॥ ३०-३१ ॥

तं च मन्त्रवरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः ।
वरमन्यं किमिष्टं ते तन्मे ब्रूहि ददामि च ॥ ३२ ॥
कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच विराड् विभुः ।
कृष्णं तं बालकस्तावद्वचनं समयोचितम् ॥ ३३ ॥
उस बालकको श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करके प्रभुने उससे पुनः पूछा कि तुम्हें दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, उसे मुझे बताओ; मैं देता हूँ । श्रीकृष्णकी बात सुनकर बालकरूप उन विराट् प्रभुने कृष्णसे समयोचित बात कही ॥ ३२-३३ ॥

बालक उवाच
वरो मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।
सततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ॥ ३४ ॥
त्वद्‍भक्तियुक्तलोकेऽस्मिञ्जीवन्मुक्तश्च सन्ततम् ।
त्वद्‍भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ३५ ॥
बालक बोला-मेरा वर है आपके चरणकमलमें मेरी अविचल भक्ति आयुपर्यन्त निरन्तर बनी रहे । मेरी आयु चाहे क्षणभरकी ही हो या अत्यन्त दीर्घ । इस लोकमें आपकी भक्तिसे युक्त प्राणी जीवन्मुक्त ही है और जो आपकी भक्तिसे रहित है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरेके समान है ॥ ३४-३५ ॥

किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन पूजनेन च ।
व्रतेन चोपवासेन पुण्येन तीर्थसेवया ॥ ३६ ॥
कृष्णभक्तिविहीनस्य मूर्खस्य जीवनं वृथा ।
येनात्मना जीवितश्च तमेव न हि मन्यते ॥ ३७ ॥
उस जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य तथा तीर्थसेवनसे क्या लाभ है; जो आपकी भक्तिसे रहित है । कृष्णभक्तिसे रहित मूर्खका जीवन ही व्यर्थ है जो कि वह उस परमात्माको ही नहीं भजता, जिसके कारण वह जीवित है ॥ ३६-३७ ॥

यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स शक्तिसंयुतः ।
पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्स्वतन्त्राः सर्वशक्तयः ॥ ३८ ॥
जबतक आत्मा शरीरमें है, तभीतक प्राणी शक्तिसम्पन्न रहता है । उस आत्माके निकल जानेके बाद वे सारी शक्तियाँ स्वतन्त्र होकर चली जाती हैं ॥ ३८ ॥

स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।
स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्मज्योतिः सनातनः ॥ ३९ ॥
हे महाभाग ! वे आप सबकी आत्मारूप हैं तथा प्रकृतिसे परे हैं । आप स्वेच्छामय, सबके आदि, सनातन तथा ब्रह्मज्योतिस्वरूप हैं ॥ ३९ ॥

इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।
उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ॥ ४० ॥
हे नारदजी ! यह कहकर वह बालक चुप हो गया । तब श्रीकृष्णने मधुर और कानोंको प्रिय लगनेवाली वाणीमें उसे प्रत्युत्तर दिया ॥ ४० ॥

श्रीकृष्ण उवाच
सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाहं त्वं तथा भव ।
ब्रह्मणोऽसंख्यपाते च पातस्ते न भविष्यति ॥ ४१ ॥
अंशेन प्रतिब्रह्माण्डे त्वं च क्षुद्रविराड् भव ।
त्वन्नाभिपद्माद्‌ ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति ॥ ४२ ॥
ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव ते ।
शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंहरणाय वै ॥ ४३ ॥
कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।
पाता विष्णुश्च विषयी रुद्रांशेन भविष्यति ॥ ४४ ॥
मद्‍भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।
ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम् ॥ ४५ ॥
मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् ।
यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ॥ ४६ ॥
गत्वा स्वलोकं ब्रह्माणं शङ्‌करं समुवाच ह ।
स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तुं चैव तत्क्षणम् ॥ ४७ ॥
श्रीकृष्ण बोले-तुम बहुत कालतक स्थिर भावसे रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ । असंख्य ब्रह्माके नष्ट होनेपर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा । प्रत्येक ब्रह्माण्डमें तुम अपने अंशसे क्षुद्रविरापिमें स्थित रहोगे । तुम्हारे नाभिकमलसे उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्वका सृजन करनेवाले होंगे । सृष्टिके संहारकार्यक लिये ब्रह्माके ललाटमें शिवांशसे वे ग्यारह रुद्र प्रकट होंगे । उनमेंसे एक कालाग्नि नामक रुद्र विश्वका संहार करनेवाले होंगे । तत्पश्चात् विश्वका पालन करनेवाले भोक्ता विष्णु भी रुद्रांशसे प्रकट होंगे । मेरे वरके प्रभावसे तुम सदा ही मेरी भक्तिसे युक्त रहोगे । तुम मुझ परम सुन्दर [जगत्पिता] तथा मेरे वक्षःस्थलमें निवास करनेवाली मनोहर जगन्माताको ध्यानके द्वारा निश्चितरूपसे निरन्तर देख सकोगे । हे वत्स ! अब तुम यहाँ रहो, मैं अपने लोकको जा रहा हूँ-ऐसा कहकर वे प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये । अपने लोकमें जाकर उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको सृष्टि करनेके लिये तथा [संहारकर्ता] शंकरजीको संहार करनेके लिये आदेश दिया ॥ ४१-४७ ॥

श्रीभगवानुवाच
सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ॥ ४८ ॥
गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्‍भवो भव ।
अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तप ॥ ४९ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे वत्स ! सृष्टिकी रचना करनेके लिये जाओ । हे विधे ! सुनो, महाविराट्के एक रोमकूपमें स्थित क्षुदविराट्के नाभिकमलसे प्रकट होओ । हे वत्स ! (हे महादेव !) जाओ, अपने अंशसे ब्रह्माके ललाटसे प्रकट होओ । हे महाभाग ! स्वयं भी दीर्घ कालतक तपस्या करो । ४८-४९ ॥

इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुत ।
जगाम ब्रह्मा तं नत्वा शिवश्च शिवदायकः ॥ ५० ॥
हे ब्रह्मपुत्र नारद ! ऐसा कहकर जगत्पति श्रीकृष्ण चुप हो गये । तब उन्हें नमस्कार करके ब्रह्मा तथा कल्याणकारी शिवजी चल पड़े ॥ ५० ॥

महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डगोलके जले ।
बभूव च विराट् क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ॥ ५१ ॥
श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके ।
ईषद्धास्यः प्रसन्नास्यो विश्वव्यापी जनार्दनः ॥ ५२ ॥
महाविराट्के रोमकूपमें स्थित ब्रह्माण्डगोलकके जलमें वे विराटपुरुष अपने अंशसे ही अब क्षुद्रविराट पुरुषके रूपमें प्रकट हुए । श्याम वर्ण, युवा, पीताम्बर धारण किये वे विश्वव्यापी जनार्दन जलकी शय्यापर शयन करते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे थे । उनका मुखमण्डल प्रसन्नतासे युक्त था ॥ ५१-५२ ॥

तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्‍भवः ।
सम्भूय पद्मदण्डे च बभ्राम युगलक्षकम् ॥ ५३ ॥
नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनालस्य पद्मजः ।
नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पिता तव ॥ ५४ ॥
उनके नाभिकमलसे ब्रह्मा प्रकट हुए । उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्डमें एक लाख युगोंतक चक्कर लगाते रहे । फिर भी वे पायोनि ब्रह्मा पद्मनाभकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनालके अन्ततक नहीं जा सके, [हे नारद !]तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये । ५३-५४ ॥

स्वस्थानं पुनरागम्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् ।
ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यानेन दिव्यचक्षुषा ॥ ५५ ॥
शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डगोलकाप्लुते ।
यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ॥ ५६ ॥
श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् ।
तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ॥ ५७ ॥
तब अपने पूर्वस्थानपर आकर उन्होंने श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान किया । तत्पश्चात् ध्यानद्वारा दिव्य चक्षुसे उन्होंने ब्राण्डगोलकमें आप्लुत जलशय्यापर शयन करते हुए उन क्षुद्रविराट् पुरुषको देखा, साथ ही जिनके रोमकूपमें ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुषको तथा उनके भी परम प्रभु श्रीकृष्णको और गोप-गोपियोंसे समन्वित गोलोकको भी देखा । तत्पश्चात् श्रीकृष्णकी स्तुति करके उन्होंने उनसे वर प्राप्त किया और सृष्टिका कार्य प्रारम्भ कर दिया ॥ ५५-५७ ॥

बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।
ततो रुद्रकलाश्चापि शिवस्यैकादश स्मृताः ॥ ५८ ॥
बभूव पाता विष्णुश्च क्षुद्रस्य वामपार्श्वतः ।
चतुर्भुजश्च भगवान् श्वेतद्वीपे स चावसत् ॥ ५९ ॥
सर्वप्रथम ब्रह्माजीके सनक आदि मानस पुत्र उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् शिवकी सुप्रसिद्ध ग्यारह रुद्रकलाएँ प्रादुर्भूत हुईं । तदनन्तर क्षुद्रविराट्के वामभागसे लोकोंकी रक्षा करनेवाले चतुर्भुज भगवान् विष्णु प्रकट हुए, वे श्वेतद्वीपमें निवास करने लगे ॥ ५८-५९ ॥

क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज ह ।
स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकीं सचराचराम् ॥ ६० ॥
एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च ।
प्रतिविश्वे क्षुद्रविराड् ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ६१ ॥
इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कृष्णसङ्‌कीर्तनं शुभम् ।
सुखदं मोक्षदं ब्रह्मन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६२ ॥
क्षुद्रविराट्के नाभिकमलमें प्रकट हुए ब्रह्माजीने सारी सृष्टि रची । उन्होंने स्वर्ग, मृत्युलोक, पाताल, चराचरसहित तीनों लोकोंकी रचना की । इस प्रकार महाविराट्के सभी रोमकूपोंमें एक-एक ब्रह्माण्डकी सृष्टि हुई । प्रत्येक ब्रह्माण्डमें क्षुद्रविराट, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं । हे ब्रह्मन् ! मैंने श्रीकृष्णका शुभ चरित्र कह दिया, जो सुख और मोक्ष देनेवाला है । हे ब्रह्मन् ! आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६०-६२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादि-
देवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥


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