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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
चतुर्थोऽध्यायः

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सरस्वतीस्तोत्रपूजाकवचादिवर्णनम् -
सरस्वतीको पूजाका विधान तथा कवच -


नारद उवाच
श्रुतं सर्वं मया पूर्वं त्वत्प्रसादात्सुधोपमम् ।
अधुना प्रकृतीनां च व्यस्तं वर्णय पूजनम् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे भगवन् ! मैंने आपकी कृपासे यह अमृततुल्य सारी कथा तो सुन ली, अब आप प्रकृतिदेवियोंके पूजनका विस्तृत वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

कस्याः पूजा कृता केन कथं मर्त्ये प्रचारिता ।
केन वा पूजिता का वा केन का वा स्तुता प्रभो ॥ २ ॥
तासां स्तोत्रं च ध्यानं च प्रभावं चरितं शुभम् ।
काभिः केभ्यो वरो दत्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥
किसने किस देवीकी पूजा की और उसने मृत्युलोकमें किस प्रकार पूजाका विस्तार किया ? हे प्रभो ! किस मन्त्रसे किस देवीकी पूजा तथा किस स्तोत्रसे किस देवीकी स्तुति की गयी ? उन देवियोंके स्तोत्र, ध्यान, प्रभाव तथा पवित्र चरित्रके विषयमें मुझे बताइये । साथ ही किन-किन देवियोंने किन-किन भक्तोंको वर प्रदान किये, कृपा करके मुझे वह भी बताइये ॥ २-३ ॥

श्रीनारायण उवाच
गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती ।
सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! मूलप्रकृति सृष्टिकार्यके प्रयोजनार्थ गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा सावित्री-इन पाँच रूपोंवाली कही गयी हैं ॥ ४ ॥

आसां पूजा प्रसिद्धा च प्रभावः परमाद्‍भुतः ।
सुधोपमं च चरितं सर्वमङ्‌गलकारणम् ॥ ५ ॥
इन देवियोंकी पूजा अत्यन्त प्रसिद्ध है, इनका प्रभाव परम अद्‌भुत है और इनका चरित्र अमृततुल्य तथा सभी मंगलोंका कारण है ॥ ५ ॥

प्रकृत्यंशाः कला याश्च तासां च चरितं शुभम् ।
सर्वं वक्ष्यामि ते ब्रह्मन् सावधानो निशामय ॥ ६ ॥
हे ब्रह्मन् । प्रकृतिकी अंशसंज्ञक तथा कलासंज्ञक जो देवियाँ हैं, उनका सम्पूर्ण पवित्र चरित्र मैं आपको बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ ६ ॥

काली वसुन्धरा गङ्‌गा षष्ठी मङ्‌गलचण्डिका ।
तुलसी मनसा निद्रा स्वधा स्वाहा च दक्षिणा ॥ ७ ॥
संक्षिप्तमासां चरितं पुण्यदं श्रुतिसुन्दरम् ।
जीवकर्मविपाकं च तच्च वक्ष्यामि सुन्दरम् ॥ ८ ॥
काली, वसुन्धरा, गंगा, षष्ठी, मंगलचण्डिका, तुलसी, मनसा, निद्रा, स्वधा, स्वाहा तथा दक्षिणाइन देवियोंके महान् पुण्यदायक तथा सुननेमें प्रिय चरित्रका एवं प्राणियोंके कर्मविपाकका मैं संक्षिप्त तथा सुन्दर वर्णन करूँगा ॥ ७-८ ॥

दुर्गायाश्चैव राधाया विस्तीर्णं चरितं महत् ।
तद्वत्पश्चात्प्रवक्ष्यामि संक्षेपक्रमतः शृणु ॥ ९ ॥
दुर्गा और राधाका चरित्र बहुत विस्तृत है, उसीका विस्तार बादमें कहँगा । पहले संक्षेपके क्रमसे सुन लीजिये ॥ ९ ॥

आदौ सरस्वतीपूजा श्रीकृष्णेन विनिर्मिता ।
यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डितः ॥ १० ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वप्रथम श्रीकृष्णने सरस्वतीकी पूजा प्रारम्भ की, जिनकी कृपासे मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है ॥ १० ॥

आविर्भूता यथा देवी वक्त्रतः कृष्णयोषितः ।
इयेष कृष्णं कामेन कामुकी कामरूपिणी ॥ ११ ॥
जब देवी सरस्वती कृष्णवल्लभा राधाके मुखसे प्रकट हुईं, तब उन कामरूपा कामिनीने श्रीकृष्णको कामभावसे प्राप्त करनेकी लालसा की ॥ ११ ॥

स च विज्ञाय तद्‍भावं सर्वज्ञः सर्वमातरम् ।
तामुवाच हितं सत्यं परिणामे सुखावहम् ॥ १२ ॥
उनका अभिप्राय समझकर सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्णने सबकी माता उन सरस्वतीसे सत्य, हितकर तथा परिणाममें सुखकर बात कही ॥ १२ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
भज नारायणं साध्वि मदंशं च चतुर्भुजम् ।
युवानं सुन्दरं सर्वगुणयुक्तं च मत्समम् ॥ १३ ॥
कामज्ञं कामिनीनां च तासां च कामपूरकम् ।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलालङ्‌कतमीश्वरम् ॥ १४ ॥
श्रीकृष्ण बोले-हे साध्वि ! तुम मेरे ही अंशस्वरूप चतुर्भुज नारायणका सेवन करो । वे सदा तरुणावस्थामें विराजमान, सुन्दर रूपवाले. सभी गणोंसे सम्पन्न तथा मेरे ही समान हैं । वे कामिनियोंकी कामनाओंको जाननेवाले तथा उनकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं, करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर हैं और लीलामय अलंकारोंसे अलंकृत हैं तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं ॥ १३-१४ ॥

कान्ते कान्तं च मां कृत्वा यदि स्थातुमिहेच्छसि ।
त्वत्तो बलवती राधा न भद्रं ते भविष्यति ॥ १५ ॥
हे कान्ते ! मुझे पति बनाकर यदि तुम यहाँ रहना चाहती हो, तो तुमसे भी अधिक बलवती राधा यहाँ हैं, अतः तुम्हारा कल्याण नहीं होगा ॥ १५ ॥

यो यस्माद्‌ बलवान्वापि ततोऽन्यं रक्षितुं क्षमः ।
कथं परान्साधयति यदि स्वयमनीश्वरः ॥ १६ ॥
जो मनुष्य जिससे बलवान् होता है, वह उससे तो दूसरे प्राणीकी रक्षा करनेमें समर्थ है; किंतु यदि स्वयं सामर्थ्यरहित है तो दूसरोंकी रक्षा कैसे कर सकता है ? ॥ १६ ॥

सर्वेशः सर्वशास्ताहं राधां बाधितुमक्षमः ।
तेजसा मत्समा सा च रूपेण च गुणेन च ॥ १७ ॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी सा प्राणांस्त्यक्तुं च कः क्षमः ।
प्राणतोऽपि प्रियः पुत्रः केषां वास्ति च कश्चन ॥ १८ ॥
त्वं भद्रे गच्छ वैकुण्ठं तव भद्रं भविष्यति ।
पतिं तमीश्वरं कृत्वा मोदस्व सुचिरं सुखम् ॥ १९ ॥
सबका ईश्वर तथा सबपर शासन करनेवाला मैं राधाको रोक पानेमें असमर्थ हूँ; क्योंकि वे भी तेज, रूप तथा गुणमें मेरे ही समान हैं । किन्हीं भी पुरुषोंके लिये कोई पत्र क्या प्राणसे अधिक प्रिय हो सकता है अर्थात् नहीं । वे राधा तो मेरे प्राणोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं तो फिर उन प्राणरूपा राधाको छोड़नेमें मैं कैसे समर्थ हो सकता हूँ । हे भद्रे ! तुम वैकुण्ठलोक जाओ; तुम्हारा कल्याण होगा । उन्हीं ऐश्वर्यसम्पन्न विष्णुको पति बनाकर दीर्घ कालतक सुखपूर्वक आनन्द प्राप्त करो ॥ १७-१९ ॥

लोभमोहकामक्रोधमानहिंसाविवर्जिता ।
तेजसा त्वत्समा लक्ष्मी रूपेण च गुणेन च ॥ २० ॥
तया सार्धं तव प्रीत्या शश्वत्कालः प्रयास्यति ।
गौरवं च हरिस्तुल्यं करिष्यति द्वयोरपि ॥ २१ ॥
लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान और हिंसासे रहित एवं तेज, रूप और गुणमें तुम्हारे ही समान [उनकी पत्नी] लक्ष्मी भी वहाँ हैं । उनके साथ तुम्हारा समय सदा प्रेमपूर्वक व्यतीत होगा और विष्णु भी तुम दोनोंका समान-रूपसे सम्मान करेंगे । २०-२१ ॥

प्रतिविश्वेषु तां पूजां महतीं गौरवान्विताम् ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भे च सुन्दरि ॥ २२ ॥
मानवा मनवो देवा मुनीन्द्राश्च मुमुक्षवः ।
वसवो योगिनः सिद्धा नागा गन्धर्वराक्षसाः ॥ २३ ॥
मद्वरेण करिष्यन्ति कल्पे कल्पे लयावधि ।
भक्तियुक्ताश्च दत्त्वा वै चोपचाराणि षोडश ॥ २४ ॥
हे सुन्दरि ! प्रत्येक ब्रह्माण्डमें माघ शुक्ल पंचमी तिथिको विद्यारम्भके अवसरपर मनुष्य, मनुगण, देवता, मुनीन्द्र, मुमुक्षुजन, वसु, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और राक्षस मेरे वरके प्रभावसे आजसे लेकर प्रलयपर्यन्त प्रत्येक कल्पमें भक्तिपूर्वक षोडशोपचार-पूजा अर्पण करके बड़े गौरवके साथ तुम्हारी उत्कृष्ट पूजा सम्पन्न करेंगे ॥ २२-२४ ॥

कण्वशाखोक्तविधिना ध्यानेन स्तवनेन च ।
जितेन्द्रियाः संयताश्च घटे च पुस्तकेऽपि च ॥ २५ ॥
कृत्वा सुवर्णगुटिकां गन्धचन्दनचर्चिताम् ।
कवचं ते ग्रहीष्यन्ति कण्ठे वा दक्षिणे भुजे ॥ २६ ॥
पठिष्यन्ति च विद्वांसः पूजाकाले च पूजिते ।
जितेन्द्रिय तथा संयमशील व्यक्ति कण्वशाखामें कही गयी विधिके अनुसार ध्यान तथा स्तुतिपूर्वक घट अथवा पुस्तकमें आवाहित करके तुम्हारा पूजन करेंगे । तुम्हारे कवचको लिखकर उसे सोनेकी गुटिका (डिब्बी)-में रखकर पुनः उसे गन्ध-चन्दन आदिसे सुपूजित करके लोग अपने गले अथवा दाहिनी भुजामें धारण करेंगे । पूजाके पावन अवसरपर विद्वज्जन तुम्हारे इस कवचका पाठ करेंगे ॥ २५-२६.५ ॥

इत्युक्त्वा पूजयामास तां देवीं सर्वपूजिताम् ॥ २७ ॥
ततस्तत्पूजनं चकुर्ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
अनन्तश्चापि धर्मश्च मुनीन्द्राः सनकादयः ॥ २८ ॥
सर्वे देवाश्च मुनयो नृपाश्च मानवादयः ।
बभूव पूजिता नित्यं सर्वलोकैः सरस्वती ॥ २९ ॥
ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्णने सभी लोगोंके द्वारा पूजित उन भगवती सरस्वतीका पूजन किया । तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त, धर्म, सनकादि मुनीश्वर, देवता, मुनिगण, राजा और मनुष्य आदिये सब भी सरस्वतीकी उपासना करने लगे । तभीसे ये सरस्वती सम्पूर्ण प्राणियोंके द्वारा सदा पूजित होने लगीं ॥ २७-२९ ॥

नारद उवाच
पूजाविधानं कवचं ध्यानं चापि निरन्तरम् ।
पूजोपयुक्तं नैवेद्यं पुष्पं च चन्दनादिकम् ॥ ३० ॥
वद वेदविदां श्रेष्ठ श्रोतुं कौतूहलं मम ।
वर्तते हृदये शश्वत्किमिदं श्रुतिसुन्दरम् ॥ ३१ ॥
नारदजी बोले-हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! आप उन भगवतीके पूजाविधान, कवच, ध्यान, पूजाके उपयुक्त नैवेद्य, पुष्प, चन्दन आदिके विषयमें मुझे बतायें । यह सब सुननेकी लालसा मेरे हृदयमें निरन्तर बनी रहती है । सुनने में इससे अधिक सुन्दर (प्रिय) क्या हो सकता है ? ॥ ३०-३१ ॥

श्रीनारायण उवाच
शृणु नारद वक्ष्यामि कण्वशाखोक्तपद्धतिम् ।
जगन्मातुः सरस्वत्याः पूजाविधिसमन्विताम् ॥ ३२ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! सुनिये, जगज्जननी सरस्वतीको पूजाविधिसे संयुक्त कण्वशाखोक्त पद्धतिका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३२ ॥

माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भदिनेऽपि च ।
पूर्वेऽह्नि समयं कृत्वा तत्राह्नि संयतः शुचिः ॥ ३३ ॥
स्नात्वा नित्यक्रियाः कृत्वा घटं संस्थाप्य भक्तितः ।
स्वशाखोक्तविधानेन तान्त्रिकेणाथवा पुनः ॥ ३४ ॥
गणेशं पूर्वमभ्यर्च्य ततोऽभीष्टां प्रपूजयेत् ।
माघ शुक्ल पंचमी तथा विद्यारम्भके दिन भी पूर्वाह्नकालमें प्रतिज्ञा करके आराधक उस दिन संयम तथा पवित्रतासे युक्त रहे । स्नान और नित्यक्रिया करके भक्तिपूर्वक कलश-स्थापन करनेके बाद अपनी शाखामें कही गयी विधिसे अथवा तान्त्रिक विधिसे पहले गणेशजीका पूजन करके अभीष्ट देवी सरस्वतीकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । ३३-३४.५ ॥

ध्यानेन वक्ष्यमाणेन ध्यात्वा बाह्यघटे ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
ध्यात्वा पुनः षोडषोपचारेण पूजयेद्‌ व्रती ।
पूजोपयुक्तं नैवेद्यं यच्च वेदनिरूपितम् ॥ ३६ ॥
वक्ष्यामि सौम्य तत्किञ्चिद्यथाधीतं यथागमम् ।
नवनीतं दधि क्षीरं लाजांश्च तिललड्डुकम् ॥ ३७ ॥
इक्षुमिक्षुरसं शुक्लवर्णं पञ्चगुडं मधु ।
स्वस्तिकं शर्करां शुक्लधान्यस्याक्षतमक्षतम् ॥ ३८ ॥
अच्छिन्नशुक्लधान्यस्य पृथुकं शुक्लमोदकम् ।
घृतसैन्धवसंयुक्तं हविष्यान्नं यथोदितम् ॥ ३९ ॥
यवगोधूमचूर्णानां पिष्टकं घृतसंयुतम् ।
पिष्टकं स्वस्तिकस्यापि पक्वरम्भाफलस्य च ॥ ४० ॥
परमान्नं च सघृतं मिष्टान्नं च सुधोपमम् ।
नारिकेलं तदुदकं कसेरुं मूलमार्द्रकम् ॥ ४१ ॥
पक्वरम्भाफलं चारु श्रीफलं बदरीफलम् ।
कालदेशोद्‍भवं चारु फलं शुक्लं च संस्कतम् ॥ ४२ ॥
बताये गये ध्यानके द्वारा बाह्य घटमें देवीका ध्यान करके तत्पश्चात् व्रतीको चाहिये कि फिर ध्यानपूर्वक षोडशोपचार विधिसे भगवती सरस्वतीका पूजन करे । हे सौम्य ! सरस्वती-पूजाके लिये उपयोगी जो कुछ नैवेद्य वेदोंमें बताये गये हैं और जैसा मैंने आगमशास्त्रमें अध्ययन किया है, उसे आपको बता रहा हूँ-मक्खन, दही, दूध, धानका लावा, तिलका लड्डु, सफेद गन्ना, गन्नेका रस, उसे पकाकर बनाया हुआ गुड़, मधु, स्वस्तिक (एक प्रकारका पक्वान्न), शक्कर, सफेद धानका बिना टूटा हुआ चावल (अक्षत), बिना उबाले हुए श्वेत धानका चिउड़ा, सफेद लड़, घी और सेंधा नमक डालकर बनाया गया शास्त्रोक्त हविष्यान्न, जी अथवा गेहूँके आटेसे घृतमें तले हुए पदार्थ, स्वस्तिक तथा पके हुए केलेका पिष्टक, उत्तम अन्नको घृतमें पकाकर उससे बना हुआ अमृततुल्य मधुर मिष्टान्न, नारियल, नारियलका जल, कसेरु, मूली, अदरक, पका हुआ केला, सुन्दर बेल, बेरका फल, देश और कालके अनुसार उपलब्ध सुन्दर, श्वेत और पवित्र ऋतुफल-ये नैवेद्य (प्रशस्त) हैं ॥ ३५-४२ ॥

सुगन्धं शुक्लपुष्पं च सुगन्धं शुक्लचन्दनम् ।
नवीनं शुक्लवस्त्रं च शङ्‌खं च सुन्दरं मुने ॥ ४३ ॥
हे मुने ! सुगन्धित श्वेत पुष्प, सुगन्धित श्वेत चन्दन, नवीन श्वेत वस्त्र तथा सुन्दर शंख, श्वेत पुष्पोंकी माला, श्वेत वर्णका हार तथा आभूषण भगवती सरस्वतीको अर्पण करने चाहिये ॥ ४३ ॥

माल्यं च शुक्लपुष्पाणां शुक्लहारं च भूषणम् ।
यादृशं च श्रुतौ ध्यानं प्रशस्यं श्रुतिसुन्दरम् ॥ ४४ ॥
तन्निबोध महाभाग भ्रमभञ्जनकारणम् ।
हे महाभाग ! भगवती सरस्वतीका जैसा ध्यान वेदमें वर्णित है; उस प्रशंसनीय, सुननेमें सुन्दर तथा भ्रमका नाश करनेवाले ध्यानके विषयमें सुनिये ॥ ४४.५ ॥

सरस्वतीं शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम् ॥ ४५ ॥
कोटिचन्द्रप्रभामुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां वीणापुस्तकधारिणीम् ॥ ४६ ॥
रत्‍नसारेन्द्रनिर्माणनवभूषणभूषिताम् ।
सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ ४७ ॥
वन्दे भक्त्या वन्दितां च मुनीन्द्रमनुमानवैः ।
एवं ध्यात्वा च मूलेन सर्वं दत्त्वा विचक्षणः ॥ ४८ ॥
संस्तूय कवचं धृत्वा प्रणमेद्दण्डवद्‌भुवि ।
येषां चेयमिष्टदेवी तेषां नित्यक्रिया मुने ॥ ४९ ॥
'मैं भक्तिपूर्वक शुक्ल वर्णवाली, मुसकानयुक्त, अत्यन्त मनोहर, करोड़ों चन्द्रमाकी प्रभाको तिरस्कृत करनेवाले परिपुष्ट तथा श्रीसम्पन्नविग्रहवाली, अग्निसदृश विशुद्ध वस्त्र धारण करनेवाली, हाथमें वीणा तथा पुस्तक धारण करनेवाली, उत्कृष्ट कोटिके रत्नोंसे निर्मित नवीन आभूषणोंसे विभूषित, ब्रह्मा-विष्णुशिव आदि देवगणोंसे सम्यक् पूजित तथा मुनीश्वरों, मनुगण और मनुष्योंसे वन्दित भगवती सरस्वतीकी वन्दना करता हूँ'-इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष समस्त पूजन-सामग्री मूलमन्त्रसे विधिपूर्वक सरस्वतीको अर्पण करके स्तुति करे और कवचको धारण करके दण्डकी भांति भूमिपर गिरकर सरस्वतीको प्रणाम करे । हे मुने ! ये सरस्वती जिन लोगोंकी इष्ट देवी हैं, उनके लिये तो यह नित्यक्रिया है । अन्य सभी लोगोंको विद्यारम्भके अवसरपर, वर्षक अन्तमें तथा पंचमी तिथिको यह आराधना अवश्य करनी चाहिये ॥ ४५-४९ ॥

विद्यारम्भे च वर्षान्ते सर्वेषां पञ्चमीदिने ।
सर्वोपयुक्तं मूलं च वैदिकाष्टाक्षरः परः ॥ ५० ॥
येषां येनोपदेशो वा तेषां स मूल एव च ।
सरस्वती चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ५१ ॥
वैदिक अष्टाक्षर मूल मन्त्र परम श्रेष्ठ तथा सबके लिये उपयोगी है । अथवा जिन्हें जिसने जिस मन्त्रका उपदेश दिया है, उनके लिये वही मूल मन्त्र है । सरस्वती-इस शब्दके अन्तमें चतुर्थी तथा अन्तमें 'स्वाहा' लगाकर सबके आदिमें लक्ष्मीबीज और मायाबीज लगाकर बना हुआ यह मन्त्र श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा' कल्पवृक्षके समान है ॥ ५०-५१ ॥

लक्ष्मीमायादिकं चैव मन्त्रोऽयं कल्पपादपः ।
पुरा नारायणश्चेमं वाल्मीकाय कृपानिधिः ॥ ५२ ॥
प्रददौ जाह्नवीतीरे पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
भृगुर्ददौ च शुक्राय पुष्करे सूर्यपर्वणि ॥ ५३ ॥
चन्द्रपर्वणि मारीचो ददौ वाक्पतये मुदा ।
भृगोश्चैव ददौ तुष्टो ब्रह्मा बदरिकाश्रमे ॥ ५४ ॥
प्राचीन कालमें कृपानिधि भगवान् नारायणने पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में गंगाके तटपर वाल्मीकिको यह मन्त्र प्रदान किया था । इसी प्रकार भृगुमुनिने पुष्करक्षेत्रमें सूर्यग्रहणपर्वके अवसरपर यह मन्त्र शुक्राचार्यको प्रदान किया, मारीच (कश्यप)-ने चन्द्रग्रहणके समयपर प्रसन्न होकर बृहस्पतिको इसका उपदेश किया और ब्रह्माजीने भृगुसे सन्तुष्ट होकर बदरिकाश्रममें उन्हें यह मन्त्र दिया था ॥ ५२-५४ ॥

आस्तिकस्य जरत्कारुर्ददौ क्षीरोदसन्निधौ ।
विभाण्डको ददौ मेरौ ऋष्यशृङ्‌गाय धीमते ॥ ५५ ॥
शिवः कणादमुनये गौतमाय ददौ मुदा ।
सूर्यश्च याज्ञवल्क्याय तथा कात्यायनाय च ॥ ५६ ॥
शेषः पाणिनये चैव भारद्वाजाय धीमते ।
ददौ शाकटायनाय सुतले बलिसंसदि ॥ ५७ ॥
जरत्कारुमुनिने क्षीरसागरके समीप आस्तिकको यह मन्त्र दिया था और विभाण्डकमुनिने मेरुपर्वतपर बुद्धिमान् ऋष्यशृंगको इसका उपदेश दिया था । भगवान् शिवने आनन्दित होकर कणादमुनि तथा गौतमको यह मन्त्र प्रदान किया था और सूर्यने याज्ञवल्क्य तथा कात्यायनको इस मन्त्रका उपदेश किया था । शेषनागने सुतल लोकमें बलिकी सभामें पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज और शाकटायनको यह मन्त्र दिया था ॥ ५५-५७ ॥

चतुर्लक्षजपेनैव मन्त्रः सिद्धो भवेन्नृणाम् ।
यदि स्यान्मन्त्रसिद्धो हि बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ५८ ॥
चार लाख जप कर लेनेसे यह मन्त्र मनुष्योंके लिये सिद्ध हो जाता है । यदि मनुष्य इस मन्त्रमें सिद्ध हो जाय, तो वह बृहस्पतिके समान हो जाता है ॥ ५८ ॥

कवचं शृणु विप्रेन्द्र यद्दत्तं ब्रह्मणा पुरा ।
विश्वस्रष्टा विश्वजयं भृगवे गन्धमादने ॥ ५९ ॥
हे विप्रवर ! अब आप विश्वपर विजय प्राप्त करानेवाले सरस्वतीकवचके विषयमें सुनिये, जिसे पूर्वकालमें जगतका सृजन करनेवाले ब्रह्माजीने गन्धमादनपर्वतपर भृगुमुनिको प्रदान किया था ॥ ५९ ॥

भृगुरुवाच
ब्रह्मन्ब्रह्मविदां श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानविशारद ।
सर्वज्ञ सर्वजनक सर्वेश सर्वपूजित ॥ ६० ॥
सरस्वत्याश्च कवचं ब्रूहि विश्वजयं प्रभो ।
अयातयामं मन्त्राणां समूहसंयुतं परम् ॥ ६१ ॥
भृगु बोले-ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, ब्रह्मज्ञानमें पारंगत, सब कुछ जाननेवाले, सबकी सृष्टि करनेवाले, सबके स्वामी तथा सभीके द्वारा पूजित हे ब्रह्मन् ! हे प्रभो ! आप मुझे मन्त्रोंके समूहसे युक्त तथा परम पवित्र 'विश्वजय' नामक सरस्वतीकवच बतलाइये ॥ ६०-६१ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ ६२ ॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने ।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ ६३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे वत्स ! सुनिये; मैं आपसे सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, वेदोंके सारस्वरूप, कानोंको सुख देनेवाले, वेदप्रतिपादित तथा वेदपूजित कवचका वर्णन करूंगा । रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने गोलोक वृन्दावनमें रासलीलाके अवसरपर रासमण्डलमें मुझे यह कवच बताया था ॥ ६२-६३ ॥

अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् ।
अश्रुताद्‍भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ ६४ ॥
यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ।
यद्धृत्वा पठनाद्‌ ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः ॥ ६५ ॥
हे ब्रह्मन् ! यह कवच परम गोपनीय, कल्पवृक्षके समान श्रेष्ठ तथा न सुने हुए अद्‌भुत मन्त्रसमूहोंसे युक्त है, जिसे धारण करके भगवान् शुक्राचार्य समस्त दैत्योंके पूज्य बन गये और जिसे धारण करके इसका पाठ करनेसे बृहस्पति परम बुद्धिमान् हो गये । ६४-६५ ॥

पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः ।
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ६६ ॥
इसी प्रकार इस कवचके धारण करने तथा इसका पाठ करनेसे वाल्मीकिमनि विद्वान तथा कवीश्वर हो गये और स्वायम्भुव मनु इसे धारण करके सभीके पूज्य हो गये ॥ ६६ ॥

कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः ।
ग्रन्धं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ ६७ ॥
इस कवचको धारण करके ही स्वयं कणाद, गौतम, कण्व, पाणिनि, शाकटायन, दक्ष और कात्यायन ग्रन्ध-रचना करने में समर्थ हुए ॥ ६७ ॥

धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च ।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ ६८ ॥
इसी प्रकार स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यासजीने भी इसे धारण करके लीलामात्रमें वेदोंका विभाग तथा सम्पूर्ण पुराणोंका प्रणयन किया ॥ ६८ ॥

शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः ।
यद्धृत्वा पठनाद्‌ ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ६९ ॥
ऋष्यशृङ्‌गो भरद्वाजश्चास्तिको देवलस्तथा ।
जैगीषव्यो ययातिश्च धृत्वा सर्वत्र पूजिताः ॥ ७० ॥
शातातप, संवर्त, वसिष्ठ, पराशर तथा याज्ञवल्क्यने इसे धारण करके इसके पाठसे ग्रन्थ-रचना की । इसी प्रकार ऋष्यशृंग, भरद्वाज, आस्तिक, देवल, जैगीषव्य और ययाति इस कवचको धारण करके सर्वत्र पूजित हुए ॥ ६९-७० ॥

कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेव प्रजापतिः ।
स्वयं छन्दश्च बृहती देवता शारदाम्बिका ॥ ७१ ॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञानसर्वार्थसाधनेषु च ।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ७२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! इस कवचके ऋषि स्वयं प्रजापति ही हैं इसका छन्द बृहती है और देवता माता शारदा हैं । सभी तत्त्वोंके परिज्ञान करनेमें, सम्पूर्ण अोंके साधनमें तथा सभी कविताओंके विवेचनमें इस कवचका विनियोग बताया गया है ॥ ७१-७२ ॥

श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु ॥ ७३ ॥
'श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा'-यह मन्त्र सभी ओरसे मेरे सिरकी रक्षा करे । 'श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा'- यह मन्त्र सदा मेरे ललाटकी रक्षा करे ॥ ७३ ॥

ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् ।
ओं श्रीं ह्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु ॥ ७४ ॥
'ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा'-यह मन्त्र मेरे दोनों कानोंकी निरन्तर रक्षा करे और 'ॐ श्रीं ह्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा'-यह मन्त्र मेरे दोनों नेत्रोंकी सदा रक्षा करे ॥ ७४ ॥

ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदावतु ।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदावतु ॥ ७५ ॥
'ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र मेरी नासिकाकी सदा रक्षा करे और 'ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा'- यह मन्त्र सदा मेरे ओष्ठकी रक्षा करे ॥ ७५ ॥

ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपंक्तिं सदावतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु ॥ ७६ ॥
'ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहा'-यह मन्त्र मेरी दन्तपंक्तिकी सदा रक्षा करे और 'ऐं' यह एकाक्षरमन्त्र मेरे कण्ठकी सदा रक्षा करे ॥ ७६ ॥

ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु ।
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु ॥ ७७ ॥
'ॐ श्रीं ह्रीं'-यह मन्त्र मेरी गर्दनकी रक्षा करे तथा 'श्रीं'-यह मन्त्र मेरे दोनों कन्धोंकी सदा रक्षा करे । 'ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा'-यह मन्त्र सदा मेरे वक्षःस्थलकी रक्षा करे ॥ ७७ ॥

ॐ ह्रीं विद्याधिस्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु ॥ ७८ ॥
'ह्रीं विद्याधिस्वरूपायै स्वाहा'-यह मन्त्र मेरी नाभिकी रक्षा करे और 'ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहा'-यह मन्त्र सदा मेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करे ॥ ७८ ॥

ॐ सर्ववर्णात्मिकायै स्वाहा पादयुग्मं सदावतु ।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्वं सदावतु ॥ ७९ ॥
'ॐ सर्ववर्णात्मिकायै [स्वाहा ]'-यह मन्त्र मेरे दोनों पैरोंकी सदा रक्षा करे और 'ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा'-यह मन्त्र सदा मेरे सम्पूर्ण शरीरकी रक्षा करे ॥ ७९ ॥

ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु ।
ॐ सर्वजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु ॥ ८० ॥
'ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र पूर्व दिशामें सदा मेरी रक्षा करे और 'ॐ सर्वजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र अग्निकोणमें मेरी रक्षा करे ॥ ८० ॥

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु ॥ ८१ ॥
'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा'-यह मन्त्रराज दक्षिण दिशामें सर्वदा निरन्तर मेरी रक्षा करे ॥ ८१ ॥

ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां सर्वदावतु ।
ॐ ऐं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ८२ ॥
'ऐं ह्रीं श्रीं'-यह त्र्यक्षर मन्त्र नैर्ऋत्यकोणमें सदा मेरी रक्षा करे और 'ॐ ऐं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र पश्चिम दिशामें मेरी रक्षा करे ॥ ८२ ॥

ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु ।
ॐ ऐं श्रीं क्लीं गद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ८३ ॥
'ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा'-यह मन्त्र वायव्यकोणमें सदा मेरी रक्षा करे और 'ॐ ऐं श्रीं क्नी गद्यवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र सदा उत्तर दिशामें मेरी रक्षा करे ॥ ८३ ॥

ॐ ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु ।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु ॥ ८४ ॥
'ॐ ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र ईशानकोणमें सदा मेरी रक्षा करे और 'ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा'-यह मन्त्र ऊपरसे सदा मेरी रक्षा करे ॥ ८४ ॥

ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु ।
ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ ८५ ॥
'ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहा'-यह मन्त्र नीचेसे सदा मेरी रक्षा करे । 'ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा'-यह मन्त्र सब ओरसे मेरी रक्षा करे ॥ ८५ ॥

इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम् ॥ ८६ ॥
हे विप्र ! मैंने आपको ब्रह्ममन्त्रसमूहके विग्रहरूप इस सरस्वतीकवचको बतला दिया । 'विश्वजय' नामक यह कवच साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है । ८६ ॥

पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्धमादने ।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ८७ ॥
पूर्व कालमें मैंने गन्धमादनपर्वतपर धर्मदेवके मुखसे यह कवच सुना था । आपके स्नेहके कारण मैंने आपको इसे बतलाया है । किसी अन्य व्यक्तिको इसे नहीं बताना चाहिये ॥ ८७ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्‌कारचन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद्‍भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ८८ ॥
विद्वान पुरुषको चाहिये कि नानाविध वस्त्र, अलंकार तथा चन्दनसे भलीभाँति गुरुकी पूजा करके दण्डकी भाँति जमीनपर गिरकर प्रणाम करे और इसके बाद इस कवचको धारण करे ॥ ८८ ॥

पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ८९ ॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्वं जेतुं च कवचस्य प्रसादतः ॥ ९० ॥
पाँच लाख जप कर लेनेसे यह कवच सिद्ध हो जाता है । इस कवचको यदि साधक सिद्ध कर ले तो वह बृहस्पतिके समान हो जाता है । इस कवचके प्रसादसे मनुष्य महान् वक्ता, कवियोंका सम्राट् तथा तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करनेवाला हो जाता है और वह सब कुछ जीत लेनेमें समर्थ हो जाता है ॥ ८९-९० ॥

इदं च कण्वशाखोक्तं कवचं कथितं मुने ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं च वन्दनं शृणु ॥ ९१ ॥
हे मुने ! मैंने कण्वशाखाके अन्तर्गत वर्णित यह सरस्वती-कवच आपको बतला दिया । अब आप सरस्वतीके स्तोत्र, पूजाविधान, ध्यान तथा वन्दनके विषयमें सुनिये ॥ ९१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे सरस्वतीस्तोत्र-
पूजाकवचादिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां नवमस्कन्धे सरस्वतीस्तोत्रपूजाकवचादिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥


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