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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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भूमिस्तोत्रवर्णनम् -
पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति -


नारद उवाच
देव्या निमेषमात्रेण ब्रह्मणः पात एव च ।
तस्य पातः प्राकृतिकः प्रलयः परिकीर्तितः ॥ १ ॥
प्रलये प्राकृते चोक्ता तत्रादृष्टा वसुन्धरा ।
जलप्लुतानि विश्वानि सर्वे लीनाः परात्मनि ॥ २ ॥
वसुन्धरा तिरोभूता कुत्र वा सा च तिष्ठति ।
सृष्टेर्विधानसमये साविर्भूता कथं पुनः ॥ ३ ॥
कथं बभूव सा धन्या मान्या सर्वाश्रया जया ।
तस्याश्च जन्मकथनं वद मङ्‌गलकारणम् ॥ ४ ॥
नारदजी बोले-[हे भगवन् !] आपने बतलाया कि देवीके निमेषमात्र व्यतीत होनेपर ब्रह्माका अन्त हो जाता है और उनका यह विनाश ही प्राकृतिक प्रलय कहा गया है । उस प्राकृत प्रलयके होनेपर पृथ्वी अदृश्य हो जाती है-ऐसा कहा गया है, साथ ही सभी लोक जलमें डूब जाते हैं और समस्त प्राणी परमात्मामें विलीन हो जाते हैं । [हे प्रभो !] उस समय अदृश्य हुई वह पृथ्वी कहाँ स्थित रहती है और सृष्टि होनेके समय वह पुन: कैसे प्रकट हो जाती है ? वह पृथ्वी फिरसे धन्य, मान्य, सबको आश्रय प्रदान करनेवाली तथा विजयशालिनी कैसे हो जाती है ? अब आप उस पृथ्वीके उद्‌भवकी मंगलकारी कथा कहिये ॥ १-४ ॥

श्रीनारायण उवाच
सर्वादिसृष्टौ सर्वेषां जन्म देव्या इति श्रुतिः ।
आविर्भावस्तिरोभावः सर्वेषु प्रलयेषु च ॥ ५ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] सम्पूर्ण सष्टियोंके आरम्भमें भगवतीसे ही अखिल जगत्की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार सबका उन्हींसे आविर्भाव होता है और सभी प्रलयोंके समय प्राणियोंका उन्होंमें विलय हो जाता है-ऐसा श्रुति कहती है ॥ ५ ॥

श्रूयतां वसुधाजन्म सर्वमङ्‌गलकारणम् ।
विघ्ननिघ्नकरं पापनाशनं पुण्यवर्धनम् ॥ ६ ॥
अब आप पृथ्वीके जन्मका वृत्तान्त सुनिये; जो सभी प्रकारका मंगल करनेवाला, विघ्नोंका नाश करनेवाला, पापोंका उच्छेद करनेवाला तथा पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है ॥ ६ ॥

अहो केचिद्वदन्तीति मधुकैटभमेदसा ।
बभूव वसुधा धन्या तद्विरुद्धमतः शृणु ॥ ७ ॥
ऊचतुस्तौ पुरा विष्णुं तुष्टौ युद्धेन तेजसा ।
आवां वध्यौ न यत्रोर्वी पाथसा संवृतेति च ॥ ८ ॥
तयोर्जीवनकाले न प्रत्यक्षा साभवत्स्फुटम् ।
ततो बभूव मेदश्च मरणानन्तरं तयोः ॥ ९ ॥
मेदिनीति च विख्यातेत्युक्तमेतन्मतं शृणु ।
जलधौता कृता पूर्वं वर्धिता मेदसा यतः ॥ १० ॥
कथयामि ते तज्जन्म सार्थकं सर्वमङ्‌गलम् ।
पुरा श्रुतं यच्छ्रुत्युक्तं धर्मवक्त्राच्च पुष्करे ॥ ११ ॥
कुछ लोग कहते हैं कि मधु-कैटभ नामक दैत्योंके मेदसे यह धन्य पृथ्वी उत्पन्न हुई, किंतु इससे जो भिन्न मत है, उसे सुनो । उन दोनों दैत्योंने प्राचीन कालमें भगवान् विष्णुके साथ युद्ध में उनके तेजसे प्रसन्न होकर उनसे कहा कि हमदोनोंका वध वहींपर हो, जहाँ पृथ्वी जलमग्न न हो । उनके जीवनकालमें पृथ्वी जलके भीतर स्थित रहनेके कारण स्पष्ट रूपसे दिखायी नहीं पड़ती थी; यह बात उन्हें ज्ञात भी थी । इसीलिये उन्होंने वह वर माँगा था । उन दोनोंके वधके उपरान्त उनका मेद प्रभूत मात्रामें फैल गया । इस कारण पृथ्वी मेदिनी नामसे प्रसिद्ध हुई । इसका स्पष्टीकरण सुनो; जलसे बाहर निकलनेके अनन्तर ही पृथ्वी मेदसे परिपुष्ट हुई । इसीलिये उसका नाम मेदिनी पड़ा । मैं अब पृथ्वीके जन्मकी मंगलकारिणी तथा श्रुतिप्रतिपादित सार्थक कथा कहता हूँ, जिसे मैंने पहले धर्मराजके मुखसे पुष्करक्षेत्रमें सुना था ॥ ७-११ ॥

महाविराट्शरीरस्य जलस्थस्य चिरं स्फुटम् ।
मनो बभूव कालेन सर्वाङ्‌गव्यापकं ध्रुवम् ॥ १२ ॥
तच्च प्रविष्टं सर्वेषां तल्लोम्नां विवरेषु च ।
कालेन महता पश्चाद्‌ बभूव वसुधा मुने ॥ १३ ॥
महाविराट् पुरुष अनन्त कालसे जलमें स्थित रहते हैं, यह स्पष्ट है । समयानुसार उनके भीतर सांगव्यापी शाश्वत मन प्रकट हुआ । तत्पश्चात् वह मन उस महाविराट् पुरुषके सभी रोमकूपोंमें प्रविष्ट हो गया । हे मुने ! बहुत समयके पश्चात् उन्हीं रोमकूपोंसे पृथ्वी प्रकट हुई ॥ १२-१३ ॥

प्रत्येकं प्रतिलोम्नां च कूपेषु संस्थिता सदा ।
आविर्भूता तिरोभूता सजला च पुनः पुनः ॥ १४ ॥
उस महाविराटके जितने रोमकूप हैं, उन सबमें सर्वदा स्थित रहनेवाली यह पृथ्वी एक-एक करके जलसहित बार-बार प्रकट होती और छिपती रहती है ॥ १४ ॥

आविर्भूता सृष्टिकाले तज्जलोपर्युपस्थिता ।
प्रलये च तिरोभूता जलस्याभ्यन्तरे स्थिता ॥ १५ ॥
यह पृथ्वी सृष्टिके समय प्रकट होकर जलके ऊपर स्थित हो जाती है और प्रलयके समय यह अदृश्य होकर जलके भीतर स्थित रहती है ॥ १५ ॥

प्रतिविश्वेषु वसुधा शैलकाननसंयुता ।
सप्तसागरसंयुक्ता सप्तद्वीपसमन्विता ॥ १६ ॥
प्रत्येक ब्रह्माण्डमें यह पृथ्वी पर्वतों तथा वनोंसे सम्पन्न रहती है, सात समुद्रोंसे घिरी रहती है और सात द्वीपोंसे युक्त रहती है ॥ १६ ॥

हेमाद्रिमेरुसंयुक्ता ग्रहचन्द्रार्कसंयुता ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च सुरैर्लोकैस्तदाज्ञया ॥ १७ ॥
यह वसुधा हिमालय तथा मेरु आदि पर्वतों, सूर्य तथा चन्द्र आदि ग्रहोंसे संयुक्त रहती है । महाविराटकी आज्ञाके अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता इसपर प्रकट होते हैं तथा समस्त प्राणी इसपर निवास करते हैं ॥ १७ ॥

पुण्यतीर्थसमायुक्ता पुण्यभारतसंयुता ।
काञ्चनीभूमिसंयुक्ता सप्तस्वर्गसमन्विता ॥ १८ ॥
पातालसप्तं तदधस्तदूर्ध्वं ब्रह्मलोकतः ।
ध्रुवलोकश्च तत्रैव सर्वं विश्वं च तत्र वै ॥ १९ ॥
एवं सर्वाणि विश्वानि पृथिव्यां निर्मितानि च ।
नश्वराणि च विश्वानि सर्वाणि कृत्रिमाणि वै ॥ २० ॥
यह पृथ्वी पुण्यतीर्थों तथा पवित्र भारतदेशसे सम्पन्न है । यह स्वर्णमयी भूमिसे सुशोभित है तथा सात स्वर्गोसे समन्वित है । इस पृथ्वीके नीचे सात पाताल हैं, ऊपर ब्रह्मलोक है तथा ब्रह्मलोकसे भी ऊपर धूवलोक है और उसमें समस्त विश्व स्थित है । इस प्रकार सम्पूर्ण लोक पृथ्वीपर ही निर्मित हैं । ये सभी विश्व विनाशशील तथा कृत्रिम हैं ॥ १८-२० ॥

प्रलये प्राकृते चैव ब्रह्मणश्च निपातने ।
महाविराडादिसृष्टौ सृष्टः कृष्णेन चात्मना ॥ २१ ॥
प्राकृत प्रलयके अवसरपर ब्रह्माका भी निपात हो जाता है । उस समय केवल महाविराट् पुरुष विद्यमान रहते हैं । क्योंकि सृष्टिके आरम्भमें ही परब्रह्म श्रीकृष्णने इनका सृजन किया था ॥ २१ ॥

नित्यौ च स्थितिप्रलयौ काष्ठाकालेश्वरैः सह ।
नित्याधिष्ठातृदेवी सा वाराहे पूजिता सुरैः ॥ २२ ॥
मुनिभिर्मनुभिर्विप्रैर्गन्धर्वादिभिरेव च ।
विष्णोर्वराहरूपस्य पत्‍नी सा श्रुतिसम्मता ॥ २३ ॥
तत्पुत्रो मङ्‌गलो ज्ञेयो घटेशो मङ्‌गलात्मजः ।
ये सृष्टि तथा प्रलय नित्य हैं और काष्ठा आदि अवयवोंवाले कालके स्वामीके अधीन होकर रहते हैं । सभीकी अधिष्ठातृदेवी पृथ्वी भी नित्य हैं । वाराहकल्पमें सभी देवता, मुनि, मनु, विप्र, गन्धर्व आदिने उन पृथ्वीका पूजन किया था । वेदसम्मत वे पृथ्वी वराहरूपधारी भगवान् विष्णुकी पत्नीके रूपमें विराजमान हुईं; उनके पुत्ररूपमें मंगलको तथा मंगलके पुत्ररूपमें घटेशको जानना चाहिये ॥ २२-२३.५ ॥

नारद उवाच
पूजिता केन रुपेण वाराहे च सुरैर्मही ॥ २४ ॥
वाराहे चैव वाराही सर्वैः सर्वाश्रया सती ।
मूलप्रकृतिसम्भूता पञ्चीकरणमार्गतः ॥ २५ ॥
तस्याः पूजाविधानं चाप्यधश्चोर्ध्वमनेकशः ।
मङ्‌गलं मङ्‌गलस्यापि जन्म वासं वद प्रभो ॥ २६ ॥
नारदजी बोले-देवताओंने वाराहकल्पमें किस रूपमें पृथ्वीका पूजन किया था ? सभी लोग उस वाराहकल्पमें सबको आश्रय प्रदान करनेवाली इस वाराही साध्वी पृथ्वीकी पूजा करते थे । यह पृथ्वी पंचीकरण-मार्गसे मूलप्रकृतिसे उत्पन्न हुई है । हे प्रभो ! नीचे तथा ऊपरके लोकोंमें उस पृथ्वीके पूजनके विविध प्रकार और (पृथ्वीपुत्र) मंगलके कल्याणमय जन्म तथा निवास स्थानके विषयमें भी बताइये ॥ २४-२६ ॥

श्रीनारायण उवाच
वाराहे च वराहश्च ब्रह्मणा संस्तुतः पुरा ।
उद्दधार महीं हत्वा हिरण्याक्षं रसातलम् ॥ २७ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] प्राचीन कालमें वाराहकल्पमें ब्रह्माजीके द्वारा स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि वराहरूप धारण करके हिरण्याक्षको मारकर रसातलसे पृथ्वीको निकाल ले आये ॥ २७ ॥

जले तां स्थापयामास पद्मपत्रं यथा ह्रदे ।
तत्रैव निर्ममे ब्रह्मा विश्वं सर्वं मनोहरम् ॥ २८ ॥
उन्होंने पृथ्वीको जलमें इस प्रकार रख दिया, मानो सरोवरमें कमलपत्र स्थित हो । वहींपर रहकर ब्रह्माजीने सम्पूर्ण मनोहर विश्वकी रचना की ॥ २८ ॥

दृष्ट्वा तदधिदेवीं च सकामां कामुको हरिः ।
वराहरूपी भगवान् कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ २९ ॥
कृत्वा रतिकलां सर्वां मूर्तिं च सुमनोहराम् ।
क्रीडाञ्चकार रहसि दिव्यवर्षमहर्निशम् ॥ ३० ॥
सुखसम्भोगसंस्पर्शान्मूर्च्छां सम्प्राप सुन्दरी ।
विदग्धाया विदग्धेन सङ्‌गमोऽतिसुखप्रदः ॥ ३१ ॥
विष्णुस्तदङ्‌गसंश्लेषाद्‌ बुबुधे न दिवानिशम् ।
वर्षान्ते चेतनां प्राप्य कामी तत्याज कामुकीम् ॥ ३२ ॥
पृथ्वीकी अधिष्ठात्री देवीको कामभावसे युक्त देखकर करोड़ों सूर्यके समान प्रभावाले वाराहरूपधारी सकाम भगवान् श्रीहरिने अपना अत्यन्त मनोहर तथा रतिकलायोग्य समग्र रूप बना करके उसके साथ एकान्तमें दिव्य एक वर्षतक निरन्तर विहार किया । आनन्दकी अनुभूतिसे वह सुन्दरी मूञ्छित हो गयी । विदग्ध पुरुषके साथ विदग्ध स्त्रीका संगम अत्यन्त सुखदायक होता है । उस सुन्दरीके अंग-संश्लेषके कारण विष्णुको दिन-रातका ज्ञान भी नहीं रहा । एक वर्षके पश्चात् चेतना आनेपर भगवान् श्रीहरि उससे विलग हो गये ॥ २९-३२ ॥

पूर्वरूपं वराहं च दधार स च लीलया ।
पूजाञ्चकार तां देवीं ध्यात्वा च धरणीं सतीम् ॥ ३३ ॥
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः सिन्दूरैरनुलेपनैः ।
वस्त्रैः पुष्पैश्च बलिभिः सम्पूज्योवाच तां हरिः ॥ ३४ ॥
तदनन्तर उन्होंने लीलापूर्वक अपना पूर्वका वराह-रूप धारण कर लिया । इसके बाद साध्वी भगवती पृथ्वीका ध्यान करके धूप, दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, चन्दन, वस्त्र, पुष्प और बलि आदिसे उनकी पूजा करके श्रीहरि उनसे कहने लगे ॥ ३३-३४ ॥

श्रीभगवानुवाच
सर्वाधारा भव शुभे सर्वैः सम्पूजिता सुखम् ।
मुनिभिर्मनुभिर्देवैः सिद्धैश्च दानवादिभिः ॥ ३५ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे शुभे ! तुम सबको आश्रय देनेवाली बनो । तुम मुनि, मनु, देवता, सिद्ध और दानव आदि-सभीके द्वारा भलीभाँति पूजित होकर सुख प्राप्त करोगी ॥ ३५ ॥

अम्बुवाचीत्यागदिने गृहारम्भे प्रवेशने ।
वापीतडागारम्भे च गृहे च कृषिकर्मणि ॥ ३६ ॥
तव पूजां करिष्यन्ति मद्वरेण सुरादयः ।
मूढा ये न करिष्यन्ति यास्यन्ति नरकं च ते ॥ ३७ ॥
अम्बुवाचीयोगको छोड़कर अन्य दिनोंमें, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, बावली तथा सरोवरके निर्माणके समयपर, गृह तथा कृषिकार्यके अवसरपर देवता आदि सभी लोग मेरे वरके प्रभावसे तुम्हारी पूजा करेंगे और जो मूर्ख प्राणी तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, वे नरकमें जायेंगे ॥ ३६-३७ ॥

वसुधोवाच
वहामि सर्वं वाराहरूपेणाहं तवाज्ञया ।
लीलामात्रेण भगवन् विश्वं च सचराचरम् ॥ ३८ ॥
मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिङ्‌गं शिवां तथा ।
शङ्‌खं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा ॥ ३९ ॥
यज्ञसूत्रं च पुष्पं च पुस्तकं तुलसीदलम् ।
जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च सुवर्णकम् ॥ ४० ॥
गोरोचनं चन्दनं च शालग्रामजलं तथा ।
एतान्वोडुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवञ्छृणु ॥ ४१ ॥
वसुधा बोली-हे भगवन् ! आपकी आज्ञाके अनुसार मैं वाराहीरूपसे समस्त स्थावर जंगममय विश्वका लीलापूर्वक वहन करती हूँ । किंतु हे भगवन् ! आप यह सुन लीजिये कि मैं मोती, सीप, शालग्रामशिला, शिवलिंग, पार्वतीविग्रह, शंख, दीप, यन्त्र, माणिक्य, हीरा, यज्ञोपवीत, पुष्प, पुस्तक, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, सुवर्ण, गोरोचन, चन्दन और शालग्रामका जल-इन वस्तुओंका वहन करनेमें सर्वथा असमर्थ हूँ, इससे मुझे क्लेश होता है ॥ ३८-४१ ॥

श्रीभगवानुवाच
द्रव्याण्येतानि ये मूढा अर्पयिष्यन्ति सुन्दरि ।
यास्यन्ति कालसूत्रं ते दिव्यं वर्षशतं त्वयि ॥ ४२ ॥
श्रीभगवान बोले-हे सुन्दरि ! जो मूर्ख तुम्हारे ऊपर (अर्थात् आसनविहीन भूमिपर ) ये वस्तुएँ रखेंगे, वे कालसूत्र नामक नरकमें दिव्य सौ वर्षोंतक निवास करेंगे ॥ ४२ ॥

इत्येवमुक्त्वा भगवान् विरराम च नारद ।
बभूव तेन गर्भेण तेजस्वी मङ्‌गलग्रहः ॥ ४३ ॥
हे नारद ! यह कहकर भगवान् चुप हो गये । उस समय पृथ्वी गर्भवती हो चुकी थीं । उसी गर्भसे तेजस्वी मंगलग्रह उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥

पूजाञ्चक्रुः पृथिव्याश्च ते सर्वे चाज्ञया हरेः ।
कण्वशाखोक्तध्यानेन तुष्टुवुश्च स्तवेन ते ॥ ४४ ॥
ददुर्मूलेन मन्त्रेण नैवेद्यादिकमेव च ।
संस्तुता त्रिषु लोकेषु पूजिता सा बभूव ह ॥ ४५ ॥
भगवान्की आज्ञाके अनुसार वहाँ उपस्थित सभी लोगोंने पृथ्वीकी पूजा की और कण्वशाखामें कहे गये ध्यान तथा स्तोत्रपाठसे उनकी स्तति की और मलमन्त्रसे नैवेद्य आदि अर्पण किया । इस प्रकार तीनों लोकोंमें उन पृथ्वीकी पूजा तथा स्तुति होने लगी । ४४-४५ ॥

नारद उवाच
किं ध्यानं स्तवनं तस्या मूलमन्त्रं च किं वद ।
गूढं सर्वपुराणेषु श्रोतुं कौतूहलं मम ॥ ४६ ॥
नारदजी बोले-पृथ्वीका ध्यान क्या है, उनका स्तवन क्या है और उनका मूलमन्त्र क्या है, यह सब मुझे बतलाइये । समस्त पुराणों में निगूढ़ इस प्रसंगको सुननेके लिये मुझे बहुत कौतूहल हो रहा है ॥ ४६ ॥

श्रीनारायण उवाच
आदौ च पृथिवी देवी वराहेण च पूजिता ।
ततो हि ब्रह्मणा पश्चामृजिता पृथिवी तदा ॥ ४७ ॥
श्रीनारायण बोले-सर्वप्रथम भगवान् वराहने भगवती पृथ्वीकी पूजा की, तत्पश्चात् ब्रह्माजीद्वारा इन पृथ्वीकी पूजा की गयी । इसके बाद सभी मुनीश्वरों, मनुओं और मनुष्यों आदिने पृथ्वीको पूजा की ॥ ४७ ॥

ततः सर्वैर्मुनीन्द्रैश्च मनुभिर्मानवादिभिः ।
ध्यानं च स्तवनं मन्त्रं शृणु वक्ष्यामि नारद ॥ ४८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वसुधायै स्वाहेत्यनेन
मन्त्रेण विष्णुना पूजिता पुरा ।
श्वेतपङ्‌कजवर्णाभां शरच्चन्द्रनिभाननाम् ॥ ४९ ॥
चन्दनोत्क्षिप्तसर्वाङ्‌गीं रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
रत्‍नाधारां रत्‍नगर्भां रत्‍नाकरसमन्विताम् ॥ ५० ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां वन्दितां भजे ।
ध्यानेनानेन सा देवी सर्वैश्च पूजिताभवत् ॥ ५१ ॥
स्तवनं शृणु विप्रेन्द्र कण्वशाखोक्तमेव च ।
हे नारद ! सुनिये; अब मैं पृथ्वीके ध्यान, स्तवन तथा मन्त्रके विषयमें बता रहा हूँ । 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वसुधायै स्वाहा'-इस मन्त्रसे भगवान् विष्णुने प्राचीनकालमें इनका पूजन किया था । उनके ध्यानका स्वरूप यह है-'पृथ्वीदेवी श्वेतकमलके वर्णके समान आभासे युक्त हैं, उनका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, उनके सम्पूर्ण अंग चन्दनसे अनुलिप्त हैं, वे रत्नमय अलंकारोंसे सुशोभित हैं, वे रत्नोंकी आधारस्वरूपा हैं, वे रत्नगर्भा हैं, वे रत्नोंके आकर (खान)-से समन्वित हैं, उन्होंने अग्निके समान विशुद्ध वस्त्र धारण कर रखे हैं, उनका मुखमण्डल मुसकानसे युक्त है तथा वे सभी लोगोंके द्वारा वन्दित हैं-मैं ऐसी पृथ्वीदेवीकी आराधना करता हूँ । ' इस प्रकारके ध्यानसे सभी लोगोंके द्वारा पृथ्वी पूजित हुई । हे विप्रवर ! अब कण्वशाखामें प्रतिपादित इनकी स्तुति सुनिये ॥ ४८-५१.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
जये जये जलाधारे जलशीले जलप्रदे ॥ ५२ ॥
यज्ञसूकरजाये त्वं जयं देहि जयावहे ।
मङ्‌गले मङ्‌गलाधारे माङ्‌गल्ये मङ्‌गलप्रदे ॥ ५३ ॥
मङ्‌गलार्थं मङ्‌गलेशे मङ्‌गलं देहि मे भवे ।
सर्वाधारे च सर्वज्ञे सर्वशक्तिसमन्विते ॥ ५४ ॥
सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे भवे ।
पुण्यस्वरूपे पुण्यानां बीजरूपे सनातनि ॥ ५५ ॥
पुण्याश्रये पुण्यवतामालये पुण्यदे भवे ।
सर्वसस्यालये सर्वसस्याढ्ये सर्वसस्यदे ॥ ५६ ॥
सर्वसस्यहरे काले सर्वसस्यात्मिके भवे ।
भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे ॥ ५७ ॥
भूमिपानां सुखकरे भूमिं देहि च भूमिदे ।
श्रीनारायण बोले-जलकी आधारस्वरूपिणी, जलमयी तथा सबको जल प्रदान करनेवाली, यज्ञवराहकी भार्या तथा विजयकी प्राप्ति करानेवाली हे भगवति जये ! आप मुझे विजय प्रदान कीजिये । मंगल करनेवाली, मंगलकी आश्रयस्वरूपिणी, मंगलमयी तथा मंगल प्रदान करनेवाली हे मंगलेश्वरि ! हे भवे ! मेरे मंगलके लिये आप मुझे मंगल प्रदान कीजिये । सबको आश्रय देनेवाली, सब कुछ जाननेवाली, सर्वशक्तिमयी तथा सभी लोगोंके मनोरथ पूर्ण करनेवाली हे देवि ! हे भवे ! मेरा सम्पूर्ण अभिलषित मुझे प्रदान कीजिये । पुण्यमय विग्रहवाली, पुण्योंकी बीजस्वरूपा. सनातनी, पुण्यको आश्रय देनेवाली, पुण्यवानोंकी शरणस्थली तथा पुण्य प्रदान करनेवाली हे भवे ! मुझे पुण्य प्रदान कीजिये । सभी फसलोंकी आलयस्वरूपिणी, सभी प्रकारकी फसलोंसे सम्पन्न, सभी फसलें प्रदान करनेवाली, (समयपर) सभी फसलोंको अपनेमें विलीन कर लेनेवाली तथा सभी फसलोंकी आत्मस्वरूपा हे भवे ! मुझे फसलें प्रदान कीजिये । राजाओंकी सर्वस्व, राजाओंसे सम्मान पानेवाली, राजाओंको सुखी करनेवाली तथा भूमि प्रदान करनेवाली हे भूमे ! मुझे भूमि प्रदान कीजिये ॥ ५२-५७.५ ॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ॥ ५८ ॥
कोटिजन्मसु स भवेद्‌ बलवान्भूमिपेश्वरः ।
भूमिदानकृतं पुण्यं लभ्यते पठनाज्जनैः ॥ ५९ ॥
भूमिदानहरात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।
अम्बुवाचीभूकरणपापात्स मुच्यते ध्रुवम् ॥ ६० ॥
अन्यकूपे कूपखननपापात्स मुच्यते ध्रुवम् ।
परभूमिहरात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ६१ ॥
भूमौ वीर्यत्यागपापाद्‌भूमौ दीपादिस्थापनात् ।
पापेन मुच्यते सोऽपि स्तोत्रस्य पठनान्मुने ॥ ६२ ॥
अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः ।
भूमिदेव्या महास्तोत्रं सर्वकल्याणकारकम् ॥ ६३ ॥
जो मनुष्य प्रात:काल उठकर इस महान् पुण्यप्रद स्तोत्रका पाठ करता है, वह करोड़ों जन्मोंतक बलवान् तथा राजाओंका अधीश्वर होता है । इसके पढ़नेसे मनुष्य भूमिदान करनेसे होनेवाला पुण्य प्राप्त कर लेते हैं । हे मुने ! इस स्तोत्रका पाठ करनेसे मनुष्य दानमें दी गयी भूमिका हरण करने, अम्बुवाची दिनोंमें भूमि-सम्बन्धी कार्य करने, बिना आज्ञाके दूसरेके कुएँमें कूप-खनन करने, दूसरेकी भूमिका हरण करने, पृथ्वीपर वीर्यत्याग करने तथा भूमिपर दीपक आदि रखनेसे होनेवाले पापसे निश्चितरूपसे मुक्त हो जाता है और साथ ही वह एक सौ अश्वमेधयज्ञ करनेसे होनेवाला पुण्य भी प्राप्त कर लेता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । भूमिदेवीका यह महान् स्तोत्र सभी प्रकारका कल्याण करनेवाला है ॥ ५८-६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
भूमिस्तोत्रवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे भूमिस्तोत्रवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥


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