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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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नारायणनारदसंवादे कलिमाहात्म्यवर्णनम् -
कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन -


श्रीनारायण उवाच
सरस्वती पुण्यक्षेत्रमाजगाम च भारते ।
गङ्‌गाशापेन कलया स्वयं तस्थौ हरेः पदे ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] गंगाके शापसे सरस्वती अपनी एक कलासे पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें आ गयीं और अपने पूर्ण अंशसे भगवान् श्रीहरिके स्थानपर ही रह गयीं ॥ १ ॥

भारती भारतं गत्वा ब्राह्मी च ब्रह्मणः प्रिया ।
वाण्यधिष्ठातृदेवी सा तेन वाणी प्रकीर्तिता ॥ २ ॥
वे सरस्वती भारतमें आनेके कारण भारती', ब्रह्माकी प्रिया होनेके कारण ब्राह्मी' और वाणीकी अधिष्ठातृदेवी होनेके कारण 'वाणी' नामसे कही गयीं ॥ २ ॥

सरो वाप्यां च स्रोतस्तु सर्वत्रैव हि दृश्यते ।
हरिः सरस्वांस्तस्येयं तेन नाम्ना सरस्वती ॥ ३ ॥
सरोवर, बावली तथा अन्य जलधाराओंमें सर्वत्र श्रीहरि दिखायी देते हैं, अतः वे सरस्वान् कहे जाते हैं । उनके इसी नामके कारण ये सरस्वती कही जाती है ॥ ३ ॥

सरस्वती नदी सा च तीर्थरूपातिपावनी ।
पापिनां पापदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ॥ ४ ॥
नदीके रूपमें आकर ये सरस्वती परम पावन तीर्थ बन गयीं । पापियोंके पाप भस्म करने के लिये ये प्रज्वलित अग्निरूपा हैं ॥ ४ ॥

पश्चाद्‍भागीरथी नीता महीं भगीरथेन च ।
सा वै जगाम कलया वाणीशापेन नारद ॥ ५ ॥
हे नारद ! तत्पश्चात् भगीरथके द्वारा गंगाजी पृथ्वीपर ले जायी गयीं । वे सरस्वतीके शापसे अपनी एक कलासे पृथ्वीपर पहुँचीं ॥ ५ ॥

तत्रैव समये तां च दधार शिरसा शिवः ।
वेगं सोढुमयं शक्तो भुवः प्रार्थनया विभुः ॥ ६ ॥
उस समय गंगाके वेगको सह सकनेमें केवल शिव ही समर्थ थे । अतः पृथ्वीके प्रार्थना करनेपर सर्वशक्तिशाली शिवने उन गंगाको अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ ६ ॥

पद्मा जगाम कलया सा च पद्मावती नदी ।
भारतं भारतीशापात्स्वयं तस्थौ हरेः पदे ॥ ७ ॥
पुनः सरस्वतीके शापसे लक्ष्मीजी अपनी एक कलासे 'पद्मावती' नदीके रूपमें भारतमें पहुँची और अपने पूर्ण अंशसे स्वयं श्रीहरिके पास स्थित रहीं ॥ ७ ॥

ततोऽन्यया सा कलया लेभे जन्म च भारते ।
धर्मध्वजसुता लक्ष्मीर्विख्याता तुलसीति च ॥ ८ ॥
तत्पश्चात् लक्ष्मीजीने अपनी दूसरी कलासे भारतमें राजा धर्मध्वजकी पुत्रीके रूपमें जन्म ग्रहण किया और वे 'तुलसी'-इस नामसे विख्यात हुईं ॥ ८ ॥

पुरा सरस्वतीशापात्पश्चाच्च हरिशापतः ।
बभूव वृक्षरूपा सा कलया विश्वपावनी ॥ ९ ॥
पूर्वकालमें सरस्वतीके शापसे और बादमें श्रीहरिके शापसे ये विश्वपावनी देवी अपनी एक कलासे वृक्षरूपमें हो गयीं ॥ ९ ॥

कलेः पञ्चसहस्रं च वर्षं स्थित्वा तु भारते ।
जग्मुस्ताश्च सरिद्‌रूपं विहाय श्रीहरेः पदम् ॥ १० ॥
कलिके पाँच हजार वर्षोंतक भारतवर्षमें रहकर वे तीनों देवियाँ अपने नदीरूपका परित्यागकर वैकुण्ठधाम चली जायेंगी । १० ॥

यानि सर्वाणि तीर्थानि काशीं वृन्दावनं विना ।
यास्यन्ति सार्धं ताभिश्च वैकुण्ठमाज्ञया हरेः ॥ ११ ॥
काशी तथा वृन्दावनको छोड़कर अन्य जो भी तीर्थ हैं, वे सब श्रीहरिकी आज्ञासे उन देवियोंके साथ वैकुण्ठ चले जायेंगे ॥ ११ ॥

शालग्रामः शक्तिशिवौ जगन्नाथश्च भारतम् ।
कलेर्दशसहस्रान्ते त्यक्त्वा यान्ति निजं पदम् ॥ १२ ॥
शालग्राम, शिव, शक्ति और जगन्नाथजी कलिके दस हजार वर्ष व्यतीत होनेपर भारतवर्षको छोड़कर अपने स्थानपर चले जायेंगे ॥ १२ ॥

साधवश्च पुराणानि शङ्‌खानि श्राद्धतर्पणे ।
वेदोक्तानि च कर्माणि ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १३ ॥
देवपूजा देवनाम तत्कीर्तिगुणकीर्तनम् ।
वेदाङ्‌गानि च शास्त्राणि ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १४ ॥
सन्तश्च सत्यधर्मश्च वेदाश्च ग्रामदेवताः ।
व्रतं तपश्चानशनं ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १५ ॥
वामाचाररताः सर्वे मिथ्याकपटसंयुताः ।
तुलसीरहिता पूजा भविष्यति ततः परम् ॥ १६ ॥
उन सभीके साथ साधु, पुराण, शंख, श्राद्ध, तर्पण तथा वेदोक्त कर्म भी भारतवर्षसे चले जायेंगे । देवताओंकी पूजा, देवताओंके नाम, उनके वश तथा गुणका कीर्तन, वेदांग तथा शास्त्र भी उनके साथ चले जायेंगे । इसी प्रकार संत, सत्य, धर्म, समस्त वेद, ग्रामदेवता, व्रत, तप और उपवास आदि भी उनके साथ चले जायेंगे । उनके चले जानेके पश्चात् सभी लोग वाममार्गका आचरण करनेवाले तथा मिथ्या और कपटपूर्ण आचरणमें संलग्न हो जायेंगे और सर्वत्र बिना तुलसीके ही पूजा होने लगेगी ॥ १३-१६ ॥

शठाः क्रूरा दाम्भिकाश्च महाहङ्‌कारसंयुताः ।
चोराश्च हिंसकाः सर्वे भविष्यन्ति ततः परम् ॥ १७ ॥
उनके जाते ही सभी लोग शठ, क्रूर, दम्भयुक्त, महान् अहंकारी, चोर तथा हिंसक हो जायँगे ॥ १७ ॥

पुंसो भेदः स्त्रीविभेदो विवाहो वापि निर्भयः ।
स्वस्वामिभेदो वस्तूनां भविष्यति ततः परम् ॥ १८ ॥
पुरुषभेद (परस्पर मैत्रीका अभाव) रहेगा, स्त्रीविभेद अर्थात् पुरुष-स्त्रीका ही भेद रहेगा, जातिभेद समाप्त हो जायगा; जिससे किसी भी वर्णके स्त्रीपुरुषका परस्पर विवाह निर्भयतापूर्वक होगा । वस्तुओंमें स्व-स्वामिभेद होगा अर्थात् लोग परस्पर एकदूसरेको कोई वस्तु नहीं देंगे ॥ १८ ॥

सर्वे स्त्रीवशगाः पुंसः पुश्चल्यश्च गृहे गृहे ।
तर्जनैर्भर्त्सनैः शश्वत्स्वामिनं ताडयन्ति च ॥ १९ ॥
तब सभी पुरुष स्त्रियोंके वशमें हो जायेंगे । घरघरमें व्यभिचारिणी स्त्रियोंका बाहुल्य हो जायगा और वे अपने पतियोंको डाँटते हुए तथा दुर्वचन कहते हुए उन्हें पीड़ित करेंगी ॥ १९ ॥

गृहेश्वरी च गृहिणी गृही भृत्याधिकोऽधमः ।
चेटीदाससमौ वध्वाः श्वश्रूश्च श्वशुरस्तथा ॥ २० ॥
गृहिणी घरकी मालकिन बन जायगी तथा गृहस्वामी नौकरसे भी निकृष्ट रहेगा । घरकी बहू अपने सास-ससुरसे दाई-नौकर-जैसा व्यवहार करेगी ॥ २० ॥

कर्तारो बलिनो गेहे योनिसम्बन्धिबान्धवाः ।
विद्यासम्बन्धिभिः सार्धं सम्भाषापि न विद्यते ॥ २१ ॥
घरमें बलवान् ही कर्ता माना जायगा, बान्धवोंकी सीमा [अपने बन्धु-बान्धवोंको छोड़कर] केवल स्वीके परिवारमें ही सीमित हो जायगी और एक साथ विद्याध्ययन करनेवाले लोगोंमें परस्पर बातचीत तकका व्यवहार नहीं रहेगा ॥ २१ ॥

यथापरिचिता लोकास्तथा पुंसश्च बान्धवाः ।
सर्वकर्माक्षमाः पुंसो योषितामाज्ञया विना ॥ २२ ॥
लोग अपने ही बन्धु बान्धवोंसे अन्य अपरिचित व्यक्तियोंकी भांति व्यवहार करेंगे और स्त्रीके आदेशके बिना पुरुष सभी कार्य करने में असमर्थ रहेंगे ॥ २२ ॥

ब्रह्मक्षत्रविशः शूद्रा जात्याचारविवर्जिताः ।
सन्ध्या च यज्ञसूत्रं च भवेल्लुप्तं न संशयः ॥ २३ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनी-अपनी जातिके आचार-विचारका परित्याग कर देंगे । सन्ध्यावन्दन तथा यज्ञोपवीत आदिका लोप हो जायगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ २३ ॥

म्लेच्छाचारा भविष्यन्ति वर्णाश्चत्वार एव च ।
म्लेच्छशास्त्रं पठिष्यन्ति स्वशास्त्राणि विहाय च ॥ २४ ॥
चारों वर्गों के लोग म्लेच्छोंके समान आचरण करेंगे । वे अपने शास्त्र छोड़कर म्लेच्छशास्त्रका अध्ययन करेंगे ॥ २४ ॥

ब्रह्मक्षत्रविशां वंशाः शूद्राणां सेवकाः कलौ ।
सूपकारा धावकाश्च वृषवाहाश्च सर्वशः ॥ २५ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके वंशज कलियुगमें शूद्रोंके यहाँ सेवक, रसोइया, वस्त्र धोनेवाले तथा बैलोंपर बोझा ढोनेका काम करनेवाले होंगे ॥ २५ ॥

सत्यहीना जनाः सर्वे सस्यहीना च मेदिनी ।
फलहीनाश्च तरवोऽपत्यहीनाश्च योषितः ॥ २६ ॥
सभी प्राणी सत्यहीन हो जायेंगे, वसुन्धरा फसलोंसे रहित हो जायगी, वृक्षोंमें फल नहीं रह जायेंगे और स्त्रियाँ सन्तानविहीन हो जायेंगी ॥ २६ ॥

क्षीरहीनास्तथा गावः क्षीरं सर्पिर्विवर्जितम् ।
दम्पती प्रीतिहीनौ च गृहिणः सत्यवर्जिताः ॥ २७ ॥
गायोंमें दूध देनेकी क्षमता नहीं रह जायगी, दूधमें घृतका अंश समाप्त हो जायगा, पति-पत्नी परस्पर प्रेमभावसे वंचित रहेंगे और गृहस्थोंमें सत्यका अभाव हो जायगा ॥ २७ ॥

प्रतापहीना भूपाश्च प्रजाश्च करपीडिताः ।
जलहीना महानद्यो दीर्घिकाकन्दरादयः ॥ २८ ॥
राजा पराक्रमहीन हो जायेंगे, प्रजाएँ करोंके भारसे पीड़ित रहेंगी, बड़ी-बड़ी नदियाँ-जलाशय और कन्दरा आदि जलसे शून्य हो जायेंगे ॥ २८ ॥

धर्महीना पुण्यहीना वर्णाश्चत्वार एव च ।
लक्षेषु पुण्यवान्कोऽपि न तिष्ठति ततः परम् ॥ २९ ॥
चारों वर्णके लोग धर्म तथा पुण्यसे रहित हो जायेंगे । लाखोंमें कोई एक भी पुण्यवान् नहीं रह जायगा ॥ २९ ॥

कुत्सिता विकृताकारा नरा नार्यश्च बालकाः ।
कुवार्ता कुत्सितः शब्दो भविष्यति ततः परम् ॥ ३० ॥
उसके बाद पुरुष, स्त्री तथा बालक नीच स्वभाववाले तथा विकृत स्वरूपवाले हो जायेंगे । उस समय बुरी बातों तथा निन्दित शब्दोंका प्रयोग होगा ॥ ३० ॥

केचिद्‌ग्रामाश्च नगरा नरशून्या भयानकाः ।
केचित्स्वल्पकुटीरेण नरेण च समन्विताः ॥ ३१ ॥
कुछ गाँव और नगर मनुष्योंसे शून्य होकर बड़े भयानक प्रतीत होंगे । कुछ गाँवोंमें बहुत थोड़ी कुटिया तथा बहुत ही कम मनुष्य रह जायेंगे ॥ ३१ ॥

अरण्यानि भविष्यन्ति ग्रामेषु नगरेषु च ।
अरण्यवासिनः सर्वे जनाश्च करपीडिताः ॥ ३२ ॥
गाँवों और नगरोंमें जंगल हो जायेंगे । जंगलमें रहनेवाले सभी लोग भी कोंके भारसे पीड़ित रहेंगे ॥ ३२ ॥

सस्यानि च भविष्यन्ति तडागेषु नदीषु च ।
प्रकृष्टवंशजा हीना भविष्यन्ति कलौ युगे ॥ ३३ ॥
[वकि अभावमें] नदियों और तालाबोंमें फसलें उगायी जायेंगी । कलियुगमें उत्कृष्ट वंशमें उत्पन्न लोग नीच हो जायँगे ॥ ३३ ॥ ह

अलीकवादिनो धूर्ताः शठाश्चासत्यवादिनः ।
प्रकृष्टानि च क्षेत्राणि सस्यहीनानि नारद ॥ ३४ ॥
े नारद ! उस समय लोग अप्रिय वचन बोलनेवाले, धूर्त, मूर्ख तथा असत्यभाषी हो जायेंगे । उत्तम कोटिके खेत भी फसलोंसे विहीन रहेंगे ॥ ३४ ॥

हीनाः प्रकृष्टा धनिनो देवभक्ताश्च नास्तिकाः ।
हिंसकाश्च दयाहीना पौराश्च नरघातिनः ॥ ३५ ॥
नीच लोग भी धनी होनेके कारण श्रेष्ठ माने जायेंगे और देवभक्त नास्तिक हो जायेंगे । सभी नगरनिवासी हिंसक, निर्दयी और मनुष्योंका वध करनेवाले हो जायेंगे ॥ ३५ ॥

वामना व्याधियुक्ताश्च नरा नार्यश्च सर्वतः ।
स्वल्पायुषो गदायुक्ता यौवनै रहिताः कलौ ॥ ३६ ॥
पलिताः षोडशे वर्षे महावृद्धाश्च विंशतौ ।
अष्टवर्षा च युवती रजोयुक्ता च गर्भिणी ॥ ३७ ॥
वत्सरान्तप्रसूता स्त्री षोडशे च जरान्विता ।
पतिपुत्रवती काचित्सर्वा वन्ध्याः कलौ युगे ॥ ३८ ॥
कलियुगमें सभी जगहके स्त्री और पुरुष बौने, नानाविध व्याधियोंसे युक्त, अल्पायु, रोगग्रस्त तथा यौवनसे हीन हो जायेंगे । सोलह वर्षमें ही उनके सिरके बाल पक जायेंगे और बीस वर्षमें वे अत्यन्त वृद्ध हो जायेंगे । आठ वर्षकी युवती रजस्वला होकर गर्भ धारण करने लगेगी । प्रत्येक वर्षमें सन्तान उत्पन्न करके वह स्त्री सोलह वर्षकी अवस्थामें ही वृद्धा हो जायगी । कलियुगमें प्रायः सभी स्त्रियाँ वन्ध्या रहेंगी, कोईकोई स्त्री पति तथा पुत्रवाली होगी ॥ ३६-३८ ॥

कन्याविक्रयिणः सर्वे वर्णाश्चत्वार एव च ।
मातृजायावधूनां च जारोपेतान्नभक्षकाः ॥ ३९ ॥
कन्यानां भगिनीनां वा जारोपात्तानजीविनः ।
हरेर्नाम्नां विक्रयिणो भविष्यन्ति कलौ युगे ॥ ४० ॥
स्वयमुत्सृज्य दानं च कीर्तिवर्धनहेतवे ।
ततः पश्चात्स्वदानं च स्वयमुल्लङ्‌घयिष्यति ॥ ४१ ॥
चारों वर्गों के सभी लोग कन्याका विक्रय करेंगे । वे अपनी माता, पत्नी, बहू, कन्या तथा बहनके व्यभिचारी पुरुषोंसे प्राप्त धनसे अपनी आजीविका चलानेवाले होंगे और उनसे प्राप्त अन्नका भक्षण करनेवाले होंगे । कलियुगमें लोग भगवानके नाम बेचनेवाले होंगे । लोग अपनी कीर्ति बढ़ानेके लिये दान देंगे और उसके बाद अपने उस दानरूप प्रदत्त धनको स्वयं ले लेंगे ॥ ३९-४१ ॥

देववृत्तिं ब्रह्मवत्तिं वृत्तिं गुरुकुलस्य च ।
स्वदत्तां परदत्तां वा सर्वमुल्लङ्‌घयिष्यति ॥ ४२ ॥
लोग अपने द्वारा दी गयी अथवा दूसरेके द्वारा दी गयी देववृत्ति, ब्राह्मणवृत्ति अथवा गुरुकुलकी वृत्ति-उन सबको पुनः छीन लेंगे ॥ ४२ ॥

कन्यकागामिनः केचित्केचिच्च श्वश्रुगामिनः ।
केचिद्वधूगामिनश्च केचिद्वै सर्वगामिनः ॥ ४३ ॥
भगिनीगामिनः केचित्सपत्‍नीमातृगामिनः ।
भ्रातृजायागामिनश्च भविष्यन्ति कलौ युगे ॥ ४४ ॥
कलियुगमें कुछ लोग कन्याके साथ, कुछ लोग सासके साथ, कुछ लोग अपनी बहूके साथ, कुछ लोग बहनके साथ, कुछ लोग सौतेली माँके साथ, कुछ लोग भाईकी स्त्रीके साथ और कुछ लोग सब प्रकारकी स्त्रियोंके साथ समागम करनेवाले होंगे ॥ ४३-४४ ॥

अगम्यागमनं चैव करिष्यन्ति गृहे गृहे ।
मातृयोनिं परित्यज्य विहरिष्यन्ति सर्वतः ॥ ४५ ॥
पत्‍नीनां निर्णयो नास्ति भर्तॄणां च कलौ युगे ।
प्रजानां चैव ग्रामाणां वस्तुनां च विशेषतः ॥ ४६ ॥
लोग घर-घरमें अगम्या स्त्रीके साथ गमन करेंगे, केवल माताको छोड़कर वे सबके साथ रमण करेंगे । कलियुगमें पतियों तथा पलियोंका कोई निर्णय नहीं रहेगा और विशेषरूपसे सन्तानों, ग्रामों तथा वस्तुओंका कोई निर्णय नहीं रहेगा । ४५-४६ ॥

अलीकवादिनः सर्वे सर्वे चौराश्च लम्पटाः ।
परस्परं हिंसकाश्च सर्वे च नरघातिनः ॥ ४७ ॥
सभी लोग अप्रिय वचन बोलनेवाले होंगे । सभी लोग चोर और लम्पट होंगे । सभी लोग एक-दूसरेकी हिंसा करनेवाले और नरघाती होंगे ॥ ४७ ॥

ब्रह्मक्षत्रविशां वंशा भविष्यन्ति च पापिनः ।
लाक्षा लोहरसानां च व्यापारं लवणस्य च ॥ ४८ ॥
ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके वंशके लोग पापी हो जायेंगे । सभी लोग लाख, लोहा, रस और नमकका व्यापार करेंगे ॥ ४८ ॥

वृषवाहा विप्रवंशाः शूद्राणां शवदाहिनः ।
शूद्रान्नभोजिनः सर्वे सर्वे च वृषलीरताः ॥ ४९ ॥
पञ्चयज्ञविहीनाश्च कुहूरात्रौ च भोजिनः ।
यज्ञसूत्रविहीनाश्च संध्याशौचविहीनकाः ॥ ५० ॥
विप्र-वंशमें उत्पन्न सभी लोग बैलोंपर बोझ ढोनेका कर्म करेंगे, शूद्रोंका शव जलायेंगे, शूद्रोंका अन्न खायेंगे और शूद्रजातिकी स्त्रीमें आसक्त होंगे, पंचयज्ञ करनेसे विरत रहेंगे, अमावास्याकी रात्रिमें भोजन करेंगे । यज्ञोपवीत धारण नहीं करेंगे और सन्ध्यावन्दन तथा शौचादि कर्मसे विहीन रहेंगे ॥ ४९-५० ॥

पुंश्चली वार्धुषाजीवा कुट्टनी च रजस्वला ।
विप्राणां रन्धनागारे भविष्यति च पाचिका ॥ ५१ ॥
कुलटा, सूदसे जीविका चलानेवाली, कटनी तथा रजस्वला स्त्री ब्राह्मणोंके भोजनालयोंमें भोजन पकानेवालीके रूपमें रहेगी ॥ ५१ ॥

अन्नानां नियमो नास्ति योनीनां च विशेषतः ।
आश्रमाणां जनानां च सर्वे म्लेच्छाः कलौ युगे ॥ ५२ ॥
एवं कलौ सम्प्रवृत्ते सर्वं म्लेच्छमयं भवेत् ।
हस्तप्रमाणे वृक्षे च अङ्‌गुष्ठे चैव मानवे ॥ ५३ ॥
कलियुगमें अन्नोंके ग्रहणमें, आश्रम-व्यवस्थाके पालनमें तथा विशेषरूपसे स्त्रियोंके साथ सम्बन्धमें कोई भी नियम नहीं रह जायगा; सभी लोग म्लेच्छ हो जायेंगे । इस प्रकार कलियुगके सम्यक्प से प्रवृत्त हो जानेपर सम्पूर्ण जगत् म्लेच्छमय हो जायगा । उस समय वृक्ष हाथ-हाथ भर ऊँचे तथा मनुष्य अँगूठेकी लम्बाईके बराबर हो जायेंगे ॥ ५२-५३ ॥

विप्रस्य विष्णुयशसः पुत्रः कल्किर्भविष्यति ।
नारायणकलांशश्च भगवान् बलिनां वरः ॥ ५४ ॥
दीर्घेण करवालेन दीर्घघोटकवाहनः ।
म्लेच्छशून्यां च पृथिवीं त्रिरात्रेण करिष्यति ॥ ५५ ॥
निर्म्लेच्छां वसुधां कृत्वा चान्तर्धानं करिष्यति ।
अराजका च वसुधा दस्युग्रस्ता भविष्यति ॥ ५६ ॥
उस समय विष्णुयश नामक ब्राह्मणके यहाँ उनके पुत्ररूपमें भगवान् कल्कि अवतरित होंगे । श्रीनारायणकी कलाके अंशसे उत्पन्न तथा बलशालियोंमें श्रेष्ठ वे भगवान् कल्कि एक विशाल अश्वपर आरूढ होकर अपनी विशाल तलवारसे तीन रातमें ही सम्पूर्ण पृथ्वीको म्लेच्छोंसे विहीन कर देंगे । इस प्रकार पृथ्वीको म्लेच्छरहित करके वे अन्तर्धान हो जायेंगे । तब पृथ्वीपर पुनः अराजकता फैल जायगी और यह चोरों तथा लुटेरोंसे पीड़ित हो जायगी ॥ ५४-५६ ॥

स्थूलाप्रमाणा षड्‌रात्रं वर्षधाराऽऽप्लुता मही ।
लोकशून्या वृक्षशून्या गृहशून्या भविष्यति ॥ ५७ ॥
तदनन्तर मोटी धारसे निरन्तर छ: दिनोंतक असीम वर्षा होगी, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी आप्लावित हो जायगी । वह प्राणियों, वृक्षों और घर आदिसे विहीन हो जायगी ॥ ५७ ॥

ततश्च द्वादशादित्याः करिष्यन्त्युदयं मुने ।
प्राप्नोति शुष्कतां पृथ्वी समा तेषां च तेजसा ॥ ५८ ॥
हे मुने ! उसके बाद बारह सूर्य एक साथ उदित होंगे । उनके प्रचण्ड तेजसे सम्पूर्ण पृथ्वी सूख जायगी ॥ ५८ ॥

कलौ गते च दुर्धर्षे प्रवृत्ते च कृते युगे ।
तपःसत्त्वसमायुक्तो धर्मः पूर्णो भविष्यति ॥ ५९ ॥
इसके बाद भयंकर कलियुगके समाप्त होनेके बाद तथा सत्ययुगके प्रवृत्त होनेपर तप और सत्त्वसे युक्त धर्म पूर्णरूपसे प्रकट होगा ॥ ५९ ॥

तपस्विनश्च धर्मिष्ठा वेदज्ञा ब्राह्मणा भुवि ।
पतिव्रताश्च धर्मिष्ठा योषितश्च गृहे गृहे ॥ ६० ॥
उस समय पृथ्वीपर ब्राह्मण धर्मपरायण, तपस्वी तथा वेदज्ञ होंगे और घर-घरमें स्त्रियाँ पतिव्रता तथा धर्मनिष्ठ होंगी ॥ ६० ॥

राजानः क्षत्रियाः सर्वे विप्रभक्ता मनस्विनः ।
प्रतापवन्तो धर्मिष्ठाः पुण्यकर्मरताः सदा ॥ ६१ ॥
क्षत्रियलोग ही राजा होंगे । वे सब सदा ब्राह्मणोंके भक्त, मनस्वी, तपस्वी, प्रतापी, धर्मात्मा तथा पुण्य कर्ममें संलग्न रहनेवाले होंगे ॥ ६१ ॥

वैश्या वाणिज्यनिरता विप्रभक्ताश्च धार्मिकाः ।
शूद्राश्च पुण्यशीलाश्च धर्मिष्ठा विप्रसेविनः ॥ ६२ ॥
वैश्यलोग व्यापार-कर्ममें तत्पर, ब्राह्मणभक्त तथा धार्मिक होंगे । इसी प्रकार शूद्र भी पुण्य कृत्य करनेवाले, धर्मपरायण तथा विप्रोंके सेवक होंगे ॥ ६२ ॥

विप्रक्षत्रविशां वंशा देवीभक्तिपरायणाः ।
देवीमन्त्ररताः सर्वे देवीध्यानपरायणाः ॥ ६३ ॥
ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके वंशज सदा भगवतीकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले होंगे । वे सब देवीके मन्त्रका निरन्तर जप करनेवाले तथा उनके ध्यानमें सदा लीन रहनेवाले होंगे ॥ ६३ ॥

श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञाः पुमांस ऋतुगामिनः ।
लेशो नास्ति ह्यधर्मस्य पूर्णो धर्मः कृते युगे ॥ ६४ ॥
धर्मस्त्रिपाच्च त्रेतायां द्विपाच्च द्वापरे ततः ।
कलौ वृत्ते चैकपाच्च सर्वलुप्तिस्ततः परम् ॥ ६५ ॥
उस समयके मनुष्य वेद-स्मृति-पुराणोंके ज्ञाता तथा ऋतुकालमें ही समागम करनेवाले होंगे । सत्ययुगमें लेशमात्र भी अधर्म नहीं रहेगा और धर्म अपने पूर्ण* स्वरूपमें स्थापित रहेगा । त्रेतायुगमें धर्म तीन पैरोंसे, द्वापरमें दो पैरोंसे तथा कलिके आनेपर एक पैरसे रहता है । तत्पश्चात् [घोर कलियुगके प्रवृत्त होनेपर धर्मका पूर्णरूपसे लोप हो जाता है ॥ ६४-६५ ॥

वाराः सप्त तथा विप्र तिथयः षोडश स्मृताः ।
तथा द्वादश मासाश्च ऋतवश्च षडेव च ॥ ६६ ॥
द्वौ पक्षौ चायने द्वे च चतुर्भिः प्रहरैर्दिनम् ।
चतुर्भिः प्रहरै रात्रिर्मासस्त्रिंशद्दिनैस्तथा ॥ ६७ ॥
हे विप्र ! सात वार, सोलह तिथियाँ, बारह महीने तथा छः ऋतुएँ बतायी गयी हैं । दो पक्ष (शुक्ल, कृष्ण), दो अयन (उत्तरायण, दक्षिणायन), चार प्रहरका एक दिन, चार प्रहरकी एक रात और तीस दिनोंका एक माह होता है ॥ ६६-६७ ॥

वर्षं पञ्चविधं ज्ञेयं कालसंख्याविधिक्रमे ।
यथा चायान्ति यान्त्येव यथा युगचतुष्टयम् ॥ ६८ ॥
संवत्सर, इडावत्सर आदि भेदसे पाँच प्रकारके वर्ष जानने चाहिये । यही कालकी संख्याका नियम है । जिस प्रकार दिन आते हैं तथा जाते हैं, उसी प्रकार चारों युगोंका आना-जाना लगा रहता है ॥ ६८ ॥

वर्षे पूर्णे नराणां च देवानां च दिवानिशम् ।
शतत्रये षष्ठ्यधिके नराणां च युगे गते ॥ ६९ ॥
देवानां च युगं ज्ञेयं कालसंख्याविदां मतम् ।
मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ॥ ७० ॥
मन्वन्तरसमं ज्ञेयमायुष्यञ्च शचीपतेः ।
अष्टाविंशतिमे चेन्द्रे गते ब्रह्मदिवानिशम् ॥ ७१ ॥
अष्टोत्तरशते वर्षे गते पातश्च ब्रह्मणः ।
मनुष्योंका एक वर्ष पूर्ण होनेपर देवताओंका एक दिन-रात होता है । मनुष्योंके तीन सौ साठ युग बीतनेपर उसे देवताओंका एक युग समझना चाहिये-ऐसा कालसंख्याके विद्वानोंका मानना है । इस प्रकारके एकहत्तर दिव्य युगोंका एक मन्वन्तर होता है । इन्द्रकी आयु एक मन्वन्तरके बराबर समझनी चाहिये । अट्ठाईस इन्द्रके बीत जानेपर ब्रह्माका एक दिन-रात होता है । इस मानसे एक सौ आठ वर्ष व्यतीत होनेपर ब्रह्माका भी विनाश हो जाता है ॥ ६९-७१.५ ॥

प्रलयः प्राकृतो ज्ञेयस्तत्रादृष्टा वसुन्धरा ॥ ७२ ॥
जलप्लुतानि विश्वानि ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ऋषयो ज्ञानिनः सर्वे लीनाः सत्ये चिदात्मनि ॥ ७३ ॥
तत्रैव प्रकृतिर्लीना तत्र प्राकृतिको लयः ।
लये प्राकृतिके जाते पाते च ब्रह्मणो मुने ॥ ७४ ॥
निमेषमात्रं कालश्च श्रीदेव्याः प्रोच्यते मुने ।
एवं नश्यन्ति सर्वाणि ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ॥ ७५ ॥
निमेषान्तरकालेन पुनः सृष्टिक्रमेण च ।
इसीको प्राकृत प्रलय समझना चाहिये, उस समय पृथ्वी दिखायी नहीं पड़ती । जगत्के सभी स्थावर-जंगम पदार्थ जलमें विलीन हो जाते हैं । उस समय ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता, ऋषि तथा ज्ञानी-ये सब सत्यस्वरूप चिदात्मामें समाविष्ट हो जाते हैं । उसी परब्रह्ममें प्रकृति भी लीन हो जाती है । यही प्राकृतिक लय है । हे मुने ! इस प्रकार प्राकृतिक लय हो जानेपर ब्रह्माकी आयु समाप्त हो जाती है, इस पूरे समयको भगवतीका एक निमेष कहा जाता है । हे मुने ! इस प्रकार जितने भी ब्रह्माण्ड हैं, सबके-सब देवीके एक निमेषमें विनष्ट हो जाते हैं । पुनः उसी निमेषमात्रमें ही सृष्टिके क्रमसे अनेक ब्रह्माण्ड बन भी जाते हैं ॥ ७२-७५.५ ॥

एवं कतिविधा सृष्टिर्लयः कतिविधोऽपि वा ॥ ७६ ॥
कति कल्पा गतायाताः संख्यां जानाति कः पुमान् ।
सृष्टीनां च लयानां च ब्रह्माण्डानां च नारद ॥ ७७ ॥
ब्रह्मादीनां च ब्रह्माण्डे संख्यां जानाति कः पुमान् ।
इस प्रकार कितनी सृष्टियाँ हुईं तथा कितने लय हुए और कितने कल्प आये तथा गये-उनकी संख्याको कौन व्यक्ति जान सकता है ? हे नारद सृष्टियों, लयों, ब्रह्माण्डों और ब्रह्माण्डमें रहनेवाले ब्रह्मा आदिकी संख्याको भला कौन व्यक्ति जान सकता है ? ॥ ७६-७७.५ ॥

ब्रह्माण्डानां च सर्वेषामीश्वरश्चैक एव सः ॥ ७८ ॥
सर्वेषां परमात्मा च सच्चिदानन्दरूपधृक् ।
सभी ब्रह्माण्डोंका ईश्वर एक ही है । वही समस्त प्राणियोंका परमात्मस्वरूप तथा सच्चिदानन्दरूप धारण करनेवाला है । ७८.५ ॥

ब्रह्मादयश्च तस्यांशास्तस्यांशश्च महाविराट् ॥ ७९ ॥
तस्यांशश्च विराट् क्षुद्रः सैवेयं प्रकृतिः परा ।
तस्याः सकाशात्सञ्जातोऽप्यर्धनारीश्वरस्ततः ॥ ८० ॥
सैव कृष्णो द्विधाभूतो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ॥ ८१ ॥
ब्रह्मा आदि देवता, महाविराट और क्षुद्रविराटये सब उसी परमेश्वरके अंश हैं और वे परमात्मा ही यह पराप्रकृति हैं । उसी पराप्रकृतिसे अर्धनारीश्वर भी आविर्भूत हुए हैं । वही पराप्रकृति श्रीकृष्णरूप भी है । वे श्रीकृष्ण दो भुजाओं तथा चार भुजाओंवाले होकर दो रूपोंमें विभक्त हो गये । उनमें चतुर्भुज श्रीहरिरूपसे वैकुण्ठमें और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्णरूपसे गोलोकमें प्रतिष्ठित हुए । ७९-८१ ॥

ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं प्राकृतिकं भवेत् ।
यद्यत्प्राकृतिकं सृष्टं सर्वं नश्वरमेव च ॥ ८२ ॥
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ प्राकृतिक है और जो कुछ भी प्रकृतिसे उत्पन्न है, वह सब नश्वर ही है ॥ ८२ ॥

एवंविधं सृष्टिहेतुं सत्यं नित्यं सनातनम् ।
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥ ८३ ॥
निरुपाधि निराकारं भक्तानुग्रहकातरम् ।
करोति ब्रह्मा ब्रह्माण्डं यज्ज्ञानात्कमलोद्‍भवः ॥ ८४ ॥
इस प्रकार सृष्टिके कारणभूत वे परब्रह्म परमात्मा सत्य, नित्य, सनातन, स्वतन्त्र, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, उपाधिरहित, निराकार तथा भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सदा व्याकुल रहनेवाले हैं । उन परब्रह्मको सम्यक् जानकर ही पायोनि ब्रह्मा ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं । ८३-८४ ॥

शिवो मृत्युज्जयश्चैव संहर्ता सर्वसत्त्ववित् ।
यज्ज्ञानाद्यस्य तपसा सर्वेशस्तु तपो महान्॥ ८५ ॥
महाविभूतियुक्तश्च सर्वज्ञः सर्वदर्शनः ।
सर्वव्यापी सर्वपाता प्रदाता सर्वसम्पदाम् ॥ ८६ ॥
विष्णुः सर्वेश्वरः श्रीमान् यद्‍भक्त्या यस्य सेवया ।
मृत्युपर विजय प्राप्त करनेवाले, समस्त तत्त्वार्थीको जाननेवाले तथा महान् तप:स्वरूप सर्वेश्वर शिव उन्हींकी तपस्या करके, उन्हें जानकर ही जगत्का संहार करनेवाले हो सके । भगवान् विष्णु उन्हीं परब्रह्म परमात्माकी भक्ति तथा सेवाके द्वारा महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी, समस्त सम्पदा प्रदान करनेवाले, सबके ईश्वर, श्रीसम्पन्न तथा सबके रक्षक हुए ॥ ८५-८६.५ ॥

महामाया च प्रकृतिः सर्वशक्तिमयीश्वरी ॥ ८७ ॥
सैव प्रोक्ता भगवती सच्चिदानन्दरूपिणी ।
यज्ज्ञानाद्यस्य तपसा यद्‍भक्त्या यस्य सेवया ॥ ८८ ॥
सावित्री देवमाता च वेदाधिष्ठातृदेवता ।
पूज्या द्विजानां वेदज्ञा यज्ज्ञानाद्यस्य सेवया ॥ ८९ ॥
सर्वविद्याधिदेवी सा पूज्या च विदुषां परा ।
यत्सेवया यत्तपसा सर्वविश्वेषु पूजिता ॥ ९० ॥
सर्वग्रामाधिदेवी सा सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या सर्वेषां पुत्रदायिनी ॥ ९१ ॥
सर्वस्तुता च सर्वज्ञा सर्वदुर्गार्तिनाशिनी ।
जिसके ज्ञानसे, जिसके तपसे, जिसकी भक्तिसे तथा जिसकी सेवासे महामायास्वरूपिणी, सर्वशक्तिमयी तथा परमेश्वरी वे प्रकृति ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती कही गयी हैं । जिसके ज्ञान तथा सेवासे देवमाता सावित्री वेदोंकी अधिष्ठातृदेवता, वेदज्ञानसे सम्पन्न तथा ब्राह्मणोंके द्वारा सुपूजित हुईं । जिनकी सेवा तथा तपस्याके द्वारा सरस्वती समस्त विद्याओंकी अधिष्ठातृदेवी, विद्वानोंके लिये पूज्य, श्रेष्ठ तथा समस्त लोकोंमें पूजित हुई । इसी प्रकार इन्हींकी सेवा तथा तपस्यासे ही वे लक्ष्मी सभी प्रकारकी सम्पदा प्रदान करनेवाली, सभी प्राणिसमूहकी अधिष्ठातृदेवी, सर्वेश्वरी, सबकी वन्दनीया तथा सबको पुत्र देनेवाली हुई और इन्हींकी उपासनाके प्रभावसे ही देवी दुर्गा सब प्रकारके कष्टका नाश करनेवाली, सबके द्वारा स्तुत तथा सर्वज्ञ हुई । ८७-९१.५ ॥

कृष्णवामांशसम्भूता कृष्णप्राणाधिदेवता ॥ ९२ ॥
कृष्णप्राणाधिका प्रेम्णा राधिका शक्तिसेवया ।
सर्वाधिकं च रूपं च सौभाग्यं मानगौरवे ॥ ९३ ॥
कृष्णवक्षःस्थलस्थानं पत्‍नीत्वे प्राप सेवया ।
श्रीकृष्णके वाम अंशसे आविर्भूत राधा प्रेमपूर्वक उन्हीं शक्तिकी सेवा करके कृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवीके रूपमें प्रतिष्ठित हुई और उनके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय बन गयीं । उन्हीं की सेवासे राधाने सर्वोत्कृष्ट रूप, सौभाग्य, सम्मान, गौरव तथा पत्नीके रूपमें श्रीकृष्णके वक्षःस्थलपर स्थान प्राप्त किया है ॥ ९२-९३.५ ॥

तपश्चकार सा पूर्वं शतशृङ्‌गे च पर्वते ॥ ९४ ॥
दिव्यवर्षसहस्रं च पतिं प्राप्त्यर्थमेव च ।
जाते शक्तिप्रसादे तु दृष्ट्वा चन्द्रकलोपमाम् ॥ ९५ ॥
कृष्णो वक्षःस्थले कृत्वा रुरोद कृपया विभुः ।
वरं तस्यै ददौ सारं सर्वेषामपि दुर्लभम् ॥ ९६ ॥
मम वक्षःस्थले तिष्ठ मम भक्ता च शाश्वती ।
सौभाग्येन च मानेन प्रेम्णाथो गौरवेण च ॥ ९७ ॥
त्वं मे श्रेष्ठा च ज्येष्ठा च प्रेयसी सर्वयोषिताम् ।
वरिष्ठा च गरिष्ठा च संस्तुता पूजिता मया ॥ ९८ ॥
सततं तव साध्योऽहं वश्यश्च प्राणवल्लभे ।
इत्युक्त्वा च जगन्नाथश्चकार ललनां ततः ॥ ९९ ॥
पूर्वकालमें श्रीराधाने श्रीकृष्णको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये शतशृंगपर्वतपर एक हजार दिव्य वर्षांतक तप किया था । उससे उन शक्तिस्वरूपाके प्रसन्न हो जानेपर श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । वे प्रभु चन्द्रमाकी कलाके समान शोभा पानेवाली राधाको देखकर उन्हें अपने वक्षःस्थलसे लगाकर [प्रेमातिरेकके कारण] रोने लगे । तत्पश्चात् कृपा करके उन प्रभु श्रीकृष्णने राधाको सभीके लिये अत्यन्त दुर्लभ यह उत्तम वर प्रदान किया-'मेरे वक्षःस्थलपर सदा विराजमान रहो, मेरी शाश्वत भक्त बनो और सौभाग्य, मान, प्रेम तथा गौरवसे नित्य सम्पन्न रहो । तुम मेरी सभी भार्याओंमें श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ प्रेयसीके रूपमें सदा प्रतिष्ठित रहोगी । तुम्हें वरिष्ठ तथा महिमामयी मानकर मैं सदा तुम्हारी स्तुति-पूजा किया करूँगा । हे प्राणवल्लभे ! मैं तुम्हारे लिये सर्वदा सुलभ और हर प्रकारसे तुम्हारे अधीन रहूँगा । ' परम सुन्दरी राधाको ऐसा वर प्रदान करके जगत्पति श्रीकृष्णने उन्हें सपत्नीके भावसे रहित कर दिया और अपनी प्राणप्रिया बना लिया । ९४-९९ ॥

सपत्‍नीरहितां तां च चकार प्राणवल्लभाम् ।
अन्या या याश्च ता देव्यः पूजिताः शक्तिसेवया ॥ १०० ॥
तपस्तु यादृशं यासां तादृक्तादृक्फलं मुने ।
दिव्यवर्षसहस्रं च तपस्तप्त्वा हिमाचले ॥ १०१ ॥
दुर्गा च तत्पदं ध्यात्वा सर्वपूज्या बभूव ह ।
सरस्वती तपस्तप्त्वा पर्वते गन्धमादने ॥ १०२ ॥
लक्षवर्षं च दिव्यं च सर्ववन्द्या बभूव सा ।
लक्ष्मीर्युगशतं दिव्यं तपस्तप्त्वा च पुष्करे ॥ १०३ ॥
सर्वसम्पत्प्रदात्री च जाता देवीनिषेवणात् ।
सावित्री मलये तप्त्वा पूज्या वन्द्या बभूव सा ॥ १०४ ॥
षष्टिवर्षसहस्रं च दिव्यं ध्यात्वा च तत्पदम् ।
हे मुने ! इसी प्रकार अन्य भी जो-जो देवियाँ हैं, वे भी मूलप्रकृतिकी सेवाके कारण ही सुपूजित हुई हैं । जिनका जैसा-जैसा तप रहा है, वैसा-वैसा उन्हें फल मिला है । भगवती दुर्गा हिमालयपर्वतपर एक हजार दिव्य वर्षोंतक तपस्या करके तथा उन मूलप्रकृतिके चरणोंका ध्यान करके सबकी पूज्य हो गयीं । वे भगवती सरस्वती गन्धमादनपर्वतपर एक लाख दिव्य वर्षातक तप करके सर्ववन्द्या बन गयीं । श्रीलक्ष्मी पुष्करक्षेत्रमें दिव्य एक सौ युगोंतक तप करके भगवतीकी उपासनाके द्वारा सभी प्रकारकी सम्पदाएँ देनेवाली बन गयीं । इसी प्रकार सावित्री दिव्य साठ हजार वर्षांतक मलयगिरिपर उन मूलप्रकृतिके दिव्य चरणोंका ध्यान करते हुए कठोर तप करके सबके लिये पूजनीय तथा वन्दनीय हो गयीं ॥ १००-१०४.५ ॥

शतमन्वन्तरं तप्तं शङ्‌करेण पुरा विभो ॥ १०५ ॥
शतमन्वन्तरं चेदं ब्रह्मा शक्तिं जजाप ह ।
शतमन्वन्तरं विष्णुस्तप्त्वा पाता बभूव ह ॥ १०६ ॥
हे विभो ! प्राचीन कालमें शंकरजीने एक सौ मन्वन्तरतक उन भगवतीका तप किया था । ब्रह्माजीने भी सौ मन्वन्तरतक शक्तिके नामका जप किया था । इसी प्रकार भगवान् विष्णु भी सौ मन्वन्तरतक तपस्या करके सम्पूर्ण जगत्के रक्षक बने ॥ १०५-१०६ ॥

दशमन्वन्तरं तप्त्वा श्रीकृष्णः परमं तपः ।
गोलोकं प्राप्तवान्दिव्यं मोदतेऽद्यापि यत्र हि ॥ १०७ ॥
श्रीकृष्णने दस मन्वन्तरतक कठोर तप करके दिव्य गोलोक प्राप्त किया, जहाँपर आज भी वे आनन्द प्राप्त कर रहे हैं ॥ १०७ ॥

दशमन्वन्तरं धर्मस्तप्त्वा वै भक्तिसंयुतः ।
सर्वप्राणः सर्वपूज्यः सर्वाधारो बभूव सः ॥ १०८ ॥
उन्हीं भगवतीकी भक्तिसे युक्त होकर धर्म दस मन्वन्तरतक तपस्या करके सबके प्राणस्वरूप, सर्वपूज्य तथा सर्वाधार हो गये ॥ १०८ ॥

एवं देव्याश्च तपसा सर्वे देवाश्च पूजिताः ।
मुनयो मनवो भूपा ब्राह्मणाश्चैव पूजिताः ॥ १०९ ॥
इसी प्रकार सभी देवता, मुनि, मनुगण, राजा तथा ब्राह्मण भी उन भगवती मूलप्रकृतिकी तपस्याके द्वारा ही पूजित हुए हैं ॥ १०९ ॥

एवं ते कथितं सर्वं पुराणं सयथागमम् ।
गुरुवक्त्राद्यथा ज्ञातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११० ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने आगमसहित इस पुराणको गुरुके मुखसे जैसा जाना था, वह सब आपको बता दिया; अब आप आगे क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ११० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
कलिमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे कलिमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥


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