Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


गङ्‌गोपाख्यानवर्णनम् -
गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य -


नारद उवाच
श्रुतं पृथिव्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् ।
गङ्‌गोपाख्यानमधुना वद वेदविदांवर ॥ १ ॥
भारते भारतीशापात्सा जगाम सुरेश्वरी ।
विष्णुस्वरूपा परमा स्वयं विष्णुपदीति च ॥ २ ॥
कथं कुत्र युगे केन प्रार्थिता प्रेरिता पुरा ।
तत्क्रमं श्रोतुमिच्छामि पापघ्नं पुण्यदं शुभम् ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ । पृथ्वीका यह परम मनोहर उपाख्यान मैं सुन चुका; अब आप गंगाका उपाख्यान कहिये । सुरेश्वरी, विष्णुस्वरूपा और स्वयं विष्णुपदी-इस नामसे विख्यात वे श्रेष्ठ गंगा प्राचीनकालमें सरस्वतीके शापसे भारतवर्षमें किस प्रकार, किस युगमें तथा किसके द्वारा प्रार्थित और प्रेरित होकर गयीं । मैं इस पापनाशक, पुण्यप्रद तथा मंगलकारी प्रसंगको क्रमसे सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥

श्रीनारायण उवाच
राजराजेश्वरः श्रीमान् सगरः सूर्यवंशजः ।
तस्य भार्या च वैदर्भी शैव्या च द्वे मनोहरे ॥ ४ ॥
तत्पत्‍न्यामेकपुत्रश्च बभूव सुमनोहरः ।
असमञ्ज इति ख्यातः शैव्यायां कुलवर्धनः ॥ ५ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] राजराजेश्वर श्रीमान् सगर सूर्यवंशी राजा हो चुके हैं । वैदी तथा शैव्या नामोंवाली उनकी दो मनोहर भार्याएँ थीं । उनकी शैव्या नामक पत्नीसे अत्यन्त सुन्दर तथा कुलकी वृद्धि करनेवाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो असमंज-इस नामसे विख्यात हुआ ॥ ४-५ ॥

अन्या चाराधयामास शङ्‌करं पुत्रकामुकी ।
बभूव गर्भस्तस्याश्च हरस्य च वरेण ह ॥ ६ ॥
उनकी दूसरी पत्नी वैदर्भीने पुत्रकी कामनासे भगवान् शंकरकी आराधना की और शिवजीके वरदानसे उसने गर्भ धारण किया ॥ ६ ॥

गते शताब्दे पूर्णे च मांसपिण्डं सुषाव सा ।
तद्‌ दृष्ट्वा सा शिवं ध्यात्वा रुरोदोच्चैः पुनः पुनः ॥ ७ ॥
पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जानेपर उसने एक मांसपिण्डको जन्म दिया । उसे देखकर तथा शिवका ध्यान करके वह बार-बार ऊँचे स्वरमें विलाप करने लगी ॥ ७ ॥

शम्भुर्ब्राह्मणरूपेण तत्समीपं जगाम ह ।
चकार संविभज्यैतत्पिण्डं षष्टिसहस्रधा ॥ ८ ॥
तब भगवान् शंकर ब्राह्मणका रूप धारणकर उसके पास गये और उन्होंने उस मांसपिण्डको बराबरबराबर साठ हजार भागोंमें विभक्त कर दिया ॥ ८ ॥

सर्वे बभूवुः पुत्राश्च महाबलपराक्रमाः ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभामुष्टकलेवराः ॥ ९ ॥
वे सभी टुकड़े पुत्ररूपमें हो गये । वे महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न थे । उनके शरीरकी कान्ति ग्रीष्मऋतुके मध्याह्नकालीन सूर्यकी प्रभाको भी तिरस्कृत कर देनेवाली थी ॥ ९ ॥

कपिलस्य मुनेः शापाद्‌ बभूवुर्भस्मसाच्च ते ।
राजा रुरोद तच्छ्रुत्वा जगाम गहने वने ॥ १० ॥
कपिलमुनिके शापसे वे सभी जलकर भस्म हो गये । यह समाचार सुनकर राजा सगर बहुत रोये और वे घोर जंगलमें चले गये ॥ १० ॥

तपश्चकारासमञ्जो गङ्‌गानयनकारणात् ।
लक्षवर्षं तपस्तप्त्वा ममार कालयोगतः ॥ ११ ॥
तदनन्तर उनके पुत्र असमंज गंगाको लानेके निमित्त तपस्या करने लगे । इस प्रकार एक लाख वर्षतक तप करनेके पश्चात् वे कालयोगसे मर गये ॥ ११ ॥

अंशुमांस्तस्य तनयो गङ्‌गानयनकारणात् ।
तपः कृत्वा लक्षवर्षं ममार कालयोगतः ॥ १२ ॥
उन असमंजके पुत्र अंशुमान् भी गंगाको पृथ्वीपर ले आनेके उद्देश्यसे एक लाख वर्षतक तप करनेके उपरान्त कालयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ १२ ॥

भगीरथस्तस्य पुत्रो महाभागवतः सुधीः ।
वैष्णवो विष्णुभक्तश्च गुणवानजरामरः ॥ १३ ॥
तपः कृत्वा लक्षवर्षं गङ्‌गानयनकारणात् ।
ददर्श कृष्णं ग्रीष्मस्थसूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १४ ॥
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषिणम् ।
गोपालसुन्दरीरूपं भक्तानुग्रहरूपिणम् ॥ १५ ॥
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं प्रभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्नुतम् ॥ १६ ॥
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारणम् ॥ १७ ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानं रत्‍नभूषणभूषितम् ।
तुष्टाव दृष्ट्वा नृपतिः प्रणम्य च पुनः पुनः ॥ १८ ॥
लीलया च वरं प्राप वाञ्छितं वंशतारणम् ।
कृत्वा च स्तवनं दिव्यं पुलकाङ्‌कितविग्रहः ॥ १९ ॥
अंशुमान्के पुत्र भगीरथ थे । वे भगवान्के परम भक्त, विद्वान्, विष्णुके भक्त, गुणवान्, अजरअमर तथा वैष्णव थे । उन्होंने गंगाको ले आनेके लिये एक लाख वर्षतक तप करके भगवान् श्रीकृष्णका साक्षात् दर्शन किया । वे ग्रीष्मकालीन करोड़ों सूर्योके समान प्रभासे सम्पन्न थे, उनकी दो भुजाएँ थीं, वे हाथमें मुरली धारण किये हुए थे, उनकी किशोर अवस्था थी, वे गोपवेषमें थे और कभी गोपालसुन्दरीके रूपमें हो जाते थे, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही उन्होंने यह रूप धारण किया था, उस समय ब्रह्माविष्णु-महेश आदि देवता अपनी इच्छाके अधीन उन परिपूर्णतम परब्रह्मस्वरूप प्रभु श्रीकृष्णका स्तवन कर रहे थे, मुनियोंने उनके समक्ष अपने मस्तक झुका रखे थे, सदा निर्लिप्त, सबके साक्षी, निर्गुण, प्रकृतिसे परे तथा भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन श्रीकृष्णका मुखमण्डल मन्द मुसकानयुक्त तथा प्रसन्नतासे भरा हुआ था; वे अग्निके समान विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए थे और रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित हो रहे थे-ऐसे स्वरूपवाले भगवान् कृष्णको देखकर राजा भगीरथ बार-बार प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे । उन्होंने लीलापूर्वक श्रीकृष्णसे अपने पूर्वजोंको तारनेवाला अभीष्ट वर प्राप्त कर लिया । उस समय भगवान्की स्तुति करनेसे उनका रोम-रोम पुलकित हो गया था ॥ १३-१९ ॥

श्रीभगवानुवाच
भारतं भारतीशापाद्‌ गच्छ शीघ्रं सुरेश्वरि ।
सगरस्य सुतान्सर्वान्पूतान्कुरु ममाज्ञया ॥ २० ॥
श्रीभगवान् बोले-हे सुरेश्वरि ! सरस्वतीके शापके प्रभावसे आप शीघ्र ही भारतवर्षमें जाइये और मेरी आज्ञासे राजा सगरके सभी पुत्रोंको पवित्र कीजिये ॥ २० ॥

त्वत्स्पर्शवायुना पूता यास्यन्ति मम मन्दिरम्।
बिभ्रतो मम मूर्तीश्च दिव्यस्यन्दनगामिनः ॥ २१ ॥
मत्पार्षदा भविष्यन्ति सर्वकालं निरामयाः ।
समुच्छिद्य कर्मभोगान् कृताञ्जन्मनि जन्मनि ॥ २२ ॥
आपसे स्पर्शित वायुका संयोग पाकर वे सब पवित्र हो जायेंगे और मेरा स्वरूप धारण करके दिव्य रथपर आरूढ़ होकर मेरे लोकको प्राप्त होंगे । वे जन्म-जन्मान्तरमें किये गये कर्मोके फलोंका समूल उच्छेद करके सर्वथा निर्विकार भावसे युक्त होकर मेरे पार्षदके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे ॥ २१-२२ ॥

कोटिजन्मार्जितं पापं भारते यत्कृतं नृभिः ।
गङ्‌गाया वातस्पर्शेन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ॥ २३ ॥
श्रुतिमें ऐसा कहा गया है कि भारतवर्षमें मनुष्योंके द्वारा करोड़ों जन्मोंमें किये गये दुष्कर्मके परिणामस्वरूप जो भी पाप संचित रहता है, वह गंगाकी वायुके स्पर्शमात्रसे नष्ट हो जाता है ॥ २३ ॥

स्पर्शनाद्दर्शनाद्देव्याः पुण्यं दशगुणं ततः ।
मौसलस्नानमात्रेण सामान्यदिवसे नृणाम् ॥ २४ ॥
शतकोटिजन्मपापं नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ।
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ॥ २५ ॥
जन्मसंख्यार्जितान्येव कामतोऽपि कृतानि च ।
तानि सर्वाणि नश्यन्ति मौसलस्नानतो नृणाम् ॥ २६ ॥
गंगाजीके स्पर्श और दर्शनकी अपेक्षा दस गुना पुण्य गंगामें मौसल* स्नान करनेसे प्राप्त होता है । सामान्य दिनोंमें भी स्नान करनेसे मनुष्योंके सैकड़ों जन्मोंके पाप विनष्ट हो जाते हैं-ऐसा अति कहती है । इच्छापूर्वक इस जन्ममें किये गये तथा अनेक पूर्वजन्मोंके संचित जो कुछ भी मनुष्योंके ब्रह्महत्या आदि पाप हैं, वे सब मौसलस्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाते हैं ॥ २४-२६ ॥

पुण्याहस्नानतः पुण्यं वेदा नैव वदन्ति च ।
किञ्चिद्वदन्ति ते विप्र फलमेव यथागमम् ॥ २७ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवाद्याश्च सर्वं नैव वदन्ति च ।
सामान्यदिवसस्नानसङ्‌कल्पं शृणु सुन्दरि ॥ २८ ॥
पुण्यं दशगुणं चैव मौसलस्नानतः परम् ।
ततस्त्रिंशद्‌गुणं पुण्यं रविसंक्रमणे दिने ॥ २९ ॥
हे विप्र [नारद] ! पुण्यप्रद दिनोंमें गंगास्नानसे होनेवाले पुण्यका वर्णन तो वेद भी नहीं कर सकते । आगमशास्त्रके जो विद्वान् हैं, वे आगमोंमें प्रतिपादित कुछ-कुछ फल बताते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता भी पुण्यप्रद दिनोंके स्नानका सम्पूर्ण फल नहीं बता सकते । हे सुन्दरि ! अब सामान्य दिवसोंमें संकल्पपूर्वक किये गये स्नानका फल सुनो । साधारण दिवसके संकल्पपूर्वक स्नानका पुण्य मौसलस्नानसे दस गुना अधिक होता है । उससे भी तीस गुना पुण्य सूर्यसंक्रान्तिके दिन स्नान करनेसे होता है ॥ २७-२९ ॥

अमायां चापि तत्तुल्यं द्विगुणं दक्षिणायने ।
ततो दशगुणं पुण्यं नराणामुत्तरायणे ॥ ३० ॥
चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामनन्तं पुण्यमेव च ।
अक्षयायां च तत्तुल्यं चैतद्वेदे निरूपितम् ॥ ३१ ॥
अमावस्यातिथिको भी स्नान करनेसे उसी सूर्यसंक्रान्तिके स्नानके समान पुण्य होता है । किंतु दक्षिणायनमें गंगा-स्नान करनेसे उसका दूना और उत्तरायणमें गंगा-स्नान करनेसे मनुष्योंको उससे दस गुना पुण्य प्राप्त होता है । चातुर्मास तथा पूर्णिमाके अवसरपर स्नान करनेसे अनन्त पुण्य प्राप्त होता है, अक्षय तृतीयाके दिन स्नान करनेसे भी उसीके समान पुण्य होता है-ऐसा वेदमें कहा गया है ॥ ३०-३१ ॥

असंख्यपुण्यफलदमेतेषु स्नानदानकम् ।
सामान्यदिवसस्नानाद्दानाच्छतगुणं फलम् ॥ ३२ ॥
इन विशेष पर्वोपर किये गये स्नान तथा दान असंख्य पुण्य-फल प्रदान करते हैं । इन पर्वोपर किये गये स्नानदानका फल सामान्य दिवसोंमें किये गये स्नान तथा दानकी अपेक्षा सौ गुना अधिक होता है ॥ ३२ ॥

मन्वन्तराद्यायां तिथौ युगाद्यायां तथैव च ।
माघस्य सितसप्तम्यां भीष्माष्टम्यां तथैव च ॥ ३३ ॥
अथाप्यशोकाष्टम्यां च नवम्यां च तथा हरेः ।
ततोऽपि द्विगुणं पुण्यं नन्दायां तव दुर्लभम् ॥ ३४ ॥
मन्वन्तरादि तथा युगादि तिथियों, माघ शुक्ल सप्तमी, भीष्माष्टमी, अशोकाष्टमी, रामनवमी तथा नन्दा तिथिको दुर्लभ गंगा स्नान करनेपर उससे भी दूना फल मिलता है ॥ ३३-३४ ॥

दशहरादशम्यां तु युगाद्यादिसमं फलम् ।
नन्दासमं च वारुण्यां महत्पूर्वे चतुर्गुणम् ॥ ३५ ॥
ततश्चतुर्गुणं पुण्यं द्विमहत्पूर्वके सति ।
पुण्यं कोटिगुणं चैव सामान्यस्नानतोऽपि यत् ॥ ३६ ॥
चन्द्रोपरागसमये सूर्ये दशगुणं ततः ।
पुण्यमर्धोदये काले ततः शतगुणं फलम् ॥ ३७ ॥
गंगादशहराकी दशमीतिथिको स्नान करनेसे युगादि तिथियोंके तुल्य और वारुणीपर्वपर स्नान करनेसे नन्दातिथिके तुल्य फल प्राप्त होता है । महावारुणी आदि पर्वोपर स्नान करनेसे उससे चार गुना पुण्य प्राप्त होता है । महामहावारुणी पर्वपर स्नान करनेसे उससे भी चार गुना और सामान्य स्नानकी अपेक्षा करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है । चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके अवसरपर स्नान करनेसे उससे भी दस गुना पुण्य मिलता है और अर्धोदयकालमें स्नान करनेसे उससे भी सौ गुना फल प्राप्त होता है ॥ ३५-३७ ॥

इत्येवमुक्त्वा देवेशो विरराम तयोः पुरः ।
तमुवाच ततो गङ्‌गा भक्तिनम्राऽऽत्मकन्धरा ॥ ३८ ॥
गंगा और भगीरथके समक्ष ऐसा कहकर देवेश्वर श्रीहरि चुप हो गये । तब गंगा भक्तिभावसे अपना मस्तक झुकाकर कहने लगीं ॥ ३८ ॥

गङ्‌गोवाच
यामि चेद्‍भारतं नाथ भारतीशापतः पुरा ।
तवाज्ञया च राजेन्द्र तपसा चैव साम्प्रतम् ॥ ३९ ॥
दास्यन्ति पापिनो मह्यं पापानि यानि कानि च ।
तानि मे केन नश्यन्ति तमुपायं वद प्रभो ॥ ४० ॥
गंगा बोलीं-हे नाथ ! हे राजेन्द्र ! भारतीके पूर्व शाप और साथ ही आपकी आज्ञा तथा भगीरथकी तपस्याके कारण मैं इस समय भारतवर्षमें जा रही हूँ । किंतु हे प्रभो ! वहाँ जानेपर पापीलोग मुझमें स्नान करके अपने जो कुछ पाप मुझे दे देंगे, वे मेरे पाप किस प्रकार नष्ट होंगे: इसका उपाय मुझे बताइये ॥ ३९-४० ॥

कतिकालं परिमितं स्थितिर्मे तत्र भारते ।
कदा यास्यामि देवेश तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ४१ ॥
हे देवेश ! मुझे भारतवर्षमें कितने समयतक रहना होगा और पुनः भगवान् विष्णुके परम धामको मैं कब प्राप्त होऊँगी ? ॥ ४१ ॥

ममान्यद्वाञ्छितं यद्यत्सर्वं जानासि सर्ववित् ।
सर्वान्तरात्मन् सर्वज्ञ तदुपायं वद प्रभो ॥ ४२ ॥
हे सर्ववित् ! हे सर्वान्तरात्मन् ! हे सर्वज्ञ ! मेरा अन्य जो कुछ भी अभिलषित है, वह सब आप जानते ही हैं । अतः हे प्रभो ! मेरे उन अभीष्टोंके पूर्ण होनेका उपाय बतला दीजिये ॥ ४२ ॥

श्रीभगवानुवाच
जानामि वाञ्छितं गङ्‌गे तव सर्वं सुरेश्वरि ।
पतिस्ते द्रवरूपाया लवणोदो भविष्यति ॥ ४३ ॥
स ममांशस्वरूपश्च त्वं च लक्ष्मीस्वरूपिणी ।
विदग्धाया विदग्धेन सङ्‌गमो गुणवान् भुवि ॥ ४४ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे गंगे ! हे सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारी समस्त इच्छाओंको जानता हूँ । वहाँ भारतवर्षमें लवणसमुद्र नदीस्वरूपिणी तुम्हारे पति होंगे । वे मेरे ही अंशस्वरूप हैं और तुम साक्षात् लक्ष्मीस्वरूपिणी हो । इस प्रकार पृथ्वीपर एक गुणवान् पुरुषके साथ एक गुणवती स्त्रीका मेल बड़ा ही उत्तम होगा ॥ ४३-४४ ॥

यावत्यः सन्ति नद्यश्च भारत्याद्याश्च भारते ।
सौभाग्या त्वं च तास्वेव लवणोदस्य सौरते ॥ ४५ ॥
भारतवर्षमें सरस्वती आदि जो भी नदियाँ हैं, उन सबमें क्रीडाकी दृष्टिसे लवणसमुद्रके लिये तुम्ही सर्वाधिक सौभाग्यवती होओगी ॥ ४५ ॥

अद्यप्रभृति देवेशि कलेः पञ्चसहस्रकम् ।
वर्षं स्थितिस्ते भारत्याः शापेन भारते भुवि ॥ ४६ ॥
हे देवेशि ! इस समयसे कलियुगके पाँच हजार वर्षातक तुम्हें सरस्वतीके शापसे भारतभूमिपर रहना होगा ॥ ४६ ॥

नित्यं त्वमब्धिना सार्धं करिष्यसि रहो रतिम् ।
त्वमेव रसिका देवि रसिकेन्द्रेण संयुता ॥ ४७ ॥
हे देवि ! रसिकास्वरूपिणी तुम रसिकराज लवणसमुद्रसे संयुक्त होकर उनके साथ एकान्तमें सदा विहार करोगी ॥ ४७ ॥

त्वां स्तोष्यन्ति च स्तोत्रेण भगीरथकृतेन च ।
भारतस्था जनाः सर्वे पूजयिष्यन्ति भक्तितः ॥ ४८ ॥
भारतवर्षमें रहनेवाले सभी लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे और भगीरथके द्वारा रचित स्तोत्रसे तुम्हारी स्तुति करेंगे ॥ ४८ ॥

कण्वशाखोक्तध्यानेन ध्यात्वा त्वां पूजयिष्यति ।
यः स्तौति प्रणमेन्नित्यं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ४९ ॥
जो कण्वशाखामें बतायी गयी ध्यान-विधिसे तुम्हारा ध्यान करके तुम्हारी पूजा तथा स्तुति और तुम्हें नित्य प्रणाम करेगा, उसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होगा ॥ ४९ ॥

गङ्‌गा गङ्‌गेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ५० ॥
जो मनुष्य सौ योजन दूरसे भी 'गंगा, गंगा'इस प्रकार उच्चारण करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा विष्णुलोकको प्राप्त करता है ॥ ५० ॥

सहस्रपापिनां स्नानाद्यत्पापं ते भविष्यति ।
प्रकृतेर्भक्तसंस्पर्शादेव तद्धि विनङ्‌क्ष्यति ॥ ५१ ॥
हजारों पापी व्यक्तियोंके स्नानसे जो पाप तुम्हें प्राप्त होगा, वह मूलप्रकृति देवी भुवनेश्वरीके भक्तोंक स्पर्शमात्रसे विनष्ट हो जायगा ॥ ५१ ॥

पापिनां तु सहस्राणां शवस्पर्शेन यत्त्वयि ।
तन्मन्त्रोपासकस्नानात्तदघं च विनङ्‌क्ष्यति ॥ ५२ ॥
हजारों पापी प्राणियोंके शवके स्पर्शसे जो पाप तुम्हें लगेगा, वह भगवतीके मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले पुण्यात्मा भक्तोंके स्नानसे नष्ट हो जायगा ॥ ५२ ॥

तत्रैव त्वमधिष्ठानं करिष्यस्यघमोचनम् ।
सार्धं सरिद्‌‍भिः श्रेष्ठाभिः सरस्वत्यादिभिः शुभे ॥ ५३ ॥
हे शुभे ! तुम सरस्वती आदि श्रेष्ठ नदियों के साथ भारतवर्षमें निवास करोगी और वहाँ प्राणियोंको पापसे मुक्त करती रहोगी ॥ ५३ ॥

तत्तु तीर्थं भवेत्सद्यो यत्र त्वद्‌गुणकीर्तनम् ।
त्वद्रेणुस्पर्शमात्रेण पूतो भवति पातकी ॥ ५४ ॥
रेणुप्रमाणवर्षं च देवीलोके वसेद्‌ ध्रुवम् ।
जहाँ तुम्हारे गुणोंका कीर्तन होगा, वह स्थान तत्काल तीर्थ बन जायगा । तुम्हारे रजःकणका स्पर्शमात्र हो जानेसे पापी भी पवित्र हो जायगा और उन रजःकणोंकी जितनी संख्या होगी, उतने वर्षोतक वह निश्चितरूपसे देवीलोकमें निवास करेगा ॥ ५४.५ ॥

ज्ञानेन त्वयि ये भक्त्या मन्नामस्मृतिपूर्वकम् ॥ ५५ ॥
समुत्सृजन्ति प्राणांश्च ते गच्छन्ति हरेः पदम् ।
पार्षदप्रवरास्ते च भविष्यन्ति हरेश्चिरम् ॥ ५६ ॥
लयं प्राकृतिकं ते च द्रक्ष्यन्ति चाप्यसंख्यकम् ।
जो मनुष्य ज्ञान तथा भक्तिसे युक्त होकर मेरे नामका स्मरण करते हुए तुम्हारे जलमें अपने प्राणोंका त्याग करेंगे, वे श्रीहरिके लोकमें जायेंगे और वहाँपर दीर्घकालतक उनके श्रेष्ठ पार्षदोंके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे और वे असंख्य प्राकृतिक प्रलय देखेंगे ॥ ५५-५६.५ ॥

मृतस्य बहुपुण्येन तच्छवं त्वयि विन्यसेत् ॥ ५७ ॥
प्रयाति स च वैकुण्ठं यावदह्नः स्थितिस्त्वयि ।
कायव्यूहं ततः कृत्वा भोजयित्वा स्वकर्मकम् ॥ ५८ ॥
तस्मै ददामि सारूप्यं करोमि तं च पार्षदम् ।
महान् पुण्यसे किसी मृत प्राणीका शव तुम्हारे जलमें आ सकता है । जितने दिनोंतक उसकी स्थिति तुम्हारेमें रहती है, उतने समयतक वह वैकुण्ठमें वास करता है । तदनन्तर जब वह अनेक शरीर धारण करके अपने कर्मोंका फल भोग चुकता है, तब मैं उसे सारूप्य मुक्ति दे देता हूँ और उसे अपना पार्षद बना लेता हूँ ॥ ५७-५८.५ ॥

अज्ञानी त्वज्जलस्पर्शाद्यदि प्राणान्समुत्सृजेत् ॥ ५९ ॥
तस्मै ददामि सालोक्यं करोमि तं च पार्षदम् ।
अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणांस्त्वन्नामस्मृतिपूर्वकम् ॥ ६० ॥
तस्मै ददामि सालोक्यं यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।
यदि कोई अज्ञानी मनुष्य भी तुम्हारे जलका स्पर्श करके प्राणोंका त्याग करता है, तो मैं उसे सालोक्य मुक्ति प्रदान कर देता हूँ और उसे अपना पार्षद बना लेता हूँ । अथवा तुम्हारे नामका स्मरण करके कोई व्यक्ति अन्यत्र कहीं भी यदि प्राणत्याग करता है, तो मैं उसे सालोक्य मुक्ति प्रदान करता हूँ और वह ब्रह्माकी आयुपर्यन्त मेरे लोकमें निवास करता है ॥ ५९-६०.५ ॥

अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणांस्त्वन्नामस्मृतिपूर्वकम् ॥ ६१ ॥
तस्मै ददामि सारूप्यमसंख्यं प्राकृतं लयम् ।
रत्‍नेन्द्रसारनिर्माणयानेन सह पार्षदैः ॥ ६२ ॥
सद्यः प्रयाति गोलोकं मम तुल्यो भवेद्‌ ध्रुवम् ।
इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य तुम्हारे नामका स्मरण करके अन्यत्र किसी भी स्थानपर प्राणत्याग करता है, तो मैं उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान करता हूँ और वह असंख्य प्राकृतिक प्रलय देखता है । तदनन्तर बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानमें बैठकर वह मेरे पार्षदोंके साथ गोलोकमें जा पहुँचता है और निश्चय ही मेरे तुल्य हो जाता है ॥ ६१-६२.५ ॥

तीर्थेऽप्यतीर्थे मरणे विशेषो नास्ति कश्चन ॥ ६३ ॥
मन्मन्त्रोपासकानां तु नित्यं नैवेद्यभोजिनाम् ।
पूतं कर्तुं सशक्तो हि लीलया भुवनत्रयम् ॥ ६४ ॥
रत्‍नेन्द्रसारयानेन गोलोकं सम्प्रयान्ति च ।
मद्‍भक्ता बान्धवा येषां तेऽपि पश्वादयोऽपि हि ॥ ६५ ॥
प्रयान्ति रत्‍नयानेन गोलोकं चातिदुर्लभम् ।
यत्र यत्र स्मृतास्ते च ज्ञानेन ज्ञानिनः सति ॥ ६६ ॥
जीवन्मुक्ताश्च ते पूता मद्‍भक्तेः संविधानतः ।
प्रतिदिन मेरे मन्त्रकी उपासना तथा मेरा नैवेद्य ग्रहण करनेवाले भक्तोंके लिये तीर्थ अथवा अतीर्थमें मृत्युको प्राप्त होनेमें कुछ भी अन्तर नहीं है । मेरा ऐसा भक्त तीनों लोकोंको सहजतापूर्वक पवित्र करने में समर्थ है । अन्तमें मेरे वे भक्त बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानपर आरूढ़ होकर गोलोक जाते हैं । साथ ही, मेरे भक्त जिनके बान्धव हैं; वे तथा उनके पशु आदि भी रलनिर्मित विमानसे अत्यन्त दुर्लभ गोलोकमें चले जाते हैं । हे सती ! जो ज्ञानीजन चाहे जहाँ भी ज्ञानपूर्वक मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरी भक्तिके प्रभावसे जीवन्मुक्त और पवित्र हो जाते हैं ॥ ६३-६६.५ ॥

इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तांश्च प्रत्युवाच भगीरथम् ॥ ६७ ॥
स्तुहि गङ्‌गामिमां भक्त्या पूजां च कुरु साम्प्रतम् ।
[हे नारद !] गंगासे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरिने उन भगीरथसे कहा-अब आप भक्तिपूर्वक इन गंगाकी स्तुति तथा पूजा कीजिये ॥ ६७.५ ॥

भगीरथस्तां तुष्टाव पूजयामास भक्तितः ॥ ६८ ॥
कौथुमोक्तेन ध्यानेन स्तोत्रेणापि पुनः पुनः ।
प्रणनाम च श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ६९ ॥
भगीरथश्च गङ्‌गा च सोऽन्तर्धानं चकार ह ।
तदनन्तर भगीरथने कौथुमशाखामें बताये गये ध्यान तथा स्तोत्रके द्वारा भक्तिपूर्वक उन गंगाकी बारबार स्तुति तथा पूजा की । इसके बाद भगीरथ तथा गंगाने परमेश्वर श्रीकृष्णको प्रणाम किया तथा वे प्रभु अन्तर्धान हो गये ॥ ६८-६९.५ ॥

ारद उवाच
केन ध्यानेन स्तोत्रेण केन पूजाक्रमेण च ॥ ७० ॥
पूजां चकार नृपतिर्वद वेदविदांवर ।
नारदजी बोले-हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! राजा भगीरथने किस ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधिसे गंगाका पूजन किया, यह मुझे बतलाइये ॥ ७०.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
स्नात्वा नित्यक्रियां कृत्वा धृत्वा धौते च वाससी ॥ ७१ ॥
सम्पूज्य देवषट्कं च संयतो भक्तिपूर्वकम् ।
गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् ॥ ७२ ॥
सम्पूज्य देवषट्कं च सोऽधिकारी च पूजने ।
श्रीनारायण बोले-राजा भगीरथने नित्य-क्रिया तथा स्नान करके दो स्वच्छ वस्त्र धारणकर इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके भक्तिपूर्वक गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और भगवती शिवा-इन छ: देवताओंकी विधिवत् पूजा की । इन छ: देवताओंकी सम्यक् पूजा करके वे गंगापूजनके अधिकारी हुए ॥ ७१-७२.५ ॥

गणेशं विघ्ननाशाय आरोग्याय दिवाकरम् ॥ ७३ ॥
वह्निं शौचाय विष्णुं च लक्ष्यर्थं पूजयेन्नरः ।
शिवं ज्ञानाय ज्ञानेशं शिवां च मुक्तिसिद्धये ॥ ७४ ॥
सम्पूज्यैताँल्लभेत्प्राज्ञो विपरीतमतोऽन्यथा ।
दध्यावनेन ध्यानेन तद्ध्यानं शृणु नारद ॥ ७५ ॥
मनुष्यको चाहिये कि विघ्न दूर करनेके लिये गणेशकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी, पवित्रताके लिये अग्निकी, लक्ष्मी-प्राप्तिके लिये विष्णुकी, ज्ञानके लिये ज्ञानेश्वर शिवकी तथा मुक्ति प्राप्त करनेके लिये भगवती शिवाकी पूजा करे । इन देवताओंकी पूजा कर लेनेके बाद ही विद्वान् पुरुष अन्य पूजामें सफलता प्राप्त कर सकता है, अन्यथा इसके विपरीत परिणाम होता है । हे नारद ! जिस ध्यानके द्वारा भगीरथने गंगाका ध्यान किया था, उस ध्यानको सुनिये । ७३-७५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
गङ्‌गोपाख्यानवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गोपाख्यानवर्णन नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥


GO TOP