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गङ्गोपाख्यानवर्णनम् -
गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा -
श्रीनारायण उवाच ध्यानं च कण्वशाखोक्तं सर्वपापप्रणाशनम् । श्वेतपङ्कजवर्णाभां गङ्गां पापप्रणाशिनीम् ॥ १ ॥ कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २ ॥ शरत्पूर्णेन्दुशतकमृष्टशोभाकरां पराम् । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ ३ ॥ नारायणप्रियां शान्तां तत्सौभाग्यसमन्विताम् । बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ॥ ४ ॥ सिन्दूरबिन्दुललितं सार्धं चन्दनबिन्दुभिः । कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् ॥ ५ ॥ पक्वबिम्बविनिन्द्याच्छचार्वोष्ठपुटमुत्तमम् । मुक्तापंक्तिप्रभामुष्टदन्तपंक्तिमनोरमम् ॥ ६ ॥ सुचारुवक्त्रनयनं सकटाक्षं मनोहरम् । कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् ॥ ७ ॥ बृहच्छ्रोणि सुकठिनां रम्भास्तम्भविनिन्दिताम् । स्थलपद्मप्रभामुष्टपादपद्मयुगं वरम् ॥ ८ ॥ रत्नपादुकसंयुक्तं कुङ्कुमाक्तं सयावकम् । देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् ॥ ९ ॥ सुरसिद्धमुनीन्द्रैश्च दत्तार्घसंयुतं सदा । तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ॥ १० ॥ मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां सर्वभोगदम् । वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकारिणीम् ॥ ११ ॥ श्रीविष्णोः पददात्रीं च भजे विष्णुपदीं सतीम् ।
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] कण्वशाखामें कहा गया यह देवी-ध्यान सभी पापोंका नाश करनेवाला है । गंगाका वर्ण श्वेतकमलके समान स्वच्छ है, ये समस्त पापोंका नाश करनेवाली हैं, भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहसे आविर्भुत हैं, परम साध्वी गंगा उन्हीं श्रीकृष्णके समान हैं, इन्होंने अग्निके समान पवित्र वस्त्र धारण कर रखा है, ये रत्नमय भूषणोंसे विभूषित हैं, ये श्रेष्ठ गंगा शरत्कालीन पूर्णिमाके सैकड़ों चन्द्रोंकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाली हैं । मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्नतासे इनका मुखमण्डल शोभा पा रहा है, इनका तारुण्य सदा स्थिर रहनेवाला है, ये भगवान् नारायणकी प्रिया हैं, शान्त स्वभाववाली हैं और उनके सौभाग्यसे समन्वित हैं, ये मालतीके पुष्पोंकी मालासे विभूषित चोटी धारण की हुई हैं, इनका ललाट चन्दनकी बिन्दियोंके साथ सिन्दूरकी बिन्दियोंसे सुशोभित है । इनके गण्डस्थलपर कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थोंसे नाना प्रकारको चित्रकारियाँ की हुई हैं, इनके परम मनोहर दोनों होठ पके हुए बिम्बाफलकी लालिमाको तिरस्कृत कर रहे हैं, इनकी मनोहर दन्तपंक्ति मोतियोंकी पंक्ति-प्रभाको भी तिरस्कृत कर रही है, इनके सुन्दर मुखपर कटाक्षपूर्ण चितवनसे युक्त मनोहर नेत्र शोभा पा रहे हैं, इन्होंने कठोर तथा श्रीफलके आकारवाले स्तनयुगल धारण कर रखे हैं, ये केलेके खम्भोंको भी लज्जित कर देनेवाले विशाल तथा कठोर जघनप्रदेशसे सम्पन्न हैं, इनके मनोहर दोनों चरणारविन्द स्थलपद्यकी प्रभाको भी तिरस्कृत कर रहे हैं, रत्नमयी पादुकाओंसे युक्त इन चरणोंमें कुमकुम तथा महावर शोभित हो रहे हैं, देवराज इन्द्रके मुकुटमें लगे हुए मन्दार पुष्पोंके रजकणसे ये चरण लाल हो गये हैं, देवता-सिद्धमुनीश्वरगणोंके द्वारा प्रदत्त अर्घसे इनके चरण सदा सिक्त रहते हैं, ये चरणकमल तपस्वियोंके जटासमूहरूपी भ्रमरश्रेणियोंसे सुशोभित हैं, ये चरण मुक्तिकी इच्छा रखनेवालोंको मोक्ष तथा सकाम पुरुषोंको सभी प्रकारके भोग प्रदान करनेवाले हैं ! श्रेष्ठ, वरेण्य, वर देनेवाली, भक्तोंपर कृपा करनेवाली, मनुष्योंको भगवान् विष्णुका पद प्रदान करनेवाली विष्णुपदी नामसे विख्यात तथा साध्वी भगवती गंगाकी मैं उपासना करता हूँ ॥ १-११.५ ॥
इत्यनेनैव ध्यानेन ध्यात्वा त्रिपथगां शुभाम् ॥ १२ ॥ दत्त्वा सम्पूजयेद् ब्रह्मन्नुपचाराणि षोडश । आसनं पाद्यमर्ध्यं च स्नानीयं चानुलेपनम् ॥ १३ ॥ धूपं दीपं च नैवेद्यं ताम्बूलं शीतलं जलम् । वसनं भूषणं माल्यं गन्धमाचमनीयकम् ॥ १४ ॥ मनोहरं सुतल्पं च देयान्येतानि षोडश । दत्त्वा भक्त्या च प्रणमेत्संस्तूय सम्पुटाञ्जलिः ॥ १५ ॥ सम्पूज्यैव प्रकारेण सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।
हे ब्रह्मन् ! इसी ध्यानके द्वारा तीन मागाँसे विचरण करनेवाली पवित्र गंगाका ध्यान करके सोलह प्रकारके पूजनोपचारोंसे इनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये । आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, आभूषण, माला, चन्दन, आचमन और मनोहर शय्या-ये अर्पणयोग्य सोलह उपचार हैं । इन्हें भक्तिपूर्वक गंगाको अर्पण करके दोनों हाथ जोड़कर स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे । इस विधिसे गंगाकी विधिवत् पूजा करके वह मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है । १२-१५.५ ॥
नारदजी बोले-हे देवेश ! हे लक्ष्मीकान्त ! हे जगत्पते ! अब मैं भगवान् विष्णुकी चिरसंगिनी विष्णुपदी गंगाके पापनाशक तथा पुण्यदायक स्तोत्रका श्रवण करना चाहता हूँ ॥ १६.५ ॥
श्रीनारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि पापघ्नं पुण्यकारकम् ॥ १७ ॥ शिवसङ्गीतसंमुग्धश्रीकृष्णाङ्गसमुद्भवाम् । राधाङ्गद्रवसंयुक्तां तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १८ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! सुनिये, अब मैं उस पापनाशक तथा पुण्यप्रद स्तोत्रको कहूँगा । जो भगवान् शिवके संगीतसे मुग्ध श्रीकृष्णके अंगसे आविर्भूत तथा राधाके अंगद्रवसे सम्पन्न हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १७-१८ ॥
यज्जन्म सृष्टेरादौ च गोलोके रासमण्डले । सन्निधाने शङ्करस्य तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १९ ॥
सृष्टिके आरम्भमें गोलोकके रासमण्डलमें जिनका आविर्भाव हुआ है और जो सदा शंकरके सान्निध्यमें रहती हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १९ ॥
गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे । कार्तिकीपूर्णिमायां च तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २० ॥
जो कार्तिक पूर्णिमाके दिन गोप तथा गोपियोंसे भरे राधा-महोत्सवके शुभ अवसरपर सदा विद्यमान रहती हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २० ॥
कोटियोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये लक्षगुणा ततः । समावृता या गोलोके तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २१ ॥
जो गोलोकमें करोड़ योजन चौड़ाई तथा उससे भी लाख गुनी लम्बाईमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २१ ॥
षष्टिलक्षयोजना या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा । समावृता या वैकुण्ठे तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २२ ॥
जो साठ लाख योजन चौड़ाई तथा उससे भी चार गुनी लम्बाईसे वैकुण्ठलोकमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २२ ॥
त्रिंशल्लक्षयोजना या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता ब्रह्मलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २३ ॥
जो ब्रह्मलोकमें तीन लाख योजन चौडाई तथा उससे भी पाँच गुनी लम्बाईमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २३ ॥
त्रिंशल्लक्षयोजना या दैर्घ्ये चतुर्गुणा ततः । आवृता शिवलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २४ ॥
जो तीन लाख योजन चौड़ी और उससे भी चार गुनी लम्बी होकर शिवलोकमें विद्यमान हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २४ ॥
लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः । आवृता धुवलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २५ ॥
जो ध्रुवलोकमें एक लाख योजन चौड़ाई तथा उससे भी सात गुनी लम्बाईसे विराजमान हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २५ ॥
लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता चन्द्रलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम्॥ २६ ॥
जो एक लाख योजन चौड़ी तथा उससे भी पाँच गुनी लम्बी होकर चन्द्रलोकमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २६ ॥
षष्टिसहस्रयोजना या दैर्घ्ये दशगुणा ततः । आवृता सूर्यलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २७ ॥
जो सूर्यलोकमें साठ हजार योजन चौड़े तथा उससे भी दस गुने लम्बे प्रस्तारमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २७ ॥
लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता या तपोलोके तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २८ ॥
जो तपोलोकमें एक लाख योजन चौड़ी तथा उससे भी पाँच गुनी लम्बी होकर प्रतिष्ठित हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २८ ॥
सहस्रयोजनायामा दैर्घ्ये दशगुणा ततः । आवृता जनलोके या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ २९ ॥
जो जनलोकमें एक हजार योजन चौड़ाई तथा उससे भी दस गुनी लम्बाईमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २९ ॥
दशलक्षयोजना या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता या महर्लोके तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ३० ॥
जो दस लाख योजन चौड़ी तथा उससे भी पाँच गुनी लम्बी होकर महर्लोकमें फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३० ॥
सहस्रयोजनायामा दैर्घ्ये शतगुणा ततः । आवृता या च कैलासे तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ३१ ॥
जो चौड़ाईमें एक हजार योजन और लम्बाईमें उससे भी सौ गुनी होकर कैलासपर फैली हुई हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३१ ॥
जो दस योजन चौड़ी तथा लम्बाईमें उससे भी दस गुनी होकर पाताललोकमें 'भोगवती' नामसे विद्यमान हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३३ ॥
क्रोशैकमात्रविस्तीर्णा ततः क्षीणा च कुत्रचित् । क्षितौ चालकनन्दा या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ३४ ॥
जो एक कोसभर चौड़ी तथा कहीं-कहीं इससे भी कम चौड़ी होकर अलकनन्दा' नामसे पृथ्वीलोकमें प्रतिष्ठित हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३४ ॥
सत्ये या क्षीरवर्णा च त्रेतायामिन्दुसन्निभा । द्वापरे चन्दनाभा या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ३५ ॥ जलप्रभा कलौ या च नान्यत्र पृथिवीतले । स्वर्गे च नित्यं क्षीराभा तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ३६ ॥ यत्तोयकणिकास्पर्शे पापिनां ज्ञानसम्भवः । ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत् ॥ ३७ ॥
जो सत्ययुगमें दुग्धवर्ण, त्रेतायुगमें चन्द्रमाकी प्रभा और द्वापरमें चन्दनकी आभावाली रहती हैं । उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ । जो कलियुगमें केवल पृथ्वीतलपर जलकी प्रभावाली तथा स्वर्गलोकमें सर्वदा दुग्धके समान आभावाली रहती हैं, उन गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके जलकणोंका स्पर्श होते ही पापियोंके हृदयमें उत्पन्न हुआ ज्ञान उनके करोड़ों जन्मोंके संचित ब्रह्महत्या आदि पापोंको भस्म कर देता है, [उन भगवती गंगाको मैं प्रणाम करता हूँ] ॥ ३५-३७ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार इक्कीस श्लोकोंमें गंगाकी यह स्तुति कही गयी है । यह श्रेष्ठ स्तोत्र पापोंका नाश तथा पुण्योंकी उत्पत्ति करनेवाला है ॥ ३८ ॥
नित्यं यो हि पठेद्भक्त्या सम्पूज्य च सुरेश्वरीम् । सोऽश्वमेधफलं नित्यं लभते नात्र संशयः ॥ ३९ ॥
जो मनुष्य सुरेश्वरी गंगाको भक्तिपूर्वक पूजा करके प्रतिदिन इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह नित्य ही अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है । इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ३९ ॥
इस स्तोत्रके प्रभावसे पुत्रहीन मनुष्य पुत्र प्राप्त कर लेता है, स्त्रीहीन मनुष्यको स्त्रीको प्राप्ति हो जाती है, रोगी मनुष्य रोगरहित हो जाता है, बन्धनमें पड़ा हुआ प्राणी बन्धनमुक्त हो जाता है, कीर्तिरहित मनुष्य सुन्दर यशसे सम्पन्न हो जाता है और मूर्ख व्यक्ति विद्वान् हो जाता है । यह सर्वथा सत्य है । जो प्रात:काल उठकर इस पवित्र गंगास्तोत्रका पाठ करता है, दु:स्वप्नमें भी उसका मंगल ही होता है और वह गंगा-स्नानका फल प्राप्त कर लेता है । ४०-४१.५ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! इस स्तोत्रके द्वारा गंगाकी स्तुति करके और फिर उन्हें अपने साथ लेकर वे भगीरथ उस स्थानपर पहुँचे, जहाँ राजा सगरके पुत्र जलकर भस्म हो गये थे । गंगाका स्पर्श करके बहनेवाली वायुके सम्पर्कमें आते ही वे सगरपुत्र तत्काल वैकुण्ठ चले गये । वे गंगा भगीरथके द्वारा लायी गयीं, इसलिये 'भागीरथी' नामसे विख्यात हुई । ४२-४३.५ ॥
हे नारद !] इस प्रकार मैंने सारभूत और पुण्य तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले उत्तम गंगोपाख्यानका सम्पूर्ण वर्णन कर दिया ! अब आप आगे और क्या सुनना चाहते हैं ॥ ४४.५ ॥
नारद उवाच कथं गङ्गा त्रिपथगा जाता भुवनपावनी ॥ ४५ ॥ कुत्र वा केन विधिना तत्सर्वं वद मे प्रभो । तत्रस्थाश्च जना ये ये ते च किं चक्रुरुत्तमम् ॥ ४६ ॥ एतत्सर्वं तु विस्तीर्णं कृत्वा वक्तुमिहार्हसि ।
नारदजी बोले-हे प्रभो ! तीन मागाँसे संचरण करनेवाली तथा समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली गंगा किसलिये, कहाँ और किस प्रकारसे आविर्भूत हुईं ? यह सब मुझे बतलाइये । वहाँपर जोजो लोग स्थित थे, उन्होंने क्या श्रेष्ठ कार्य किया ? आप इन सभी बातोंको विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये ॥ ४५-४६.५ ॥
श्रीनारायण बोले-एक समयकी बात हैकार्तिक पूर्णिमाके अवसरपर राधा-महोत्सव मनाया जा रहा था । भगवान् श्रीकृष्ण राधाकी विधिवत् पूजा करके रासमण्डलमें विराजमान थे । तत्पश्चात् ब्रह्मा आदि देवता तथा शौनक आदि ऋषिगण श्रीकृष्णके द्वारा पूजित उन राधाकी प्रसन्नचित्त होकर विधिवत् पूजा करके वहींपर स्थित हो गये ॥ ४७-४८.५ ॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णसङ्गीता च सरस्वती ॥ ४९ ॥ जगौ सुन्दरतालेन वीणया च मनोहरम् ।
इतनेमें भगवान् श्रीकृष्णको संगीत सुनानेवाली देवी सरस्वती वीणा लेकर सुन्दर ताल-स्वरके साथ मनोहर गीत गाने लगीं ॥ ४९.५ ॥
तब ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर उन सरस्वतीको सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित एक हार समर्पित किया । इसी प्रकार शिवजीने उन्हें अखिल ब्रह्माण्डके लिये दुर्लभ एक उत्तम मणि; भगवान् श्रीकृष्णने सभी रत्नोंसे श्रेष्ठतम कौस्तुभमणि, राधाने अमूल्य रत्नोंसे निर्मित एक श्रेष्ठ हार, भगवान नारायणने एक मनोहर माला, लक्ष्मीजीने बहुमूल्य रत्नोंसे जटित स्वर्ण-कुण्डल; विष्णुमाया, ईश्वरी, दुर्गा, नारायणी और ईशाना नामसे विख्यात भगवती मूलप्रकृतिने अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मभक्ति; धर्मने धार्मिक बुद्धि तथा लोकमें महान् यशका वरदान; अग्निदेवताने अग्निके समान पवित्र वस्त्र तथा पवनदेवने मणिनिर्मित नूपुर भगवती सरस्वतीको प्रदान किये ॥ ५०-५४ ॥
इतनेमें ब्रह्माजीसे प्रेरित होकर भगवान् शंकर रासके उल्लासको बढ़ानेकी शक्तिसे सम्पन्न श्रीकृष्णसम्बन्धी मधुर गीत गाने लगे । उसे सुनकर सभी देवता सम्मोहित हो गये और चित्र-विचित्र पुतलेकी भाँति प्रतीत होने लगे । बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार चेतना लौटनेपर उन्होंने देखा कि रासमण्डलमें सम्पूर्ण स्थल जलमय हो गया है और वह राधा तथा श्रीकृष्णसे रहित है ॥ ५५-५७ ॥
तब सभी गोप, गोपियाँ, देवता और द्विज उच्च स्वरसे विलाप करने लगे । वहाँ उपस्थित ब्रह्माजीने ध्यानके द्वारा श्रीकृष्णका सारा पवित्र विचार जान लिया कि वे श्रीकृष्ण ही राधाके साथ मिलकर द्रवमय हो गये हैं । तदनन्तर ब्रह्मा आदि सभी देवता परमेश्वर श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे । पुन: उन्होंने कहा-हे विभो ! हमलोगोंका यही अभिलषित वर है कि आप हमें अपने श्रीविग्रहका दर्शन करा दें ॥ ५८-५९.५ ॥
इसी बीच आकाशवाणी हुई । पूर्णरूपसे स्पष्ट तथा मधुरतायुक्त उस वाणीको सभी लोगोंने सुना कि 'मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण हूँ तथा मेरी शक्तिस्वरूपा यह राधा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाली हैं । [हम दोनोंने ही यह जलमय विग्रह धारण किया है । ] मेरे तथा इन राधाके देहसे आप सबको क्या करना है ? हे सुरेश्वरो ! मनु, मानव, मुनि तथा वैष्णव-ये सभी लोग मेरे मन्त्रोंसे पवित्र होकर मेरा दर्शन करनेके लिये मेरे धाममें आयेंगे । इसी प्रकार यदि आपलोग भी मेरे वास्तविक श्रीविग्रहका प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते हैं, तो आपलोग ऐसा प्रयत्न कीजिये जिससे शिवजी वहाँपर रहकर मेरी आज्ञाका पालन करें । हे विधातः ! हे ब्रह्मन् ! आप स्वयं जगद्गुरु शिवको आदेश कीजिये कि वे सम्पूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले बहुत-से अपूर्व मन्त्रों, स्तोत्रों, ध्यानों तथा पूजनकी विधियोंसे युक्त वेदांगस्वरूप अत्यन्त मनोहर तथा विशिष्ट शास्त्रकी रचना करें । मेरे मन्त्र, कवच और स्तोत्रसे सम्पन्न वह शिवरचित शास्त्र यलपूर्वक गुप्त रखा जाना चाहिये । मेरे जिन मन्त्रोंके गुप्त रखनेसे पापीलोग मुझसे विमुख रहें, वैसा ही कीजिये । किंतु हजारों-सैकड़ोंमें यदि कोई मेरे मन्त्रका उपासक पुण्यात्मा मिल जाय, तो उसके समक्ष मेरे मन्त्रका प्रकाशन कर देना चाहिये । क्योंकि सर्वथा गोपनीय रखनेसे शास्त्र-रचना ही व्यर्थ हो जायगी । इस प्रकार मेरे मन्त्रसे पवित्र होकर वे लोग मेरे धामको प्राप्त होंगे, नहीं तो शास्त्रके अभावमें कोई भी मेरे लोकमें नहीं जा पायेगा । साथ ही पुण्यात्माओंके लिये प्रकाशित किये गये पूर्वोक्त मन्त्रोपदेशके कारण यदि परम्परानुसार सभी लोग उस मन्त्रके प्रभावसे गोलोकवासी हो जायेंगे, तब तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके अन्तर्गत प्राणियोंके अभावके कारण ब्रह्माजीका यह ब्रह्माण्ड ही निष्फल हो जायगा । अतः हे ब्रह्मन् ! आप सात्त्विक आदि भेदसे पाँच प्रकारके लोगोंकी रचना प्रत्येक दृष्टिके अन्तर्गत कीजिये, यही सर्वथा समीचीन है । ऐसा होनेपर कुछ लोग पृथ्वीपर रहेंगे और कुछ लोग स्वर्गमें रहेंगे । हे ब्रह्मन् ! यदि शिवजी तन्त्रशास्त्रकी रचनाहेतु देवसभामें दृढ़ प्रतिज्ञा करेंगे, तो वे शीघ्र ही मेरे विग्रहका साक्षात् दर्शन भी प्राप्त कर लेंगे' ॥ ६०-७०.५ ॥
आकाशवाणीके रूपमें इस प्रकार कहकर सनातन श्रीकृष्ण चुप हो गये । उनकी वाणी सुनकर जगत्की व्यवस्था करनेवाले ब्रह्माजीने उन भगवान् शिवसे प्रसन्नतापूर्वक वह बात कही ॥ ७१.५ ॥
ब्रह्माजीकी बात सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ ज्ञानेश्वर उन भगवान् शिवने हाथमें गंगाजल लेकर आज्ञाका पालन करना स्वीकार कर लिया । ७२.५ ॥
संयुक्तं विष्णुमायाया मन्त्रौघैः शास्त्रमुत्तमम् ॥ ७३ ॥ वेदसारं करिष्यामि प्रतिज्ञापालनाय च । गङ्गातोयमुपस्मृश्य मिथ्या यदि वदेज्जनः ॥ ७४ ॥ स याति कालसूत्रं च यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।
उन्होंने कहा कि मैं प्रतिज्ञापालनके लिये विष्णुमायाके मन्त्र-समूहोंसे सम्पन्न तथा वेदोंके सारभूत उत्तम तन्त्रशास्त्रकी रचना करूँगा । यदि कोई मनुष्य हाथमें गंगाजल लेकर झूठी प्रतिज्ञा करता है तो वह 'कालसूत्र' नरकमें जाता है और ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वहाँपर उसे रहना पड़ता है । ७३-७४.५ ॥
हे ब्रह्मन् ! गोलोकमें देवसभामें शंकरजीके ऐसा कहते ही भगवान् श्रीकृष्ण भगवती राधाके साथ वहाँ प्रकट हो गये । तब उन पुरुषोत्तम श्रीकृष्णको प्रत्यक्ष देखकर सभी देवता परम प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और परम आनन्दसे परिपूर्ण होकर फिरसे उत्सव मनाने लगे । ७५-७६.५ ॥
[हे नारद !] समयानुसार उन भगवान् शिवने मुक्तिदीपस्वरूप तन्त्रशास्त्रका निर्माण किया । इस प्रकार मैंने आपसे अत्यन्त गोपनीय तथा दुर्लभ प्रसंगका वर्णन कर दिया । गोलोकसे आविर्भूत तथा राधा और श्रीकृष्णके विग्रहसे उत्पन्न वे द्रवरूपिणी गंगा भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं । परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने स्थान-स्थानपर उन गंगाकी स्थापना की है । श्रीकृष्णस्वरूपा ये अतिश्रेष्ठ गंगा समस्त ब्रह्माण्डोंमें पूजी जाती हैं । ७७-७९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे गङ्गोपाख्यानवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे गडोपाख्यानवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥