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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
षोडशोऽध्यायः

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महालक्षम्या वेदवतीरूपेण राजगृहे जन्मवर्णनम् -
वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त -


श्रीनारायण उवाच
लक्ष्मीं तौ च समाराध्य चोग्रेण तपसा मुने ।
वरमिष्टं च प्रत्येकं सम्प्रापतुरभीप्सितम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मने ! उन दोनोंने कठिन तपस्याद्वारा भगवती लक्ष्मीकी आराधना करके अपना मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया ॥ १ ॥

महालक्ष्मीवरेणैव तौ पृथ्वीशौ बभूवतुः ।
पुण्यवन्तौ पुत्रवन्तौ धर्मध्वजकुशध्वजौ ॥ २ ॥
महालक्ष्मीके वरदानसे ही वे धर्मध्वज और कुशध्वज महान् पुण्यशाली तथा पुत्रवान् राजा हो गये ॥ २ ॥

कुशध्वजस्य पत्‍नी च देवी मालावती सती ।
सा सुषाव च कालेन कमलांशां सुतां सतीम् ॥ ३ ॥
सा च भूयिष्ठकालेन ज्ञानयुक्ता बभूव ह ।
कृत्वा वेदध्वनिं स्पष्टमुत्तस्थौ सूतिकागृहात् ॥ ४ ॥
वेदध्वनिं सा चकार जातमात्रेण कन्यका ।
तस्मात्तां च वेदवतीं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ५ ॥
कुशध्वजकी मालावती नामक साध्वी भार्या थी । उस देवीने दीर्घकाल बीतनेपर यथासमय लक्ष्मीके अंशसे सम्पन्न एक साध्वी कन्याको जन्म दिया । उसे जन्मसे ही ज्ञान प्राप्त था । वह कन्या स्पष्ट वाणीमें वेद-मन्त्रोंका उच्चारणकर सूतिकागृहसे बाहर निकल आयी । उस कन्याने जन्म लेते ही वेदध्वनि की थी, इसलिये विद्वान् लोग उसे 'वेदवती' कहने लगे ॥ ३-५ ॥

जातमात्रेण सुस्नाता जगाम तपसे वनम् ।
सर्वैर्निषिद्धा यत्‍नेन नारायणपरायणा ॥ ६ ॥
जन्म लेते ही उस कन्याने विधिवत् स्नान किया और तपस्याके लिये वनको प्रस्थान कर दिया; यद्यपि सभी लोगोंने श्रीहरिके चिन्तनमें तत्पर रहनेवाली उस कन्याको ऐसा करनेसे प्रयत्नपूर्वक रोका था ॥ ६ ॥

एकमन्वन्तरं चैव पुष्करे च तपस्विनी ।
अत्युग्रां च तपस्यां च लीलया हि चकार सा ॥ ७ ॥
तथापि पुष्टा न क्लिष्टा नवयौवनसंयुता ।
उस तपस्विनी कन्याने एक मन्वन्तरतक पुष्करक्षेत्रमें रहकर लीलापूर्वक अत्यन्त कठोर तप किया, फिर भी वह दुर्बल नहीं हुई: अपितु स्वस्थ और नवयौवनसे सम्पन्न बनी रही ॥ ७.५ ॥

सुश्राव सा च सहसा सुवाचमशरीरिणीम् ॥ ८ ॥
जन्मान्तरे च ते भर्ता भविष्यति हरिः स्वयम् ।
ब्रह्मादिभिर्दुराराध्यं पतिं लप्स्यसि सुन्दरि ॥ ९ ॥
उसने सहसा स्पष्ट शब्दोंवाली यह आकाशवाणी सुनी-हे सुन्दरि ! दूसरे जन्ममें स्वयं भगवान् श्रीहरि तुम्हारे पति होंगे । ब्रह्मा आदिके द्वारा भी बड़ी कठिनतासे प्रसन्न होनेवाले भगवान् श्रीहरिको तुम पतिरूपमें प्राप्त करोगी ॥ ८-९ ॥

इति श्रुत्वा च सा हृष्टा चकार ह पुनस्तपः ।
अतीव निर्जनस्थाने पर्वते गन्धमादने ॥ १० ॥
यह आकाशवाणी सुनकर वह कन्या अत्यन्त प्रसन्न हो गयी और गन्धमादनपर्वतपर निर्जन स्थानमें पुनः तप करने लगी ॥ १० ॥

तत्रैव सुचिरं तप्त्वा विश्वस्य समुवास सा ।
ददर्श पुरतस्तत्र रावणं दुर्निवारणम् ॥ ११ ॥
वहाँ दीर्घकालतक तपश्चर्या करती हुई वह निश्चिन्त होकर रहती थी । एक बार उसने अपने समक्ष उपस्थित ढीठ रावणको देखा ॥ ११ ॥

दृष्ट्वा सातिथिभक्त्या च पाद्यं तस्मै ददौ किल ।
सुस्वादुभूतं च फलं जलं चापि सुशीतलम् ॥ १२ ॥
तच्च भुक्त्वा स पापिष्ठश्चोवास तत्समीपतः ।
चकार प्रश्नमिति तां का त्वं कल्याणि वर्तसे ॥ १३ ॥
उसे देखकर वेदवतीने अतिथिभक्तिसे युक्त होकर उसे पाद्य, परम स्वादिष्ट फल और शीतल जल प्रदान किया । उन्हें ग्रहण करके वह पापी रावण उसके पास बैठ गया और उससे यह प्रश्न करने लगा 'हे कल्याणि ! तुम कौन हो ?' ॥ १२-१३ ॥

तां दृष्ट्वा स वरारोहां पीनश्रोणिपयोधराम् ।
शरत्पद्मोत्सवास्यां च सस्मितां सुदतीं सतीम् ॥ १४ ॥
मूर्च्छामवाप कृपणः कामबाणप्रपीडितः ।
स करेण समाकृष्य शृङ्‌गारं कर्तुमुद्यतः ॥ १५ ॥
स्थूल नितम्बदेश तथा वक्षःस्थलवाली, शरदऋतके विकसित कमलकी भाँति प्रसन्न मखवाली, मुसकानयुक्त तथा स्वच्छ दाँतोंवाली उस परम साध्वी सुन्दरीको देखकर कामबाणसे आहत होकर वह नीच रावण मूछित हो गया । वह वेदवतीको हाथसे खींचकर श्रृंगारिक चेष्टाएँ करने लगा ॥ १४-१५ ॥

सती चुकोप दृष्ट्वा तं स्तम्भितं च चकार ह ।
स जडो हस्तपादैश्च किञ्चिद्वक्तुं न च क्षमः ॥ १६ ॥
यह देखकर वह साध्वी अत्यन्त क्रोधित हो उठी और उसने [तपोबलसे] उसे स्तम्भित कर दिया । वह हाथों तथा पैरोंसे निश्चेष्ट हो गया और कुछ भी बोल सकने में समर्थ नहीं रहा ॥ १६ ॥

तुष्टाव मनसा देवीं प्रययौ पद्मलोचनाम् ।
सा तुष्टा तस्य स्तवनं सुकृतं च चकार ह ॥ १७ ॥
सा शशाप मदर्थे त्वं विनंक्ष्यसि सबान्धवः ।
स्पृष्टाहं च त्वया कामाद्‌ बलं चाप्यवलोकय ॥ १८ ॥
वह मन-ही-मन उस कमलनयनी देवीकी शरणमें गया और उसने उसका स्तवन किया । देवी वेदवती उसपर प्रसन्न हो गयी और [परलोकमें] उसे स्तुतिका फल देना स्वीकार कर लिया । साथ ही उसने यह शाप भी दिया-'तुम मेरे ही कारण अपने बान्धवोंसहित विनष्ट हो जाओगे; क्योंकि काम-भावनासे तुमने मेरा स्पर्श किया है । अब तुम मेरा बल देख लो' ॥ १७-१८ ॥

इत्युक्त्वा सा च योगेन देहत्यागं चकार ह ।
गङ्‌गायां तां च संन्यस्य स्वगृहं रावणो ययौ ॥ १९ ॥
अहो किमद्‍भुतं दृष्टं किं कृतं वानयाधुना ।
इति सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य विललाप पुनः पुनः ॥ २० ॥
ऐसा कहकर उसने योगबलसे अपने शरीरका त्याग कर दिया । इसके बाद रावणने उसे गंगामें छोड़कर अपने घरकी ओर प्रस्थान किया-'अहो, इस समय मैंने यह कैसा अद्‌भुत दृश्य देखा है, इस देवीने इस समय क्या कर डाला'- ऐसा सोच-सोचकर वह रावण बार-बार विलाप करता रहा ॥ १९-२० ॥

सा च कालान्तरे साध्वी बभूव जनकात्मजा ।
सीतादेवीति विख्याता यदर्थे रावणो हतः ॥ २१ ॥
महातपस्विनी सा च तपसा पूर्वजन्मतः ।
लेभे रामं च भर्तारं परिपूर्णतमं हरिम् ॥ २२ ॥
सम्प्राप तपसाऽऽराध्य दुराराध्यं जगत्पतिम् ।
सा रमा सुचिरं रेमे रामेण सह सुन्दरी ॥ २३ ॥
[हे मुने !] वही साध्वी वेदवती दूसरे जन्ममें जनककी पुत्रीके रूपमें आविर्भूत हुई और वे देवी 'सीतादेवी'-इस नामसे विख्यात हुई, जिनके कारण रावण मारा गया । पूर्वजन्मकी तपस्याके प्रभावसे उस महान् तपस्विनी वेदवतीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीरामको पतिरूपमें प्राप्त किया । तपस्याके द्वारा उस देवीने अत्यन्त कठिनतासे सन्तुष्ट होनेवाले तथा सबके आराध्य जगत्पति श्रीरामको प्राप्त किया था । उस सुन्दरी सीताने अत्यन्त दीर्घ कालतक भगवान् श्रीरामके साथ विलास किया ॥ २१-२३ ॥

जातिस्मरा न स्मरति तपसश्च क्लमं पुरा ।
सुखेन तज्जहौ सर्वं दुःखं चापि सुखं फले ॥ २४ ॥
उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था, फिर भी पूर्व समयमें तपस्याके कष्टपर उसने ध्यान नहीं दिया । उसने सुखपूर्वक उस क्लेशका त्याग कर दिया था; क्योंकि परिणामके उत्तम होनेपर दुःख भी सुखके रूपमें हो जाता है ॥ २४ ॥

नानाप्रकारविभवं चकार सुचिरं सती ।
सम्प्राप्य सुकुमारं तमतीव नवयौवना ॥ २५ ॥
गुणिनं रसिकं शान्तं कान्तं देवमनुत्तमम् ।
स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरं तथा लेभे यथेप्सितम् ॥ २६ ॥
उन सुकुमार श्रीरामको प्राप्त करके उस नवयौवना साध्वीने दीर्घकालतक नाना प्रकारके ऐश्वर्यको प्राप्त किया । उसने अपनी अभिलाषाके अनुरूप ही गुणवान, रसिक, शान्त, कमनीय, स्त्रियोंके लिये कामदेवतुल्य मनोहर एवं सर्वश्रेष्ठ देवको प्राप्त किया था ॥ २५-२६ ॥

पितुः सत्यपालनार्थं सत्यसन्धो रघूद्वहः ।
जगाम काननं पश्चात्कालेन च बलीयसा ॥ २७ ॥
तदनन्तर रघुकुलकी वृद्धि करनेवाले सत्यसंकल्प श्रीराम बलवान् कालसे प्रेरित होकर अपने पिताके वचनको सत्य करनेके लिये वनमें चले गये ॥ २७ ॥

तस्थौ समुद्रनिकटे सीतया लक्ष्मणेन च ।
ददर्श तत्र वह्निं च विप्ररूपधरं हरिः ॥ २८ ॥
रामं च दुःखितं दृष्ट्वा स च दुःखी बभूव ह ।
उवाच किञ्चित्सत्येष्टं सत्यं सत्यपरायणः ॥ २९ ॥
वे सीता और लक्ष्मणके साथ समुद्रके समीप स्थित थे । उसी समय भगवान्ने विप्ररूपधारी अग्निदेवको वहाँ देखा । तब श्रीरामको दुःखित देखकर अग्नि भी बहुत दुःखी हुए । इसके बाद सत्यपरायण वे अग्निदेव सत्यप्रेमी भगवान् श्रीरामसे यह सत्यवचन कहने लगे ॥ २८-२९ ॥

द्विज उवाच
भगवच्छ्रूयतां राम कालोऽयं यदुपस्थितः ।
सीताहरणकालोऽयं तवैव समुपस्थितः ॥ ३० ॥
दैवं च दुर्निवार्यं च न च दैवात्परो बली ।
जगत्प्रसूं मयि न्यस्य छायां रक्षान्तिकेऽधुना ॥ ३१ ॥
दास्यामि सीतां तुभ्यं च परीक्षासमये पुनः ।
देवैः प्रस्थापितोऽहं च न च विप्रो हुताशनः ॥ ३२ ॥
द्विज बोले-हे भगवन् ! हे श्रीराम ! सुनिये, यह जो काल आपके समक्ष उपस्थित है, वह सीताहरणके समयके रूपमें ही आया हुआ है । दैवका प्रतिकार अत्यन्त कठिन है, उस दैवसे बढ़कर बलवान् अन्य कोई नहीं है । अतः आप इस समय जगजननी सीताको मुझमें स्थापित करके छायामयी सीताको अपने साथ रख लीजिये । इनकी परीक्षाका समय आनेपर मैं इन सीताको पुनः आपको सौंप दूंगा । मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, अपितु इसी कार्यहेतु देवताओंके द्वारा भेजा गया साक्षात् अग्निदेव हूँ ॥ ३०-३२ ॥

रामस्तद्वचनं श्रुत्वा न प्रकाश्य च लक्ष्मणम् ।
स्वीकारं वचसश्चक्रे हृदयेन विदूयता ॥ ३३ ॥
श्रीरामने उनकी यह बात सुनकर लक्ष्मणको बताये बिना ही अत्यन्त दु:खी मनसे वह वचन स्वीकार कर लिया ॥ ३३ ॥

वह्निर्योगेन सीताया मायासीतां चकार ह ।
तत्तुल्यगुणसर्वाङ्‌गां ददौ रामाय नारद ॥ ३४ ॥
हे नारद ! तत्पश्चात् अग्निदेवने योगबलसे सीताके ही समान एक माया-सीताकी रचना की । इसके बाद अग्निने गुण और स्वरूपमें उस सीताके ही तुल्य माया-सीताको श्रीरामको सौंप दिया ॥ ३४ ॥

सीतां गृहीत्वा स ययौ गोप्यं वक्तुं निषिध्य च ।
लक्ष्मणो नैव बुबुधे गोप्यमन्यस्य का कथा ॥ ३५ ॥
श्रीराम इस गुप्त रहस्यको प्रकट करनेका निषेध करके माया-सीताको साथ लेकर चल पड़े । लक्ष्मणतक इस रहस्यको नहीं जान पाये तो दूसरेकी बात ही क्या ॥ ३५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे रामो ददर्श कानकं मृगम् ।
सीता तं प्रेरयामास तदर्थे यत्‍नपूर्वकम् ॥ ३६ ॥
इसी बीच श्रीरामने एक स्वर्णमृग देखा । तब सीता जिस किसी भी यलसे उसे लानेके लिये श्रीरामको प्रेरित करने लगीं ॥ ३६ ॥

संन्यस्य लक्ष्मणं रामो जानक्या रक्षणे वने ।
स्वयं जगाम तूर्णं तं विव्याध सायकेन च ॥ ३७ ॥
श्रीराम उस वनमें सीताकी रक्षाके लिये लक्ष्मणको वहींपर नियुक्त करके स्वयं शीघ्रतापूर्वक मृगकी ओर दौड़ पड़े और बाणसे उसका वध कर दिया ॥ ३७ ॥

लक्ष्मणेति च शब्दं स कृत्वा च मायया मृगः ।
प्राणांस्तत्याज सहसा पुरो दृष्ट्वा हरिं स्मरन् ॥ ३८ ॥
उस मायामृगने 'हा लक्ष्मण'-यह शब्द करके अपने समक्ष भगवान् श्रीहरिका दर्शन प्राप्त करके उनका स्मरण करते हुए सहसा अपने प्राण त्याग दिये ॥ ३८ ॥

मृगदेहं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय च ।
रत्‍ननिर्माणयानेन वैकुण्ठं स जगाम ह ॥ ३९ ॥
वैकुण्ठलोकद्वार्यासीत्किङ्‌करो द्वारपालयोः ।
पुनर्जगाम तद्द्वारमादेशाद्‌ द्वारपालयोः ॥ ४० ॥
मृगका शरीर त्यागकर दिव्य स्वरूप धारण करके वह रत्ननिर्मित विमानसे वैकुण्ठ चला गया । वह मारीच पूर्वजन्ममें दोनों द्वारपालोंके सेवकके रूपमें वैकुण्ठके द्वारपर रहता था । अब द्वारपालोंके आदेशानुसार वह फिर वैकुण्ठके द्वारपर पहुँच गया ॥ ३९-४० ॥

अथ शब्दं च सा श्रुत्वा लक्ष्मणेति च विक्लवम् ।
तं हि सा प्रेरयामास लक्ष्मणं रामसन्निधौ ॥ ४१ ॥
इधर 'हा लक्ष्मण'-यह आर्तनाद सुनकर सीताने रामके पास जानेके लिये लक्ष्मणको प्रेरित किया ॥ ४१ ॥

गते च लक्ष्मणे रामं रावणो दुर्निवारणः ।
सीतां गृहीत्वा प्रययौ लङ्‌कामेव स्वलीलया ॥ ४२ ॥
रामके पास लक्ष्मणके चले जानेपर अत्यन्त दुर्धर्ष वह रावण अपनी मायासे सीताका हरण करके लंकाकी ओर चल दिया ॥ ४२ ॥

विषसाद च रामश्च वने दृष्ट्वा च लक्ष्मणम् ।
तूर्णं च स्वाश्रमं गत्वा सीतां नैव ददर्श सः ॥ ४३ ॥
मूर्च्छां सम्प्राप सुचिरं विललाप भृशं पुनः ।
पुनः पुनश्च बभ्राम तदन्वेषणपूर्वकम् ॥ ४४ ॥
लक्ष्मणको वनमें देखकर श्रीराम विषादग्रस्त हो गये । अपने आश्रमपर तत्काल पहुँचकर जब उन्होंने सीताको नहीं देखा तब वे मूच्छित हो गये और पुनः [चेतना आनेपर] उन्होंने बार-बार बहुत विलाप किया । इसके बाद सीताको खोजते हुए वे बार-बार इधर-उधर भटकने लगे ॥ ४३-४४ ॥

कालेन प्राप्य तद्वार्तां गोदावरीनदीतटे ।
सहायान्वानरात्कृत्वा बबन्ध सागरं हरिः ॥ ४५ ॥
कुछ समय पश्चात् गोदावरीनदीके तटपर सीताका समाचार मिलनेपर भगवान् श्रीरामने वानरोंको अपना सहायक बनाकर समुद्रपर पुल बाँधा । ॥ ४५ ॥

लङ्‌कां गत्वा रघुश्रेष्ठो जघान सायकेन च ।
कालेन प्राप्य तं हत्वा रावणं बान्धवैः सह ॥ ४६ ॥
तां च वह्निपरीक्षां च कारयामास सत्वरम् ।
हुताशस्तत्र काले तु वास्तवीं जानकीं ददौ ॥ ४७ ॥
पुनः समय आनेपर लंका जाकर उन रघुश्रेष्ठ रामने बाणसे रावणको मार डाला । इस प्रकार बान्धवोंसहित उस रावणका वध करके श्रीरामने तत्काल उन सीताकी अग्निपरीक्षा करायी । उसी समय अग्निदेवने वास्तविक सीता श्रीरामको सौंप दी ॥ ४६-४७ ॥

उवाच छाया वह्निं च रामं च विनयान्विता ।
करिष्यामीति किमहं तदुपायं वदस्व मे ॥ ४८ ॥
तब छायामयी सीताने विनम्र होकर अग्निदेव और श्रीरामसे कहा-अब मैं क्या करूं ? मुझे वह उपाय बताइये ॥ ४८ ॥

श्रीरामाग्नी ऊचतुः
त्वं गच्छ तपसे देवि पुष्करं च सुपुण्यदम् ।
कृत्वा तपस्या तत्रैव स्वर्गलक्ष्मीर्भविष्यसि ॥ ४९ ॥
सा च तद्वचनं श्रुत्वा प्रतप्य पुष्करे तपः ।
दिव्यं त्रिलक्षवर्षं च स्वर्गलक्ष्मीर्बभूव ह ॥ ५० ॥
श्रीराम और अग्निदेव बोले-हे देवि ! तुम तपस्या करनेके लिये अत्यन्त पुण्यप्रद पुष्करक्षेत्र में जाओ । वहाँ तपस्या करके तुम स्वर्गलक्ष्मी बनोगी । वे यह वचन सुनकर पुष्करक्षेत्रमें जाकर दिव्य तीन लाख वर्षांतक कठिन तपस्या करके स्वर्गलक्ष्मीके रूपमें प्रतिष्ठित हो गयीं ॥ ४९-५० ॥

सा च कालेन तपसा यज्ञकुण्डसमुद्‍भवा ।
कामिनी पाण्डवानां च द्रौपदी द्रुपदात्मजा ॥ ५१ ॥
कालक्रमसे वे ही देवी तपस्याके प्रभावसे यज्ञकुण्डसे उत्पन्न होकर महाराज द्रुपदकी पुत्री तथा पाण्डवोंकी प्रिया द्रौपदी बनीं ॥ ५१ ॥

कृते युगे वेदवती कुशध्वजसुता शुभा ।
त्रेतायां रामपत्‍नी च सीतेति जनकात्मजा ॥ ५२ ॥
तच्छाया द्रौपदी देवी द्वापरे द्रुपदात्मजा ।
त्रिहायणी च सा प्रोक्ता विद्यमाना युगत्रये ॥ ५३ ॥
इस प्रकार सत्ययुगमें कुशध्वजकी वही कन्या कल्याणमयी वेदवती त्रेतायुगमें जनककी पुत्री सीता हुई और बादमें वे श्रीरामकी पत्नी बनीं । पुनः वही छायासीता द्वापरमें द्रुपदकी पुत्री देवी द्रौपदीके रूपमें आविर्भूत हुईं । अतः तीनों युगोंमें विद्यमान रहनेवाली उस देवीको 'त्रिहायणी' भी कहा गया है ॥ ५२-५३ ॥

नारद उवाच
प्रियाः पञ्च कथं तस्या बभूवुर्मुनिपुङ्‌गव ।
इति मच्चित्तसंदेहं भञ्ज संदेहभञ्जन ॥ ५४ ॥
नारदजी बोले- शंकाओंका समाधान करनेवाले हे मुनिश्रेष्ठ ! उस द्रौपदीके पाँच पति कैसे हुए ? मेरे मनका यह सन्देह दूर कीजिये ॥ ५४ ॥

श्रीनारायण उवाच
लङ्‌कायां वास्तवी सीता रामं सम्प्राप नारद ।
रूपयौवनसम्पन्ना छाया च बहुचिन्तया ॥ ५५ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! जब लंकामें वास्तविक सीता भगवान् रामको प्राप्त हो गयीं, तब रूप एवं यौवनसे सम्पन्न छायासीता महान् चिन्तासे व्याकुल हो उठी ॥ ५५ ॥

रामाग्न्योराज्ञया तप्तुमुपास्ते शङ्‌करं परम् ।
कामातुरा पतिव्यग्रा प्रार्थयन्ती पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
पतिं देहि पतिं देहि पतिं देहि त्रिलोचन ।
पतिं देहि पतिं देहि पञ्चवारं चकार सा ॥ ५७ ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीराम और अग्निकी आज्ञाके अनुसार वह भगवान् शंकरकी उपासनामें तत्पर हो गयी । कामातुर वह पतिप्राप्तिके लिये व्यग्र होकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगी-'हे त्रिलोचन ! मुझे पति प्रदान कीजिये' । ऐसा उसने पाँच बार कहा था ॥ ५६-५७ ॥

शिवस्तत्प्रार्थनां श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
प्रिये तव प्रियाः पञ्च भविष्यन्ति वरं ददौ ॥ ५८ ॥
तेन सा पाण्डवानां च बभूव कामिनी प्रिया ।
इति ते कथितं सर्वं प्रस्तावं वास्तवं शृणु ॥ ५९ ॥
उस प्रार्थनाको सुनकर रसिकेश्वर शंकरने हँसकर यह वर दे दिया-'हे प्रिये ! तुम्हारे पाँच पति होंगे । हे नारद !] इसीलिये वे छायासीता [द्वापरमें] पाँचों पाण्डवोंकी प्रिय भार्या हुई । इस प्रकार मैंने आपको यह सब बता दिया, अब वास्तविक प्रसंग सुनिये ॥ ५८-५९ ॥

अथ सम्प्राप्य लङ्‌कायां सीतां रामो मनोहराम् ।
विभीषणाय तां लङ्‌कां दत्त्वायोध्यां ययौ पुनः ॥ ६० ॥
एकादशसहस्राब्दं कृत्वा राज्यं च भारते ।
जगाम सर्वैर्लोकैश्च सार्धं वैकुण्ठमेव च ॥ ६१ ॥
कमलांशा वेदवती कमलायां विवेश सा ।
भगवान् श्रीराम लंकामें मनोहारिणी सीताको पा जानेके अनन्तर वह लंका विभीषणको सौंपकर अयोध्या वापस चले गये और भारतवर्षमें ग्यारह हजार वर्षांतक राज्य करके समस्त परवासियोंसहित वैकुण्ठ चले गये । लक्ष्मीके अंशसे प्रादुर्भुत वह वेदवती लक्ष्मीके विग्रहमें समाविष्ट हो गयी ॥ ६०-६१.५ ॥

कथितं पुण्यमाख्यानं पुण्यदं पापनाशनम् ॥ ६२ ॥
सततं मूर्तिमन्तश्च वेदाश्चत्वार एव च ।
सन्ति यस्याश्च जिह्वाग्रे सा च वेदवती श्रुता ॥ ६३ ॥
धर्मध्वजसुताख्यानं निबोध कथयामि ते ॥ ६४ ॥
इस प्रकार मैंने यह पवित्र, पुण्यदायक तथा पापनाशक आख्यान आपसे कह दिया । मर्तिमान रूपमें चारों वेद उसकी जिझके अग्रभागपर निरन्तर विराजमान रहते थे, इसीलिये वह वेदवती नामसे प्रसिद्ध थी । अब मैं आपको धर्मध्वजकी कन्याका आख्यान बता रहा हूँ; ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ ६२-६४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे महालक्षम्या वेदवतीरूपेण
राजगृहे जन्मवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे महालक्ष्म्या वेदवतीरूपेण राजगृहे जन्मवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥


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