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नारायणनारदसंवादे शक्तिप्रादुर्भावः -
तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र-वर्णन -
नारद उवाच नारायणप्रिया साध्वी कथं सा च बभूव ह । तुलसी कुत्र सम्भूता का वा सा पूर्वजन्मनि ॥ १ ॥ कस्य वा सा कुले जाता कस्य कन्या कुले सती । केन वा तपसा सा च सम्प्राप्ता प्रकृतेः परम् ॥ २ ॥ निर्विकारं निरीहं च सर्वविश्वस्वरूपकम् । नारायणं परं ब्रह्म परमेश्वरमीश्वरम् ॥ ३ ॥ सर्वाराध्यं च सर्वेशं सर्वज्ञं सर्वकारणम् । सर्वाधारं सर्वरूपं सर्वेषां परिपालकम् ॥ ४ ॥ कथमेतादृशी देवी वृक्षत्वं समवाप ह । कथं साप्यसुरग्रस्ता सम्बभूव तपस्विनी ॥ ५ ॥ सुस्निग्धं मे मनो लोलं प्रेरयन्मां मुहुर्मुहुः । छेत्तुमर्हसि सन्देहं सर्वं सन्देहभञ्जन ॥ ६ ॥
नारदजी बोले-परम साध्वी तुलसी भगवान् श्रीहरिकी प्रिय भार्या कैसे बनीं, वे कहाँ उत्पन्न हुई थीं, पूर्वजन्ममें कौन थीं, किसके कुलमें उत्पन्न हुई थी और वे सती किसके कुलमें कन्याके रूपमें प्रादुर्भूत हुई और अपने किस तपस्याके प्रभावसे वे तुलसी प्रकृतिसे परे, विकाररहित, निष्काम, सर्वविश्वरूप, नारायण, परब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, सबके आराध्य, सर्वेश, सब कुछ जाननेवाले, सम्पूर्ण जगत्के कारण, सर्वाधार, सर्वरूप तथा सभी प्राणियोंका पालन करनेवाले भगवान् श्रीहरिको पत्नीरूपमें प्राप्त हुई ? ऐसी साध्वी देवी कैसे वृक्ष बन गयीं और वे तपस्विनी किस प्रकारसे असुरके द्वारा गृहीत हुई । समस्त शंकाओंका निवारण करनेवाले हे प्रभो ! यह सब जाननेके लिये मेरा कोमल तथा चंचल मन मुझे बार-बार प्रेरित कर रहा है । आप मेरे सम्पूर्ण सन्देहको दूर करनेकी कृपा कीजिये ॥ १-६ ॥
श्रीनारायण उवाच मनुश्च दक्षसावर्णिः पुण्यवान् वैष्णवः शुचिः । यशस्वी कीर्तिमांश्चैव विष्णोरंशसमुद्भवः ॥ ७ ॥ तत्पुत्रो ब्रह्मसावर्णिर्धर्मिष्ठो वैष्णवः शुचिः । तत्पुत्रो धर्मसावर्णिर्वैष्णवश्च जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥ तत्पुत्रो रुद्रसावर्णिर्भक्तिमान्विजितेन्द्रियः । तत्पुत्रो देवसावर्णिर्विष्णुव्रतपरायणः ॥ ९ ॥ तत्पुत्र इन्द्रसावर्णिर्महाविष्णुपरायणः । वृषध्वजश्च तत्पुत्रो वृषध्वजपरायणः ॥ १० ॥ यस्याश्रमे स्वयं शम्भुरासीद्देवयुगत्रयम् । पुत्रादपि परः स्नेहो नृपे तस्मिञ्छिवस्य च ॥ ११ ॥
श्रीनारायण बोले-विष्णुके अंशसे उत्पन्न दक्ष-सावर्णि मनु परम पवित्र, यशस्वी, कीर्तिमान्, पुण्यशाली तथा विष्णुभक्त थे । उनके पुत्र ब्रह्मसावर्णि थे, जो धर्म-परायण, भगवान् विष्णुके भक्त तथा परम पवित्र थे । उनके पुत्र धर्मसावर्णि थे, जो विष्णुके भक्त तथा जितेन्द्रिय थे । उनके पुत्र रुद्रसावर्णि भक्तिपरायण तथा जितेन्द्रिय थे । उन रुद्रसावर्णिके पुत्र देवसावर्णि थे, जो सर्वदा विष्णु-भगवान्का व्रत करनेमें संलग्न रहते थे । उन देवसावर्णिके पुत्र इन्द्रसावणि महाविष्णुके भक्त थे । उन इन्द्रसावर्णिका पुत्र वृषध्वज हुआ, जो भगवान् शिवकी भक्तिमें आसक्ति रखता था; उसके आश्रममें स्वयं भगवान् शंकर तीन युगातक स्थित रहे । राजा वृषध्वजके प्रति शिवजीका स्नेह पुत्रसे भी बढ़कर था ॥ ७-११ ॥
न च नारायणं मेने न लक्ष्मीं न सरस्वतीम् । पूजां च सर्वदेवानां दूरीभूता चकार सः ॥ १२ ॥
वह भगवान् नारायण, लक्ष्मी, सरस्वती-इनमें किसीके भी प्रति आस्था नहीं रखता था और उसने अन्य सभी देवताओंकी पूजाका परित्याग कर दिया था ॥ १२ ॥
भाद्रे मासि महालक्ष्मीपूजां मत्तो बभञ्ज ह । तथा माघीयपञ्चम्यां विस्मृता सर्वदैवतैः ॥ १३ ॥ पापः सरस्वतीपूजां दूरीभूता चकार सः । यज्ञं च विष्णुपूजां च निन्दन्तं तं दिवाकरः ॥ १४ ॥ चुकोप देवो भूपेन्द्रं शशाप शिवकारणात् । भ्रष्टश्रीस्त्वञ्च भवेति तं शशाप दिवाकरः ॥ १५ ॥
अभिमानमें चूर होकर वह भाद्रपद महीनेमें महालक्ष्मीको पूजामें विघ्न उत्पन्न करता था । इसी प्रकार उस पापीने माघ शुक्ल पंचमीके दिन समस्त देवताओंद्वारा विस्तृत रूपसे की जानेवाली सरस्वतीपूजाका भी त्याग कर दिया था । इस तरह केवल शिवकी आराधनामें निरत रहनेवाले और यज्ञ तथा विष्णुकी पूजाकी निन्दा करनेवाले उस राजेन्द्र वृषध्वजपर भगवान् सूर्यदेव कुपित हो गये और उन्होंने उसे शाप दे दिया 'तुम श्रीविहीन हो जाओ'-यह शाप सूर्यने उसे दे दिया था ॥ १३-१५ ॥
इसपर स्वयं भगवान् शिव हाथमें त्रिशूल लेकर सूर्यके पीछे दौड़े । तब सूर्य अपने पिता कश्यपके साथ ब्रह्माकी शरणमें गये ॥ १६ ॥
शिवस्त्रिशूलहस्तश्च ब्रह्मलोकं ययौ क्रुधा । ब्रह्मा सूर्यं पुरस्कृत्य वैकुण्ठं च ययौ भिया ॥ १७ ॥
तदनन्तर भगवान् शंकर हाथमें त्रिशूल लिये हुए अत्यन्त क्रुद्ध होकर ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थित हुए । इसपर भयभीत ब्रह्मजीने सूर्यको आगे करके वैकुण्ठलोकके लिये प्रस्थान कर दिया ॥ १७ ॥
ब्रह्मकश्यपमार्तण्डाः सन्त्रस्ताः शुष्कतालुकाः । नारायणं च सर्वेशं ते ययुः शरणं भिया ॥ १८ ॥
वे सन्तप्त तथा शुष्क तालुवाले ब्रह्मा, कश्यप तथा सूर्य भयपूर्वक सर्वेश्वर नारायणकी शरणमें गये ॥ १८ ॥
मूर्छा प्रणेमुस्ते गत्वा तुष्टुवुश्च पुनः पुनः । सर्वं निवेदनं चक्रुर्भयस्य कारणं हरौ ॥ १९ ॥
उन तीनोंने वहाँ पहुँचकर मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीहरिको प्रणाम किया और बार-बार उनकी स्तुति की । तत्पश्चात् उन्होंने श्रीहरिसे भयका समस्त कारण बताया ॥ १९ ॥
नारायणश्च कृपया तेभ्यश्च ह्यभयं ददौ । स्थिरा भवत हे भीता भयं किञ्च मयि स्थिते ॥ २० ॥ स्मरन्ति ये यत्र तत्र मां विपत्तौ भयान्विताः । तांस्तत्र गत्वा रक्षामि चक्रहस्तस्त्वरान्वितः ॥ २१ ॥
तब भगवान् नारायणने कृपापूर्वक [यह कहकर] उन्हें अभय प्रदान किया-हे भयभीत देवगण ! आपलोग स्थिरचित्त हो जाइये । मेरे रहते आपलोगोंको भय कैसा ? विपत्तिमें भयत्रस्त जो लोग जहाँ भी मुझे याद करते हैं, मैं हाथमें चक्र धारण किये वहाँ तत्काल पहुँचकर उनकी रक्षा करता हूँ ॥ २०-२१ ॥
पाताहं जगतां देवाः कर्ता च सततं सदा । स्रष्टा च ब्रह्मरूपेण संहर्ता शिवरूपतः ॥ २२ ॥ शिवोऽहं त्वमहं चापि सूर्योऽहं त्रिगुणात्मकः । विधाय नानारूपं च करोमि सृष्टिपालनम् ॥ २३ ॥
हे देवतागण ! मैं सदा निरन्तर सम्पूर्ण लोकोंकी रचना तथा रक्षा किया करता हूँ । मैं ही ब्रह्मारूपसे जगत्की सृष्टि करनेवाला और शिवरूपसे संहार करनेवाला हूँ । मैं ही शिव हूँ, आप भी मेरे ही रूप हो और ये सूर्य भी मेरे ही स्वरूप हैं । तीनों गुणोंसे युक्त मैं ही अनेकविध रूप धारण करके सृष्टि-पालन करता हूँ ॥ २२-२३ ॥
यूयं गच्छत भद्रं वो भविष्यति भयं कुतः । अद्यप्रभृति मद्वरेण भयं वो नास्ति शङ्करात् ॥ २४ ॥ सर्वेशो वै स भगवाच्छङ्करश्च सतां पतिः । भक्ताधीनश्च भक्तानां भक्तात्मा भक्तवत्सलः ॥ २५ ॥ सुदर्शनः शिवश्चैव मम प्राणाधिकः प्रियः । ब्रह्माण्डेषु न तेजस्वी हे ब्रह्मन्ननयोः परः ॥ २६ ॥
आपलोग जाइये । आपलोगोंका कल्याण होगा, आपलोगोंको भय कहाँ । मेरे वरके प्रभावसे आपलोगोंको आजसे शंकरजीसे भय नहीं होगा । वे सर्वेश्वर भगवान् शिव सज्जनोंके स्वामी, भक्तोंके वशमें रहनेवाले, भक्तोंकी आत्मा तथा भक्तवत्सल हैं । हे ब्रह्मन् ! सुदर्शन चक्र और भगवान् शिवये दोनों ही मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, इन दोनोंसे बढ़कर तेजस्वी ब्रह्माण्डोंमें कोई भी नहीं है ॥ २४-२६ ॥
शक्तः स्रष्टुं महादेवः सूर्यकोटिं च लीलया । कोटिं च ब्रह्मणामेवं नासाध्यं शूलिनः प्रभोः ॥ २७ ॥ बाह्यज्ञानं नैव किञ्चिद्ध्यायते मां दिवानिशम् । मन्मन्त्रान्मद्गुणान्भक्त्या पञ्चवक्त्रेण गायति ॥ २८ ॥
वे महादेव खेल-खेलमें करोड़ों सूर्यों तथा करोड़ों ब्रह्माकी रचना कर सकते हैं । उन त्रिशूलधारी प्रभु शिवके लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है । वे भगवान् शिव कुछ भी बाह्य ज्ञान न रखते हुए दिन-रात मेरा ही ध्यान करते रहते हैं और अपने पाँचों मुखोंसे भक्तिपूर्वक सदा मेरे मन्त्रोंका जप तथा गुणोंका गान करते रहते हैं ॥ २७-२८ ॥
अहमेवं चिन्तयामि तत्कल्याणं दिवानिशम् । ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ॥ २९ ॥ शिवस्वरूपो भगवाञ्छिवाधिष्ठातृदेवता । शिवं भवति तस्माच्च शिवं तेन विदुर्बुधाः ॥ ३० ॥
मैं भी दिन-रात उनके कल्याणका ही चिन्तन करता हूँ; क्योंकि जो लोग जिस प्रकार मेरी उपासना करते हैं, उसी प्रकार मैं भी उनकी सेवामें तत्पर रहता हूँ । भगवान् शंकर शिवस्वरूप हैं और वे कल्याणके अधिष्ठातृदेवता हैं, उन्हींसे कल्याण होता है, अत: विद्वान् लोग उन्हें शिव कहते हैं ॥ २९-३० ॥
इसी बीच भगवान् शंकर भी वहाँ पहुँच गये । उनके हाथमें त्रिशूल था, वे वृषभपर सवार थे तथा उनकी आँखें लाल कमलके समान थीं । वहाँ पहुँचते ही उन्होंने तुरंत वृषभसे उतरकर तथा भक्तिसे परिपूर्ण होनेके कारण अपना मस्तक झुकाकर उन शान्तस्वभाव परात्पर लक्ष्मीपति विष्णुको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया ॥ ३१-३२ ॥
रत्नसिंहासनस्थं च रत्नालङ्कारभूषितम् । किरीटिनं कुण्डलिनं चक्रिणं वनमालिनम् ॥ ३३ ॥ नवीननीरदश्यामं सुन्दरं च चतुर्भुजम् । चतुर्भुजैः सेवितं च श्वेतचामरवायुना ॥ ३४ ॥
उस समय भगवान् श्रीहरि रत्नमय सिंहासनपर विराजमान थे, रत्ननिर्मित अलंकारोंसे वे अलंकत थे. वे किरीट; कुण्डल; चक्र और वनमाला धारण किये हुए थे, उनके शरीरकी कान्ति नूतन मेघके समान श्यामवर्णकी थी, वे परम सुन्दर थे, चार भुजाओंसे सुशोभित थे और चार भुजावाले अनेक पार्षदोंके द्वारा श्वेत बँवर डुलाकर उनकी सेवा की जा रही थी ॥ ३३-३४ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भूषितं पीतवाससम् । लक्ष्मीप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं च नारद ॥ ३५ ॥ विद्याधरीनृत्यगीतं पश्यन्तं सस्मितं सदा । ईश्वरं परमात्मानं भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ३६ ॥ तं ननाम महादेवो ब्रह्मणा नमितश्च सः । ननाम सूर्यो भक्त्या च सन्त्रस्तश्चन्द्रशेखरम् ॥ ३७ ॥ कश्यपश्च महाभक्त्या तुष्टाव च ननाम च ।
हे नारद ! उनका सम्पूर्ण अंग दिव्य चन्दनसे अनुलिप्त था, वे अनेक प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थे, उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था । वे लक्ष्मीके द्वारा दिये गये ताम्बूलका सेवन कर रहे थे, मुसकराते हुए वे विद्याधरियोंके नृत्य-गीत आदिका निरन्तर अवलोकन कर रहे थे । भक्तोंके लिये साक्षात् कृपामूर्ति ऐसे उन परमेश्वर प्रभुको महादेवने प्रणाम किया । ब्रह्माजीने भी महादेवको प्रणाम किया और अत्यन्त भयभीत सूर्यने भी चन्द्रशेखर शिवको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया । इसी प्रकार कश्यपने महान् भक्तिके साथ शिवकी स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया ॥ ३५-३७.५ ॥
शिवजी सर्वेश्वर श्रीहरिका स्तवन करके एक सुखप्रद आसनपर विराजमान हो गये । इसके बाद सुखमय आसनपर सुखपूर्वक विराजमान तथा विष्णुके पार्षदोंके द्वारा श्वेत चंवर डुलाकर सेवित होते हुए उन विश्रान्त शिवजीसे भगवान् श्रीहरि अमृतके समान मधुर तथा मनोहर वचन कहने लगे ॥ ३८-३९.५ ॥
विष्णुरुवाच आगतोऽसि कथं चात्र वद कोपस्य कारणम् ॥ ४० ॥
विष्णुजी बोले-आप यहाँ किसलिये आये हैं, आप अपने क्रोधका कारण बताइये ॥ ४० ॥
महादेव उवाच वृषध्वजं च मद्भक्तं मम प्राणाधिकं प्रियम् । सूर्यः शशाप इति मे प्रकोपस्य तु कारणम् ॥ ४१ ॥ पुत्रवत्सलशोकेन सूर्यं हन्तुं समुद्यतः । स ब्रह्माणं प्रपन्नश्च सूर्यश्च स विधिस्त्वयि ॥ ४२ ॥
महादेवजी बोले-[हे भगवन् !] सूर्यने मेरे लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मेरे भक्त वृषध्वजको शाप दे दिया है-यही मेरे क्रोधका कारण है । जब मैं अपने पुत्रतुल्य भक्तके शोकसे प्रभावित होकर सूर्यको मारनेके लिये उद्यत हुआ, तब उस सूर्यन ब्रह्माकी शरण ली और पुनः सूर्य तथा ब्रह्मा-ये दोनों आपकी शरणमें आ गये ॥ ४१-४२ ॥
[हे प्रभो !] जो लोग ध्यानसे अथवा वचनसे भी आपकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे विपत्ति तथा भयसे पूर्णतः मुक्त हो जाते हैं । वे जरा तथा मृत्युतकको जीत लेते हैं । ये लोग तो प्रत्यक्ष शरणागत हुए हैं । इस शरणागतिका फल क्या बताऊँ ! आप श्रीहरिका स्मरण सदा अभय तथा सर्वविध मंगल प्रदान करता है । हे जगत्प्रभो ! सूर्यके शापके कारण श्रीरहित तथा विवेकहीन मेरे भक्तका क्या होगा ? इसे मुझे बतायें ॥ ४३-४५ ॥
विष्णुजी बोले-[हे शिव !] दैवकी प्रेरणासे इक्कीस युगोंका बहुत बड़ा समय व्यतीत हो गया, यद्यपि वैकुण्ठमें अभी आधी घड़ीका समय बीता है । अतः अब आप शीघ्र अपने स्थान चले जाइये । किसीसे भी नियन्त्रित न किये जा सकनेवाले अत्यन्त भीषण कालने वृषध्वजको मार डाला है । उसका पुत्र रथध्वज था, वह भी श्रीसे हीन होकर मृत्युको प्राप्त हो गया । उस रथध्वजके भी धर्मध्वज तथा कुशध्वज नामक दो महान् भाग्यशाली पुत्र भी सूर्यके शापसे श्रीहीन हो गये हैं । वे दोनों विष्णुके महान् भक्तके रूपमें प्रसिद्ध हैं । राज्य तथा श्रीसे भ्रष्ट वे दोनों लक्ष्मीके तपमें रत हैं । उन दोनोंकी भार्याओंसे भगवती लक्ष्मी अपनी कलासे आविर्भूत होंगी । उस समय वे दोनों महान् सम्पदासे सम्पन्न होकर श्रेष्ठ राजाके रूपमें पुनः प्रतिष्ठित होंगे । हे शम्भो ! आपका भक्त मर चुका है । अब आप यहाँ से जाइये । हे देवतागण ! अब आप सबलोग भी यहाँसे प्रस्थान कीजिये ॥ ४६-५० ॥
[हे नारद !] ऐसा कहकर वे भगवान् श्रीहरि सभासे उठकर लक्ष्मीके साथ अन्तःपुरमें चले गये । तत्पश्चात् परम प्रसन्नतासे युक्त देवतागण भी परम आनन्दका अनुभव करते हुए अपने अपने आश्रमके लिये प्रस्थित हो गये । तब परिपूर्णतम भगवान् शिव भी तपस्याके उद्देश्यसे वहाँसे चल दिये ॥ ५१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे शक्तिप्रादुर्भावो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे शक्तिप्रादुर्भावो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥