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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
अष्टादशोऽध्यायः

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शङ्‌खचूडेन सह तुलस्याः सङ्‌गतिवर्णनम् -
तुलसीको स्वप्नमें शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना -


नारायण उवाच
तुलसी परितुष्टा च सुष्वाप हृष्टमानसा ।
नवयौवनसम्पन्ना वृषध्वजवराङ्‌गना ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] एक समयकी बात है-वृषध्वजकी नवयौवनसम्पन्न कन्या तुलसी अत्यन्त सन्तुष्ट तथा प्रसन्नचित्त होकर शयन कर रही थी ॥ १ ॥

चिक्षेप पञ्चबाणश्च पञ्चबाणांश्च तां प्रति ।
पुष्पायुधेन सा दग्धा पुष्पचन्दनचर्चिता ॥ २ ॥
पुलकाङ्‌कितसर्वाङ्‌गी कम्पितारक्तलोचना ।
क्षणं सा शुष्कतां प्राप क्षणं मूर्च्छामवाप ह ॥ ३ ॥
क्षणमुद्विग्नतां प्राप क्षणं तन्द्रां सुखावहाम् ।
क्षणं च दहनं प्राप क्षणं प्राप प्रसन्नताम् ॥ ४ ॥
क्षणं सा चेतनां प्राप क्षणं प्राप विषण्णताम् ।
उत्तिष्ठन्ती क्षणं तल्पाद्‌ गच्छन्ती निकटे क्षणम् ॥ ५ ॥
भ्रमन्ती क्षणमुद्वेगान्निवसन्ती क्षणं पुनः ।
क्षणमेव समुद्वेगात्सुष्वाप पुनरेव सा ॥ ६ ॥
उसी समय कामदेवने उसपर अपने पाँचों बाण चला दिये । पुष्प तथा चन्दनसे अनुलिप्त अंगोंवाली वह कन्या कामदेवके पुष्प-बाणसे परितप्त हो गयी । उसका सारा अंग पुलकित हो उठा, उसके शरीर में कँपकँपी होने लगी और उसकी आँखें लाल हो गयीं । वह क्षणभरमें सूख जाती थी और दूसरे क्षणमें मूछित हो जाती थी, पुनः क्षणभरमें उद्विग्न हो उठती थी और फिर क्षणभरमें सुखदायक तन्द्रासे युक्त हो जाती थी । वह क्षणभरमें उत्तप्त हो जाती थी और फिर तुरंत प्रसन्न हो जाती थी । क्षणभरमें सचेत हो जाती थी और क्षणमें विषादग्रस्त हो जाती थी । वह कभी शय्यासे उठती हुई, कभी क्षणभरमें पास ही टहलती हुई, क्षणभरमें उद्वेगपूर्वक घूमती हुई और क्षणभरमें बैठती हुई दिखायी पड़ती थी और फिर क्षणभरमें ही अत्यन्त उद्विग्न होकर अपनी शय्यापर पुनः सो जाती थी ॥ २-६ ॥

पुष्पचन्दनतल्पं च तद्‌ बभूवातिकण्टकम् ।
विषहारि सुखं दिव्यं सुन्दरं च फलं जलम् ॥ ७ ॥
निलयं च बिलाकारं सूक्ष्मवस्त्रं हुताशनः ।
सिन्दूरपत्रकं चैव व्रणतुल्यं च दुःखदम् ॥ ८ ॥
पुष्प तथा चन्दनसे सुसज्जित शव्या उसे काँटोंजैसी लगने लगी, दिव्य सुख और सुन्दर फल तथा जल उसके लिये विषतुल्य हो गये । उसे अपना भव्य भवन बिलके समान, शरीरके कोमल वस्त्र अग्निके समान और मस्तकका सिन्दूर दुःखदायी व्रणके समान लगने लगा ॥ ७-८ ॥

क्षणं ददर्श तन्द्रायां सुवेषं पुरुषं सती ।
सुन्दरं च युवानं च सस्मितं रसिकेश्वरम् ॥ ९ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं रत्‍नभूषणभूषितम् ।
आगच्छन्तं माल्यवन्तं पिबन्तं तन्मुखाम्बुजम् ॥ १० ॥
कथयन्तं रतिकथां ब्रुवन्तं मधुरं मुहुः ।
सम्भुक्तवन्तं तल्पे च समाश्लिष्यन्तमीप्सितम् ॥ ११ ॥
पुनरेव तु गच्छन्तमागच्छन्तं च सन्निधौ ।
यान्तं क्व यासि प्राणेश तिष्ठत्येवमुवाच सा ॥ १२ ॥
पुनश्च चेतनां प्राप्य विललाप पुनः पुनः ।
एवं सा यौवनं प्राप्य तस्थौ तत्रैव नारद ॥ १३ ॥
थोड़ी देरमें तन्द्राको अवस्थामें उस साध्वी तुलसीने सुन्दर वेष धारण किये हुए, अपने सभी अंगोंमें चन्दन लगाये हुए तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत एक सुन्दर युवा अवस्थावाले, मुसकानयुक्त तथा परम रसिक पुरुषको देखा । मालासे सुशोभित वह युवक उसके मुखकमलका पान करनेके लिये उसकी ओर आ रहा था, वह निरन्तर रतिक्रीड़ासम्बन्धी कथाएँ कह रहा था और मधुर-मधुर बोल रहा था तथा सहसा अपनी भुजाओंमें आलिंगित करके शय्यापर विहार कर रहा था । कुछ ही क्षणोंमें वह चला गया और फिर पास आ गया । इसके बाद पुनः जाते हुए उस युवकसे तुलसीने कहा-'हे प्राणनाथ ! आप कहाँ जा रहे हैं ? बैठ जाइये । ' तत्पश्चात् जाग जानेपर वह तुलसी बार-बार विलाप करने लगी । हे नारद ! इस प्रकार युवावस्थाको प्राप्तकर वह तुलसी वहींपर स्थित रही ॥ ९-१३ ॥

शङ्‌खचूडो महायोगी जैगीषव्यान्मनोहरम् ।
कृष्णमन्त्रं च सम्प्राप्य कृत्वा सिद्धं तु पुष्करे ॥ १४ ॥
कवचं च गले बद्ध्वा सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
ब्रह्मणश्च वरं प्राप्य यत्ते मनसि वाञ्छितम् ॥ १५ ॥
आज्ञया ब्रह्मणः सोऽपि बदरीं च समाययौ ।
शंखचूड़ जैगीषव्यमुनिसे श्रीकृष्णका मनोहर मन्त्र प्राप्त करके और उस मन्त्रको पुष्करक्षेत्रमें सिद्ध करके महान् योगी हो गया था । सभी मंगलोंका भी मंगल करनेवाले उस कवचको गलेमें बाँधकर और ब्रह्माजीसे 'जो तुम्हारे मनमें अभिलषित हो, वह पूर्ण हो जाय'-ऐसा वर प्राप्तकर वह शंखचूड़ भी ब्रह्माकी आज्ञासे बदरीवन आ गया ॥ १४-१५.५ ॥

आगच्छन्तं शङ्‌खचूडं ददर्श तुलसी मुने ॥ १६ ॥
नवयौवनसम्पन्नं कामदेवसमप्रभम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभं रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ १७ ॥
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं शरत्पङ्‌कजलोचनम् ।
रत्‍नसारविनिर्माणविमानस्थं मनोहरम् ॥ १८ ॥
रत्‍नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम् ।
पारिजातप्रसूनानां मालावन्तं च सुस्मितम् ॥ १९ ॥
कस्तूरीकुङ्‌कुमायुक्तं सुगन्धिचन्दनान्वितम् ।
सा दृष्ट्वा सन्निधावेनं मुखमाच्छाद्य वाससा ॥ २० ॥
सस्मिता तं निरीक्षन्ती सकटाक्षं पुनः पुनः ।
बभूवातिनम्रमुखी नवसङ्‌गमलज्जिता ॥ २१ ॥
हे मुने ! तुलसीने आते हुए शंखचूड़को देख लिया । वह नवयौवनसे सम्पन्न था, उसकी कान्ति कामदेवके समान थी, उसका वर्ण श्वेत चम्पाकी आभाके समान था, वह रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित था, उसका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान था, उसके नेत्र शरत्कालीन कमलसदृश थे, वह अमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानपर विराजमान था, वह अत्यन्त मनोहर था, दो रत्नमय कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल शोभायमान था, उसने पारिजात पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी, उसका मुखमण्डल मुसकानसे भरा हुआ था और उसका सर्वाग कस्तूरी, कुमकुमसे युक्त तथा सुगन्धित चन्दनसे अनुलिप्त था-ऐसे शंखचूड़को अपने पास देखकर वस्त्रसे अपना मुख ढंककर मुसकराती हुई तथा कटाक्षके साथ बार-बार उसकी ओर देखती हुई तुलसीने नवमिलनके कारण लज्जावश अपना मुख नीचेकी ओर झुका लिया ॥ १६-२१ ॥

शरदिन्दुविनिन्द्यैकस्वमुखेन्दुविराजिता ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणयावकावलिसंयुता ॥ २२ ॥
मणीन्द्रसारनिर्माणक्वणन्मञ्जीररञ्जिता ।
दधती कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ॥ २३ ॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणमकराकृतिकुण्डला ।
चित्रकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिता ॥ २४ ॥
रत्‍नेन्द्रसारहारेण स्तनमध्यस्थलोज्ज्वला ।
रत्‍नकङ्‌कणकेयूरशङ्‌खभूषणभूषिता ॥ २५ ॥
रत्‍नाङ्‌गुलीयकैर्दिव्यैरङ्‌गुल्यावलिराजिता ।
दृष्ट्वा तां ललितां रम्यां सुशीलां सुन्दरीं सतीम् ॥ २६ ॥
उवास तत्समीपे तु मधुरं तामुवाच सः ।
उसका चन्द्रसदश मुख शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाको भी लज्जित कर रहा था, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित नूपुरोंकी पंक्तिसे वह सुशोभित हो रही थी, सर्वोत्तम मणिसे निर्मित तथा सुन्दर शब्द करती हुई करधनीसे वह सुशोभित हो रही थी, वह मालतीके पुष्पोंकी मालासे सम्पन्न केशपाश धारण किये हुई थी, उसने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए मकराकृत कुण्डल अपने कानोंमें धारण कर रखे थे, चित्रमय दो कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल सुशोभित था, सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित हारके द्वारा उसके वक्षःस्थलका मध्यभाग उज्वल दिखायी दे रहा था, रत्नमय कंकण-केयूर-शंख आदि आभूषणोंसे वह सुशोभित थी । रत्लजटित दिव्य अंगठियाँ उसकी अँगुलियोंको सुशोभित कर रही थीं-ऐसी भव्य, रमणीय, सुशील, सुन्दर तथा साध्वी तुलसीको देखकर वह शंखचूड़ उसके पास बैठ गया और मधुर वाणीमें उससे कहने लगा ॥ २२-२६.५ ॥

शङ्खचूड उवाच
का त्वं कस्य च कन्या च धन्या मान्या च योषिताम् ॥ २७ ॥
का त्वं मानिनि कल्याणि सर्वकल्याणदायिनि ।
मौनीभूते किङ्‌करे मां सम्भाषां कुरु सुन्दरि ॥ २८ ॥
शंखचूड़ बोला-हे मानिनि ! हे कल्याणि ! हे सर्वकल्याणदायिनि ! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो ? तुम समस्त स्त्रियोंमें धन्य तथा मान्य हो । हे सुन्दरि ! स्तब्ध हुए मुझ सेवकसे वार्तालाप करो ॥ २७-२८ ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा सकामा वामलोचना ।
सस्मिता नम्रवदना सकामं तमुवाच सा ॥ २९ ॥
शंखचूड़का यह वचन सुनकर सुन्दर नेत्रोंवाली तथा कामयुक्त तुलसी उस कामपीड़ित शंखचूड़से मुसकराते हुए तथा नीचेकी ओर मुख झुकाकर कहने लगी ॥ २९ ॥

तुलस्युवाच
धर्मध्वजसुताहं च तपस्यायां तपोवने ।
तपस्विन्यहं तिष्ठामि कस्त्वं गच्छ यथासुखम् ॥ ३० ॥
कामिनीं कुलजातां च रहस्येकाकिनीं सतीम् ।
न पृच्छति कुले जात इत्येवं मे श्रुतौ श्रुतम् ॥ ३१ ॥
तुलसी बोली-मैं धर्मध्वजकी पुत्री हूँ और इस तपोवनमें तपस्या करनेके निमित्त एक तपस्विनीके रूपमें रह रही हैं । आप कौन हैं ? आप यहाँसे सुखपूर्वक चले जाइये । श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न पुरुष उच्च कुलमें उत्पन्न किसी अकेली साध्वी कन्याके साथ एकान्तमें बातचीत नहीं करते-ऐसा मैंने श्रुतिमें सुना है । ३०-३१ ॥

लम्पटोऽसत्कुले जातो धर्मशास्त्रार्थवर्जितः ।
येनाश्रुतः श्रुतेरर्थः स कामीच्छति कामिनीम् ॥ ३२ ॥
आपातमधुरां मत्तामन्तकां पुरुषस्य ताम् ।
विषकुम्भाकाररूपाममृतास्यां च सन्ततम् ॥ ३३ ॥
हृदये क्षुरधाराभां शश्वन्मधुरभाषिणीम् ।
स्वकार्यपरिनिष्पत्त्यै तत्परा सततं च ताम् ॥ ३४ ॥
कार्यार्थे स्वामिवशगामन्यथैवावशां सदा ।
स्वान्तर्मलिनरूपां च प्रसन्नवदनेक्षणाम् ॥ ३५ ॥
जो नीच कुलमें उत्पन्न है तथा धर्मशास्त्रके ज्ञानसे वंचित है और जिसे श्रुतिका अर्थ सुननेका कभी अवसर नहीं मिला, वह दुराचारी व्यक्ति ही कामासक्त होकर परस्त्रीको कामना करता है । स्त्री ऊपरसे बड़ी मधुर दिखायी देती है, किंतु सदा अभिमानमें चूर रहती है, पुरुषके लिये विनाशक होती है, वह विषसे परिपूर्ण ऐसे घटके सदृश होती है, जिसके मुखपर अमृत लगा हुआ हो, स्त्रीका हृदय छुरेकी धारके समान तीक्ष्ण होता है, किंतु ऊपरसे वह सदा मधुर बातें करती है, स्त्री अपना ही प्रयोजन सिद्ध करनेमें सदा तत्पर रहती है, अपने कार्यकी सिद्धिके लिये ही वह स्वामीके वशमें रहती है, अन्यथा वह सदा वशमें न रहनेवाली है, स्वीका हृदय अत्यन्त दूषित रहता है और उसके मुखमण्डल तथा नेत्रोंसे सदा प्रसन्नता झलकती रहती है ॥ ३२-३५ ॥

श्रुतौ पुराणे यासां च चरित्रमतिदूषितम् ।
तासु को विश्वसेत्प्राज्ञः प्रज्ञावांश्च दुराशयः ॥ ३६ ॥
श्रुतियों तथा पुराणों में जिन स्त्रियोंका चरित्र अत्यन्त दूषित बताया गया है; बुरे विचारवाले व्यक्तिको छोड़कर ऐसा कौन विद्वान् तथा बुद्धिमान् होगा, जो उनपर विश्वास कर सकता है ॥ ३६ ॥

तासां को वा रिपुर्मित्रं प्रार्थयन्ति नवं नवम् ।
दृष्ट्वा सुवेषं पुरुषमिच्छन्ति हृदये सदा ॥ ३७ ॥
उनका कौन शत्रु है और कौन मित्र ? वे नित्य नये-नये पुरुषकी कामना करती हैं । वे किसी भी सुन्दर वेषयुक्त पुरुषको देखकर उसे मन-ही-मन चाहने लगती हैं ॥ ३७ ॥

बाह्ये स्वार्थं सतीत्वं च ज्ञापयन्ती प्रयत्‍नतः ।
शश्वत्कामा च रामा च कामाधारा मनोहरा ॥ ३८ ॥
वे बाहरसे अपना हित साधनेके लिये अपने सतीत्वका प्रयत्नपूर्वक प्रदर्शन करती हैं, किंतु वास्तवमें सदा कामातुर रहती हैं । मनको आकृष्ट करनेवाली वे स्त्रियाँ कामदेवका आधारस्तम्भ होती हैं ॥ ३८ ॥

बाह्ये छलात्खेदयन्ती स्वान्तर्मैथुनमानसा ।
कान्तं हसन्ती रहसि बाह्येऽतीव सुलज्जिता ॥ ३९ ॥
स्त्री बाहरसे छलपूर्वक [अपनेको वासनावृत्तिसे रहित दिखाती हुई] अपने प्रेमीको सन्तप्त करती है, किंतु मनमें समागमकी अभिलाषा रखती है । वह बाहरसे अत्यन्त लज्जित दीखती है, किंतु एकान्तमें अपने प्रेमीके साथ हास-परिहास करती है ॥ ३९ ॥

मानिनी मैथुनाभावे कोपना कलहाङ्‌कुरा ।
सुप्रीता भूरिसम्भोगात्स्वल्पमैथुनदुःखिता ॥ ४० ॥
रतिका सुयोग न मिलनेपर मानिनी स्त्री कुपित हो जाती है और कलह करने लगती है । यथेच्छ सम्भोगसे स्त्री प्रसन्न रहती है और स्वल्प सम्भोगसे दुःखी हो जाती है ॥ ४० ॥

सुमिष्टान्नाच्छीततोयादाकाङ्‌क्षन्ती च मानसे ।
सुन्दरं रसिकं कान्तं युवानं गुणिनं सदा ॥ ४१ ॥
स्त्री स्वादिष्ट भोजन और शीतल जलकी अपेक्षा सुन्दर, रसिक, गुणी तथा युवक पतिकी ही आकांक्षा अपने मनमें रखती है ॥ ४१ ॥

सुतात्परमभिस्नेहं कुर्वती रसिकोपरि ।
प्राणाधिकं प्रियतमं सम्भोगकुशलं प्रियम् ॥ ४२ ॥
स्त्री अपने पुत्रसे भी अधिक स्नेह रसिक पुरुषपर रखती है । वह सम्भोगमें कुशल प्रेमीको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझती है ॥ ४२ ॥

पश्यन्ती रिपुतुल्यं च वृद्धं वा मैथुनाक्षमम् ।
कलहं कुर्वती शश्वत्तेन सार्धं सुकोपना ॥ ४३ ॥
वाचया भक्षयन्ती तं सर्प आखुमिवोल्बणम् ।
दुःसाहसस्वरूपा च सर्वदोषाश्रया सदा ॥ ४४ ॥
स्त्री वृद्ध तथा सम्भोग करने में अक्षम पुरुषको शत्रुके समान समझती है और वह अत्यन्त कपित होकर उस पुरुषके साथ सदा कलह करती रहती है । जिस प्रकार सर्प चूहेपर झपटता है, उसी प्रकार स्त्री वैसे पुरुषको बात-बातपर खाने दौड़ती है । नारी दुःसाहसकी मूर्ति तथा सर्वदा समस्त दोषोंकी आश्रयस्थली है ॥ ४३-४४ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां दुःसाध्या मोहरूपिणी ।
तपोमार्गार्गला शश्वन्मोक्षद्वारकपाटिका ॥ ४५ ॥
हरेर्भक्तिव्यवहिता सर्वमायाकरण्डिका ।
संसारकारागारे च शश्वन्निगडरूपिणी ॥ ४६ ॥
इन्द्रजालस्वरूपा च मिथ्या च स्वप्नरूपिणी ।
बिभ्रती बाह्यसौन्दर्यमधोऽङ्‌गमतिकुत्सितम् ॥ ४७ ॥
नानाविण्मूत्रपूयानामाधारं मलसंयुतम् ।
दुर्गन्धिदोषसंयुक्तं रक्तारक्तमसंस्कृतम् ॥ ४८ ॥
मायारूपा मायिनां च विधिना निर्मिता पुरा ।
विषरूपा मुमुक्षूणामदृश्याप्यभिवाञ्छताम् ॥ ४९ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंके लिये भी स्त्री दुःसाध्य है । मोहस्वरूपिणी नारी तपस्याके मार्गमें अर्गलादण्डके समान और मोक्षके द्वारपर कपाटके समान बाधक होती है । वह भगवान्की भक्तिमें बाधा डालनेवाली तथा सभी प्रकारकी मायाकी पिटारी है । वह संसाररूपी कारागारमें सदा जकड़े रखनेके लिये जंजीरके समान है । स्त्री इन्द्रजालस्वरूप तथा स्वप्नके समान मिथ्या कही गयी है । स्त्री बाह्य सौन्दर्य तो धारण करती है, किंतु इसके भीतरी अंग अत्यन्त कुत्सित रहते हैं । स्त्रीका शरीर विष्ठा-मूत्रपीब आदिका आधार, मलयुक्त, दुर्गन्धि-दोषसे परिपूर्ण, रक्तरंजित तथा अपवित्र रहता है । पूर्व समयमें ब्रह्माने स्त्रीका सृजन मायावी पुरुषोंके लिये मायास्वरूपिणीके रूपमें, मुमुक्षुजनोंके लिये विषस्वरूपिणीके रूपमें तथा उसकी कामना करनेवालोंके लिये अदृश्यरूपिणीके रूपमें किया था ॥ ४५-४९ ॥

इत्युक्त्वा तुलसी तं तु विरराम च नारद ।
सस्मितः शङ्‌खचूडश्च प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ५० ॥
हे नारद ! उस शंखचूड़से ऐसा कहकर जब तुलसी चुप हो गयी, तब उसने हँसकर कहना आरम्भ किया ॥ ५० ॥

शङ्खचूड उवाच
त्वया यत्कथितं देवि न च सर्वमलीककम् ।
किञ्चित्सत्यमलीकं च किञ्चिन्मत्तो निशामय ॥ ५१ ॥
शंखचूड़ बोला-हे देवि ! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब असत्य नहीं है, किंतु अब मुझसे भी कुछ सत्य तथा कुछ असत्यके विषयमें सुन लीजिये ॥ ५१ ॥

निर्मितं द्विविधं धात्रा स्त्रीरूपं सर्वमोहनम् ।
कृत्वा रूपं वास्तवं च प्रशस्यं चाप्रशंसितम् ॥ ५२ ॥
लक्ष्मीः सरस्वती दुर्गा सावित्री राधिकादिका ।
सृष्टिसूत्रस्वरूपा च आद्या सृष्टिर्विनिर्मिता ॥ ५३ ॥
विधाताने सबको मोहित करनेवाला नारीरूप [वास्तविक और अवास्तविक] दो प्रकारसे रचा है-वास्तविक रूप प्रशंसनीय और दूसरा रूप निन्दनीय है । लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, राधा आदि आद्या शक्तियाँ सृष्टिकी सूत्ररूपा हैं, इन्हींसे सृष्टिका प्रारम्भ हुआ है । ५२-५३ ॥

एतासामंशरूपं च स्त्रीरूपं वास्तवं स्मृतम् ।
तत्प्रशस्यं यशोरूपं सर्वमङ्‌गलकारकम् ॥ ५४ ॥
शतरूपा देवहूती स्वधा स्वाहा च दक्षिणा ।
छायावती रोहिणी च वरुणानी शची तथा ॥ ५५ ॥
कुबेरस्य च पत्‍नी याप्यदितिश्च दितिस्तथा ।
लोपामुद्रानसूया च कोटभी तुलसी तथा ॥ ५६ ॥
अहल्यारुन्धती मेना तारा मन्दोदरी तथा ।
दमयन्ती वेदवती गङ्‌गा च मनसा तथा ॥ ५७ ॥
पुष्टिस्तुष्टिः स्मृतिर्मेधा कालिका च वसुन्धरा ।
षष्ठी मङ्‌गलचण्डी च मूर्तिश्च धर्मकामिनी ॥ ५८ ॥
स्वस्तिः श्रद्धा च शान्तिश्च कान्तिः क्षान्तिस्तथा परा ।
निद्रा तन्द्रा क्षुत्पिपासा सन्ध्या रात्रिदिनानि च ॥ ५९ ॥
सम्पत्तिर्धृतिकीर्ती च क्रिया शोभा प्रभा शिवा ।
यत्स्त्रीरूपं च सम्भूतमुत्तमं तु युगे युगे ॥ ६० ॥
इन देवियोंके अंशसे प्रकट स्त्रीरूप वास्तविक कहा गया है; वह श्रेष्ठ, यशोरूप तथा समस्त मंगलोंका कारण है । शतरूपा, देवहूति, स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, छायावती, रोहिणी, वरुणानी, शची, कुबेरकी पत्नी, अदिति, दिति, लोपामुद्रा, अनसूया, कोटभी, तुलसी, अहल्या, अरुन्धती, मेना, तारा, मन्दोदरी, दमयन्ती, वेदवती, गंगा, मनसा, पुष्टि, तुष्टि, स्मृति, मेधा, कालिका, वसुन्धरा, षष्ठी, मंगलचण्डी, धर्मपत्नी मूर्ति, स्वस्ति, श्रद्धा, शान्ति, कान्ति, क्षान्ति, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, सन्ध्या, दिवा, रात्रि, सम्पत्ति, धृति, कीर्ति, क्रिया, शोभा, प्रभा और शिवा-ये देवियाँ जो स्त्रीरूपमें प्रकट हैं, वे प्रत्येक युगमें श्रेष्ठ मानी गयी हैं । ५४-६० ॥

कलाकलांशरूपं च स्वर्वेश्यादिकमेव च ।
तदप्रशस्यं विश्वेषु पुंश्चलीरूपमेव च ॥ ६१ ॥
जगदम्बाकी कलाके कलांशसे उत्पन्न जो स्वर्गकी दिव्य अप्सराएँ हैं, उन्हें अप्रशस्त तथा सम्पूर्ण लोकोंमें पुंश्चलीरूप कहा गया है । ६१ ॥

सत्त्वप्रधानं यद्‌रूपं तद्युक्तं च प्रभावतः ।
तदुत्तमं च विश्वेषु साध्वीरूपं प्रशंसितम् ॥ ६२ ॥
तद्वास्तवं च विज्ञेयं प्रवदन्ति मनीषिणः ।
रजोरूपं तमोरूपं कलासु विविधं स्मृतम् ॥ ६३ ॥
स्त्रियोंका जो सत्त्व-प्रधान रूप है, वही सर्वथा समीचीन है । अपने प्रभावके कारण वे ही उत्तम तथा साध्वीस्वरूप स्त्रियाँ सम्पूर्ण लोकोंमें प्रशंसित हैं । उन्हींको 'वास्तवरूपा' कहना चाहिये, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं । रजोरूप और तमोरूपकी कलाओंके भेदसे अनेक प्रकारकी स्त्रियाँ प्रसिद्ध हैं ॥ ६२-६३ ॥

मध्यमा रजसश्चांशास्तास्तु भोगेषु लोलुपाः ।
सुखसम्भोगवश्याश्च स्वकार्ये निरताः सदा ॥ ६४ ॥
कपटा मोहकारिण्यो धर्मार्थविमुखाः सदा ।
रजोरूपस्य साध्वीत्वमतो नैवोपजायते ॥ ६५ ॥
इदं मध्यमरूपं च प्रवदन्ति मनीषिणः ।
रजोगुणका अंश जिनमें प्रधान है, वे मध्यम श्रेणीकी हैं और वे भोगोंमें आसक्त रहती हैं । सुखभोगके वशीभूत होकर वे सदा अपने ही कार्यमें संलग्न रहती हैं । वे कपटयुक्त, मोहकारिणी तथा धर्मके अर्थसे पराङ्मुख रहती हैं; अत: रजोगुणप्रधान स्त्रीमें साध्वोभाव कभी नहीं उत्पन्न हो सकता है, विद्वान् लोग इसे स्त्रियोंका मध्यमरूप कहते हैं ॥ ६४-६५.५ ॥

तमोरूपं दुर्निवार्यमधमं तद्विदुर्बुधाः ॥ ६६ ॥
न पृच्छति कुले जातः पण्डितश्च परस्त्रियम् ।
निर्जने निर्जले वापि रहस्यपि परस्त्रियम् ॥ ६७ ॥
आगच्छामि त्वत्समीपमाज्ञया ब्रह्मणोऽधुना ।
गान्धर्वेण विवाहेन त्वां ग्रहीष्यामि शोभने ॥ ६८ ॥
तमोरूप दुर्निवार्य है, बुद्धिमान् पुरुषोंने इस रूपको 'अधम' कहा है । [हे देवि ! तुमने जो कहा है कि] उत्तम कुलमें उत्तम विद्वान् पुरुष निर्जन, जलविहीन तथा एकान्त स्थानमें किसी परस्त्रीसे कुछ भी नहीं पूछता है-यह तो उचित ही है, किंतु हे शोभने ! मैं तो इस समय ब्रह्माकी आज्ञासे ही तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्वविवाहकी विधिके अनुसार तुम्हें पलीरूपमें ग्रहण करूँगा ॥ ६६-६८ ॥

अहमेव शङ्‌खचूडो देवविद्रावकारकः ।
दनुवंश्यो विशेषेण सुदामाहं हरेः पुरा ॥ ६९ ॥
अहमष्टसु गोपेषु गोपोऽपि पार्षदेषु च ।
अधुना दानवेन्द्रोऽहं राधिकायाश्च शापतः ॥ ७० ॥
देवताओंको सन्त्रस्त करनेवाला शंखचूड़ मैं ही हूँ । मैं दनुवंशमें उत्पन्न हुआ हूँ । विशेष बात यह है कि पूर्व-जन्ममें मैं श्रीहरिके साथ उनके पार्षदरूपमें रहनेवाले आठ गोपोंमें सुदामा नामक एक गोप था । देवी राधिकाके शापसे इस समय मैं दानवेन्द्र बन गया हूँ ॥ ६९-७० ॥

जातिस्मरोऽहं जानामि कृष्णमन्त्रप्रभावतः ।
जातिस्मरा त्वं तुलसी सम्भुक्ता हरिणा पुरा ॥ ७१ ॥
त्वमेव राधिकाकोपाज्जातासि भारते भुवि ।
त्वां सम्भोक्तुमुत्सुकोऽहं नालं राधाभयात्ततः ॥ ७२ ॥
कृष्णके मन्त्रके प्रभावके कारण मैं पूर्वजन्मकी सभी बातें जानता हूँ । तुम्हें भी अपने पूर्वजन्मकी बातों का स्मरण होगा कि तुम उस समय तुलसी थी और श्रीहरिने तुम्हारे साथ विहार किया था और वही तुम राधिकाके कोपके कारण भारत-भूमिपर उत्पन्न हुई हो । उस समय मैं तुम्हारे साथ रमण करनेके लिये बहुत लालायित था, किंतु राधिकाके भयके कारण ऐसा नहीं हुआ ॥ ७१-७२ ॥

इत्येवमुक्त्वा स पुमान्विरराम महामुने ।
सस्मितं तुलसी तुष्टा प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ७३ ॥
हे महामुने ! इस प्रकार कहकर जब वह शंखचूड़ चुप हो गया, तब प्रसन्नतासे युक्त तुलसीने हँसते हुए कहना आरम्भ किया ॥ ७३ ॥

तुलस्युवाच
एवंविधो बुधो नित्यं विश्वेषु च प्रशंसितः ।
कान्तमेवंविधं कान्ता शश्वदिच्छति कामतः ॥ ७४ ॥
तुलसी बोली-इस प्रकारके [सद्विचारसम्पन्न] विज्ञ पुरुष ही विश्वमें सदा प्रशंसित होते हैं । कोई स्त्री कामसे प्रेरित होकर ऐसे ही पतिकी सदा अभिलाषा रखती है । ७४ ॥

त्वयाहमधुना सत्यं विचारेण पराजिता ।
स निन्दितश्चाप्यशुचिर्यः पुमांश्च स्त्रिया जितः ॥ ७५ ॥
आप-जैसे उत्तम विचारवाले पुरुषसे मैं निश्चित ही इस समय पराजित हो गयी है । निन्दनीय तथा अपवित्र पुरुष तो वह होता है, जो स्त्रीके द्वारा जीत लिया गया हो । ७५ ॥

निन्दन्ति पितरो देवा बान्धवाः स्त्रीजितं नरम् ।
स्त्रीजितं मनसा माता पिता भ्राता च निन्दति ॥ ७६ ॥
पितृगण, देवता तथा बान्धव-ये सब लोग स्त्रीके द्वारा पराभूत व्यक्तिको निन्दा करते हैं तथा माता-पिता एवं भ्राता भी स्त्रीजित मनुष्यकी मन-हीमन निन्दा करते रहते हैं ॥ ७६ ॥

शुद्धो विप्रो दशाहेन जातके मृतके यथा ।
भूमिपो द्वादशाहेन वैश्यः पञ्चदशाहतः ॥ ७७ ॥
शूद्रो मासेन वेदेषु मातृवद्धीनसङ्‌करः ।
अशुचिः स्त्रीजितः शुद्ध्येच्चितादहनकालतः ॥ ७८ ॥
शास्त्रोंमें विहित है कि जन्म और मृत्युजनित अशौचसे ब्राह्मण दस दिनोंमें, क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पन्द्रह दिनोंमें, शूद्र एक मासमें तथा वर्णसंकर अपनी मातृकुलपरम्पराके आचारके अनुसार शुद्ध हो जाते हैं, किंतु स्त्रीसे पराजित व्यक्ति सर्वदा अपवित्र रहता है और चितादहनके कालमें ही वह शुद्ध होता है ॥ ७७-७८ ॥

न गह्णन्तीच्छया तस्य पितरः पिण्डतर्पणम् ।
न गह्णन्त्येव देवाश्च तस्य पुष्पजलादिकम् ॥ ७९ ॥
स्वीजित मनुष्यके पितर उसके द्वारा प्रदत्त पिण्ड तथा तर्पणको इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते और देवता भी उसके द्वारा अर्पित पुष्प, जल आदिको स्वीकार नहीं करते हैं ॥ ७९ ॥

किं वा ज्ञानेन तपसा जपहोमप्रपूजनैः ।
किं विद्यया च यशसा स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ ८० ॥
जिसके मनको स्त्रियोंने हर लिया हो; उसके ज्ञान, तप, जप, होम, पूजन, विद्या अथवा यशसे क्या प्रयोजन ! ॥ ८० ॥

विद्याप्रभावज्ञानार्थं मया त्वं च परीक्षितः ।
कृत्वा परीक्षां कान्तस्य वृणोति कामिनी वरम् ॥ ८१ ॥
आपकी विद्याका प्रभाव जाननेके लिये ही मैंने आपकी परीक्षा की है । क्योंकि कोई स्त्री किसी पुरुषकी सम्यक् परीक्षा करके ही पतिरूपमें उसका वरण करती है ॥ ८१ ॥

वराय गुणहीनाय वृद्धायाज्ञानिने तथा ।
दरिद्राय च मूर्खाय रोगिणे कुत्सिताय च ॥ ८२ ॥
अत्यन्तकोपयुक्ताय वात्यन्तदुर्मुखाय च ।
पङ्‌गवे चाङ्‌गहीनाय चान्धाय बधिराय च ॥ ८३ ॥
जडाय चैव मूकाय क्लीबतुल्याय पापिने ।
ब्रह्महत्यां लभेत्सोऽपि स्वकन्यां प्रददाति यः ॥ ८४ ॥
जो मनुष्य गुणहीन, वृद्ध, अज्ञानी, दरिद्र, मूर्ख, रोगी, नीच, परम क्रोधी, अत्यन्त कटुवचन बोलनेवाले, पंगु, अंगहीन, अन्धे, बहरे, जड़, गूंगे, नपुंसकतुल्य तथा पापी वरको अपनी कन्या देता है, वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है । ८२-८४ ॥

शान्ताय गुणिने चैव यूने च विदुषेऽपि च ।
साधवे च सुतां दत्त्वा दशयज्ञफलं लभेत् ॥ ८५ ॥
शान्त, गुणी, युवक, विद्वान् तथा सदाचारी वरको अपनी पुत्री अर्पण करनेसे मनुष्यको दस योंका फल प्राप्त होता है ॥ ८५ ॥

यः कन्यापालनं कृत्वा करोति यदि विक्रयम् ।
विक्रेता धनलोभेन कुम्भीपाकं स गच्छति ॥ ८६ ॥
कन्यामूत्रं पुरीषं च तत्र भक्षति पातकी ।
कृमिभिर्दंशितः काकैर्यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ८७ ॥
तदन्ते व्याधिसंयुक्तः स लभेज्जन्म निश्चितम् ।
विक्रीणाति मांसभारं वहत्येव दिवानिशम् ॥ ८८ ॥
इत्येवमुक्त्वा तुलसी विरराम तपोनिधे ।
कोई कन्याका पालन-पोषण करके यदि उसे बेच देता है, तब धनके लोभसे कन्याका विक्रय करनेवाले उस मनुष्यको 'कुम्भीपाक' नरकमें जाना पड़ता है । वहाँपर वह पापी भोजनके रूपमें कन्याके मल-मूत्रका ही भक्षण करता है और चौदहों इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त कीड़े तथा कौवे उसे नोचते रहते हैं । तदनन्तर वह फिरसे जन्म प्राप्त करता है और अनेक रोगोंसे ग्रस्त रहता है । वह दिन-रात मांस ढोता है और मांस-विक्रय करता रहता है, यह निश्चित है । हे तपोनिधे ! इस प्रकार कहकर देवी तुलसी चुप हो गयी । ८६-८८.५ ॥

ब्रह्मोवाच
किं करोषि शङ्‌खचूड संवादमनया सह ॥ ८९ ॥
गान्धर्वेण विवाहेन त्वं चास्या ग्रहणं कुरु ।
पुरुषेष्वसि रत्‍नं त्वं स्त्रीषु रत्‍नं त्वियं सती ॥ ९० ॥
विदग्धाया विदग्धेन सङ्‌गमो गुणवान्भवेत् ।
निर्विरोधसुखं राजन् को वा त्यजति दुर्लभम् ॥ ९१ ॥
योऽविरोधसुखत्यागी स पशुर्नात्र संशयः ।
ब्रह्मा बोले-हे शंखचूड़ ! तुम इसके साथ क्या बातचीत कर रहे हो ? गान्धर्व-विवाहकी विधिके अनुसार अब तुम इसे स्वीकार कर लो; क्योंकि तुम पुरुषोंमें रल हो और यह साध्वी तुलसी भी स्त्रियोंमें रत्न है । एक प्रवीण स्त्रीका एक प्रवीण पुरुषके साथ संयोग बड़ा कल्याणकारी होता है । हे राजन् ! निर्बाध तथा दुर्लभ सुखको पाकर भला कौन उसका त्याग करता है । जो मनुष्य विरोधरहित सुखका त्याग कर देता है, वह पशु है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८९-९१.५ ॥

किं परीक्षसि त्वं कान्तमीदृशं गुणिनं सति ॥ ९२ ॥
देवानामसुराणां च दानवानां विमर्दकम् ।
यथा लक्ष्मीश्च लक्ष्मीशे यथा कृष्णे च राधिका ॥ ९३ ॥
यथा मयि च सावित्री भवानी च भवे यथा ।
यथा धरा वराहे च दक्षिणा च यथाध्वरे ॥ ९४ ॥
द्यथात्रेरनसूया च दमयन्ती यथा नले ।
रोहिणी च यथा चन्द्रे यथा कामे रतिः सती ॥ ९५ ॥
यथादितिः कश्यपे च वसिष्ठेऽरुन्धती सखी ।
यथाहल्या गौतमे च देवहूतिश्च कर्दमे ॥ ९६ ॥
यथा बृहस्पतौ तारा शतरूपा मनौ यथा ।
यथा च दक्षिणा यज्ञे यथा स्वाहा हुताशने ॥ ९७ ॥
यथा शची महेन्द्रे च यथा पुष्टिर्गणेश्वरे ।
देवसेना यथा स्कन्दे धर्मे भूर्तिर्यथा सती ॥ ९८ ॥
सौभाग्या सुप्रिया त्वं च शङ्‌खचूडे तथा भव ।
अनेन सार्धं सुचिरं सुन्दरेण च सुन्दरि ॥ ९९ ॥
स्थाने स्थाने विहारं च यथेच्छं कुरु सन्ततम् ।
पश्चात्प्राप्यसि गोलोके श्रीकृष्णं पुनरेव च ।
चतुर्भुजं च वैकुण्ठे शङ्‌खचूडे मृते सति ॥ १०० ॥
[इसके बाद ब्रह्माजीने तुलसीसे कहा-] हे सति ! तुम ऐसे गुणी और समस्त देवताओं, असुरों तथा दानवोंका दमन करनेवाले पतिकी क्या परीक्षा ले रही हो ? जिस प्रकार विष्णुके पास लक्ष्मी, श्रीकृष्णके पास राधिका, मुझ ब्रह्माके पास सावित्री, भगवान् शिवके पास भवानी, भगवान् वराहके पास धरा, यज्ञके पास दक्षिणा, अत्रिके पास अनसूया, नलके पास दमयन्ती, चन्द्रमाके पास रोहिणी, कामदेवके पास साध्वी रति, कश्यपके पास अदिति, वसिष्ठके पास अरुन्धती, गौतमके पास अहल्या, कर्दमके पास देवहूति, बृहस्पतिके पास तारा, मनुके पास शतरूपा, यज्ञके पास दक्षिणा, अग्निके पास स्वाहा, इन्द्रके पास शची, गणेशके पास पुष्टि, स्कन्द (कार्तिकेय)-के पास देवसेना और धर्मके पास साध्वी मूर्ति पत्नीरूपसे प्रतिष्ठित हैं; उसी प्रकार तुम भी शंखचूड़की सौभाग्यवती प्रिया बन जाओ और हे सुन्दरि ! अपने इस सुन्दर प्रियतमके साथ विभिन्न स्थानोंपर अपनी इच्छाके अनुसार निरन्तर विहार करो । अन्तमें तुम गोलोकमें पुनः भगवान् श्रीकृष्णको तथा वैकुण्ठमें चतुर्भुज श्रीविष्णुको प्राप्त करोगी ॥ ९२-१०० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे शङ्‌खचूडेन सह
तुलस्याः सङ्‌गतिवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां नवमस्कन्धे शंखचूडेन सह तुलस्याः सङ्‌गतिवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥


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