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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
एकोनविंशोऽध्यायः

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शङ्‌खचूडेन सह तुलसीसङ्‌गमवर्णनम् -
तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना -


नारद उवाच
विचित्रमिदमाख्यानं भवता समुदाहृतम् ।
श्रुतेन येन मे तृप्तिर्न कदापि हि जायते ॥ १ ॥
नारदजी बोले-[हे भगवन् !] आपने यह अत्यन्त अद्‌भुत आख्यान सुनाया, जिसे सुनकर किसी भी प्रकारसे मुझे तृप्ति नहीं हो रही है । हे महामते ! उसके बाद जो कुछ घटित हुआ, उसे आप मुझे बताइये ॥ १ ॥

ततः परं तु यज्जातं तत्त्वं वद महामते ।
श्रीनारायण उवाच
इत्येवमाशिषं दत्त्वा स्वालयं च ययौ विधिः ॥ २ ॥
गान्धर्वेण विवाहेन जगृहे तां च दानवः ।
स्वर्गे दुन्दुभिवाद्यं च पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-इस प्रकार [शंखचूड तथा तुलसीको] आशीर्वाद देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गये । तब दानव शंखचूड़ने गान्धर्व-विवाहके अनुसार उस तुलसीको पत्नीरूपमें ग्रहण कर लिया । उस अवसरपर स्वर्गमें दुंदुभियाँ बजने लगीं और पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ २-३ ॥

स रेमे रामया सार्धं वासगेहे मनोरमे ।
मूर्च्छां सा प्राप तुलसी नवसङ्‌गमसङ्‌गता ॥ ४ ॥
निमग्ना निर्जले साध्वी सम्भोगसुखसागरे ।
अब वह शंखचूड़ अपने सुन्दर भवनमें तुलसीके साथ विलास करने लगा । आनन्दका अनुभवकर वह तुलसी मूच्छित-सी हो गयी । वह साध्वी उस समय सुखरूपी निर्जल सागरमें निमग्न हो गयी थी ॥ ४.५ ॥

चतुःषष्टिकलामानं चतुःषष्टिविधं सुखम् ॥ ५ ॥
कामशास्त्रे यन्निरुक्तं रसिकानां यथेप्सितम् ।
अङ्‌गप्रत्यङ्‌गसंश्लेषपूर्वकं स्त्रीमनोहरम् ॥ ६ ॥
कामशास्त्रमें जो चौंसठ प्रकारकी कलाएँ तथा चौसठ प्रकारके सुख बताये गये हैं, वे रसिकजनोंके लिये अत्यन्त प्रिय हैं । अंग-प्रत्यंगके स्पर्श करनेसे स्त्रियोंको सुखप्रद लगनेवाले जो भी रस-शृंगार होते हैं, उन सबको रसिकेश्वर शंखचूड़ने प्रस्तुत किया ॥ ५-६ ॥

तत्सर्वं रसशृङ्‌गारं चकार रसिकेश्वरः ।
अतीव रम्यदेशे च सर्वजन्तुविवर्जिते ॥ ७ ॥
पुष्पचन्दनतल्पे च पुष्पचन्दनवायुना ।
पुष्पोद्याने नदीतीरे पुष्पचन्दनचर्चिते ॥ ८ ॥
गहीत्वा रसिको रासे पुष्पचन्दनचर्चिताम् ।
भूषितो भूषणेनैव रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ९ ॥
अनेक प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित वह रसिक शंखचूड़ पुष्प-चन्दनसे चर्चित तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत उस तुलसीको साथमें लेकर अत्यन्त रमणीक तथा पूर्णरूपसे निर्जन स्थानमें पुष्प-चन्दनसे सुरभित वायुयुक्त पुष्पोद्यान और पुष्प-चन्दनसे सुशोभित नदीके तटपर पुष्प-चन्दनसे चर्चित शय्यापर रासक्रीडामें निरत रहता था । ७-९ ॥

सुरते विरतिर्नास्ति तयोः सुरतिविज्ञयोः ।
जहार मानसं भर्तुर्लोलया लीलया सती ॥ १० ॥
चेतनां रसिकायाश्च जहार रसभाववित् ।
वक्षसश्चन्दनं राज्ञस्तिलकं विजहार सा ॥ ११ ॥
स च जहार तस्याश्च सिन्दूरं बिन्दुपत्रकम् ।
तद्वक्षस्युरोजे च नखरेखां ददौ मुदा ॥ १२ ॥
सा ददौ तद्वामपार्श्वे करभूषणलक्षणम् ।
राजा तदोष्ठपुटके ददौ रदनदंशनम् ॥ १३ ॥
तद्‌गण्डयुगले सा च प्रददौ तच्चतुर्गुणम् ।
आलिङ्‌गनं चुम्बनं च जङ्‌घादिमर्दनं तथा ॥ १४ ॥
एवं परस्परं क्रीडां चक्रतुस्तौ विजानतौ ।
कामक्रीड़ाके ज्ञाता वे दोनों कभी भी विलाससे विरत नहीं होते थे । उस साध्वी तुलसीने अपनी चंचल लीलासे अपने पतिका मन हर लिया था । इसी प्रकार रस-भावोंके ज्ञाता शंखचूड़ने भी रसिका तुलसीका मन अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था । उस तुलसीने राजाके वक्षःस्थलका चन्दन तथा मस्तकका तिलक मिटा दिया, उसी प्रकार उस शंखचूड़ने भी तुलसीके सिन्दूर-बिन्दुको मिटा दिया । कामक्रीड़ामें शंखचूड़ने प्रसन्नतापूर्वक उस तुलसीके वक्षःस्थल आदिपर और उसी प्रकार तुलसीने उसके वाम पार्श्वमें अपने हाथके आभूषणका चिह्न बना दिया । इस प्रकार परस्पर आलिंगन आदि करते हुए कामकलाका सम्यक् ज्ञान रखनेवाले वे दोनों क्रीड़ा करने लगे ॥ १०-१४.५ ॥

सुरते विरते तौ च समुत्थाय परस्परम् ॥ १५ ॥
सुवेषं चक्रतुस्तत्र यद्यन्मनसि वाञ्छितम् ।
चन्दनैः कुङ्‌कुमारक्तैः सा तस्य तिलकं ददौ ॥ १६ ॥
सर्वाङ्‌गे सुन्दरे रम्ये चकार चानुलेपनम् ।
सुवासं चैव ताम्बूलं वह्निशुद्धे च वाससी ॥ १७ ॥
पारिजातस्य कुसुमं जरारोगहरं परम् ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणमङ्‌गुलीयकमुत्तमम् ॥ १८ ॥
सुन्दरं च मणिवरं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
दासी तवाहमित्येवं समुच्चार्य पुनः पुनः ॥ १९ ॥
ननाम परया भक्त्या स्वामिनं गुणशालिनम् ।
सस्मिता तन्मुखाम्भोजं लोचनाभ्यां पुनः पुनः ॥ २० ॥
निमेषरहिताभ्यां चाप्यपश्यत्कामसुन्दरम् ।
रतिक्रीड़ासे विरत होकर वे दोनों मनमें जो-जो इच्छा रहती थी, उसके अनुसार एक-दूसरेका श्रृंगार करते थे । वह तुलसी शंखचूड़के मस्तकपर कुमकुम-मिश्रित चंदन लगाती थी और उसके सभी मनोहर अंगोंमें चन्दनका लेप करती थी । वह शंखचूड़को सुवासित ताम्बूल खिलाती थी, अग्निके समान शुद्ध दो वस्त्र पहनाती थी, वृद्धावस्थारूपी रोग दूर करनेवाला पारिजात पुष्प प्रदान करती थी, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित उत्तम अँगूठी पहनाती थी और तीनों लोकोंमें दुर्लभ उत्तम मणियोंके आभूषणोंसे अलंकृत करती थी-इस प्रकार शंखचूड़का शृंगार करनेके पश्चात् 'मैं आपकी दासी हूँ'-ऐसा बारबार कहकर वह तुलसी महान् भक्तिके साथ अपने गणवान् पतिको प्रणाम करती थी । वह अपलक नेत्रोंसे कामदेवके समान अपने पतिके मुखारविन्दको मुसकराती हुई बार-बार देखती रहती थी ॥ १५-२०.५ ॥

स च तां च समाकृष्य चकार वक्षसि प्रियाम् ॥ २१ ॥
सस्मितं वाससाच्छन्नं ददर्श मुखपङ्‌कजम् ।
चुचुम्ब कठिने गण्डे बिम्बोष्ठौ पुनरेव च ॥ २२ ॥
इसी प्रकार शंखचूड़ भी प्रिया तुलसीको आकृष्ट करके वक्षसे लगा लेता था और वस्त्रसे ढंके हुए उसके मुसकानयुक्त मुखकमलको निहारने लगता था । वह तुलसीके कठोर कपोलों तथा बिम्बाफलके समान लाल ओठोंका स्पर्श करने लगता था ॥ २१-२२ ॥

ददौ तस्यै वस्त्रयुग्मं वरुणादाहृतं च यत् ।
तदाहृतां रत्‍नमालां त्रिषु लोकेषु दुर्लभाम् ॥ २३ ॥
ददौ मञ्जीरयुग्मं च स्वाहाया आहृतं च यत् ।
केयूरयुग्मं छायाया रोहिण्याश्चैव कुण्डलम् ॥ २४ ॥
अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि रत्याश्च करभूषणम् ।
शङ्‌खं च रुचिरं चित्रं यद्दत्तं विश्वकर्मणा ॥ २५ ॥
तदनन्तर उसने वरुणके यहाँसे प्राप्त वस्त्रोंका जोडा और तीनों लोकोंमें दुर्लभ रत्नमयी माला उस तुलसीको प्रदान की । इसी प्रकार उसने स्वाहादेवीसे प्राप्त दो मंजीर (पायजेब), छायासे प्राप्त एक जोड़ी बाजूबन्द और रोहिणीसे प्राप्त कृण्डल, रतिसे प्राप्त हाथके आभूषणके रूपमें रत्नमय अँगूठी और विश्वकमकि द्वारा प्रदत्त अद्‌भुत तथा मनोहर शंख तुलसीको प्रदान किये ॥ २३-२५ ॥

विचित्रपद्मकश्रेणीं शय्यां चापि सुदुर्लभाम् ।
भूषणानि च दत्त्वा स भूपो हासं चकार ह ॥ २६ ॥
निर्ममे कबरीभारे तस्या माङ्‌गल्यभूषणम् ।
सुचित्रं पत्रकं गण्डमण्डलेऽस्याः समं तथा ॥ २७ ॥
चन्द्रलेखात्रिभिर्युक्तं चन्दनेन सुगन्धिना ।
परीतं परितश्चित्रैः सार्धं कुङ्‌कुमबिन्दुभिः ॥ २८ ॥
ज्वलत्प्रदीपाकारं च सिन्दूरतिलकं ददौ ।
तत्पादपद्मयुगले स्थलपद्मविनिन्दिते ॥ २९ ॥
चित्रालक्तकरागं च नखरेषु ददौ मुदा ।
स्ववक्षसि मुहुर्न्यस्य सरागं चरणाम्बुजम् ॥ ३० ॥
हे देवि तव दासोऽहमित्युच्चार्य पुनः पुनः ।
रत्‍नभूषितहस्तेन तां च कृत्वा स्ववक्षसि ॥ ३१ ॥
तदनन्तर विचित्र कमल-पुष्पोंसे सुसज्जित हुई अत्यन्त दुर्लभ शय्या तथा अन्य भूषण प्रदान करके राजा शंखचूड़ हँसने लगा । उसने उसकी चोटीमें मांगलिक आभूषण लगाया और उसके गण्डस्थलपर सुगन्धित चन्दनसे तीन चन्द्रलेखाओंसे युक्त तथा चारों ओर कुमकुमबिन्दुओंसे सुशोभित सुन्दर चित्र बनाया । शंखचूड़ने उसके ललाटपर जलती हुई दीपशिखाके आकारके समान सिन्दूर-तिलक लगाया और स्थलकमलिनीको भी लज्जित कर देनेवाले उसके दोनों कमलसदृश चरणों में तथा नाखुनोंपर प्रसन्नतापूर्वक सुन्दर महावर लगाया । तत्पश्चात् तुलसीके महावरयुक्त चरणकमलको अपने वक्षःस्थलपर बार-बार रखकर 'हे देवि ! मैं तुम्हारा दास हूँ'-ऐसा बार-बार उच्चारण करते हुए उस शंखचडने रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत अपने हाथसे उसे अपने वक्षःस्थलसे लगा लिया ॥ २६-३१ ॥

तपोवनं परित्यज्य राजा स्थानान्तरं ययौ ।
मलये देवनिलये शैले शैले तपोवने ॥ ३२ ॥
स्थाने स्थानेऽतिरम्ये च पुष्पोद्याने च निर्जने ।
कन्दरे कन्दरे सिन्धुतीरे चैवातिसुन्दरे ॥ ३३ ॥
पुष्पभद्रानदीतीरे नीरवातमनोहरे ।
पुलिने पुलिने दिव्ये नद्यां नद्यां नदे नदे ॥ ३४ ॥
मधौ मधुकराणां च मधुरध्वनिनादिते ।
विस्पन्दने सुरसने नन्दने गन्धमादने ॥ ३५ ॥
देवोद्याने नन्दने च चित्रचन्दनकानने ।
चम्पकानां केतकीनां माधवीनां च माधवे ॥ ३६ ॥
कुन्दानां मालतीनां च कुमुदाम्भोजकानने ।
कल्पवृक्षे कल्पवृक्षे पारिजातवने वने ॥ ३७ ॥
निर्जने काञ्चने स्थाने धन्ये काञ्चनपर्वते ।
काञ्चीवने किञ्जलके कञ्चुके काञ्चनाकरे ॥ ३८ ॥
पुष्पचन्दनतल्पेषु पुंस्कोकिलरुतश्रुते ।
पुष्पचन्दनसंयुक्तः पुष्पचन्दनवायुना ॥ ३९ ॥
कामुक्या कामुकः कामात्स रेमे रामया सह ।
न हि तृप्तो दानवेन्द्रस्तृप्तिं नैव जगाम सा ॥ ४० ॥
हविषा कृष्णवर्त्मेव ववृधे मदनस्तयोः ।
तदनन्तर राजा शंखचूड़ वह तपोवन छोड़कर अन्य स्थानपर चला गया । पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित शरीरवाला वह सकाम शंखचूड़ मलयपर्वतपर, देवस्थानोंमें, विभिन्न पर्वतोपर, तपोवनोंमें, अत्यन्त रमणीक स्थानोंमें, निर्जन पुष्पोद्यानमें, समुद्रकी तटवर्ती अत्यन्त सुन्दर कन्दराओंमें, जल तथा वायुसे युक्त पुष्यभद्रा नदीके मनोहर तटपर, नदियों तथा सरोवरोंके दिव्य तटॉपर, वसन्त ऋतुमें भ्रमरोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित वनोंमें, अत्यन्त अनुपम तथा आनन्दकर गन्धमादनपर्वतपर, नन्दन नामक देवोद्यानमें, अद्‌भुत चन्दनवनमें, चम्पा-केतकी तथा माधवीके निकुंजमें, कुन्द-मालती-कुमुद तथा कमलोंके वनमें, कल्पवृक्ष तथा पारिजातके वनमें, निर्जन कांचन स्थानमें, पवित्र कांचन-पर्वतपर, कांचीवनमें, किंजलक, कंचुक और कांचनाकर आदि स्थानोंमें-वनमें, जहाँ कोयलकी मधुर ध्वनि सुनायी देती और पुष्प-चन्दनकी सुगन्धसे सुरभित वायु बहती रहती थी, पुष्प-चन्दनसे सुसज्जित शय्यापर कामनायुक्त रमणी तुलसीके साथ इच्छानुसार विहार किया करता था । किंतु न तो दानवेन्द्र शंखचूड़ तृप्त हुआ और न वह तुलसी ही तृप्त हुई; अपितु आहुतिसे बढ़नेवाली अग्निकी भाँति उन दोनोंकी वासना निरन्तर बढ़ती ही गयी ॥ ३२-४०.५ ॥

तया सह समागत्य स्वाश्रमं दानवस्ततः ॥ ४१ ॥
रम्यं क्रीडालयं गत्वा विजहार पुनः पुनः ।
एवं स बुभुजे राज्यं शङ्‌खचूडः प्रतापवान् ॥ ४२ ॥
एकमन्वन्तरं पूर्णं राजराजेश्वरो महान् ।
तदनन्तर वह दानव शंखचूड़ उस तुलसीके साथ अपने आश्रम आकरके वहाँ अपने रमणीक क्रीड़ाभवनमें जाकर बार-बार विहार करने लगा । इस प्रकार महान् प्रतापी राजराजेश्वर शंखचूड़ने पूरे एक मन्वन्तरतक राज्यका उपभोग किया ॥ ४१-४२.५ ॥

देवानामसुराणां च दानवानां च सन्ततम् ॥ ४३ ॥
गन्धर्वाणां किन्नराणां राक्षसानां च शान्तिदः ।
हृताधिकारा देवाश्च चरन्ति भिक्षुका यथा ॥ ४४ ॥
ते सर्वेऽतिविषण्णाश्च प्रजग्मुर्ब्रह्मणः सभाम् ।
वृत्तान्तं कथयामासू रुरुदुश्च भृशं मुहुः ॥ ४५ ॥
वह देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धर्वो, किन्नरों और राक्षसोंको सदा शान्त कर देनेवाला था । उसके द्वारा छिने हुए अधिकारवाले देवतागण भिक्षकोंकी भाँति विचरण करते थे, अतः वे सभी अत्यन्त दुःखी होकर ब्रह्माकी सभामें गये । उन्होंने अपना वृत्तान्त बताया और बार-बार अत्यधिक विलाप किया ॥ ४३-४५ ॥

तदा ब्रह्मा सुरैः सार्धं जगाम शङ्‌करालयम् ।
सर्वेशं कथयामास विधाता चन्द्रशेखरम् ॥ ४६ ॥
तब विधाता ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् शंकरके स्थानपर गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण करनेवाले सर्वेश्वर शिवसे सारी बातें बतायीं ॥ ४६ ॥

ब्रह्मा शिवश्च तैः सार्धं वैकुण्ठं च जगाम ह ।
दुर्लभं परमं धाम जरामृत्युहरं परम् ॥ ४७ ॥
सम्प्राप च वरं द्वारमाश्रमाणां हरेरहो ।
ददर्श द्वारपालांश्च रत्‍नसिंहासनस्थितान् ॥ ४८ ॥
शोभितान्पीतवस्त्रैश्च रत्‍नभूषणभूषितान् ।
वनमालान्वितान्सर्वान् श्यामसुन्दरविग्रहान् ॥ ४९ ॥
शङ्‌खचक्रगदापद्मधरांश्चैव चतुर्भुजान् ।
सस्मितान्स्मेरवक्त्रास्यान्पद्मनेत्रान्मनोहरान् ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् ब्रह्मा और शिव उन देवताओंको साथ लेकर जरा तथा मृत्युका नाश करनेवाले, सभीके लिये अत्यन्त दुर्लभ तथा परमधाम श्रेष्ठ वैकुण्ठलोकमें गये । जब वे श्रीहरिके लोकोंके श्रेष्ठ प्रवेशद्वारपर पहुँचे, तब वहाँपर उन्होंने रत्नमय सिंहासनपर बैठे हुए द्वारपालोंको देखा । वे सभी पीताम्बरोंसे सुशोभित थे, वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थे, उन्होंने वनमाला धारण कर रखी थी, उनके शरीर सुन्दर तथा श्यामवर्णके थे, शंख-चक्र-गदा-पदासे सुशोभित उनकी चार भुजाएँ थीं, उनके प्रसन्न मुखमण्डलपर मुसकान व्याप्त थी और उन मनोहर द्वारपालोंके नेत्र कमलके समान थे ॥ ४७-५० ॥

ब्रह्मा तान्कथयामास वृत्तान्तं गमनार्थकम् ।
तेऽनुज्ञां च ददुस्तस्मै प्रविवेश तदाज्ञया ॥ ५१ ॥
ब्रह्माजीने उन द्वारपालोंको अपने आनेका प्रयोजन बताया । तब उन द्वारपालोंने ब्रह्माको अन्दर जानेकी आज्ञा दे दी और ब्रह्माजीने उनकी आज्ञा पाकर भीतर प्रवेश किया ॥ ५१ ॥

एवं षोडश द्वाराणि निरीक्ष्य कमलोद्‍भवः ।
देवैः सार्धं तानतीत्य प्रविवेश हरेः सभाम् ॥ ५२ ॥
देवर्षिभिः परिवृतां पार्षदैश्च चतुर्भुजैः ।
नारायणस्वरूपैश्च सर्वैः कौस्तुभभूषितैः ॥ ५३ ॥
नवेन्दुमण्डलाकारां चतुरस्रां मनोहराम् ।
मणीन्द्रहारनिर्माणां हीरासारसुशोभिताम् ॥ ५४ ॥
अमूल्यरत्‍नखचितां रचितां स्वेच्छया हरेः ।
माणिक्यमालाजालाभां मुक्तापङ्‌क्तिविभूषिताम् ॥ ५५ ॥
मण्डितां मण्डलाकारै रत्‍नदर्पणकोटिभिः ।
विचित्रैश्चित्ररेखाभिर्नानाचित्रविचित्रिताम् ॥ ५६ ॥
पद्मरागेन्द्ररचितां रुचिरां मणिपङ्‌कजैः ।
सोपानशतकैर्युक्तां स्यमन्तकविनिर्मितैः ॥ ५७ ॥
पट्टसूत्रग्रन्थियुक्तैश्चारुचन्दनपल्लवैः ।
इन्द्रनीलस्तम्भवर्यैर्वेष्टितां सुमनोहराम् ॥ ५८ ॥
सद्‌रत्‍नपूर्णकुम्भानां समूहैश्च समन्विताम् ।
पारिजातप्रसूनानां मालाजालैर्विराजिताम् ॥ ५९ ॥
कस्तूरीकुङ्‌कुमारक्तैः सुगन्धिचन्दनद्रुमैः ।
सुसंस्कृतां तु सर्वत्र वासितां गन्धवायुना ॥ ६० ॥
विद्याधरीसमूहानां नृत्यजालैर्विराजिताम् ।
सहस्रयोजनायामां परिपूर्णां च किङ्‌करैः ॥ ६१ ॥
इस प्रकार ब्रह्माजीने भीतर सोलह द्वारोंको देखा और देवताओंके साथ उन्हें पार करके वे श्रीहरिकी सभामें पहुंचे । वह सभा देवर्षियों तथा चार भुजावाले पार्षदोंसे घिरी हुई थी । वे सभी पार्षद नारायणस्वरूप थे और कौस्तुभमणिसे अलंकृत थे । उस सभाका आकार नवीन चन्द्रमण्डलके समान था, वह मनोहर सभा चौकोर थी, वह सर्वोत्तम दिव्य मणियोंसे निर्मित थी, वह बहुमुल्य हीरोंसे सजी हुई थी, भगवान् श्रीहरिकी इच्छासे निर्मित उस सभाभवनमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे, मणिमयी मालाएँ उसमें जालीके रूपमें शोभा दे रही थीं, मोतियोंकी झालरोंसे वह सुशोभित थी, मण्डलाकार करोड़ों रत्नमय विचित्र दर्पणोंसे वह सभा मण्डित थी, अनेक प्रकारके रेखाचित्रोंसे युक्त वह सभा अत्यन्त सुन्दर तथा अद्‌भुत प्रतीत हो रही थी, पद्मरागमणिसे निर्मित वह सभा मणिमय पंकजोंसे परम सुन्दर प्रतीत हो रही थी, वह स्यमन्तकमणिसे बनी हुई सौ सीढ़ियोंसे युक्त थी, वहाँ दिव्य चन्दन वृक्षके सुन्दर पल्लव रेशमके सूत्रोंसे बँधे वन्दनवारके रूपमें शोभा दे रहे थे, वह मनोहर सभा उत्तम कोटिके इन्द्रनीलमणिसे निर्मित खम्भोंसे आवृत थी, वह उत्तम रत्नोंसे निर्मित अनेक कलशोंसे युक्त थी, पारिजात-पुष्पोंकी मालापंक्तियोंसे तथा कस्तूरी और कुमकुमसे रंजित सुगन्धित चन्दनके वृक्षोंसे वह सभा सुसज्जित थी, वह सर्वत्र सुगन्धित वायुसे सुरभित थी, बहुत-सी विद्याधरियोंके नृत्यसे उस सभाकी शोभा बढ़ रही थी, वह सभा एक हजार योजन विस्तारवाली थी और बहुतसे सेवकोंसे व्याप्त थी ॥ ५२-६१ ॥

ददर्श श्रीहरिं ब्रह्मा शङ्‌करश्च सुरैः सह ।
वसन्तं तन्मध्यदेशे यथेन्दुं तारकावृतम् ॥ ६२ ॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणचित्रसिंहासने स्थितम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं वनमालाविभूषितम् ॥ ६३ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं बिभ्रतं केलिपङ्‌कजम् ।
पुरतो नृत्यगीतं च पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ६४ ॥
शान्तं सरस्वतीकान्तं लक्ष्मीधृतपदाम्बुजम् ।
लक्ष्म्या प्रदत्तं ताम्बूलं भुक्तवन्तं सुवासितम् ॥ ६५ ॥
गङ्‌गया परया भक्त्या सेवितं श्वेतचामरैः ।
सर्वैश्च स्तूयमानं च भक्तिनम्रात्मकन्धरैः ॥ ६६ ॥
देवताओंसहित ब्रह्मा तथा शिवने सभाके मध्य भागमें विराजमान श्रीहरिको तारोंसे घिरे चन्द्रमाके समान देखा । वे बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित अद्‌भुत सिंहासनपर विराजमान थे । वे किरीट, कुण्डल तथा वनमालासे सुशोभित थे । उनके सम्पूर्ण अंग चन्दनसे अनुलिप्त थे । वे अपने हाथमें लीला कमल धारण किये हुए थे । वे प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए अपने सामने नृत्य-गीत आदिका अवलोकन कर रहे थे । उन सरस्वतीकान्त भगवान् श्रीहरिका विग्रह शान्त था, लक्ष्मीजी उनके चरणकमल पकड़े हुए उनकी सेवामें संलग्न थीं और लक्ष्मीजीके द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलका वे सेवन कर रहे थे । भगवती गंगा परम भक्तिके साथ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा कर रही थीं । वहाँ उपस्थित सभी लोग भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ६२-६६ ॥

एवं विशिष्टं तं दृष्ट्वा परिपूर्णतमं प्रभुम् ।
ब्रह्मादयः सुराः सर्वे प्रणम्य तुष्टुवुस्तदा ॥ ६७ ॥
पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गाः साश्रुनेत्राश्च गद्‌गदाः ।
भक्ताश्च परया भक्त्या भीता नम्रात्मकन्धराः ॥ ६८ ॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा विधाता जगतामपि ।
वृत्तान्तं कथयामास विनयेन हरेः पुरः ॥ ६९ ॥
[हे नारद !] ऐसे उन विशिष्ट परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरिको देखकर ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे । उस समय उनके सभी अंग पुलकित हो गये थे, आँखोंमें आँसू भर आये थे और वाणी गद्‌गद हो गयी थी । वे सभी भक्त परम भक्तिके साथ अपने कन्धे झुकाये भयभीत होकर उनके समक्ष खड़े होकर स्तुति कर रहे थे । इसके बाद जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजीने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् श्रीहरिके सामने विनम्रतापूर्वक सारा वृत्तान्त निवेदित कर दिया ॥ ६७-६९ ॥

हरिस्तद्वचनं श्रुत्वा सर्वज्ञः सर्वभाववित् ।
प्रहस्योवाच ब्रह्माणं रहस्यं च मनोहरम् ॥ ७० ॥
उनकी यह बात सुनकर सभी अभिप्रायोंको समझनेवाले सर्वज्ञ श्रीहरिने ब्रह्माजीसे हँसकर मनको मुग्ध करनेवाला एक अद्‌भुत रहस्य कहना आरम्भ किया ॥ ७० ॥

श्रीभगवानुवाच
शङ्‌खचूडस्य वृत्तान्तं सर्वं जानामि पद्मज ।
मद्‍भक्तस्य च गोपस्य महातेजस्विनः पुरा ॥ ७१ ॥
शृणु तत्सर्ववृत्तान्तमितिहासं पुरातनम् ।
गोलोकस्यैव चरितं पापघ्नं पुण्यकारकम् ॥ ७२ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे पद्मज ! यह महान् तेजस्वी शंखचूड़ पूर्वजन्ममें एक गोप था और मेरा परम भक्त था, मैं इसका सभी वृत्तान्त जानता हूँ । अब आप पुरातन इतिहासके रूपमें निबद्ध उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनिये । गोलोकसे सम्बन्ध रखनेवाला यह चरित पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य प्रदान करनेवाला है ॥ ७१-७२ ॥

सुदामा नाम गोपश्च पार्षदप्रवरो मम ।
स प्राप दानवीं योनिं राधाशापात्सुदारुणात् ॥ ७३ ॥
सुदामा नामक एक गोप मेरा प्रधान पार्षद था । राधिकाके दारुण शापके कारण उसे दानवयोनिमें जन्म लेना पड़ा ॥ ७३ ॥

तत्रैकदाहमगमं स्वालयाद्‌रासमण्डलम् ।
विरजामपि नीत्वा च मम प्राणाधिका परा ॥ ७४ ॥
एक बार मैं अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय श्रेष्ठ विरजाको साथमें लेकर अपने निवास स्थानसे रासमण्डलमें गया था ॥ ७४ ॥

सा मां विरजया सार्धं विज्ञाय किङ्‌करीमुखात् ।
पश्चात्क्रुद्धा साजगाम न ददर्श च तत्र माम् ॥ ७५ ॥
विरजां च नदीरूपां मां ज्ञात्वा च तिरोहितम् ।
पुनर्जगाम सा दृष्ट्वा स्वालयं सखिभिः सह ॥ ७६ ॥
'मैं विरजाके साथ रासमण्डलमें गया हूँ'परिचारिकाके मुखसे ऐसा सुनकर कुपित हो राधिका वहाँ आ गयीं, किंतु उसने मुझे वहाँ नहीं देखा । बादमें मेरे अन्तर्धान होने तथा विरजाके नदीरूपमें परिणत हो जानेका समाचार सुनकर राधा अपनी सखियोंके साथ फिर अपने भवन चली गयीं ॥ ७५-७६ ॥

मां दृष्ट्वा मन्दिरे देवी सुदाम्ना सहितं पुरा ।
भृशं सा भर्त्सयामास मौनीभूतं च सुस्थिरम् ॥ ७७ ॥
उस भवन में सुदामाके साथ मौन तथा स्थिरचित्त होकर मुझे बैठा हुआ देखकर देवी राधाने मेरी बहुत भर्त्सना की । ७७ ॥

तच्छ्रुत्वासहमानश्च सुदामा तां चुकोप ह ।
स च तां भर्त्सयामास कोपेन मम सनिधौ ॥ ७८ ॥
उसे सुनकर सुदामा सहन नहीं कर सका और उनपर कुपित हो गया । उसने मेरे सामने ही राधाको क्रोधके साथ बहुत फटकारा ॥ ७८ ॥

तच्छ्रुत्वा कोपयुक्ता सा रक्तपङ्‌कजलोचना ।
बहिष्कर्तुं चकाराज्ञां संत्रस्तं मम संसदि ॥ ७९ ॥
उसकी बात सुनकर राधिका क्रोधित हो उठी और उनकी आँखें रक्तकमलके समान लाल हो गयीं । उन्होंने तत्काल भयभीत सुदामाको मेरी सभासे बाहर निकाल देनेका आदेश दिया ॥ ७९ ॥

सखीलक्षं समुत्तस्थौ दुर्वारं तेजसोल्बणम् ।
बहिश्चकार तं तूर्णं जल्पन्तं च पुनः पुनः ॥ ८० ॥
[आज्ञा पाते ही] प्रबल तेजसे सम्पन्न तथा दुर्निवार्य सखियोंका समूह उठ खडा हुआ और उसे शीघ्र ही सभासे बाहर कर दिया । उस समय वह सुदामा बार-बार कुछ बोलता जा रहा था ॥ ८० ॥

सा च तत्ताडनं तासां श्रुत्वा रुष्टा शशाप ह ।
याहि रे दानवीं योनिमित्येवं दारुणं वचः ॥ ८१ ॥
इस तरह उन सखियोंसे सुदामाके विवाद करनेके कारण राधा और भी कुपित हो उठीं और उन्होंने कुपित होकर शाप दे दिया 'तुम दानवयोनिमें जन्म प्राप्त करो' । ऐसा दारुण वचन कहा था ॥ ८१ ॥

तं गच्छन्तं शपन्तं च रुदन्तं मां प्रणम्य च ।
वारयामास तुष्टा सा रुदती कृपया पुनः ॥ ८२ ॥
हे वत्स तिष्ठ मा गच्छ क्व यासीति पुनः पुनः ।
समुच्चार्य च तत्पश्चाज्जगाम सा च विक्लवम् ॥ ८३ ॥
तदनन्तर सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ तथा सखियोंको कोसता हुआ सभाभवनसे बाहर जाने लगा, तब करुणामयी राधाने कृपावश उसके ऊपर फिर प्रसन्न होकर उसे रोक लिया और रोते हुए कहा-'हे वत्स ! ठहरो, मत जाओ । कहाँ जा रहे हो ?'-ऐसा बार-बार कहती हुई वे राधा व्याकुल होकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ ८२-८३ ॥

गोप्यश्च रुरुदुः सर्वा गोपाश्चापि सुदुःखिताः ।
ते सर्वे राधिका चापि तत्पश्चाद्‌ बोधिता मया ॥ ८४ ॥
आयास्यति क्षणार्धेन कृत्वा शापस्य पालनम् ।
सुदामंस्त्वमिहागच्छेत्युक्त्वा सा च निवारिता ॥ ८५ ॥
यह देखकर सभी गोपी और गोप अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे । तब मैंने राधिकाको तथा उन सभीको समझाया कि शापका पालन करके वह सुदामा आधे क्षणमें ही वापस आ जायगा । हे सुदामन् ! तुम यहाँ अवश्य आ जाना-ऐसा कहकर मैंने राधाको शान्त किया ॥ ८४-८५ ॥

गोलोकस्य क्षणार्धेन चैकं मन्वन्तरं भवेत् ।
पृथिव्यां जगतां धातरित्येव वचनं ध्रुवम् ॥ ८६ ॥
इत्येवं शङ्‌खचूडश्च पुनस्तत्रैव यास्यति ।
महाबलिष्ठो योगेशः सर्वमायाविशारदः ॥ ८७ ॥
हे सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले ब्रह्मन् ! गोलोकके आधे क्षणमें ही पृथ्वीलोकपर एक मन्वन्तरका समय व्यतीत हो जाता है । यह बात बिलकुल सत्य है । इस प्रकार यह सब कुछ पूर्वनिश्चित व्यवस्थाके अनुसार ही हो रहा है । अतः सम्पूर्ण मायाओंका पूर्ण ज्ञाता, महान् बलशाली तथा योगेश्वर शंखचूड़ समय आनेपर पुन: उसी गोलोकमें वापस चला जायगा ॥ ८६-८७ ॥

मम शूलं गृहीत्वा च शीघ्रं गच्छत भारतम् ।
शिवः करोतु संहारं मम शूलेन रक्षसः ॥ ८८ ॥
अब आपलोग मेरा त्रिशूल लेकर शीघ्र भारतवर्षमें चलें और वहाँपर शंकरजी मेरे त्रिशूलसे उस राक्षसका संहार करें ॥ ८८ ॥

ममैव कवचं कण्ठे सर्वमङ्‌गलकारकम् ।
बिभर्ति दानवः शश्वत्संसारे विजयी ततः ॥ ८९ ॥
वह दानव शंखचूड़ अपने कण्ठमें मेरा सर्वमंगलकारी कवच निरन्तर धारण किये रहता है । इसीसे वह सदा संसार-विजयी बना हुआ है । ८९ ॥

तस्मिन् ब्रह्मन् स्थिते चैव न कोऽपि हिंसितुं क्षमः ।
तद्याचनां करिष्यामि विप्ररूपोऽहमेव च ॥ ९० ॥
हे ब्रह्मन् ! उसके कण्ठमें उस कवचके रहते उसे मारनेमें कोई प्राणी समर्थ नहीं है । अतः मैं ही ब्राह्मणका रूप धारणकर उससे कवचकी याचना करूँगा ॥ ९० ॥

सतीत्वहानिस्तत्पत्‍न्या यत्र काले भविष्यति ।
तत्रैव काले तन्मृत्युरिति दत्तो वरस्त्वया ॥ ९१ ॥
जिस समय उसकी पत्नीका सतीत्व नष्ट होगा, उसी समय उसकी मृत्यु होगी-ऐसा आपने उसे वर भी दे रखा है ॥ ९१ ॥

तत्पत्‍न्याश्चोदरे वीर्यमर्पयिष्यामि निश्चितम् ।
तत्क्षणे चैव तन्मृत्युर्भविष्यति न संशयः ॥ ९२ ॥
पश्चात्सा देहमुत्सज्य भविष्यति मम प्रिया ।
इसके लिये मैं अवश्य ही उसकी पत्नीके उदरमें अपना तेज स्थापित करूँगा, जिससे उसी क्षण उस शंखचूड़की मृत्यु हो जायगी । इसमें सन्देह नहीं है । तब उसकी पत्नी अपना शरीर त्यागकर पुनः मेरी प्रिया बन जायगी ॥ ९२.५ ॥

इत्युक्त्वा जगतां नाथो ददौ शूलं हराय च ॥ ९३ ॥
शूलं दत्त्वा ययौ शीघ्रं हरिरभ्यन्तरे मुदा ।
भारतं च ययुर्देवा ब्रह्यरुद्रपुरोगमाः ॥ ९४ ॥
ऐसा कहकर जगत्के स्वामी भगवान् श्रीहरिने शंकरजीको त्रिशूल दे दिया और त्रिशूल देकर वे श्रीहरि प्रसन्नतापूर्वक तत्काल अन्तःपुरमें चले गये । इसके बाद सभी देवताओंने ब्रह्मा तथा शंकरजीको आगे करके भारतवर्षके लिये प्रस्थान किया ॥ ९३-९४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे शङ्‌खचूडेन सह
तुलसीसङ्‌गमवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इति श्रीमदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रषां संहितायां नवमस्कन्धे शंखचूडेन सह तुलसीसङ्‌गमवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥


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