उसी समय महादेवजीने अपनी सेना तथा देवताओंको तुरंत युद्धके लिये आज्ञा दे दी और दानवेन्द्र शंखचूड़ भी अपनी सेनाको साथ लेकर युद्धके लिये तैयार हो गया ॥ २ ॥
स्वयं महेन्द्रो युयुधे सार्धं च वृषपर्वणा । भास्करो युयुधे विप्रचित्तिना सह सत्वरः ॥ ३ ॥ दम्भेन सह चन्द्रश्च चकार परमं रणम् । कालस्वरेण कालश्च गोकर्णेन हुताशनः ॥ ४ ॥ कुबेरः कालकेयेन विश्वकर्मा मयेन च । भयङ्करेण मृत्युश्च संहारेण यमस्तथा ॥ ५ ॥ विकङ्कणेन वरुणश्चञ्चलेन समीरणः । बुधश्च घृतपृष्ठेन रक्ताक्षेण शनैश्चरः ॥ ६ ॥ जयन्तो रत्नसारेण वसवो वर्चसां गणैः । अश्विनौ च दीप्तिमता धूम्रेण नलकूबरः ॥ ७ ॥ धुरन्धरेण धर्मश्च उषाक्षेण च मङ्गलः । शोभाकरेण वै भानुः पिठरेण च मन्मथः ॥ ८ ॥ गोधामुखेन चूर्णेन खड्गेन च ध्वजेन च । काञ्चीमुखेन पिण्डेन धूमेण सह नन्दिना ॥ ९ ॥ विश्वेन च पलाशेनादित्याद्या युयुधुः परे । एकादश च रुद्रा वै एकादशभयङ्करैः ॥ १० ॥ महामारी च युयुधे चोग्रचण्डादिभिः सह । नन्दीश्वरादयः सर्वे दानवानां गणैः सह ॥ ११ ॥
स्वयं महेन्द्र वृषपकि साथ और सूर्यदेव विप्रचित्तिके साथ वेगपूर्वक युद्ध करने लगे । इसी तरह दम्भके साथ चन्द्रमाने भीषण युद्ध किया । उस समय कालस्वरके साथ काल, गोकर्णके साथ अग्निदेव, कालकेयके साथ कुबेर, मयके साथ विश्वकर्मा, भयंकरके साथ मृत्यु, संहारके साथ यम, विकंकणके साथ वरुण, चंचलके साथ पवनदेव, घृतपृष्ठके साथ बुध, रक्ताक्षके साथ शनैश्चर, रत्नसारके साथ जयन्त, वर्चसगणोंके साथ सभी वसु, दीप्तिमान्के साथ दोनों अश्विनीकुमार, धूम्रके साथ नलकूबर, धुरन्धरके साथ धर्म, उपाक्षके साथ मंगल, शोभाकरके साथ भानु, पिठरके साथ मन्मथ; गोधामुख, चूर्ण, खड्ग, ध्वज, कांचीमुख, पिण्ड, धूम्र, नन्दी, विश्व और पलाश आदि दानवोंके साथ आदित्यगण युद्ध करने लगे । इसी तरह ग्यारह भयंकर दानवोंके साथ ग्यारहों रुद्र, उग्रचण्डा आदिके साथ महामारी और दानवगणोंके साथ सभी नन्दीश्वर आदि गण प्रलयसदृश भयंकर महासंग्राममें युद्ध करने लगे ॥ ३-११ ॥
युयुधुश्च महायुद्धे प्रलयेऽपि भयङ्करे । वटमूले च शम्भुश्च तस्थौ काल्या सुतेन च ॥ १२ ॥ सर्वे च युयुधुः सैन्यसमूहाः सततं मुने । रत्नसिंहासने रम्ये कोटिभिर्दानवैः सह ॥ १३ ॥ उवास शङ्खचूडश्च रत्नभूषणभूषितः ।
हे मुने ! जब दोनों ओरके सभी सैनिक निरन्तर युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान् शंकर भगवती काली तथा पुत्र कार्तिकेयके साथ वटवृक्षके नीचे विराजमान थे । उधर रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत शंखचूड़ करोड़ों दानवोंके साथ रत्ननिर्मित रम्य सिंहासनपर बैठा हुआ था ॥ १२-१३.५ ॥
शङ्करस्य च ये योधा दानवैश्च पराजिताः ॥ १४ ॥ देवाश्च दुद्रुवुः सर्वे भीताश्च क्षतविग्रहाः । चकार कोपं स्कन्दश्च देवेभ्यश्चाभयं ददौ ॥ १५ ॥ बलं च स्वर्गणानां च वर्धयामास तेजसा । सोऽयमेकश्च युयुधे दानवानां गणैः सह ॥ १६ ॥
उस युद्ध में दानवोंने शंकरजीके अनेक योद्धाओंको परास्त कर दिया । सभी देवताओंके अंग क्षत-विक्षत हो गये और वे भयभीत होकर भाग चले । [यह देखकर] कार्तिकेय कुपित हो उठे और उन्होंने देवताओंको अभय प्रदान किया । उन्होंने अपने तेजसे अपने गणोंके बलमें वृद्धि की । तदनन्तर वे अकेले ही दानवगणोंके साथ युद्ध करने लगे । उन्होंने संग्राममें एक सौ अक्षौहिणी सेनाको मार डाला ॥ १४-१६ ॥
अक्षौहिणीनां शतकं समरे च जघान सः । असुरान्पातयामास काली कमललोचना ॥ १७ ॥ पपौ रक्तं दानवानामतिकुद्धा ततः परम् । दशलक्षगजेन्द्राणां शतलक्षं च कोटिशः ॥ १८ ॥ समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप लीलया । कबन्धानां सहस्रं च ननर्त समरे मुने ॥ १९ ॥
उस युद्ध में कमलके समान नेत्रवाली कालीने बहुतसे असुरोंको धराशायी कर दिया और उसके बाद अत्यन्त क्रुद्ध होकर वे दानवोंका रक्त पीने लगी । वे दस लाख हाथियों तथा करोड़ों करोड़ों सैनिकोंको एक हाथसे पकड़-पकड़कर लीलापूर्वक अपने मुखमें डालने लगीं । हे मुने ! उस समय हजारों मुण्डविहीन धड़ रणभूमिमें नाचने लगे ॥ १७-१९ ॥
स्कन्दस्य शरजालेन दानवाः क्षतविग्रहाः । भीताश्च दुद्रुवुः सर्वे महारणपराक्रमाः ॥ २० ॥ वृषपर्वा विप्रचित्तिर्दम्भश्चापि विकङ्कणः । स्कन्देन सार्धं युयुधुस्ते सर्वे विक्रमेण च ॥ २१ ॥ महामारी च युयुधे न बभूव पराङ्मुखी । बभूवुस्ते च संक्षुब्धाः स्कन्दस्य शक्तिपीडिताः ॥ २२ ॥ न दुद्रुवुर्भयात्स्वर्गे पुष्पवृष्टिर्बभूव ह । स्कन्दस्य समरं दृष्ट्वा महारौद्रं समुल्बणम् ॥ २३ ॥ दानवानां क्षयकरं यथा प्राकृतिको लयः ।
रणमें महान् पराक्रम प्रदर्शित करनेवाले समस्त दानव कार्तिकेयकी बाणवर्षासे क्षत-विक्षत शरीरवाले हो गये और भयभीत होकर भागने लगे । तत्पश्चात् वृषपर्वा, विप्रचित्ति, दम्भ और विकंकण-ये सभी दानव पराक्रमी कार्तिकेयके साथ युद्ध करने लगे । भगवती महामारी भी युद्ध करने लगीं, उन्होंने युद्धसे मुख नहीं मोड़ा । उधर स्वामी कार्तिकेयकी शक्तिसे पीडित होकर दानव क्षुब्ध हो उठे, किंतु वे भयके कारण रणसे नहीं भागे । कार्तिकेयका वह महाभयंकर तथा भीषण युद्ध देखकर स्वर्गसे पुष्पवृष्टि होने लगी । दानवोंका क्षय करनेवाला वह युद्ध प्राकृतिक प्रलयके समान था ॥ २०-२३.५ ॥
राजा विमानमारुह्य चकार बाणवर्षणम् ॥ २४ ॥ नृपस्य शरवृष्टिश्च घनस्य वर्षणं यथा । महाघोरान्धकारश्च वह्न्युत्थानं बभूव च ॥ २५ ॥ देवाः प्रदुद्रुवुः सर्वेऽप्यन्ये नन्दीश्वरादयः । एक एव कार्तिकेयस्तस्थौ समरमूर्धनि ॥ २६ ॥
[दानवोंकी यह स्थिति देखकर] राजा शंखचूड़ विमानपर चढ़कर बाणोंकी वर्षा करने लगा । राजाकी वाणवर्षा मेघोंकी वृष्टिके समान थी । इससे चारों ओर महाघोर अन्धकार छा गया और सर्वत्र अग्निकी लपटें निकलने लगीं । इससे सभी देवता तथा अन्य नन्दीश्वर आदि गण भी भाग खड़े हुए । उस समय एकमात्र स्वामी कार्तिकेय ही समरभूमिमें डटे रहे ॥ २४-२६ ॥
पर्वतानां च सर्पाणां शिलानां शाखिनां तथा । नृपश्चकार वृष्टिं च दुर्वारां च भयङ्करीम् ॥ २७ ॥ नृपस्य शरवृष्ट्या च प्रहितः शिवनन्दनः । नीहारेण च सान्द्रेण प्रहितो भास्करो यथा ॥ २८ ॥ धनुश्चिच्छेद स्कन्दस्य दुर्वहं च भयङ्करः । बभञ्ज च रथं दिव्यं चिच्छेद रथपीठकान् ॥ २९ ॥ मयूरं जर्जरीभूतं दिव्यास्त्रेण चकार सः । शक्तिं चिक्षेप सूर्याभां तस्य वक्षस्य घातिनीम् ॥ ३० ॥
राजा शंखचूड़ पर्वतों, सो, पत्थरों तथा वृक्षोंकी दुर्निवार्य तथा भयंकर वर्षा करने लगा । राजा शंखचूड़की बाणवर्षासे शिवपुत्र कार्तिकेय उसी प्रकार ढंक गये, जैसे घने कुहरेसे सूर्य ढंक जाते हैं । उसने कार्तिकेयके दुर्वह तथा भयंकर धनुषको काट डाला, दिव्य रथको खण्ड-खण्ड कर दिया और रथपीठोंको छिन्न-भिन्न कर दिया । उसने कार्तिकेयके मयूरको अपने दिव्य अस्वसे जर्जर कर दिया और सूर्यके समान चमकनेवाली प्राणघातिनी शक्ति उनके वक्षपर चला दी ॥ २७-३० ॥
क्षणं मूर्च्छां च सम्प्राप बभूव चेतनः पुनः । गृहीत्वा तद्धनुर्दिव्यं यद्दत्तं विष्णुना पुरा ॥ ३१ ॥ रत्नेन्द्रसारनिर्माणयानमारुह्य कार्तिकः । शस्त्रास्त्रं च गृहीत्वा च चकार रणमुल्बणम् ॥ ३२ ॥
इससे वे क्षणभरके लिये मूछित हो गये, फिर थोड़ी ही देरमें सचेत हो गये । तदनन्तर जिस दिव्य धनुषको पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने कार्तिकेयको दिया था, उसे हाथमें लेकर वे सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित विमानपर आरूढ़ होकर और अनेक शस्त्रास्त्रोंको लेकर भयंकर युद्ध करने लगे ॥ ३१-३२ ॥
वह दानव सों, पर्वतों, वृक्षों और पत्थरोंकी वर्षा करने लगा, किंतु शिवपुत्र कार्तिकेयने क्रोधित होकर अपने दिव्य अस्वसे उन सबको काट डाला । प्रतापी कार्तिकेयने शंखचूडद्वारा लगायी गयी आगको अपने पार्जन्य अस्वसे बुझा दिया । तत्पश्चात् उन्होंने शंखचूड़के रथ, धनुष, कवच, सारथी, किरीट तथा उज्ज्वल मुकुटको खेल-खेलमें काट डाला और उस दानवेन्द्रके वक्षपर शुक्ल आभावाली शक्ति चला दी ॥ ३३-३५ ॥
मूर्च्छां सम्प्राप्य राजा च चेतनश्च बभूव ह । आरुरोह यानमन्यद्धनुर्जग्राह सत्वरः ॥ ३६ ॥ चकार शरजालं च मायया मायिनां वरः । गुहं चच्छाद समरे शरजालेन नारद ॥ ३७ ॥
उसके आघातसे राजा शंखचूड़ मूच्छित हो गया, किंतु थोड़ी ही देरमें सचेत होनेपर वह तत्काल दूसरे रथपर सवार हो गया और उसने शीघ्र ही दूसरा धनुष उठा लिया । हे नारद ! मायावियोंमें श्रेष्ठ उस शंखचूड़ने अपनी मायासे बाणोंका जाल फैला दिया और उस बाणजालसे कार्तिकेयको आच्छादित कर दिया ॥ ३६-३७ ॥
उसने कभी भी व्यग्र न होनेवाली, सैकड़ों सूर्योक समान प्रभायुक्त, प्रलयकालीन अग्निकी शिखाके समान आकृतिवाली और सदा विष्णुके तेजसे आवृत रहनेवाली शक्ति उठा ली तथा क्रोध करके बड़ेवेगसे उसे कार्तिकेयपर चला दिया । अग्नि-राशिके समान उज्ज्वल वह शक्ति उनके शरीरपर गिरी और वे महाबली कार्तिकेय उस शक्तिके प्रभावसे मूच्छित हो गये ॥ ३८-३९ ॥
मूर्च्छां सम्प्राप शक्त्या च कार्तिकेयो महाबलः । काली गृहीत्वा तं क्रोडे निनाय शिवसनिधौ ॥ ४० ॥ शिवस्तं चापि ज्ञानेन जीवयामास लीलया । ददौ बलमनन्तं च समुत्तस्थौ प्रतापवान् ॥ ४१ ॥
तब भद्रकाली उन्हें अपनी गोदमें लेकर शिवके पास ले गयीं । शिवने अपने ज्ञानके द्वारा उन्हें लीलापूर्वक चेतनायुक्त कर दिया, साथ ही उन्हें असीम शक्ति भी प्रदान की । तब प्रतापी कार्तिकेय उठ खड़े हुए ॥ ४०-४१ ॥
काली जगाम समरं रक्षितुं कार्तिकस्य या । वीरास्तामनुजग्मुश्च ते च नन्दीश्वरादयः ॥ ४२ ॥ सर्वे देवाश्च गन्धर्वा यक्षराक्षसकिन्नराः । वाद्यभाण्डाश्च बहुशः शतशो मधुवाहकाः ॥ ४३ ॥
कार्तिकेयकी रक्षा में तत्पर जो भद्रकाली थीं, वे युद्धभूमिके लिये प्रस्थित हो गयीं और नन्दीश्वर आदि जो वीर थे, वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े । सभी देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मृदंग आदि बाजे बजानेवाले तथा मधु ढोनेवाले कई सौ अन्य लोग भी उनके साथ चल दिये ॥ ४२-४३ ॥
सा च गत्वाथ संग्रामं सिंहनादं चकार च । देव्याश्च सिंहनादेन प्रापुर्मूर्च्छां च दानवाः ॥ ४४ ॥ अट्टाट्टहासमशिवं चकार च पुनः पुनः । दृष्ट्वा पपौ च माध्वीकं ननर्त रणमूर्धनि ॥ ४५ ॥ उग्रदंष्ट्रा चोग्रदण्डा कोटवी च पपौ मधु । योगिनीडाकिनीनां च गणाः सुरगणादयः ॥ ४६ ॥
रणभूमिमें पहुँचते ही कालीने सिंह-गर्जन किया । भगवतीके सिंहनादसे बहुतसे दानव मूच्छित हो गये । दानवोंको देखकर देवीने बार-बार भीषण अट्टहास किया और मधुपान किया तथा वे रणभूमिमें नाचने लगी । उग्रदंष्ट्रा, उग्रदण्डा, कोटवी, योगिनियों तथा डाकिनियोंके गण और देवतालोग भी मधुपान करने लगे ॥ ४४-४६ ॥
भद्रकालीको देखकर शंखचूड़ भी शीघ्र युद्धभूमिमें आ गया । दानव डरे हुए थे, अतः राजा शंखचूड़ने उन्हें अभय प्रदान किया ॥ ४७ ॥
काली चिक्षेप वह्निं च प्रलयाग्निशिखोपमम् । राजा निर्वापयामास पार्जन्येन च लीलया ॥ ४८ ॥
भद्रकालीने प्रलयकालीन अग्निकी शिखाके समान प्रकाशमान आग्नेयास्त्र शंखचूड़पर चला दिया । राजाने अपने पार्जन्यास्त्रसे खेल-खेलमें उसे बुझा दिया ॥ ४८ ॥
चिक्षेप वारुणं सा च तीव्रं च महदद्भुतम् । गान्धर्वेण च चिच्छेद दानवेन्द्रश्च लीलया ॥ ४९ ॥ माहेश्वरं प्रचिक्षेप काली वह्निशिखोपमम् । राजा जघान तं शीघ्रं वैष्णवेन च लीलया ॥ ५० ॥
तदनन्तर उस कालीने अत्यन्त तीव्र तथा अद्भुत वारुणास्त्र उसपर चलाया, जिसे उस दानवराजने अपने गान्धर्वास्त्रसे लीलापूर्वक काट दिया । तब कालीने अग्निशिखाके सदृश तेजस्वी माहेश्वरास्त्र उसपर चलाया. जिसे राजा शंखचूड़ने अपने वैष्णवास्वसे बड़ी सहजतापूर्वक शीघ्र ही विफल कर दिया ॥ ४९-५० ॥
इसके बाद कालीने राजा शंखचूडपर मन्त्रपूर्वक नारायणास्त्र चलाया । उसे देखते ही उसने रथसे उतरकर प्रणाम किया और प्रलयाग्निकी शिखाके समान तेजस्वी वह अस्त्र ऊपरकी ओर चला गया । शंखचूड भक्तिपूर्वक दण्डकी भाँति जमीनपर पड़कर पुनः प्रणाम करने लगा ॥ ५१-५२ ॥
ब्रह्मास्त्रं सा च चिक्षेप यत्नतो मन्त्रपूर्वकम् । ब्रह्मास्त्रेण महाराजो निर्वापं च चकार सः ॥ ५३ ॥ तदा चिक्षेप दिव्यास्त्रं सा देवी मन्त्रपूर्वकम् । राजा दिव्यास्त्रजालेन तन्निर्वाणं चकार च ॥ ५४ ॥
तत्पश्चात् देवीने प्रयत्नशील होकर मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र चलाया, उस राजा शंखचूड़ने अपने ब्रह्मास्त्रसे उसका शमन कर दिया । तब देवीने मन्त्रपूर्वक दिव्यास्त्र चलाया, राजाने अपने दिव्यास्त्रके जालसे उसे भी नष्ट कर दिया ॥ ५३-५४ ॥
तदा चिक्षेप शक्तिं च यत्नतो योजनायताम् । राजा दिव्यास्त्रजालेन शतखण्डां चकार ह ॥ ५५ ॥ जग्राह मन्त्रपूतं च देवी पाशुपतं रुषा । निक्षेपणं निरोद्धुं च वाग्बभूवाशरीरिणी ॥ ५६ ॥ मृत्युः पाशुपते नास्ति नृपस्य च महात्मनः । यावदस्ति च मन्त्रस्य कवचं च हरेरिति ॥ ५७ ॥ यावत्सतीत्वमस्त्येव सत्याश्च नृपयोषितः । तावदस्य जरामृत्युर्नास्तीति ब्रह्मणो वचः ॥ ५८ ॥
तत्पश्चात् देवीने प्रयत्नपूर्वक राजापर योजनभर लम्बी शक्ति चलायी । उसने अपने दिव्यास्त्रके जालसे उसके सैकड़ों खण्ड कर दिये । तब देवीने कुपित होकर मन्त्रसे पवित्र किया हुआ पाशुपतास्त्र उठा लिया । इसी बीच उस अस्वको चलानेसे रोकने हेतु यह आकाशवाणी हुई– महान् आत्मावाले इस राजाको मृत्यु पाशुपतास्त्रसे नहीं होगी । जबतक यह भगवान् श्रीहरिके मन्त्रका कवच अपने गले में धारण किये रहेगा और जबतक इसकी साध्वी पत्नीका सतीत्व विद्यमान रहेगा, तबतक जरा और मृत्यु इसपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते'-यह ब्रह्माका वचन है ॥ ५५-५८ ॥
यह सुनकर भद्रकालीने उस अस्त्रको नहीं चलाया । अब वे क्षुधातुर होकर लीलापूर्वक करोड़ों दानवोंको निगलने लगीं । जब भयंकर भगवती काली शंखचूडको निगल जानेके लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब उस दानवने अपने अत्यन्त तीक्ष्ण दिव्यास्त्रसे उन्हें रोक दिया ॥ ५९-६० ॥
तदनन्तर उन भद्रकालीने ग्रीष्मकालीन सूर्यक समान तेजसम्पन्न खड्ग उसपर चला दिया । तब दानवेन्द्र शंखचूड़ने दिव्यास्त्रसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये । इसके बाद महादेवी उसे खा जानेके लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब सर्वसिद्धेश्वर तथा श्रीसम्पन्न दानवेन्द्र शंखचूड़ने अत्यन्त विशाल रूप धारण कर लिया ॥ ६१-६२ ॥
तत्पश्चात् उन भद्रकालीने उसके ऊपर प्रलयाग्निकी शिखाके समान त्रिशूल चलाया । शंखचूड़ने अपनी लीलासे बायें हाथसे उसे पकड़ लिया ॥ ६४ ॥
मुष्ट्या जघान तं देवी महाकोपेन वेगतः । बभ्राम च तया दैत्यः क्षणं मूर्च्छामवाप च ॥ ६५ ॥ क्षणेन चेतनां प्राप्य समुत्तस्थौ प्रतापवान् । न चकार बाहुयुद्धं देव्या सह ननाम ताम् ॥ ६६ ॥
इसके बाद देवीने अत्यन्त क्रोध करके बड़ी तेजीसे उसपर मुष्टिप्रहार किया । उसके फलस्वरूप उसे चक्कर आ गया और वह क्षणभरके लिये मूच्छित हो गया । वह प्रतापी शंखचूड़ अपने तेजसे थोड़ी ही देरमें फिर चेतनामें आकर उठ खड़ा हुआ । उसने देवीके साथ बाहुयुद्ध नहीं किया, बल्कि उन्हें प्रणाम करने लगा । ६५-६६ ॥
देव्याश्चास्त्रं स चिच्छेद जग्राह च स्वतेजसा । नास्त्रं चिक्षेप तां भक्तो मातृभक्त्या तु वैष्णवः ॥ ६७ ॥
उस शंखचूड़ने अबतक भगवतीके अस्त्रोंको अपने तेजसे काट दिया था अथवा उनके अस्त्रोंको पकड़ लिया था, किंतु उस वैष्णव भक्तने मातृभक्तिके कारण उनपर अस्त्र नहीं चलाया था ॥ ६७ ॥
गृहीत्वा दानवं देवी भ्रामयित्वा पुनः पुनः । ऊर्ध्वं च प्रापयामास महावेगेन कोपिता ॥ ६८ ॥ ऊर्ध्वात्पपात वेगेन शङ्खचूडः प्रतापवान् । निपत्य च समुत्तस्थौ प्रणम्य भद्रकालिकाम् ॥ ६९ ॥ रत्नेन्द्रसारनिर्माणं विमानं सुमनोहरम् । आरुरोह हर्षयुक्तो न विश्रान्तो महारणे ॥ ७० ॥
तदनन्तर देवीने उस दानवको पकड़कर कई बार घुमाया और कुपित होकर बड़े वेगसे उसे ऊपरकी ओर फेंक दिया । वह प्रतापी शंखचूड़ ऊपरसे बड़े वेगसे गिरा और नीचे गिरते ही उठकर खड़ा हो गया । तदनन्तर भद्रकालीको प्रणाम करके वह अत्यन्त मनोहर रत्ननिर्मित विमानपर हर्षपूर्वक आरूढ़ हो गया । उस महारणमें उसने थोड़ी देर भी विश्राम नहीं किया ॥ ६८-७० ॥
दानवानां च क्षतजं सा देवी च पपौ क्षुधा । पीत्वा भुक्त्वा भद्रकाली जगाम शङ्करान्तिकम् ॥ ७१ ॥
इसके बाद भगवती भूखके कारण दानवोंका रक्त पीने लगीं । इस प्रकार दानवोंका रक्तपान तथा भक्षण करके वे भद्रकाली शंकरके पास चली गयीं ॥ ७१ ॥
[वहाँ पहुँचकर उन्होंने आरम्भसे लेकर अन्ततक युद्ध-सम्बन्धी सभी वृत्तान्त क्रमसे बतलाया । दानवोंका विनाश सुनकर भगवान् शंकर हँसने लगे । भद्रकालीने यह भी कहा-हे ईश्वर ! रणभूमिमें इस समय भी एक लाख दानव बच गये हैं । जब मैं उन दानवोंको खा रही थी, उस समय कुछ दानव खानेसे बचकर मेरे मुखसे निकल गये थे । जब मैं संग्राममें दानवेन्द्र शंखचूड़को मारनेके लिये पाशुपतास्त्र छोड़नेको उद्यत हुई, उसी समय यह आकाशवाणी हुई 'राजा शंखचूड़ तुमसे अवध्य है । ' महान् ज्ञानी तथा असीम बल एवं पराक्रमसे सम्पन्न राजेन्द्र शंखचूड़ने मुझपर अस्त्र नहीं चलाया, अपितु मेरे द्वारा छोड़े गये बाणको वह काट दिया करता था ॥ ७२-७५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसवादे कालीशङ्खचूडयुद्धवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे कालीशङ्खचूडयुद्धवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥