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शङ्खचूडकृते प्रबोधवाक्यवर्णनम् -
शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप -
श्रीनारायण उवाच श्रीकृष्णं मनसा ध्यात्वा रक्षः कृष्णपरायणः । ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय पुष्पतल्पान्मनोहरात् ॥ १ ॥ रात्रिवासः परित्यज्य स्नात्वा मङ्गलवारिणा । धौते च वाससी धृत्वा कृत्वा तिलकमुज्ज्वलम् ॥ २ ॥ चकाराह्निकमावश्यमभीष्टदेववन्दनम् । दध्याज्यमधुलाजांश्च ददर्श वस्तु मङ्गलम् ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] श्रीकृष्णकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले शंखचूड़ने मनमें श्रीकृष्णका ध्यान करके ब्राह्ममूहूर्तमें ही अपनी मनोहर पुष्पशय्यासे उठकर स्वच्छ जलसे स्नान करके रातके वस्त्र त्यागकर धुले हुए दो वस्त्र धारण किये । तदनन्तर उज्ज्वल तिलक लगाकर उसने अपने इष्ट देवताके वन्दन आदि नित्य कृत्य सम्पन्न किये । उसने दधि, घृत, मधु और धानका लावा आदि मंगलकारी वस्तुओंका दर्शन किया ॥ १-३ ॥
रत्नश्रेष्ठं मणिश्रेष्ठं वस्त्रश्रेष्ठं च काञ्चनम् । ब्राह्मणेभ्यो ददौ भक्त्या यथा नित्यं च नारद ॥ ४ ॥ अमूल्यरत्नं यत्किञ्चिन्मुक्तामाणिक्यहीरकम् । ददौ विप्राय गुरवे यात्रामङ्गलहेतवे ॥ ५ ॥ गजरत्नमश्वरत्नं धनरत्नं मनोहरम् । ददौ सर्वं दरिद्राय विप्राय मङ्गलाय च ॥ ६ ॥ भाण्डाराणां सहस्राणि नगराणां द्विलक्षकम् । ग्रामाणां शतकोटिं च ब्राह्मणाय ददौ मुदा ॥ ७ ॥
हे नारद ! उसने प्रतिदिनकी भाँति ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक उत्तम रत्न, श्रेष्ठ मणियाँ, सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्ण प्रदान किया । यात्रा मंगलमयी होनेके लिये उसने बहुमूल्य रत्न, मोती, मणि तथा हीरा आदि जो कुछ उसके पास था, अपने विप्र गुरुको समर्पित किया । उसने अपने कल्याणार्थ श्रेष्ठ तथा सुन्दर हाथी, घोड़े और धन-सामग्री सब कुछ दरिद्र ब्राह्मणोंको प्रदान किये । इसी प्रकार शंखचूड़ने ब्राह्मणोंको प्रसन्नतापूर्वक हजारों कोष, भण्डार, दो लाख नगर और सौ करोड़ गाँव प्रदान किये ॥ ४-७ ॥
पुत्रं कृत्वा तु राजेन्द्रं सर्वेषु दानवेषु च । पुत्रं समर्प्य भार्यां तां राज्यं च सर्वसम्पदम् ॥ ८ ॥ प्रजानुचरसङ्घं च भाण्डारं वाहनादिकम् । स्वयं सन्नाहयुक्तश्च धनुष्पाणिर्बभूव ह ॥ ९ ॥ भृत्यद्वारा क्रमेणैव चकार सैन्यसञ्चयम् । अश्वानां च त्रिलक्षेण लक्षेण वरहस्तिनाम् ॥ १० ॥ रथानामयुतेनैव धानुष्काणां त्रिकोटिभिः । त्रिकोटिभिर्वर्मिणां च शूलिनां च त्रिकोटिभिः ॥ ११ ॥
तत्पश्चात् उसने अपने पुत्रको सम्पूर्ण दानवोंका राजा बनाकर उसे अपनी पत्नी, राज्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति, प्रजा, सेवक वर्ग, कोष और वाहन आदि सौंपकर स्वयं कवच पहन लिया और हाथमें धनुष धारण कर लिया, फिर क्रमसे सेवकोंके माध्यमसे सैनिकोंको एकत्र किया । हे नारद ! उस दानवराजके द्वारा तीन लाख घोड़ों, एक लाख उत्तम कोटिके हाथियों, दस हजार रथों, तीन करोड़ धनुर्धारियों, तीन करोड़ कवचधारियों और तीन करोड़ त्रिशूलधारियोंसे युक्त एक विशाल सेना तैयार कर ली गयी । ८-११ ॥
कृता सेनापरिमिता दानवेन्द्रेण नारद । तस्यां सेनापतिश्चैव युद्धशास्त्रविशारदः ॥ १२ ॥ महारथः स विज्ञेयो रथिनां प्रवरो रणे । त्रिलक्षाक्षौहिणीसेनापतिं कृत्वा नराधिपः ॥ १३ ॥ त्रिंशदक्षौहिणीबाधं भाण्डौघं च चकार ह । बहिर्बभूव शिविरान्मनसा श्रीहरिं स्मरन् ॥ १४ ॥
जो रणमें सभी रथियों में श्रेष्ठ होता है, उसे महारथी कहा जाता है । उसने यद्धशास्त्रमें विशारद ऐसे ही एक महारथीको उस सेनाका सेनापति नियुक्त कर दिया । इस प्रकार राजा शंखचूड़ने उसे तीन लाख अक्षौहिणी सेनाका सेनापति बनाकर उसे तीस-तीस अक्षौहिणी सेनाके समूहोंमें रक्षाके लिये सैन्यसामग्रीसे सम्पन्न कर दिया और तत्पश्चात् मनमें भगवान् श्रीहरिका स्मरण करता हुआ वह शिविरसे बाहर निकल गया ॥ १२-१४ ॥
रत्नेन्द्रसारनिर्माणविमानमारुरोह सः । गुरुवर्गान्पुरस्कृत्य प्रययौ शङ्करान्तिकम् ॥ १५ ॥
वह सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित विमानपर आरूढ़ हुआ और गुरुवृन्दोंको आगे करके भगवान् शंकरके पास चल पड़ा ॥ १५ ॥
पुष्पभद्रानदीतीरे यत्राक्षयवटः शुभः । सिद्धाश्रमं च सिद्धानां सिद्धिक्षेत्रं च नारद ॥ १६ ॥ कपिलस्य तपःस्थानं पुण्यक्षेत्रे च भारते । पश्चिमोदधिपूर्वे च मलयस्य च पश्चिमे ॥ १७ ॥ श्रीशैलोत्तरभागे च गन्धमादनदक्षिणे ।
हे नारद ! पुष्यभद्रानदीके तटपर एक सुन्दर वटवृक्ष है, वहाँ सिद्ध महात्माओंका सिद्धाश्रम है । उस स्थानको सिद्धिक्षेत्र कहा गया है । भारतमें स्थित वह पुण्यक्षेत्र कपिलमुनिकी तपोभूमि है । वह पश्चिमी समुद्रके पूर्वमें, मलयपर्वतके पश्चिममें, श्रीशैलपर्वतकी उत्तर दिशामें तथा गन्धमादनपर्वतकी दक्षिण दिशामें स्थित है ॥ १६-१७.५ ॥
पञ्चयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये शतगुणा तथा ॥ १८ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशा भारते च सुपुण्यदा । शाश्वती जलपूर्णा च पुष्पभद्रा नदी शुभा ॥ १९ ॥ लवणाब्धिप्रिया भार्या शश्वत्सौभाग्यसंयुता । शरावतीमिश्रिता च निर्गता सा हिमालयात् ॥ २० ॥
वहाँ भारतवर्षकी एक पुण्यदायिनी नदी बहती है, जो पाँच योजन चौड़ी तथा उससे सौ गुनी लम्बी है । पुष्पभद्रा नामक वह कल्याणकारिणी, शाश्वत तथा शुद्ध स्फटिकमणिके सदृश प्रतीत होनेवाली नदी जलसे सदा परिपूर्ण रहती है । लवणसमुद्रकी प्रिय भार्याके रूपमें प्रतिष्ठित वह नदी सदा सौभाग्यवती बनी रहती है । वह हिमालयसे निकली हुई है तथा कुछ दूर जाकर शरावती नदीमें मिल गयी है । वह गोमतीको अपनेसे बायें करके प्रवाहित होती हुई अन्तमें पश्चिमी समुद्रमें समाविष्ट हो जाती है ॥ १८-२० ॥
गोमतीं वामतः कृत्वा प्रविष्टा पश्चिमोदधौ । तत्र गत्वा शङ्खचूडो ददर्श चन्द्रशेखरम् ॥ २१ ॥ वटमूले समासीनं सूर्यकोटिसमप्रभम् । कृत्वा योगासनं दृष्ट्वा मुद्रायुक्तं च सस्मितम् ॥ २२ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । त्रिशलपट्टिशधरं व्याघ्रचर्माम्बरं वरम् ॥ २३ ॥
वहाँ पहुँचकर शंखचूड़ने देखा कि करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान चन्द्रशेखर भगवान शिव वटवृक्षके नीचे विराजमान हैं । वे मुद्रासे युक्त होकर योगासनमें स्थित थे और उनके मुखमण्डलपर मुसकान व्याप्त थी । ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान वे भगवान् शंकर शुद्ध स्फटिकमणिके समान प्रतीत हो रहे थे । वे अपने हाथोंमें त्रिशूल और पट्टिश तथा शरीरपर श्रेष्ठ बाघम्बर धारण किये हुए थे ॥ २१-२३ ॥
भक्तमृत्युहरं शान्तं गौरीकान्तं मनोहरम् । तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ २४ ॥ आशुतोषं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकातरम् । विश्वनाथं विश्वबीजं विश्वरूपं च विश्वजम् ॥ २५ ॥ विश्वम्भरं विश्ववरं विश्वसंहारकारकम् । कारणं कारणानां च नरकार्णवतारणम् ॥ २६ ॥ ज्ञानप्रदं ज्ञानबीजं ज्ञानानन्दं सनातनम् । अवरुह्य विमानाच्च तं दृष्ट्वा दानवेश्वरः ॥ २७ ॥ सर्वैः सार्धं भक्तियुक्तः शिरसा प्रणनाम सः । वामतो भद्रकालीं च स्कन्दं च तत्पुरः स्थितम् ॥ २८ ॥
अपने भक्तोंकी मृत्युतकको टाल देनेवाले, शान्तस्वभाव, मनोहर, तपस्याओंका फल तथा सभी प्रकारकी सम्पदाएँ प्रदान करनेवाले, शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, प्रसादपूर्ण मुखमण्डलवाले, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये व्याकुल, विश्वनाथ, विश्वबीज, विश्वरूप, विश्वज, विश्वम्भर, विश्ववर, विश्वसंहारक, कारणोंके भी कारण, नरकरूपी समुद्रसे पार करनेवाले, ज्ञानप्रद, ज्ञानबीज, ज्ञानानन्द तथा सनातन उन गौरीपति महादेवको देखकर उस दानवेश्वर शंखचूड़ने विमानसे उतरकर सबके साथ वहाँ विद्यमान शंकरको सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया । शंखचूड़ने शिवके वामभागमें विराजमान भद्रकाली तथा उनके सामने स्थित कार्तिकेयको भी प्रणाम किया । तब भद्रकाली, कार्तिकेय तथा भगवान् शंकरने उसे आशीर्वाद प्रदान किया ॥ २४-२८ ॥
आशिषं च ददौ तस्मै काली स्कन्दश्च शङ्करः । उत्तस्थुरागतं दृष्ट्वा सर्वे नन्दीश्वरादयः ॥ २९ ॥ परस्परं च भाषन्ते चक्रुस्तत्र च साम्प्रतम् । राजा कृत्वा च सम्भाषामुवास शिवसन्निधौ ॥ ३० ॥
शंखचूड़को वहाँ आया देखकर नन्दीश्वर आदि सभी गण उठकर खड़े हो गये और परस्पर सामयिक बातें करने लगे । उनसे बातचीत करके राजा शंखचूड़ शिवके समीप बैठ गया, तब प्रसन्न चित्तवाले भगवान् महादेव उससे कहने लगे ॥ २९-३० ॥
महादेवजी बोले-सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाले धर्मात्मा ब्रह्मा धर्मके पिता हैं, परम वैष्णव तथा धर्मपरायण मरीचि उन धर्मके पुत्र हैं और उन मरीचिके पुत्र धर्मपरायण कश्यप हैं । प्रजापति दक्षने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपनी तेरह कन्याएँ सौंप दी थीं । उन्हीं कन्याओंमें एक परम साध्वी दनु भी है, जो उस वंशका सौभाग्य बढ़ानेवाली हुई ॥ ३१-३३ ॥
उस दनुके चालीस पुत्र हुए, जो तेजसम्पन्न प्रबल दानवके रूपमें विख्यात थे । उन पुत्रों में महान् बल तथा पराक्रमसे युक्त एक पुत्र विप्रचित्ति था । उसका पुत्र दम्भ था; जो परम धार्मिक, विष्णुभक्त तथा जितेन्द्रिय था । उसने शुक्राचार्यको गुरु बनाकर परमात्मा श्रीकृष्णके उत्तम मन्त्रका पुष्कर क्षेत्रमें एक लाख वर्षतक जप किया; तब उसने कृष्णकी भक्ति में सदा संलग्न रहनेवाले तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुषको पुत्ररूपमें प्राप्त किया । ३४-३६ ॥
पूर्वजन्ममें तुम भगवान् कृष्णके पार्षद और गोपोंमें परम धार्मिक गोप थे । इस समय तुम राधिकाके शापसे भारतवर्षमें दानवेश्वर बन गये हो ॥ ३७ ॥
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं तुच्छं मेने च वैष्णवः । सालोक्यसार्ष्टिसायुज्यसामीप्यं च हरेरपि ॥ ३८ ॥ दीयमानं न गृह्णन्ति वैष्णवाः सेवनं विना । ब्रह्मत्वममरत्वं वा तुच्छं मेने च वैष्णवः ॥ ३९ ॥ इन्द्रत्वं वा मनुत्वं वा न मेने गणनासु च । कृष्णभक्तस्य ते किं वा देवानां विषये भ्रमे ॥ ४० ॥
भगवान् विष्णुका भक्त ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सभीको तुच्छ समझता है । वैष्णव श्रीहरिकी सेवाको छोड़कर सालोक्य, साष्टि, सायुज्य और सामीप्यइन मुक्तियोंको दिये जानेपर भी स्वीकार नहीं करते । वैष्णव ब्रह्मत्व अथवा अमरत्वको भी तुच्छ मानता है, इन्द्रत्व अथवा मनुष्यत्वको तो वह किन्हीं भी गणनाओंमें स्थान नहीं देता है तो फिर तुम-जैसे कृष्णभक्तको देवताओंके भ्रमात्मक राज्यसे क्या प्रयोजन ! ॥ ३८-४० ॥
हे राजन् ! तुम देवताओंका राज्य वापस कर दो और मेरी प्रीतिकी रक्षा करो । तुम अपने राज्यमें सुखपूर्वक रहो और देवता अपने स्थानपर रहें । प्राणियों में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये । क्योंकि सभी तो मुनि कश्यपके ही वंशज हैं । ब्रह्महत्या आदिसे होनेवाले जितने पाप हैं, वे जाति-द्रोह करनेसे लगनेवाले पापकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ ४१-४२.५ ॥
स्वसम्पदां च हानिं च यदि राजेन्द्र मन्यसे ॥ ४३ ॥ सर्वावस्था च समतां केषां याति च सर्वदा । ब्रह्मणश्च तिरोभावो लये प्राकृतिके सदा ॥ ४४ ॥ आविर्भावः पुनस्तस्य प्रभावादीश्वरेच्छया । ज्ञानवृद्धिश्च तपसा स्मृतिलोपश्च निश्चितम् ॥ ४५ ॥ करोति सृष्टिं ज्ञानेन स्रष्टा सोऽपि क्रमेण च ।
हे राजेन्द्र ! यदि तुम इसे अपनी सम्पत्तिकी हानि मानते हो तो यह सोचो कि किन लोगोंकी सभी स्थितियाँ सदा एकसमान रहती हैं । प्राकृतिक प्रलयके समय ब्रह्माका भी सदा तिरोधान हो जाया करता है । तदनन्तर ईश्वरके प्रभाव तथा उनकी इच्छासे पुनः उनका प्राकट्य होता है । उस समय उनकी स्मृति लुप्त रहती है, फिर तपस्याके द्वारा उनके ज्ञानमें वृद्धि हो जाती है, यह निश्चित है । तत्पश्चात् वे ब्रह्मा ज्ञानपूर्वक क्रमश: सृष्टि करते हैं ॥ ४३-४५.५ ॥
सत्ययुगमें लोग सदा सत्यके आश्रयपर रहते हैं, इसलिये उस युगमें धर्म अपने परिपूर्णतम स्वरूपमें विद्यमान रहता है । वही धर्म त्रेतायुगमें तीन भागसे, द्वापरमें दो भागसे तथा कलिमें एक भागसे युक्त कहा गया है । इस प्रकार क्रमसे उसका एक-एक अंश कम होता रहता है । कलिके अन्तमें अमावस्याके चन्द्रमाकी भाँति धर्मकी कला केवल नाममात्र रह जाती है ॥ ४६-४७.५ ॥
यादृक् तेजो रवेर्ग्नीष्मे न तादृक् शिशिरे पुनः ॥ ४८ ॥ दिनेषु यादृङ्मध्याह्ने सायं प्रातर्न तत्समम् । उदयं याति कालेन बालतां च क्रमेण च ॥ ४९ ॥ प्रकाण्डतां च तत्पश्चात्कालेऽस्तं पुनरेति सः । दिने प्रच्छन्नतां याति कालेन दुर्दिने घने ॥ ५० ॥
ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यका जैसा तेज रहता है, वैसा शिशिर ऋतु में नहीं रह जाता । दिनमें भी सूर्यका जैसा तेज मध्याह्नकालमें होता है, उसके समान तेज प्रातः तथा सार्यकालमें नहीं रहता । सूर्य समयसे उगते हैं, फिर क्रमसे बालसूर्यक रूपमें हो जाते हैं, तत्पश्चात् प्रचण्डरूपसे प्रकाशित होने लगते हैं और पुनः यथासमय अस्त हो जाते हैं । वह काल ऐसा भी कर देता है कि सूर्यको दिनमें ही मेघाच्छन्न आकाशमें छिप जाना पड़ता है । वे ही सूर्य राहुसे ग्रसित होनेपर काँपने लगते हैं और फिर थोड़ी ही देरमें प्रसन्न हो जाते हैं । ४८-५० ॥
राहुग्रस्ते कम्पितश्च पुनरेव प्रसन्नताम् । परिपूर्णतमश्चन्द्रः पूर्णिमायां च जायते ॥ ५१ ॥ तादृशो न भवेन्नित्यं क्षयं याति दिने दिने । पुनश्च पुष्टिमायाति परं कुह्वा दिने दिने ॥ ५२ ॥ सम्पद्युक्तः शुक्लपक्षे कृष्णे म्लानश्च यक्ष्मणा । राहुग्रस्ते दिने म्लानो दुर्दिने न विरोचते ॥ ५३ ॥
जैसे पूर्णिमा तिथिको चन्द्रमा पूर्णतम रहते हैं, वैसे वे सदा नहीं रहते, अपितु प्रतिदिन उनकी कलामें क्रमशः क्षय होता रहता है । तत्पश्चात् अमावस्यासे इनमें दिनोंदिन वृद्धि होने लगती है और ये पुनः पुष्ट हो जाते हैं । चन्द्रमा शुक्लपक्षमें शोभायुक्त रहते हैं और कृष्णपक्षमें क्षयके द्वारा म्लान हो जाते हैं । राहुके द्वारा ग्रसित होनेके अवसरपर ये शोभाहीन हो जाते हैं और आकाशके मेघाच्छन्न होनेके समय ये प्रकाशित नहीं होते; इस प्रकार कालभेदसे चन्द्रमा किसी समय तेजस्वी और किसी समय शोभाविहीन हो जाते हैं ॥ ५१-५३ ॥
इस समय श्रीविहीन राजा बलि भविष्यमें सुतललोकके इन्द्र होंगे । सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी कालके प्रभावसे सस्योंसे सम्पन्न हो जाती है और फिर वही पृथ्वी कालके प्रभावसे [प्रलयकालीन] जलमें निमग्न हो जाती है और तिरोहित होकर आप्लावित हो जाती है ॥ ५४-५५ ॥
एक निश्चित समयपर सभी लोक नष्ट हो जाते हैं और फिर समयपर उत्पन्न भी हो जाते हैं । इस प्रकार जगत्के सम्पूर्ण चराचर पदार्थ कालके ही प्रभावसे नष्ट होते हैं तथा उत्पन्न होते हैं ॥ ५६ ॥
ईश्वरस्यैव समता ब्रह्मणः परमात्मनः । अहं मृत्युञ्जयो यस्मादसंख्यं प्राकृतं लयम् ॥ ५७ ॥ आदर्शं चापि द्रक्ष्यामि वारं वारं पुनः पुनः । स च प्रकृतिरूपश्च स एव पुरुषः स्मृतः ॥ ५८ ॥
ऐश्वर्यसम्पन्न परब्रह्म परमात्माकी ही समता कालसे हो सकती है । उन्हींकी कृपासे मैं मृत्युंजय हो सका हूँ, मैंने असंख्य प्राकृत प्रलय देखे हैं तथा आगे भी बार-बार देखंगा । वे ही प्रकृतिरूप हैं और वे ही परम पुरुष भी कहे गये हैं । वे परमेश्वर ही आत्मा हैं, वे ही जीव हैं और वे ही अनेक प्रकारके रूप धारण करके सर्वत्र विराजमान हैं ॥ ५७-५८ ॥
स चात्मा स च जीवश्च नानारूपधरः परः । करोति सततं यो हि तनामगुणकीर्तनम् ॥ ५९ ॥ काले मृत्युं स जयति जन्मरोगभयं जराम् । स्रष्टा कृतो विधिस्तेन पाता विष्णुः कृतो भवेत् ॥ ६० ॥ अहं कृतश्च संहर्ता वयं विषयिणः कृताः । कालाग्निरुद्रं संहारे नियोज्य विषये नृप ॥ ६१ ॥ अहं करोमि सततं तन्नामगुणकीर्तनम् । तेन मृत्युञ्जयोऽहं च ज्ञानेनानेन निर्भयः ॥ ६२ ॥
जो मनुष्य उन परमेश्वरके नामों तथा गुणोंका सतत कीर्तन करता है, वह यथासमय जन्म, मृत्यु, रोग, भय तथा बुढ़ापेपर विजय प्राप्त कर लेता है । उन्हीं परमेश्वरने ब्रह्माको सृजनकर्ता, विष्णुको पालनकर्ता तथा मुझ महादेवको संहारकर्ताक रूपमें स्थापित किया है । इस प्रकार उन्हींके द्वारा हमलोग अपने-अपने कार्यों में नियुक्त किये गये हैं ॥ ५९-६०.५ ॥
मृत्युर्मृत्युभयाद्याति वैनतेयादिवोरगाः ।
हे राजन् ! इस समय मैं कालाग्नि रुद्रको संहारकार्यमें नियुक्त करके उन्हीं परमात्माके नाम और गुणका निरन्तर कीर्तन कर रहा हूँ । इसीसे मैं मृत्युको जीत लेनेवाला हो गया हूँ और इस ज्ञानसे सम्पन्न हुआ मैं सदा निर्भय रहता हूँ । मेरे पास आनेसे मृत्यु भी अपनी मृत्युके भयसे उसी प्रकार भाग जाती है, जैसे गरुडके भयसे सर्प ॥ ६१-६२.५ ॥
इत्युक्त्वा स च सर्वेशः सर्वभावेन तत्परः ॥ ६३ ॥ विरराम च शम्भुश्च सभामध्ये च नारद । राजा तद्वचनं श्रुत्वा प्रशशंस पुनः पुनः ॥ ६४ ॥
हे नारद ! पूर्णरूपसे तत्पर होकर सभाके बीच अपने सम्पूर्ण भावोंको प्रदर्शित करते हुए सर्वेश्वर महादेव शंखचूड़से ऐसा कहकर चुप हो गये । उनकी बात सुनकर राजा शंखचूड़ने बार-बार उनकी प्रशंसा की और वह विनम्रतापूर्वक उन परम प्रभुसे यह मधुर वचन कहने लगा ॥ ६३-६४ ॥
आपने अभी यह कहा है कि जाति-द्रोह करनेमें महान् पाप होता है, तो फिर बलिका सर्वस्व छीनकर आपलोगोंने उसे सुतललोकमें क्यों भेज दिया ? हे प्रभो ! मैं ही बलिके समस्त ऐश्वर्यको पातालसे उठाकर यहाँ लाया हूँ, [अतः इसपर मेरा ही पूर्ण अधिकार है । उस समय मैं बलिको सुतललोकसे लाने में समर्थ नहीं था क्योंकि भगवान श्रीहरि गदा धारण किये वहाँ स्थित थे । देवताओंने भाईसहित हिरण्याक्षका वध क्यों किया और उन्होंने शुम्भ आदि असुरोंको क्यों मार डाला ? इसी प्रकार प्राचीन कालमें समुद्र-मन्थनके समय देवता सारा अमृत पी गये थे । उस समय कष्ट तो हम दानवोंने उठाया था और उसके अमृतरूपी फलका भोग उन समस्त देवताओंने किया था ॥ ६६-६९.५ ॥
यह विश्व प्रकृतिस्वरूप उन परमात्माका क्रीडाभाण्ड है । वे जिस व्यक्तिको जहाँ जो सम्पत्ति देते हैं, वह उस समय उसीकी हो जाती है । किसी निमित्तको लेकर देवता तथा दानवोंके बीच विवाद सदासे निरन्तर चला आ रहा है । किसी समय उनकी जीत अथवा हार होती है और समयानुसार कभी हमारी जीत-हार होती है । अतः ऐसी स्थितिमें देवता तथा दानव दोनोंके समान सम्बन्धी तथा बन्धुस्वरूप आप महात्मा परमेश्वरका हम दोनोंके विरोधके बीचमें आना निरर्थक है । यदि इस समय हमलोगोंके साथ आप युद्ध करेंगे, तो यह आपके लिये महान् लजाकी बात होगी । हमारी जीत होनेपर पहलेसे भी अधिक हम दानवोंकी कीर्ति बढ़ जायगी और पराजय होनेपर आपकी मानहानि होगी ॥ ७०-७३.५ ॥
[हे नारद !] शंखचूड़की यह बात सुनकर तीन नेत्रोंवाले भगवान् शिवने हँसकर उस दानवेन्द्रको समुचित उत्तर देना आरम्भ किया । ७४.५ ॥
महादेव उवाच युष्माभिः सह युद्धे मे ब्रह्मवंशसमुद्भवैः ॥ ७५ ॥ का लज्जा महती राजन्नकीर्तिर्वा पराजये । युद्धमादौ हरेरेव मधुना कैटभेन च ॥ ७६ ॥ हिरण्यकशिपोश्चैव सह तेनात्मना नृप । हिरण्याक्षस्य युद्धं च पुनस्तेन गदाभृता ॥ ७७ ॥ त्रिपुरैः सह युद्धं च मयापि च पुरा कृतम् । सर्वेश्वर्याः सर्वमातुः प्रकृत्याश्च बभूव ह ॥ ७८ ॥ सह शुम्भादिभिः पूर्वं समरः परमाद्भुतः ।
महादेवजी बोले-हे राजन् ! ब्रह्माके ही वंशमें उत्पन्न हुए तुमलोगोंके साथ युद्ध करनेमें मुझे कौन-सी बड़ी लज्जा होगी और हारनेपर अपकीर्ति ही क्या होगी ? हे नृप ! इसके पहले भी तो मधु और कैटभसे श्रीहरिका युद्ध हो चुका है । एक बार उनके साथ हिरण्यकशिपुका युद्ध हुआ था और इसके बाद श्रीहरिने गदा लेकर हिरण्याक्षके साथ भी युद्ध किया था । मैं भी तो पूर्वकालमें त्रिपुर राक्षसके साथ युद्ध कर चुका हूँ । इसी प्रकार पूर्व समयमें शुम्भ आदि दानवोंके साथ सर्वेश्वरी, सर्वजननी पराप्रकृतिका भी अत्यन्त विस्मयकारी युद्ध हुआ था । ७५-७८.५ ॥
पार्षदप्रवरस्त्वं च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ७९ ॥ ये ये हताश्च दैतेया नहि केऽपि त्वया समाः । का लज्जा महती राजन् मम युद्धे त्वया सह ॥ ८० ॥ सुराणां शरणस्यैव प्रेषितश्च हरेरहो । देहि राज्यं च देवानामिति मे निश्चितं वचः ॥ ८१ ॥ युद्धं वा कुरु मत्सार्धं वाग्व्यये किं प्रयोजनम् ।
तुम तो परमात्मा श्रीकृष्णके प्रधान पार्षद रहे हो । जो-जो दैत्य मारे गये हैं, वे तुम्हारे-जैसे नहीं थे । अतः हे राजन् ! तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें मुझे कौन-सी बड़ी लजा है ? सभी देवता श्रीहरिकी शरणमें गये थे, तब देवताओंकी सहायताके लिये उन्होंने मुझे भेजा है । तुम देवताओंका राज्य वापस कर दो-यह मेरा निश्चित वचन है, अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो । वाणीका अपव्यय करनेसे क्या लाभ ? ॥ ७९-८१.५ ॥