तत्पश्चात् उसने ब्राह्मणोंको धन प्रदान करके मंगलाचार करवाया और बन्दीजनों, भिक्षुकों तथा सूत-मागधोंको [न्यौछावरस्वरूप] धन दिया ॥ ६ ॥
दृष्ट्वा च पुरतः कान्तं सा तं कान्तं मुदान्विता । तत्पादं क्षालयामास ननाम च रुरोद च ॥ ८ ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीहरि रथसे उतरकर देवी तुलसीके सुन्दर, अत्यन्त मनोहर तथा अमूल्य रत्ननिर्मित भवनमें गये ॥ ७ ॥
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामास कामुकी । ताम्बूलं च ददौ तस्मै कर्पूरादिसुवासितम् ॥ ९ ॥ अद्य मे सफलं जन्म जीवनं च बभूव ह । रणे गतं च प्राणेशं पश्यन्त्याश्च पुनर्गृहे ॥ १० ॥
अपने कान्तिमान् पतिको समक्ष देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई । उसने प्रेमपूर्वक उनका चरण धोया, फिर उन्हें प्रणाम किया और वह रोने लगी ॥ ८ ॥
सस्मिता सकटाक्षं च सकामा पुलकाङ्किता । पप्रच्छ रणवृत्तान्तं कान्तं मधुरया गिरा ॥ ११ ॥
तत्पश्चात् उस कामिनी तुलसीने उन्हें अत्यन्त मनोहर रत्नमय सिंहासनपर बैठाया, पुनः उसने कपूर आदिसे सुगन्धित ताम्बूल उन्हें प्रदान किया । [इसके बाद तुलसीने कहा-] आज मेरा जन्म तथा जीवन-ये दोनों सफल हो गये; क्योंकि मैं युद्धभूमिमें गये हुए अपने प्राणनाथको फिरसे घरमें देख रही हूँ ॥ ९-१० ॥
तुलस्युवाच असंख्यविश्वसंहर्त्रा सार्धमाजौ तव प्रभो । कथं बभूव विजयस्तन्मे ब्रूहि कृपानिधे ॥ १२ ॥
तत्पश्चात् मुसकानयुक्त, तिरछी दृष्टिसे देखती हुई, काममदसे विह्वल और पुलकित अंगोंवाली तुलसी अपने प्राणनाथसे मधुर वाणीमें युद्धसम्बन्धी समाचार पूछने लगी ॥ ११ ॥
तुलसी बोली-प्रभो ! असंख्य ब्रह्माण्डोंका संहार करनेवाले शिवजीके साथ हुए युद्धमें आपकी विजय कैसे हुई ? हे कृपानिधे ! इसे मुझे बताइये ॥ १२ ॥
श्रीभगवानुवाच आवयोः समरः कान्ते पूर्णमब्दं बभूव ह । नाशो बभूव सर्वेषां दानवानां च कामिनि ॥ १४ ॥ प्रीतिञ्च कारयामास ब्रह्मा च स्वयमावयोः । देवानामधिकारश्च प्रदत्तस्तस्य चाज्ञया ॥ १५ ॥
तुलसीका वचन सुनकर शंखचूड़रूपधारी लक्ष्मीकान्त श्रीहरि उस तुलसीसे हँसकर अमृतमय वाणीमें कहने लगे ॥ १३ ॥
मयागतं स्वभवनं शिवलोकं शिवो गतः । इत्युक्त्वा जगतां नाथः शयनं च चकार ह ॥ १६ ॥ रेमे रमापतिस्तत्र रामया सह नारद । सा साध्वी सुखसम्भोगादाकर्षणव्यतिक्रमात् ॥ १७ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे प्रिये ! हम दोनोंका युद्ध पूरे एक वर्षतक होता रहा । हे कामिनि ! उस युद्धमें सभी दानवोंका विनाश हो गया । तब स्वयं ब्रह्माजीने हम दोनोंमें प्रेम करवा दिया और फिर उनकी आज्ञासे मैंने देवताओंको उनका सम्पूर्ण अधिकार लौटा दिया । इसके बाद मैं अपने घर चला आया और शिवजी अपने लोकको चले गये ॥ १४-१५ ॥
सर्वं वितर्कयामास कस्त्वमेवेत्युवाच सा । तुलस्युवाच को वा त्वं वद मायेश भुक्ताहं मायया त्वया ॥ १८ ॥
हे नारद ! यह कहकर जगन्नाथ रमापति श्रीहरि शय्यापर सो गये और जब उस रमणीके साथ विहार करने लगे, तब उस साध्वी तुलसीने अपने मनमें विचार करके सब कुछ जान लिया और 'तुम कौन हो ?'-ऐसा वह उनसे पूछने लगी ॥ १६-१७ ॥
दूरीकृतं मत्सतीत्वं यदतस्त्वां शपामि हे । तुलसीवचनं श्रुत्वा हरिः शापभयेन च ॥ १९ ॥
तुलसी बोली-हे मायेश ! तुम कौन हो, यह मुझे बताओ । तुमने छलपूर्वक मेरा सतीत्व नष्ट किया, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ ॥ १८ ॥
दधार लीलया ब्रह्मन् सुमूर्तिं सुमनोहराम् । ददर्श पुरतो देवी देवदेवं सनातनम् ॥ २० ॥ नवीननीरदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् । कोटिकन्दर्पलीलाभं रत्नभूषणभूषितम् ॥ २१ ॥ ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं शोभितं पीतवाससम् । तं दृष्ट्वा कामिनी कामं मूर्च्छां सम्प्राप लीलया ॥ २२ ॥ पुनश्च चेतनां प्राप्य पुनः सा तमुवाच ह ।
हे ब्रह्मन् ! तुलसीका वचन सुनकर भगवान् श्रीहरिने शापके भयसे लीलापूर्वक अपना मनोहर विष्णुरूप धारण कर लिया ॥ १९ ॥
तुलस्युवाच हे नाथ ते दया नास्ति पाषाणसदृशस्य च ॥ २३ ॥ छलेन धर्मभङ्गेन मम स्वामी त्वया हतः । पाषाणहृदयस्त्वं हि दयाहीनो यतः प्रभो ॥ २४ ॥ तस्मात्पाषाणरूपस्त्वं भवे देव भवाधुना । ये वदन्ति च साधुं त्वां ते भ्रान्ता हि न संशयः ॥ २५ ॥ भक्तो विनापराधेन परार्थे च कथं हतः ।
तब देवी तुलसीने नूतन मेघके समान श्याम वर्णवाले, शरत्कालीन कमलके समान नेत्रोंवाले, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर प्रतीत होनेवाले, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत, मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त प्रसन्न मुख-मण्डलवाले, पीताम्बर धारण किये हुए तथा अनुपम शोभासम्पन्न देवाधिदेव सनातन श्रीहरिको अपने समक्ष देखा । उन्हें देखकर कामिनी तुलसी लीलापूर्वक पूर्णतः मच्छित हो गयी और कुछ देर बाद चेतना प्राप्त करके वह उन श्रीहरिसे पुनः कहने लगी ॥ २०-२२.५ ॥
भृशं रुरोद शोकार्ता विललाप मुहुर्मुहुः ॥ २६ ॥ ततश्च करुणां दृष्ट्वा करुणारससागरः । नयेन तां बोधयितुमुवाच कमलापतिः ॥ २७ ॥
तुलसी बोली-हे नाथ ! आप पाषाणसदृश हो गये हैं, आपमें दया नहीं है । आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट करके मेरे स्वामीको मार डाला । हे प्रभो ! आप पाषाण-हृदयवाले हैं तथा दयाहीन हो गये हैं, अतः हे देव ! आप इसी समय लोकमें पाषाणरूप हो जायें । जो लोग आपको साधु कहते हैं, वे भ्रमित हैं; इसमें सन्देह नहीं है । दूसरेका हित साधनेके लिये आपने अपने भक्तको क्यों मार डाला ? ॥ २३-२५.५ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार शोक-सन्तप्त तुलसीने बहुत रुदन तथा बार-बार विलाप किया । तदनन्तर करुणारसके सागर कमलापति श्रीहरि तुलसीकी कारुणिक अवस्था देखकर नीतियुक्त वचनोंसे उसे समझाते हुए कहने लगे ॥ २६-२७ ॥
कृत्वा त्वां कामिनीं सोऽपि विजहार च तत्क्षणात् । अधुना दातुमुचितं तवैव तपसः फलम् ॥ २९ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे भद्रे ! तुमने भारतमें रहकर मेरे लिये बहुत समयतक तपस्या की है, साथ ही इस शंखचूड़ने भी उस समय तुम्हारे लिये दीर्घ समयतक तपस्या की थी ॥ २८ ॥
इदं शरीरं त्यक्त्वा च दिव्यदेहं विधाय च । रामे रम मया सार्धं त्वं रमासदृशी भव ॥ ३० ॥
तुम्हें पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसने तपस्याका फल प्राप्त करके तुम्हारे साथ विहार किया है । अब तुम्हें तुम्हारेद्धारा की गयी तपस्याका फल देना उचित है ॥ २९ ॥
इयं तनुर्नदीरूपा गण्डकीति च विश्रुता । पूता सुपुण्यदा नॄणां पुण्ये भवतु भारते ॥ ३१ ॥
हे रामे ! अब तुम इस शरीरको त्यागकर तथा दिव्य देह धारण करके मेरे साथ आनन्द करो और [मेरे लिये] लक्ष्मीके समान हो जाओ ॥ ३० ॥
स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताल तथा गोलोकइन सभी स्थानोंमें तुम मेरे सान्निध्यमें रहोगी । वृक्षश्रेष्ठ उत्तम तुलसी नामसे तुम पुष्पोंके मध्य सदा प्रतिष्ठित रहोगी ॥ ३४ ॥
तुलसीतरुमूलेषु पुण्यदेशेषु पुण्यदम् । अधिष्ठानं च तीर्थानां सर्वेषां च भविष्यति ॥ ३७ ॥ तत्रैव सर्वदेवानां ममाधिष्ठानमेव च । तुलसीपत्रपतनप्राप्तये च वरानने ॥ ३८ ॥
तुलसीवृक्षके मूलोंके सान्निध्यवाले पुण्यमय स्थानोंमें समस्त तीर्थोंका पुण्यप्रद अधिष्ठान होगा । हे वरानने ! तुलसीके पत्र अपने ऊपर पड़ें इस उद्देश्यसे वहाँपर मेरा तथा सभी देवताओंका निवास होगा ॥ ३७-३८ ॥
सुधाघटसहस्राणां या तुष्टिस्तु भवेद्धरेः । सा च तुष्टिर्भवेन्नूनं तुलसीपत्रदानतः ॥ ४० ॥
तुलसी-पत्रके जलसे जो व्यक्ति स्नान करता है, उसने मानो सभी तीर्थोंमें स्नान कर लिया और वह सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया ॥ ३९ ॥
जो मनुष्य हाथमें तुलसी लेकर या शरीरमें इसे धारणकर तीथों में प्राण त्यागता है, वह विष्णुलोक जाता है ॥ ४४ ॥
तुलसीं स्वकरे कृत्वा स्वीकारं यो न रक्षति । स याति कालसूत्रं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ४६ ॥
जो मनुष्य तुलसी-काष्ठसे निर्मित मालाको धारण करता है, वह पद-पदपर अश्वमेधयज्ञका फल निश्चय ही प्राप्त करता है ॥ ४५ ॥
करोति मिथ्याशपथं तुलस्या योऽत्र मानवः । स याति कुम्भीपाकं च यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४७ ॥
जो मनुष्य तुलसीको अपने हाथपर रखकर अपने प्रतिज्ञा वचनकी रक्षा नहीं करता, वह कालसूत्रनरकमें पड़ता है और वहाँपर चन्द्रमा तथा सूर्यकी स्थितिपर्यन्त वास करता है ॥ ४६ ॥
तुलसीतोयकणिकां मृत्युकाले च यो लभेत् । रत्नयानं समारुह्य वैकुण्ठे प्राप्यते ध्रुवम् ॥ ४८ ॥
जो मनुष्य इस लोकमें तुलसीके समीप झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह कुम्भीपाकनरकमें जाता है और चौदहों इन्द्रोंकी स्थितितक वहाँ पड़ा रहता है ॥ ४७ ॥
पूर्णिमायाममायां च द्वादश्यां रविसंक्रमे । तैलाभ्यङ्गं च कृत्वा च मध्याह्ने निशि सन्ध्ययोः ॥ ४९ ॥ अशौचेऽशुचिकाले ये रात्रिवासोऽन्विता नराः । तुलसीं ये विचिन्वन्ति ते छिन्दन्ति हरेः शिरः ॥ ५० ॥
मृत्युके समय जिस मनुष्यके मुखमें तुलसीजलका एक कण भी पहुँच जाता है, वह रत्नमय विमानपर आरूढ़ होकर निश्चय ही विष्णुलोकको जाता है ॥ ४८ ॥
त्रिरात्रं तुलसीपत्रं शुद्धं पर्युषितं सति । श्राद्धे व्रते च दाने च प्रतिष्ठायां सुरार्चने ॥ ५१ ॥
पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, सूर्य-संक्रान्ति, मध्याह्नकाल, रात्रि, दोनों सन्ध्याएँ, अशौच तथा अपवित्र समयोंमें, रातके कपड़े पहने हुए तथा शरीरमें तेल लगाकर जो लोग तुलसीके पत्र तोड़ते हैं; वे साक्षात् श्रीहरिका मस्तक ही काटते हैं ॥ ४९-५० ॥
भूगतं तोयपतितं यद्दत्तं विष्णवे सति । शुद्धं च तुलसीपत्रं क्षालनादन्यकर्मणि ॥ ५२ ॥ वृक्षाधिष्ठातृदेवी या गोलोके च निरामये । कृष्णेन सार्धं नित्यं च नित्यक्रीडां करिष्यसि ॥ ५३ ॥
श्राद्ध, व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा देवार्चनके लिये तुलसीपत्र बासी होनेपर भी तीन राततक शुद्ध बना रहता है ॥ ५१ ॥ -
नद्यधिष्ठातृदेवी या भारते च सुपुण्यदा । लवणोदस्य सा पत्नी मदंशस्य भविष्यति ॥ ५४ ॥
पृथ्वीपर पड़ा हुआ अथवा जलमें गिरा हुआ या श्रीविष्णुको चढ़ाया हुआ तुलसीपत्र धो देनेपर दूसरे कार्योंके लिये शुद्ध होता है ॥ ५२ ॥
त्वं च स्वयं महासाध्वी वैकुण्ठे मम सन्निधौ । रमासमा च रामा च भविष्यसि न संशयः ॥ ५५ ॥
वृक्षोंकी अधिष्ठात्री देवी बनकर तुम शाश्वत गोलोकमें मुझ कृष्णके साथ सदा विहार करोगी । उसी प्रकार भारतवर्ष में नदियोंकी जो अत्यन्त पुण्यदायिनी अधिष्ठात्री देवी हैं, उस रूपमें भी तुम मेरे ही अंशस्वरूप लवणसमुद्रकी पत्नी बनोगी ॥ ५३-५४ ॥
मैं भी तुम्हारे शापसे पाषाण बनकर भारतवर्षमें गण्डकीनदीके तटके समीप निवास करूंगा । वहाँ रहनेवाले करोड़ों कीट अपने तीक्ष्ण दाँतरूपी श्रेष्ठ आयुधोंसे काट-काटकर उस शिलाके गड़े में मेरे चक्रका चिह्न बनायेंगे ॥ ५६-५७ ॥ जिसमें एक द्वारका चिह्न होगा, चार चक्र होंगे और जो वनमालासे विभूषित होगा, वह नवीन मेषके समान वर्णवाला पाषाण 'लक्ष्मीनारायण' नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ ५८ ॥
जिसमें एक द्वारका चिह्न तथा चार चक्रके चिह्न होंगे, किंतु जो वनमालाकी रेखासे रहित होगा, उस नवीन मेघके समान श्यामवर्णवाले पाषाणको 'लक्ष्मी-जनार्दन' नामवाला समझना चाहिये ॥ ५९ ॥
जिसमें बहुत सूक्ष्म दो चक्रके चिह्न हों और वनमालाकी रेखा न हो, उस नवीन मेघके सदृश वर्णवाले पाषाणको भगवान् 'वामन' नामसे मानना चाहिये ॥ ६१ ॥
अतिक्षुद्रं द्विचक्रं च वनमालाविभूषितम् । विज्ञेयं श्रीधरं रूपं श्रीप्रदं गृहिणा सदा ॥ ६२ ॥
जिस पाषाणमें अत्यन्त सूक्ष्म आकारके दो चक्र हों तथा जो वनमालासे सुशोभित हो, गृहस्थोंको सदा श्री प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् श्रीधर का ही स्वरूप समझना चाहिये । ६२ ॥
जो मध्यम गोलाईके आकारवाला हो, जिसमें दो चक्र बने हों, जिसपर बाण तथा तरकशका चिह्न अंकित हो और जिसके ऊपर बाणसे कट जानेका चिह्न हो, उस पाषाणको रणमें शोभा पानेवाले भगवान् 'राम' का विग्रह समझना चाहिये । ६४ ॥
मध्यम आकारवाले, सात चक्रोंके चिह्नोंसे अंकित, छत्र तथा आभूषणसे अलंकृत पाषाणको भगवान् 'राजराजेश्वर' समझना चाहिये । वह पाषाण मनुष्योंको विपुल राजसम्पदा प्रदान करनेवाला है ॥ ६५ ॥
द्विसप्तचक्रं स्थूलं च नवनीरदसुप्रभम् । अनन्ताख्यं च विज्ञेयं चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ ६६ ॥
जो पाषाण स्थूल हो, चौदह चक्रोंसे सुशोभित तथा नवीन मेघसदृश प्रभावाला हो; उस धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इन चारों प्रकारके फल प्रदान करनेवाले पाषाणको भगवान् 'अनन्त' का स्वरूप जानना चाहिये ॥ ६६ ॥
चक्राकारं द्विचक्रं च सश्रीकं जलदप्रभम् । सगोष्पदं मध्यमं च विज्ञेयं मधुसूदनम् ॥ ६७ ॥
जो चक्रके आकारवाला हो; जिसमें दो चक्र, श्री और गोखुरके चिह्न सुशोभित हों, ऐसे मध्यम तथा नवीन मेघके समान वर्णवाले पाषाणको भगवान् 'मधुसूदन' का विग्रह समझना चाहिये ॥ ६७ ॥
सुन्दर दर्शनवाले तथा केवल एक गुप्त चक्रसे युक्त पाषाणको भगवान् 'गदाधर' तथा दो चक्रसे युक्त एवं अश्वके मुखकी आकृतिवाले पाषाणको भगवान् ‘हयग्रीव' का विग्रह कहा गया है ॥ ६८ ॥
जो अत्यन्त विस्तृत मुखवाला हो, दो चक्रके चिोंसे सुशोभित हो, जो देखनेमें बड़ा विकट लगता हो, मनुष्योंको शीघ्र वैराग्य प्रदान करनेवाले ऐसे पाषाणको भगवान् 'नरसिंह' का स्वरूप समझना चाहिये ॥ ६९ ॥
द्विचक्रं विस्तृतास्यं च वनमालासमन्वितम् । लक्ष्मीनृसिंहं विज्ञेयं गृहिणां च सुखप्रदम् ॥ ७० ॥
जिसमें दो चक्र हों, जो विस्तृत मुखवाला हो तथा वनमालासे सुशोभित हो, गृहस्थोंको सुख प्रदान करनेवाले ऐसे पाषाणको 'लक्ष्मीनृसिंह' का स्वरूप समझना चाहिये ॥ ७० ॥
द्वारदेशे द्विचक्रं च सश्रीकं च समं स्फुटम् । वासुदेवं तु विज्ञेयं सर्वकामफलप्रदम् ॥ ७१ ॥
जिसके द्वारदेशमें दो चक्र तथा 'श्री' का चिह्न स्पष्ट रूपसे अंकित हो, समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् 'वासुदेव' का विग्रह जानना चाहिये ॥ ७१ ॥
प्रद्युम्नं सूक्ष्मचक्रं च नवीननीरदप्रभम् । सुषिरच्छिद्रबहुलं गृहिणा च सुखप्रदम् ॥ ७२ ॥
जो सूक्ष्म चक्रके चिह्नसे युक्त हो, नवीन मेघके समान श्यामवर्णका हो और जिसके मुखपर बहुतसे छोटे-छोटे छिद्र विद्यमान हों, गृहस्थोंको सुख प्रदान करनेवाले उस पाषाणको 'प्रद्युम्न' का स्वरूप जानना चाहिये ॥ ७२ ॥
द्वे चक्रे चैकलग्ने च पृष्ठं यत्र तु पुष्कलम् । सङ्कर्षणं सुविज्ञेयं सुखदं गृहिणां सदा ॥ ७३ ॥
जिसमें परस्पर सटे हुए दो चक्रोंके चिह्न विद्यमान हों तथा जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, गृहस्थोंको निरन्तर सुख प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् 'संकर्षण' का ही रूप समझना चाहिये ॥ ७३ ॥
छत्राकार शालग्रामके पूजनसे राज्य, गोलाकार शालग्रामके पूजनसे महालक्ष्मी, शकटके आकारवाले शालग्रामके पूजनसे कष्ट तथा शूलके समान अग्रभागवाले शालग्रामके पूजनसे निश्चितरूपसे मृत्यु होती है ॥ ७७ ॥
विकृतास्ये च दारिद्र्यं पिङ्गले हानिरेव च । भग्नचक्रे भवेद्व्याधिर्विदीर्णे मरणं ध्रुवम् ॥ ७८ ॥
विकृत मुखवाले शालग्रामसे दरिद्रता, पिंगलवर्णवालेसे हानि, खण्डित चक्रवालेसे व्याधि तथा विदीर्ण शालग्रामसे निश्चय ही मरण होता है ॥ ७८ ॥
व्रतं दानं प्रतिष्ठा च श्राद्धं च देवपूजनम् । शालग्रामस्य सान्निध्यात्प्रशस्तं तद्भवेदिति ॥ ७९ ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । सर्वयज्ञेषु तीर्थेषु व्रतेषु च तपःसु च ॥ ८० ॥
व्रत, स्नान, प्रतिष्ठा, श्राद्ध तथा देवपूजन आदि जो भी कर्म शालग्रामकी सन्निधिमें किया जाता है, वह प्रशस्त माना जाता है और वह कर्ता मानो सभी तीर्थों में स्नान कर चुका और सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया । इस प्रकार उसे सम्पूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओंका फल मिल जाता है ॥ ७९-८० ॥
चारों वेदोंके पढ़ने तथा तपस्या करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य शालग्रामकी शिलाके पूजनसे निश्चितरूपसे सुलभ हो जाता है ॥। ८१ ॥
(शालग्रामशिलातोयैर्योऽभिषेकं सदा चरेत् । सर्वदानेषु यत्पुण्यं प्रदक्षिणं भुवो यथा ॥) ॥ शालग्रामशिलातोयं नित्यं भुङ्क्ते च यो नरः । सुरेप्सितं प्रसादं च लभते नात्र संशयः ॥ ८२ ॥ तस्य स्पर्शं च वाञ्छन्ति तीर्थानि निखिलानि च । जीवन्मुक्तो महापूतोऽप्यन्ते याति हरेः पदम् ॥ ८३ ॥ तत्रैव हरिणा सार्धमसंख्यं प्राकृतं लयम् । यास्यत्येव हि दास्ये च नियुक्तो दास्यकर्मणि ॥ ८४ ॥
(जो मनुष्य शालग्रामशिलाके जलसे नित्य अभिषेक करता है, वह सभी दान करने तथा पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो पुण्य होता है, उसे प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य शालग्रामशिलाके जलका नित्य पान करता है, वह देवाभिलषित प्रसाद प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है । समस्त तीर्थ उसका स्पर्श करना चाहते हैं । वह जीवन्मुक्त तथा परम पवित्र मनुष्य अन्तमें भगवान् श्रीहरिके लोक चला जाता है । वहाँपर वह भगवान् श्रीहरिके साथ असंख्य प्राकृत प्रलयपर्यन्त रहता है । वह वहाँ भगवानका दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और उनके सेवाकार्य में नियुक्त हो जाता है ॥ ८२-८४ ॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च । तं दृष्ट्वा च पलायन्ते वैनतेयादिवोरगाः ॥ ८५ ॥
ब्रह्महत्यासदृश जो कोई भी पाप हों, वे भी उस व्यक्तिको देखते ही उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे गरुड़को देखकर सर्प ॥। ८५ ॥
उस मनुष्यके चरणकी रजसे पृथ्वीदेवी तुरन्त पवित्र हो जाती हैं और उसके जन्मसे उसके लाखों पितरोंका उद्धार हो जाता है ॥ ८६ ॥
शालग्रामशिलातोयं मृत्युकाले च यो लभेत् । सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ८७ ॥ निर्वाणमुक्तिं लभते कर्मभोगात्प्रमुच्यते । विष्णोः पदे प्रलीनश्च भविष्यति न संशयः ॥ ८८ ॥
जो मनुष्य मृत्युके समय शालग्रामशिलाके जलका पान कर लेता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको चला जाता है । इस प्रकार वह सभी कर्मभोगोंसे मुक्त होकर निर्वाणमुक्ति प्राप्त कर लेता है और भगवान् विष्णुके चरणोंमें लीन हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ ८७-८८ ॥
शालग्रामशिलां धृत्वा मिथ्यावाक्यं वदेत्तु यः । स याति कुम्भीपाके च यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ ८९ ॥
शालग्रामशिलाको हाथमें लेकर जो मनुष्य मिथ्या वचन बोलता है, वह कुम्भीपाकनरकमें जाता है और ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वहाँ निवास करता है ॥ ८९ ॥
शालग्रामशिलां धृत्वा स्वीकारं यो न पालयेत् । स प्रयात्यसिपत्रं च लक्षमन्वन्तरावधि ॥ ९० ॥
जो शालग्रामशिलाको हाथमें लेकर अपने द्वारा की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असिपत्र नामक नरकमें जाता है और वहाँ एक लाख मन्वन्तरकी अवधितक रहता है ॥ ९० ॥
तुलसीपत्रविच्छेदं शालग्रामे करोति यः । तस्य जन्मान्तरे कान्ते स्त्रीविच्छेदो भविष्यति ॥ ९१ ॥ तुलसीपत्रविच्छेदं शङ्खे यो हि करोति च । भार्याहीनो भवेत्सोऽपि रोगी च सप्तजन्मसु ॥ ९२ ॥
हे कान्ते ! जो मनुष्य शालग्रामशिलासे तुलसीपत्रको हटा देता है, वह दूसरे जन्ममें स्त्रीसे वियुक्त हो जाता है । उसी प्रकार जो पुरुष शंखसे तुलसीपत्रको अलग करता है, वह भी सात जन्मोंतक भार्याविहीन तथा रोगयुक्त रहता है ॥ ९१-९२ ॥
शालग्रामं च तुलसीं शङ्खं चैकत्र एव च । यो रक्षति महाज्ञानी स भवेच्छ्रीहरेः प्रियः ॥ ९३ ॥
जो महाज्ञानी व्यक्ति शालग्राम, तुलसी और शंखको एकत्र रखता है, वह भगवान् श्रीहरिके लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ९३ ॥
सकृदेव हि यो यस्यां वीर्याधानं करोति च । तद्विच्छेदे तस्य दुःखं भवेदेव परस्परम् ॥ ९४ ॥ त्वं प्रिया शङ्खचूडस्य चैकमन्वन्तरावधि । शङ्खेन सार्धं त्वद्भेदः केवलं दुःखदस्तथा ॥ ९५ ॥
जो पुरुष एक बार भी जिस किसी स्त्रीके साथ एकान्तवास कर लेता है, वियोग होनेपर उसका दुःख उन दोनोंको परस्पर होता है । तुम एक मन्वन्तरकी अवधितक शंखचूड़की भार्या रह चुकी हो, अतः उसके साथ तुम्हारा वियोग कष्टदायक तो होगा ही ॥ ९४-९५ ॥
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तां च विरराम च नारद । सा च देहं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय च ॥ ९६ ॥ यथा श्रीश्च तथा सा चाप्युवास हरिवक्षसि । स जगाम तया सार्धं वैकुण्ठं कमलापतिः ॥ ९७ ॥
हे नारद ! उस तुलसीसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये । तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरिके वक्षःस्थलपर लक्ष्मीकी भाँति सुशोभित होने लगी । इसके बाद वे लक्ष्मीपति श्रीहरि उसके साथ वैकुण्ठलोक चले गये ॥ ९६-९७ ॥
हे मुने ! वहाँ रहनेवाले कीट शिलाको काटकाटकर उन्हें अनेक प्रकारके रूपोंवाला बना देते हैं । जो-जो शिलाएँ जलमें गिरती हैं, वे निश्चितरूपसे उत्तम फल देनेवाली होती हैं । जो शिलाएँ धरतीपर गिरी रहती हैं, वे सूर्यके तापके कारण पीली पड़ जाती हैं, उन्हें पिंगला शिला समझना चाहिये । इस प्रकार मैंने सारा प्रसंग कह दिया, अब पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १००-१०१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे तुलसीमाहात्म्येन सह शालग्राममहत्त्ववर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे तुलसीमाहात्म्येन सह शालग्राममहत्ववर्णनं नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥