[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
तुलसीपूजाविधिवर्णनम् -
तुलसी-पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन -
नारद उवाच तुलसी च यदा पूज्या कृता नारायणप्रिया । अस्याः पूजाविधानं च स्तोत्रं च वद साम्प्रतम् ॥ १ ॥ केन पूजा कृता केन स्तुता प्रथमतो मुने । तत्र पूज्या सा बभूव केन वा वद मामहो ॥ २ ॥
नारदजी बोले-जिस समय विष्णुप्रिया तुलसीकी पूजा की गयी थी, उस समय उनके लिये किये गये पूजन-विधान तथा स्तोत्रको अब आप मुझे बताइये । हे मुने ! सर्वप्रथम किसने उनकी पूजा की, किसने उनका स्तवन किया और किस प्रकार वे सर्वत्र पूज्य हुई-यह सब आप मुझे बताइये ॥ १-२ ॥
सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! नारदका वचन सुनकर मुनि श्रेष्ठ भगवान् नारायणने हँसकर सभी पापोंका नाश करनेवाली, पुण्यमयी तथा श्रेष्ठ कथा कहना आरम्भ किया ॥ ३ ॥
श्रीनारायण उवाच हरिः संपूज्य तुलसीं रेमे च रमया सह । रमासमानसौभाग्यां चकार गौरवेण च ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-भगवान् श्रीहरि तुलसीकी विधिवत् पूजा करके उस साध्वीके साथ आनन्द करने लगे । उन्होंने तुलसीको गौरव प्रदान करके उसे लक्ष्मीके समान सौभाग्यवती बना दिया ॥ ४ ॥
सेहे च लक्ष्मीर्गङ्गा च तस्याश्च नवसङ्गमम् । सौभाग्यगौरवं कोपात्ते न सेहे सरस्वती ॥ ५ ॥
लक्ष्मी और गंगाने तो उस तुलसीके नवसमागम तथा सौभाग्य-गौरवको सहन कर लिया, किंतु अत्यधिक क्षोभ उत्पन्न होनेके कारण सरस्वती इसे सहन नहीं कर सकीं ॥ ५ ॥
उस मानिनी सरस्वतीने कलहमें श्रीहरिके समक्ष तुलसीको बहुत पीड़ित किया । इससे लज्जा और अपमानके कारण तुलसी अन्तर्धान हो गयीं ॥ ६ ॥
सर्वसिद्धेश्वरी देवी ज्ञानिनां सिद्धियोगिनी । जगामादर्शनं कोपात्सर्वत्र च हरेरहो ॥ ७ ॥
ज्ञानियोंके लिये सर्वसिद्धेश्वरी तथा सिद्धयोगिनी देवी तुलसी कोपके कारण भगवान् श्रीहरिकी आँखोंसे ओझल हो गयीं ॥ ७ ॥
हरिर्न दृष्ट्वा तुलसीं बोधयित्वा सरस्वतीम् । तदनुज्ञां गहीत्वा च जगाम तुलसीवनम् ॥ ८ ॥
जब भगवान् श्रीहरिने तुलसीको कहीं नहीं देखा, तब सरस्वतीको समझा-बुझाकर तथा उससे आज्ञा लेकर वे तुलसीवनकी ओर चल दिये ॥ ८ ॥
तत्र गत्वा च सुस्नातो हरिः स तुलसीं सतीम् । पूजयामास तां ध्यात्वा स्तोत्रं भक्त्या चकार ह ॥ ९ ॥ लक्ष्मीमायाकामवाणीबीजपूर्वं दशाक्षरम् । वृन्दावनीति ङेऽन्तं च वह्निजायान्तमेव च ॥ १० ॥
वहाँ पहुँचकर श्रीहरिने विधिवत् स्नान किया और उन साध्वी तुलसीका पूजन किया । तत्पश्चात् उनका ध्यान करके भगवान्ने भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की । उन्होंने लक्ष्मीबीज (श्री), मायाबीज (ही), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं)-इन बीजोंको पूर्वमें लगाकर 'वृन्दावनी'-इस शब्दके अन्तमें 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर तथा अन्तमें वह्विजाया (स्वाहा)-का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र (श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा)-से पूजन किया था ॥ ९-१० ॥
हे नारद ! जो इस कल्पवृक्षरूपी मन्त्रराजसे विधिपूर्वक तुलसीकी पूजा करता है, वह निश्चितरूपसे समस्त सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है ॥ ११ ॥
घृतदीपेन धूपेन सिन्दूरचन्दनेन च । नैवेद्येन च पुष्पेण चोपचारेण नारद ॥ १२ ॥ हरिस्तोत्रेण तुष्टा सा चाविर्भूता महीरुहात् । प्रसन्ना चरणाम्भोजे जगाम शरणं शुभा ॥ १३ ॥
हे नारद ! घृतका दीपक, धूप, सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्प आदि उपचारों तथा स्तोत्रसे भगवान् श्रीहरिके द्वारा सम्यक् पूजित होकर तुलसीदेवी वृक्षसे तत्काल प्रकट हो गयीं । वे कल्याणकारिणी तुलसी प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणकमलकी शरण में चली गयीं ॥ १२-१३ ॥
तब भगवान् विष्णुने उन्हें यह वर प्रदान किया-'तुम सर्वपूज्या हो जाओ । सुन्दर रूपवाली तुमको मैं अपने मस्तक तथा वक्षःस्थलपर धारण करूँगा और समस्त देवता आदि भी तुम्हें अपने मस्तकपर धारण करेंगे'-ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि उन तुलसीको साथ लेकर अपने स्थानपर चले गये ॥ १४-१५ ॥
सर्वे त्वां धारयिष्यन्ति स्वमूर्ध्नि च सुरादयः । इत्युक्त्वा तां गृहीत्वा च प्रययौ स्वालयं विभुः ॥ १५ ॥ नारद उवाच किं ध्यानं स्तवनं किं वा किं वा पूजाविधानकम् । तुलस्याश्च महाभाग तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १६ ॥
नारदजी बोले-हे महाभाग ! तुलसीका ध्यान क्या है, स्तवन क्या है तथा पूजा-विधान क्या है ? यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ १६ ॥
श्रीनारायण उवाच अन्तर्हितायां तस्यां च हरिर्वृन्दावने तदा । तस्याश्चक्रे स्तुतिं गत्वा तुलसीं विरहातुरः ॥ १७ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] उस समय तुलसीके अन्तर्धान हो जानेपर भगवान् श्रीहरि विरहसे व्यथित हो उठे और वृन्दावन जाकर उन तुलसीकी इस प्रकार स्तुति* करने लगे ॥ १७ ॥
श्रीभगवानुवाच वृन्दरूपाश्च वृक्षाश्च यदैकत्र भवन्ति च । विदुर्बुधास्तेन वृन्दां मत्प्रियां तां भजाम्यहम् ॥ १८ ॥
श्रीभगवान् बोले-जब वृन्दा (तुलसी)-रूप वृक्ष तथा अन्य वृक्ष एकत्र होते हैं, तब विद्वान् लोग उसे 'वृन्दा' कहते हैं । ऐसी 'वृन्दा' नामसे प्रसिद्ध अपनी प्रियाकी मैं उपासना करता हूँ ॥ १८ ॥
पुरा बभूव या देवी त्वादौ वृन्दावने वने । तेन वृन्दावनी ख्याता सौभाग्या तां भजाम्यहम् ॥ १९ ॥
जो देवी प्राचीन कालमें सर्वप्रथम वृन्दावनमें प्रकट हुई थी और इसलिये जो 'वृन्दावनी' नामसे प्रसिद्ध हुई, उस सौभाग्यवती देवीकी मैं उपासना करता हूँ ॥ १९ ॥
असंख्येषु च विश्वेषु पूजिता या निरन्तरम् । तेन विश्वपूजिताऽऽख्यां पूजितां च भजाम्यहम् ॥ २० ॥
असंख्य विश्वोंमें सदा जिसकी पूजा की जाती है, इसलिये 'विश्वपूजिता' नामसे प्रसिद्ध उस सर्वपूजित भगवती तुलसीकी मैं उपासना करता हूँ ॥ २० ॥
असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि त्वया सदा । तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम् ॥ २१ ॥
तुम असंख्य विश्वोंको सदा पवित्र करती हो, अतः तुम 'विश्वपावनी' नामक देवीका मैं विरहसे आतुर होकर स्मरण करता हूँ ॥ २१ ॥
देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया विना । तां पुष्पसारां शुद्धां च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः ॥ २२ ॥
जिसके विना प्रचुर पुष्प अर्पित करनेपर भी देवता प्रसन्न नहीं होते हैं, मैं शोकाकुल होकर 'पुष्पसारा' नामसे विख्यात, पुष्पोंकी सारभूत तथा शुद्धस्वरूपिणी उस देवी तुलसीके दर्शनकी कामना करता हूँ ॥ २२ ॥
संसारमें जिसकी प्राप्तिमात्रसे भक्तको निश्चय ही आनन्द प्राप्त होता है, इसलिये 'नन्दिनी' नामसे विख्यात वह देवी अब मुझपर प्रसन्न हो ॥ २३ ॥
यस्या देव्यास्तुला नास्ति विश्वेषु निखिलेषु च । तुलसी तेन विख्याता तां यामि शरणं प्रियाम् ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण विश्वोंमें जिस देवीकी कोई तुलना नहीं है, अत: 'तुलसी' नामसे विख्यात अपनी उस प्रियाकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २४ ॥
कृष्णजीवनरूपा सा शश्वत्प्रियतमा सती । तेन कृष्णजीवनी सा सा मे रक्षतु जीवनम् ॥ २५ ॥
वह साध्वी तुलसी श्रीकृष्णकी जीवनस्वरूपा तथा उन्हें निरन्तर प्रेम प्रदान करनेवाली है, इसलिये 'कृष्णजीवनी' नामसे प्रसिद्ध वह देवी मेरे जीवनकी रक्षा करे ॥ २५ ॥
इस प्रकार स्तुति करके लक्ष्मीपति भगवान् श्रीहरि वहीं विराजमान हो गये । तभी उन्होंने साक्षात् तुलसीको सामने देखा । वह साध्वी उन श्रीहरिके चरणकमलोंमें अपना मस्तक झुकाये हुए थी और अपमानके कारण वह मानिनी तुलसी रो रही थी । ऐसी मानपूजित प्रियाको देखकर प्रेममूर्ति श्रीहरिने उसे अपने वक्षपर स्थान दिया ॥ २६-२७ ॥
भारत्याज्ञां गहीत्वा च स्वालयं च ययौ हरिः । भारत्या सह तत्प्रीतिं कारयामास सत्वरम् ॥ २८ ॥ वरं विष्णुर्ददौ तस्यै सर्वपूज्या भवेरिति । शिरोधार्या च सर्वेषां वन्द्या मान्या ममेति च ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् सरस्वतीसे आज्ञा लेकर श्रीहरि उसे अपने भवनमें ले गये और वहाँ शीघ्र ही सरस्वतीके साथ उसकी प्रीति करवायी । श्रीहरिने उसे वर प्रदान किया-'तुम सबके लिये तथा मेरे लिये पूजनीय, सिरपर धारण करने योग्य, वन्दनीय तथा मान्य हो जाओ' ॥ २८-२९ ॥
विष्णोर्वरेण सा देवी परितुष्टा बभूव च । सरस्वती तामाकृष्य वासयामास सन्निधौ ॥ ३० ॥
भगवान् विष्णुके इस वरदानसे वे देवी तुलसी परम सन्तुष्ट हो गयीं और सरस्वतीने उन्हें पकड़कर अपने पास बैठा लिया ॥ ३० ॥
लक्ष्मीर्गङ्गा सस्मिता च तां समाकृष्य नारद । गृहं प्रवेशयामास विनयेन सतीं तदा ॥ ३१ ॥
हे नारद ! उस समय लक्ष्मी और गंगाके मुखपर मुसकराहट आ गयी और उन्होंने विनम्रतापूर्वक उन साध्वी तुलसीको पकड़कर घरमें प्रवेश करवाया ॥ ३१ ॥
वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी तथा कृष्णजीवनी-ये तुलसीके आठ नाम हैं । जो मनुष्य तुलसीकी विधिवत् पूजा करके नामके अर्थोंसे युक्त आठ नामोंवाले इस नामाष्टकस्तोत्रका पाठ करता है, वह अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है ॥ ३२-३३ ॥
कार्तिक्यां पूर्णिमायां च तुलस्या जन्म मङ्गलम् । तत्र तस्याश्च पूजा च विहिता हरिणा पुरा ॥ ३४ ॥ तस्यां यः पूजयेत्तां च भक्त्या वै विश्वपावनीम् । सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ३५ ॥
कार्तिकपूर्णिमा तिथिको तुलसीका मंगलमय प्राकट्य हुआ था । उस समय सर्वप्रथम भगवान् श्रीहरिने उनकी पूजा सम्पन्न की थी । अत: जो मनुष्य उस दिन उन विश्वपावनी तुलसीकी भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोक जाता है ॥ ३४-३५ ॥
कार्तिके तुलसीपत्रं यो ददाति च विष्णुवे । गवामयुतदानस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ३६ ॥
जो व्यक्ति कार्तिक महीने में भगवान् विष्णुको तुलसीपत्र अर्पण करता है, वह दस हजार गायोंके दानका फल निश्चितरूपसे प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥
इस नामाष्टकस्तोत्रके श्रवणमात्रसे पुत्रहीनको पुत्र प्राप्त हो जाता है, भार्याहीनको भार्या मिल जाती है, बन्धुविहीनको बन्धुओंकी प्राप्ति हो जाती है, रोगी रोगमुक्त हो जाता है, बन्धनमें पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धनसे छूट जाता है, भयभीत मनुष्य निर्भय हो जाता है और पापी पापसे छूट जाता है ॥ ३७-३८ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने आपको तुलसीस्तोत्र बतला दिया । अब उनका ध्यान तथा पूजाविधि सुनिये । आप भी तो वेदमें कण्वशाखाके अन्तर्गत प्रतिपादित इनके ध्यानके विषयमें जानते ही हैं ॥ ३९ ॥
तद्वृक्षे पूजयेत्तां च भक्त्या चावाहनं विना । तां ध्यात्वा चोपचारेण ध्यानं पातकनाशनम् ॥ ४० ॥ तुलसीं पुष्पसारां च सतीं पूतां मनोहराम् । कृतपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निशिखोपमाम् ॥ ४१ ॥
तुलसीका ध्यान पापोंका नाश करनेवाला है, अतः उनका ध्यान करके बिना आवाहन किये ही तुलसीके वृक्षमें विविध पूजनोपचारोंसे पुष्पोंकी सारभूता, पवित्र, अत्यन्त मनोहर और किये गये पापरूपी ईधनको जलानेके लिये प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान साध्वी तुलसीकी भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये ॥ ४०-४१ ॥
पुष्पेषु तुलना यस्या नास्ति वेदेषु भाषितम् । पवित्ररूपा सर्वासु तुलसी सा च कीर्तिता ॥ ४२ ॥ शिरोधार्या च सर्वेषामीप्सिता विश्वपावनी । जीवन्मुक्तां मुक्तिदां च भजे तां हरिभक्तिदाम् ॥ ४३ ॥
पुष्पोंमें किसीसे भी जिनकी तुलना नहीं है, जिनका महत्त्व वेदोंमें वर्णित है, जो सभी अवस्थाओंमें सदा पवित्र बनी रहती हैं, जो तुलसी नामसे प्रसिद्ध हैं, जो भगवान्के लिये शिरोधार्य हैं, सबकी अभीष्ट हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली हैं । उन जीवन्मुक्त, मुक्तिदायिनी तथा श्रीहरिकी भक्ति प्रदान करनेवाली भगवती तुलसीको मैं उपासना करता हूँ ॥ ४२-४३ ॥
इति ध्यात्वा च संपूज्य स्तुत्वा च प्रणमेत्सुधीः । उक्तं तुलस्युपाख्यानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
[हे नारद !] विद्वान् पुरुषको चाहिये कि इस प्रकारसे देवी तुलसीका ध्यान, पूजन तथा स्तवन करके उन्हें प्रणाम करे । मैंने आपसे तुलसीके उपाख्यानका वर्णन कर दिया; अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे तुलसीपूजाविधिवर्णनं नाम पञ्चविशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्खयां संहितायां नवमस्कन्धे तुलसीपूजाविधिवर्णन नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥