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सावित्रीपूजाविधिकथनम् -
सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान -
नारद उवाच तुलस्युपाख्यानमिदं श्रुतं चातिसुधोपमम् । ततः सावित्र्युपाख्यानं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ पुरा केन समुद्भूता सा श्रुता च श्रुतेः प्रसूः । केन वा पूजिता लोके प्रथमे कैश्च वा परे ॥ २ ॥
नारदजी बोले-तुलसीकी यह अमृततुल्य कथा तो मैंने सुन ली, अब आप सावित्रीकी कथा कहनेकी कृपा कीजिये । ऐसा सुना गया है कि वे सावित्री वेदोंकी जननी हैं । वे सर्वप्रथम किससे उत्पन्न हुई, जगत्में सर्वप्रथम इनकी पूजा किसने की और बादमें किन लोगोंने इनकी पूजा की ? ॥ १-२ ॥
श्रीनारायण उवाच ब्रह्मणा वेदजननी प्रथमे पूजिता मुने । द्वितीये च वेदगणैस्तत्पश्चाद्विदुषां गणैः ॥ ३ ॥ तदा चाश्वपतिर्भूपः पूजयामास भारते । तत्पश्चात्पूजयामासुर्वर्णाश्चत्वार एव च ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! सर्वप्रथम ब्रह्माजीने वेदमाता सावित्रीकी पूजा की, इसके बाद वेदोंने और तदनन्तर विद्वद्गणोंने इनका पूजन किया । तत्पश्चात् भारतवर्षमें राजा अश्वपतिने इनका पूजन किया और इसके बाद चारों वर्णके लोग इनकी पूजा करने लगे ॥ ३-४ ॥
नारद उवाच को वा सोऽश्वपतिर्ब्रह्मन् केन वा तेन पूजिता । सर्वपूज्या च सा देवी प्रथमे कैश्च वा परे ॥ ५ ॥
नारद बोले-हे ब्रह्मन् ! वे अश्वपति कौन थे, सर्वप्रथम उन्होंने सर्वपूज्या उन देवीकी पूजा किस कामनासे की तथा बादमें किन लोगोंने उनका पूजन किया ? ॥ ५ ॥
श्रीनारायण उवाच मद्रदेशे महाराजो बभूवाश्वपतिर्मुने । वैरिणां बलहर्ता च मित्राणां दुःखनाशनः ॥ ६ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! मद्रदेशमें अश्वपति नामक एक महान् राजा हुए । वे अपने शत्रुओंके बलका नाश करनेवाले तथा मित्रोंका दुःख दूर करनेवाले थे ॥ ६ ॥
उनकी महारानी मालती नामसे विख्यात थीं । वे रानी धर्मनिष्ठ थीं । वे उनके लिये उसी प्रकार थीं, जैसे गदाधारी विष्णुके लिये लक्ष्मी ॥ ७ ॥
सा च राज्ञी च वन्ध्या च वसिष्ठस्योपदेशतः । चकाराराधनं भक्त्या सावित्र्याश्चैव नारद ॥ ८ ॥ प्रत्यादेशं न सा प्राप्ता महिषी न ददर्श ताम् । गृहं जगाम दुःखार्ता हृदयेन विदूयता ॥ ९ ॥
हे नारद ! वे रानी मालती निःसन्तान थीं । अत: उन्होंने वसिष्ठके उपदेशानुसार भगवती सावित्रीकी भक्तिपूर्वक आराधना की । किंतु रानीको देवीसे न तो कोई संकेत मिला और न उनके दर्शन ही हुए, अत: कष्टसे व्याकुल होकर दु:खित मनसे वे घर चली गयीं ॥ ८-९ ॥
राजा तां दुःखितां दृष्ट्वा बोधयित्वा नयेन वै । सावित्र्यास्तपसे भक्त्या जगाम पुष्करं तदा ॥ १० ॥ तपश्चकार तत्रैव संयतः शतवत्सरम् । न ददर्श च सावित्र्या प्रत्यादेशो बभूव च ॥ ११ ॥ शुश्रावाकाशवाणीं च नृपेन्द्रश्चाशरीरिणीम् । गायत्र्या दशलक्षं च जपं त्वं कुरु नारद ॥ १२ ॥
राजा अश्वपतिने उन्हें दुःखित देखकर नीतिपूर्ण वचनोंसे समझाया । इसके बाद भक्तिपूर्वक सावित्रीकी तपस्याके लिये वे पुष्करक्षेत्रमें चले गये । वहाँपर उन्होंने इन्द्रियोंको वशमें करके सौ वर्षतक तपस्या की । उन्हें सावित्रीके दर्शन तो नहीं हुए, किंतु प्रत्यादेश प्राप्त हुआ । हे नारद ! उन नृपेन्द्रने यह अशरीरी आकाशवाणी सुनी-[हे राजेन्द्र !] तुम गायत्रीका दस लाख जप करो ॥ १०-१२ ॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र आजगाम पराशरः । प्रणनाम ततस्तं च मुनिर्नृपमुवाच च ॥ १३ ॥
इसी बीच वहाँ मुनि पराशर आ गये । राजाने उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर मुनि राजासे कहने लगे ॥ १३ ॥
मुनि बोले-एक बारका गायत्री-जप दिनभरके पापका नाश कर देता है । दस बार गायत्री-जप करनेसे दिन और रातका पाप नष्ट हो जाता है । गायत्रीका सौ बारका जप महीनेभरके संचित पापको हर लेता है और एक हजार बारका जप वर्षभरके संचित पापका नाश कर देता है । गायत्रीका एक लाख जप इस जन्मके किये गये पापों तथा दस लाख जप अन्य जन्मोंमें किये गये पापोंको नष्ट कर देता है । गायत्रीके एक करोड़ जपसे सभी जन्मोंमें किये गये पाप भस्म हो जाते हैं और इससे भी दस गुना जप विप्रोंकी मुक्ति कर देता है ॥ १४-१६.५ ॥
करं सर्पफणाकारं कृत्वा तद्रन्धमुद्रितम् ॥ १७ ॥ आनम्रमूर्धमचलं प्रजपेत्प्राङ्मुखो द्विजः । अनामिकामध्यदेशादधोऽवामक्रमेण च ॥ १८ ॥ तर्जनीमूलपर्यन्तं जपस्यैवं क्रमः करे ।
द्विजको चाहिये कि हाथको सर्पक फणके आकारका बनाकर अँगुलियोंको परस्पर पूर्णरूपसे सटाकर छिद्ररहित कर ले फिर हाथको नाभिस्थानसे ऊपरकी ओर हृदयदेशतक लाकर कुछ नीचेकी ओर झुकाये हुए उसे स्थिर करके स्वयं पूरबकी ओर मुख करके जप करे । अनामिकाके मध्य भागसे नीचेकी ओर होते हुए प्रदक्षिण क्रमसे तर्जनीके मूलतक जाना चाहिये, करमालाके जपका यही नियम है ॥ १७-१८.५ ॥
श्वेतपङ्कजबीजानां स्फटिकानां च संस्कृताम् ॥ १९ ॥ कृत्वा वै मालिकां राजन् जपेत्तीर्थे सुरालये । संस्थाप्य मालामश्वत्थपत्रे पद्मे च संयतः ॥ २० ॥ कृत्वा गोरोचनाक्तां च गायत्र्या स्नापयेत्सुधीः । गायत्रीशतकं तस्यां जपेच्च विधिपूर्वकम् ॥ २१ ॥ अथवा पञ्चगव्येन स्नात्वा मालां सुसंस्कृताम् । अथ गङ्गोदकेनैव स्नात्वा वातिसुसंस्कृताम् ॥ २२ ॥
हे राजन् ! श्वेतकमलके बीजों अथवा स्फटिकमणिको पवित्र माला बनाकर तीर्थमें या किसी देवालयमें जप करना चाहिये । पीपलके पत्र अथवा कमलपर संयमपूर्वक मालाको रखकर गोरोचनसे अनुलिप्त करे, फिर गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके विद्वान् पुरुष मालाको स्नान कराये । तत्पश्चात् उसी मालासे विधिपूर्वक गायत्री मन्त्रका सौ बार जप करना चाहिये अथवा पंचगव्य या गंगाजलसे स्नान कराकर शुद्ध की हुई मालासे भी जप किया जा सकता है ॥ १९-२२ ॥
एवं क्रमेण राजर्षे दशलक्षं जपं कुरु । साक्षाद्द्रक्ष्यसि सावित्रीं त्रिजन्मपातकक्षयात् ॥ २३ ॥
हे राजर्षे ! इस क्रमसे आप दस लाख गायत्रीका जप कीजिये । इससे आपके तीन जन्मोंके पापोंका नाश हो जायगा और आप भगवती सावित्रीका साक्षात् दर्शन प्राप्त करेंगे ॥ २३ ॥
नित्यं सन्ध्यां च हे राजन् करिष्यसि दिने दिने । मध्याह्ने चापि सायाह्ने प्रातरेव शुचिः सदा ॥ २४ ॥ सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु । यदह्ना कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥ २५ ॥
हे राजन् ! आप पवित्र होकर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालकी सन्ध्या सदा कीजिये । सन्ध्या न करनेवाला व्यक्ति अपवित्र रहता है और वह समस्त कौके लिये अयोग्य हो जाता है । वह दिनमें जो भी सत्कर्म करता है, उसके फलका अधिकारी नहीं रह जाता है ॥ २४-२५ ॥
नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम् । स शूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ॥ २६ ॥
जो ब्राह्मण प्रातः एवं सायंकालकी सन्ध्या नहीं करता, वह शूद्रके समान है और समस्त ब्राह्मणोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है ॥ २६ ॥
यावज्जीवनपर्यन्तं त्रिःसन्ध्यां यः करोति च । स च सूर्यसमो विप्रस्तेजसा तपसा सदा ॥ २७ ॥ तत्पादपद्मरजसा सद्यःपूता वसुन्धरा । जीवन्मुक्तः स तेजस्वी सन्ध्यापूतो हि यो द्विजः ॥ २८ ॥ तीर्थानि च पवित्राणि तस्य संस्पर्शमात्रतः । ततः पापानि यान्त्येव वैनतेयादिवोरगाः ॥ २९ ॥
जो विप्र जीवनपर्यन्त सदा त्रिकालसन्ध्या करता है, वह तपस्या तथा तेजके कारण सूर्यके समान हो जाता है । उसके चरण-कमलकी धूलसे पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है । जो द्विज सन्ध्या करनेके कारण पवित्र हो चुका है, वह तेजसे सम्पन्न तथा जीवन्मुक्त ही है । उसके स्पर्शमात्रसे सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं और उसके पाससे पाप उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे गरुडको देखते ही सर्प ॥ २७-२९ ॥
न गृह्णन्ति सुराः पूजां पितरः पिण्डतर्पणम् । स्वेच्छया च द्विजातेश्च त्रिसन्ध्यारहितस्य च ॥ ३० ॥
जो द्विज त्रिकालसन्ध्या नहीं करता, उसके द्वारा सम्पादित पूजाको देवगण तथा पिण्ड-तर्पणको पितृगण स्वेच्छापूर्वक स्वीकार नहीं करते हैं ॥ ३० ॥
मूलप्रकृत्यभक्तो यस्तन्मन्त्रस्याप्यनर्चकः । तदुत्सवविहीनश्च विषहीनो यथोरगः ॥ ३१ ॥
जो व्यक्ति मूलप्रकृतिको भक्ति नहीं करता, उनके मन्त्रकी आराधना नहीं करता और उनका उत्सव नहीं मनाता; वह विषहीन सर्पकी तरह तेजरहित होता है ॥ ३१ ॥
जो ब्राह्मण भगवान् श्रीहरिको अर्पण किया गया नैवेद्य प्रसादरूपमें ग्रहण नहीं करता, धोबीका काम करता है, बैलपर बोझा ढोनेका काम करता है, शूद्रोंका अन्न खाता है । वह विषहीन सर्पके समान है ॥ ३३ ॥
जो ब्राह्मण शूद्रोंका शव जलाता है, शूद्र स्त्रीका पति बनता है और शूद्रोंके लिये भोजन तैयार करता है; वह विषहीन सर्पकी भाँति निस्तेज होता है ॥ ३४ ॥
शूद्राणां च प्रतिग्राही शूद्रयाजी च यो द्विजः । मसिजीवी असिजीवी विषहीनो यथोरगः ॥ ३५ ॥
जो द्विज शूद्रोंसे दान लेता है, शूद्रोंका यज्ञ कराता है, मुनीमीका काम करता है और तलवार लेकर पहरेदारी करके जीविकोपार्जन करता है । वह विषहीन सर्पकी भाँति तेजशून्य होता है ॥ ३५ ॥
यः कन्याविक्रयी विप्रो यो हरेर्नामविक्रयी । यो विप्रोऽवीरान्नभोजी ऋतुस्नातान्नभोजकः ॥ ३६ ॥ भगजीवी बार्धुषिको विषहीनो यथोरगः । यो विद्याविकयी विप्रो विषहीनो यथोरगः ॥ ३७ ॥ सूर्योदये स्वपेद्यो हि मत्स्यभोजी च यो द्विजः । शिवापूजादिरहितो विषहीनो यथोरगः ॥ ३८ ॥
जो ब्राह्मण कन्या-विक्रय करता है, भगवान्का नाम बेचता है, पति तथा पुत्रसे हीन और ऋतुस्नाता स्त्रीके यहाँ भोजन करता है, स्त्रियोंके व्यभिचारसे अपनी आजीविका चलाता है और सूदखोर होता है; वह विषहीन सर्पके समान तेजरहित होता है । जो द्विज विद्याका विक्रय करता है, वह भी विषहीन सर्पके सदृश होता है । जो ब्राह्मण सूर्योदय हो जानेके बाद सोता रहता है, भोजनमें मछली ग्रहण करता है और भगवतीको पूजासे वंचित है; वह विषहीन सर्पके समान निस्तेज है ॥ ३६-३८ ॥
इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठः सर्वपूजाविधिक्रमम् । तमुवाच च सावित्र्या ध्यानादिकमभीप्सितम् ॥ ३९ ॥ दत्त्वा सर्वं नृपेन्द्राय ययौ च स्वाश्रमे मुने । राजा संपूज्य सावित्रीं ददर्श वरमाप च ॥ ४० ॥
हे मुने ! ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ पराशरने राजा अश्वपतिको सावित्रीकी पूजाके सम्पूर्ण विधान तथा ध्यान आदि आवश्यक प्रयोग बतला दिये । महाराज अश्वपतिको सम्पूर्ण उपदेश देकर मुनि अपने आश्रम चले गये । तत्पश्चात् राजाने भगवती सावित्रीकी विधिवत् उपासना करके उनके दर्शन प्राप्त किये तथा उन्हें अभीष्ट वर भी प्राप्त हो गया ॥ ३९-४० ॥
नारद उवाच किं वा ध्यानं च सावित्र्याः किं वा पूजाविधानकम् । स्तोत्रं मन्त्रं च किं दत्त्वा प्रययौ स पराशरः ॥ ४१ ॥ नृपः केन विधानेन संपूज्य श्रुतिमातरम् । वरं च कं वा सम्प्राप सम्पूज्य तु विधानतः ॥ ४२ ॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि सावित्र्याः परमं महत् । रहस्यातिरहस्यं च श्रुतिसिद्धं समासतः ॥ ४३ ॥
नारदजी बोले-उन मुनि पराशरने राजा अश्वपतिको सावित्रीके किस ध्यान, पूजा-विधान, स्तोत्र तथा मन्त्रका उपदेश देकर प्रस्थान किया था ? साथ ही राजाने किस विधानसे वेदमाता सावित्रीकी भलीभांति पूजा की और इस प्रकार उनकी विधिवत् पूजा करके उन्होंने कौन-सा वर प्राप्त किया ? [हे प्रभो !] सावित्रीका वह परम महिमामय, अत्यन्त रहस्ययुक्त और वेदप्रमाणित सम्पूर्ण प्रसंग संक्षेपमें सुनना चाहता हूँ ॥ ४१-४३ ॥
यह व्रत चौदह वर्षका है । इसमें चौदह फलसहित चौदह प्रकारके नैवेद्य अर्पण किये जाते हैं । पुष्प, धूप, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत आदिसे विधिपूर्वक पूजन करके नैवद्य अर्पण करना चाहिये । एक मंगल-कलश स्थापित करके उसपर पल्लव रख दे । तत्पश्चात् गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वतीकी सम्यक् पूजा करके द्विजको आवाहित कलशपर अपनी इष्टदेवी सावित्रीका ध्यान करना चाहिये ॥ ४५-४७ ॥
शृणु ध्यानं च सावित्र्याश्चोक्तं माध्यन्दिने च यत् । स्तोत्रं पूजाविधानं च मन्त्रं च सर्वकामदम् ॥ ४८ ॥
माध्यन्दिनी शाखामें भगवती सावित्रीका जो ध्यान, स्तोत्र, पूजा-विधान तथा सर्वकामप्रद मन्त्र प्रतिपादित किया गया है, उसे आप सुनिये ॥ ४८ ॥
ध्यान इस प्रकार है-'भगवती सावित्रीका वर्ण तप्त सुवर्णकी प्रभाके समान है, ये ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान हैं, ये ग्रीष्म ऋतुके मध्याह्नकालीन हजारों सूर्योकी सम्मिलित प्रभासे सम्पन्न हैं, इनका मुखमण्डल प्रसन्नता तथा मुसकानसे युक्त है, ये रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, अग्निके समान विशुद्ध वस्त्र इन्होंने धारण कर रखा है, भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही इन्होंने यह विग्रह धारण किया है, ये सुख प्रदान करनेवाली हैं, मुक्ति देनेवाली हैं, ये शान्त स्वभाववाली हैं, जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजीकी प्रिया हैं, ये सर्वसम्पत्तिस्वरूपिणी हैं, सभी प्रकारकी सम्पदाएँ प्रदान करनेवाली हैं, वेदकी अधिष्ठात्री देवी हैं तथा समस्त वेद-शास्त्र इन्हींके स्वरूप हैं-ऐसी उन वेदबीजस्वरूपा वेदमाता सावित्रीकी मैं उपासना करता हूँ । ' इस ध्यानके द्वारा देवी सावित्रीका ध्यान करके नैवेद्य अर्पण करना चाहिये, तदनन्तर हाथोंको सिरसे लगाकर पुनः ध्यान करके भक्तिपूर्वक व्रतीको कलशपर देवी सावित्रीका आवाहन करना चाहिये ॥ ४९-५३ ॥
तदनन्तर वेदोक्त मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए सोलह प्रकारके पूजनोपचार अर्पण करके विधिपूर्वक महादेवी सावित्रीकी पूजा तथा स्तुति करके उन्हें प्रणाम करना चाहिये । आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, भूषण, माला, चन्दन, आचमन और मनोहर शय्या-ये ही देनेयोग्य सोलह उपचार हैं (इनके निम्न मन्त्र हैं) ॥ ५४-५६ ॥
दारुसारविकारं च हेमादिनिर्मितं च वा । देवाधारं पुण्यदं च मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५७ ॥
[आसन-] हे देवि ! श्रेष्ठ काष्ठसे निर्मित अथवा स्वर्णनिर्मित यह देवताओंका आधारस्वरूप पुण्यप्रद आसन मैंने आपको श्रद्धापूर्वक निवेदित किया है । ५७ ॥
तीर्थोदकं च पाद्यं च पुण्यदं प्रीतिदं महत् । पूजाङ्गभूतं शुद्धं च मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५८ ॥
[पाद्य-] परम प्रीति उत्पन्न करनेवाला, पुण्यप्रद तथा पूजाका अंगभूत यह पवित्र तीर्थजल मेरे द्वारा आपको पाद्यरूपमें अर्पित किया गया है ॥ ५८ ॥
[अनुलेपन-] हे अम्बिके ! सुगन्धित द्रव्योंसे निर्मित, दिव्य गन्ध प्रदान करनेवाला तथा चन्दनजलसे मिश्रित यह पवित्र तथा प्रीतिदायक अनुलेपन मैंने आपको भक्तिपूर्वक अर्पण किया है ॥ ६१ ॥
सर्वमङ्गलरूपं च सर्वं च मङ्गलप्रदम् । पुण्यदं च सुधूपं तं गृहाण परमेश्वरि ॥ ६२ ॥ सुगन्धयुक्तं सुखदं मया तुभ्यं निवेदितम् ।
[धूप-] हे परमेश्वरि ! समस्त मंगल प्रदान करनेवाला, पुण्यदायक, सुगन्धयुक्त, सुखदायक तथा सर्वमंगलरूप यह उत्तम धूप मैंने आपको अर्पण किया है, आप ग्रहण करें ॥ ६२.५ ॥
[फल-] अनेक वृक्षोंसे उत्पन्न, विविध रूपोंवाले, फलस्वरूप तथा फल प्रदान करनेवाले इस फलको आप स्वीकार करें ॥ ६९.५ ॥
सर्वमङ्गलरूपं च सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ ७० ॥ नानापुष्पविनिर्माणं बहुशोभासमन्वितम् । प्रीतिदं पुण्यदं चैव माल्यं च प्रतिगृह्यताम् ॥ ७१ ॥
[पुष्पमाला- सभी मंगलोंका मंगल करनेवाली, सर्वमंगलरूपा, अनेक प्रकारके पुष्पोंसे विनिर्मित, परम शोभासे सम्पन्न, प्रीतिदायिनी तथा पुण्यमयी इस मालाको आप स्वीकार करें ॥ ७०-७१ ॥
पुण्यदं च सुगन्धाढ्यं गन्धं च देवि गृह्यताम् । सिन्दूरं च वरं रम्यं भालशोभाविवर्धनम् ॥ ७२ ॥ भूषणानां च प्रवरं सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम् ।
[सिन्दूर-] हे देवि ! पुण्यप्रद तथा सुगन्धपूर्ण इस गन्धको आप स्वीकार करें । ललाटकी शोभा बढ़ानेवाले, भूषणोंमें परम श्रेष्ठ तथा अत्यन्त मनोहर इस सिन्दूरको आप स्वीकार करें ॥ ७२.५ ॥
[यज्ञोपवीत-] पवित्र सूत्रोंसे निर्मित, विशुद्ध, ग्रन्थि (गाँठ)-से युक्त तथा वैदिक मन्त्रोंसे शुद्ध किये गये इस यज्ञोपवीतको आप स्वीकार करें ॥ ७३.५ ॥
द्रव्याण्येतानि मूलेन दत्त्वा स्तोत्रं पठेत्सुधीः ॥ ७४ ॥ ततो विप्राय भक्त्या च व्रती दद्याच्च दक्षिणाम् । सावित्रीति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ७५ ॥ लक्ष्मीमायाकामपूर्वं मन्त्रमष्टाक्षरं विदुः । माध्यन्दिनोक्तं स्तोत्रं च सर्वकामफलप्रदम् ॥ ७६ ॥ विप्रजीवनरूपं च निबोध कथयामि ते ।
हे नारद !] विद्वान् पुरुष मूलमन्त्रोंका उच्चारण करते हुए इन द्रव्योंको भगवती सावित्रीके लिये अर्पण करके स्तोत्र पाठ करे और इसके बाद व्रती ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक दक्षिणा प्रदान करे । सावित्री'-इस शब्दमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर उसके अन्तमें स्वाहा तथा उसके पूर्वमें लक्ष्मी, माया और कामबीजोंको लगानेसे 'श्रीं ह्रीं क्लीं सावित्र्यै स्वाहा'-यह अष्टाक्षर मन्त्र कहा गया है । माध्यन्दिनीशाखामें वर्णित, सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले तथा विप्रोंके जीवनस्वरूप सावित्री-स्तोत्रको आपके सामने व्यक्त करता हूँ-इसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ ७४-७६.५ ॥
हे नारद ! प्राचीन कालकी बात है-गोलोकमें विराजमान श्रीकृष्णने सावित्रीको ब्रह्माके पास जानेकी आज्ञा दी, किंतु वे सावित्री उनके साथ ब्रह्मलोक जानेको तैयार नहीं हुई । तब कृष्णके कहनेपर ब्रह्माजी भक्तिपूर्वक वेदमाता सावित्रीका स्तवन करने लगे । तदनन्तर उन सावित्रीने परम प्रसन्न होकर ब्रह्माको पति बनाना स्वीकार कर लिया ॥ ७७-७८.५ ॥
ब्रह्माजी बोले-सच्चिदानन्द विग्रहवाली, मूलप्रकृति-स्वरूपिणी तथा हिरण्यगर्भरूपवाली हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । परम तेजमय विग्रहवाली, परमानन्दस्वरूपिणी तथा द्विजातियोंके लिये जातिस्वरूपा हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । नित्या, नित्यप्रिया, नित्यानन्दस्वरूपिणी तथा सर्वमंगलमयी हे देवि ! हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । ब्राह्मणोंकी सर्वस्वरूपिणी, मन्त्रोंकी सारभूता, परात्परा, सुख प्रदान करनेवाली तथा मोक्षदायिनी हे देवि ! हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । विप्रोंके पापरूपी ईंधनको दग्ध करनेके लिये प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान तथा ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाली हे देवि ! हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीरसे जो भी पाप करता है, वह सब आपके स्मरणमात्रसे जलकर भस्म हो जायगा ॥ ७९-८४.५ ॥
इस प्रकार स्तुति करके जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी वहींपर सभा-भवनमें विराजमान हो गये । तब वे सावित्री ब्रह्माजीके साथ ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थित हो गयीं ॥ ८५.५ ॥
[हे मुने !] इसी स्तोत्रराजसे राजा अश्वपतिने भगवती सावित्रीकी स्तुति करके उनका दर्शन किया और उनसे मनोभिलषित वर भी प्राप्त किया । जो मनुष्य सन्ध्या करके इस स्तोत्रराजका पाठ करता है, वह उस फलको प्राप्त कर लेता है, जो चारों वेदोंका पाठ करनेसे मिलता है । ८६-८७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां नवमस्कन्धे सावित्रीपूजाविधिकथनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे सावित्रीपूजाविधिकथनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥