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सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादवर्णनम् -
सावित्री-यमराज-संवाद -
श्रीनारायण उवाच यमस्य वचनं श्रुत्वा सावित्री च पतिव्रता । तुष्टाव परया भक्त्या तमुवाच मनस्विनी ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे मुने !] यमराजकी बात सुनकर पतिव्रता तथा दृढ़ निश्चयवाली सावित्रीने परम भक्तिके साथ उनकी स्तुति की और वह उनसे कहने लगी ॥ १ ॥
सावित्र्युवाच किं कर्म तद्भवेत्केन को वा तद्धेतुरेव च । को वा देही च देहः कः को वात्र कर्मकारकः ॥ २ ॥ किं वा ज्ञानं च बुद्धिः का को वा प्राणः शरीरिणाम् । कानीन्द्रियाणि किं तेषां लक्षणं देवताश्च काः ॥ ३ ॥ भोक्ता भोजयिता को वा को वा भोगश्च निष्कृतिः । को जीवः परमात्मा कस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥
सावित्री बोली-कर्म क्या है, वह किससे होता है और उसका हेतु कौन है ? देही कौन है, देह कौन है और इस लोकमें प्राणियोंसे कौन कर्म कराता है ? ज्ञान क्या है, बुद्धि क्या है और शरीरधारियोंका प्राण क्या है ? इन्द्रियाँ क्या हैं तथा उनके कौन-कौन-से लक्षण हैं और देवता कौन हैं, भोग करनेवाला कौन है, भोग करानेवाला कौन है, भोग क्या है, निष्कृति क्या है, जीव कौन है तथा परमात्मा कौन हैं ?-यह सब आप मुझे कृपा करके बताइये ॥ २-४ ॥
धर्म उवाच वेदप्रणिहितो धर्मः कर्म यन्मङ्गलं परम् । अवैदिकं तु यत्कर्म तदेवाशुभमेव च ॥ ५ ॥
धर्म बोले-वेदमें जो भी प्रतिपादित है, वह धर्म है, और वही कर्म परम मंगलकारी कर्म है । इसके विपरीत जो कर्म अवैदिक होता है, वह निश्चितरूपसे अशुभ होता है ॥ ५ ॥
अहैतुकी देवसेवा संकल्परहिता सती । कर्मनिर्मूलरूपा च सा एव परभक्तिदा ॥ ६ ॥
देवताओंकी संकल्परहित तथा अहेतुकी सेवा कर्म-निर्मूलरूपा कही जाती है । यही सेवा पराभक्ति प्रदान करनेवाली होती है ॥ ६ ॥
को वा कर्मफलं भुङ्क्ते को वा निर्लिप्त एव च । ब्रह्मभक्तो यो नरश्च स च मुक्तः श्रुतः श्रुतौ ॥ ७ ॥
कर्मफलका भोक्ता कौन है और कौन निर्लिप्त है ? इसके उत्तरमें श्रुतिका वचन है कि जो मनुष्य ब्रह्मकी भक्ति करता है, वही मुक्त है और वह जन्ममृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा भय-इन सबसे रहित हो जाता है ॥ ७ ॥
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिविवर्जितः । भक्तिश्च द्विविधा साध्वि श्रुत्युक्ता सर्वसम्मता ॥ ८ ॥ निर्वाणपददात्री च हरिरूपप्रदा नृणाम् । हरिरूपस्वरूपां च भक्तिं वाञ्छन्ति वैष्णवाः ॥ ९ ॥
हे साध्वि ! श्रुतिमें दो प्रकारकी सर्वमान्य भक्ति बतायी गयी है । पहली भक्ति निर्वाण पद प्रदान करती है और दूसरे प्रकारकी भक्ति मनुष्योंको साक्षात् श्रीहरिका रूप प्रदान करती है । वैष्णवजन श्रीहरिका सारूप्य प्रदान करनेवाली भक्तिकी कामना करते हैं और अन्य ब्रह्मवेत्ता योगी निर्वाणपद देनेवाली भक्ति चाहते हैं । ८-९ ॥
अन्ये निर्वाणमिच्छन्ति योगिनो ब्रह्मवित्तमाः । कर्मणो बीजरूपश्च सततं तत्फलप्रदः ॥ १० ॥ कर्मरूपश्च भगवान्परात्मा प्रकृतिः परा । सोऽपि तद्धेतुरूपश्च देहो नश्वर एव च ॥ ११ ॥
कर्मका जो बीजरूप है, वह उसका सदा फल प्रदान करनेवाला है । कर्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि तथा परा प्रकृतिका ही रूप है । वे परमात्मा ही कर्मके कारणरूप हैं, यह शरीर तो सदासे नश्वर है ॥ १०-११ ॥
पृथिवी वायुराकाशो जलं तेजस्तथैव च । एतानि सूत्ररूपाणि सृष्टिरूपविधौ सतः ॥ १२ ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये सूत्ररूप पंच महाभूत हैं, जो परमात्माके सृष्टिप्रकरणमें प्रयुक्त होते हैं ॥ १२ ॥
कर्मकर्ता च देही च आत्मा भोजयिता सदा । भोगो विभवभेदश्च नित्कृतिर्मुक्तिरेव च ॥ १३ ॥
कर्म करनेवाला जीव देही है और वही अन्तर्यामी रूपसे भोजयिता भी है । सुख और दुःखके साक्षात् स्वरूप वैभवको ही भोग कहते हैं और इससे छूटनेको ही 'निष्कृति' (मोक्ष) कहा गया है ॥ १३ ॥
सदसद्भेदबीजं च ज्ञानं नानाविधं भवेत् । विषयाणां विभागानां भेदि बीजं च कीर्तितम् ॥ १४ ॥
सत् तथा असत्में भेद करनेका जो प्रधान बीजरूप हेतु है, वही ज्ञान है और वह ज्ञान अनेक भेदोंवाला होता है । वह ज्ञान घट-पट आदि विषयोंके भेदका कारण कहा गया है ॥ १४ ॥
बुद्धिर्विवेचना सा च ज्ञानबीजं श्रुतौ श्रुतम् । वायुभेदाश्च प्राणाश्च बलरूपाश्च देहिनाम् ॥ १५ ॥
विवेचनमयी शक्ति ही बुद्धि है । वह श्रुतिमें ज्ञानबीज नामसे विख्यात है । वायुके विभिन्न रूप प्राण हैं । ये देहधारियोंके लिये बलस्वरूप हैं ॥ १५ ॥
इन्द्रियाणां च प्रवरमीश्वरांशमनूहकम् । प्रेरकं कर्मणां चैव दुर्निवार्यं च देहिनाम् ॥ १६ ॥
जो इन्द्रियोंमें प्रमुख, ईश्वरका अंशरूप, अतयं, कर्मोका प्रेरक, देहधारियोंके लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका भेदक है; उसीको मन कहा गया है ॥ १६ ॥
अनिरूप्यमदृश्यं च ज्ञानभेदो मनः स्मृतम् । लोचनं श्रवणं घ्राणं त्वक्च रसनमिन्द्रियम् ॥ १७ ॥ अङ्गिनामङ्गरूपं च प्रेरकं सर्वकर्मणाम् । रिपुरूपं मित्ररूपं सुखरूपं च दुःखदम् ॥ १८ ॥
आँख, कान, नाक, त्वचा और जिहा-ये कर्मेन्द्रियाँ प्राणियोंके अंगरूप, सभी कर्मोकी प्रेरक, शत्रुरूप, मित्ररूप, [सत्कार्यमें प्रवृत्त होनेपर] सुख देनेवाली तथा [बुरे कार्यमें प्रवृत्त होनेपर] दुःख देनेवाली हैं । सूर्य, वायु, पृथ्वी, ब्रह्मा आदि इन्द्रियोंके देवता कहे गये हैं । १७-१८ ॥
सूर्यो वायुश्च पृथिवी ब्रह्माद्या देवताः स्मृताः । प्राणदेहादिभृद्यो हि स जीवः परिकीर्तितः ॥ १९ ॥ परमं व्यापकं ब्रह्म निर्गुणः प्रकृतेः परः । कारणं कारणानां च परमात्मा स उच्यते ॥ २० ॥ इत्येवं कथितं सर्वं त्वया पृष्टं यथागमम् । ज्ञानिनां ज्ञानरूपं च गच्छ वत्से यथासुखम् ॥ २१ ॥
जो प्राण तथा देहको धारण करता है, उसे जीव कहा गया है । प्रकृतिसे परे तथा कारणका भी कारण जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म है, वही परमात्मा कहा जाता है । [हे सावित्रि !] इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें शास्त्रानुसार बतला दिया । यह प्रसंग ज्ञानियोंके लिये ज्ञानरूप है । हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक चली जाओ ॥ १९-२१ ॥
सावित्र्युवाच त्यक्त्वा क्व यामि कान्तं वा त्वां वा ज्ञानार्णवं ध्रुवम् । यद्यत्करोमि प्रश्नं च तद्भवान्वक्तुमर्हति ॥ २२ ॥
सावित्री बोली-[हे प्रभो !] मैं अपने इन प्राणनाथ तथा ज्ञानके सागरस्वरूप आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ ? इस समय मैं आपसे जो-जो प्रश्न कर रही है, उन्हें आप मुझे बताइये ॥ २२ ॥
कां कां योनिं याति जीवः कर्मणा केन वा पुनः । केन वा कर्मणा स्वर्गं केन वा नरकं पितः ॥ २३ ॥
हे पितः ! किस-किस कर्मके प्रभावसे जीव किस-किस योनिमें जाता है, वह किस कर्मसे स्वर्ग तथा किस कर्मसे नरकमें जाता है ? ॥ २३ ॥
केन वा कर्मणा मुक्तिः केन भक्तिर्भवेद् गुरौ । केन वा कर्मणा योगी रोगी वा केन कर्मणा ॥ २४ ॥ केन वा दीर्घजीवी च केनाल्पायुश्च कर्मणा । केन वा कर्मणा दुःखी सुखी वा केन कर्मणा ॥ २५ ॥ अङ्गहीनश्च काणश्च बधिरः केन कर्मणा । अन्धो वा पङ्गुरपि वा प्रमत्तः केन कर्मणा ॥ २६ ॥ क्षिप्तोऽतिलुब्धकश्चौरः केन वा कर्मणा भवेत् । केन सिद्धिमवाप्नोति सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ २७ ॥ केन वा ब्राह्मणत्वं च तपस्वित्वं च केन वा । स्वर्गभोगादिकं केन वैकुण्ठं केन कर्मणा ॥ २८ ॥ गोलोकं केन वा ब्रह्मन् सर्वोत्कृष्टं निरामयम् ।
हे ब्रह्मन् ! किस कर्मसे मुक्ति होती है तथा किस कर्मसे गुरुके प्रति भक्ति होती है ? उसी तरह किनकिन कर्मोके प्रभावसे प्राणी योगी, रोगी, दीर्घजीवी, अल्पायु, दुःखी, सुखी, अंगहीन, काना, बहरा, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल, अत्यन्त लोभी अथवा चोर हो जाता है ? किस कर्मके द्वारा मनुष्य सिद्धि, सालोक्य आदि चारों प्रकारकी मुक्तियाँ, ब्राह्मणत्व, तपस्विता, स्वर्गके भोग आदि, वैकुण्ठ और सर्वोत्तम तथा विशुद्ध गोलोक प्राप्त करता है ? ॥ २४-२८.५ ॥
नरको वा कतिविधः किंसंख्यो नाम किं च वा ॥ २९ ॥ को वा कं नरकं याति कियन्तं तेषु तिष्ठति । पापिनां कर्मणा केन को वा व्याधिः प्रजायते । यद्यत्प्रियं मया पृष्टं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३० ॥
कितने प्रकारके नरक हैं, उनकी संख्या कितनी है, उनके नाम क्या-क्या हैं ? कौन प्राणी किस नरकमें जाता है और वहाँ कितने समयतक निवास करता है ? किस कर्मके प्रभावसे पापी मनुष्योंको कौन-सी व्याधि होती है ? [हे प्रभो !] मैंने अपनी जो-जो प्रिय बात आपसे पूछी है, उसे कृपा करके मुझे बताइये ॥ २९-३० ॥