श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] सावित्रीकी बात सुनकर यमराज आश्चर्यमें पड़ गये और हँसकर उन्होंने प्राणियोंके कर्मफलके विषयमें बताना आरम्भ किया ॥ १ ॥
धर्म उवाच कन्या द्वादशवर्षीया वत्से त्वं वयसाधुना । ज्ञानं ते पूर्वविदुषां ज्ञानिनां योगिनां परम् ॥ २ ॥
धर्म बोले-हे वत्से ! इस समय तुम्हारी अवस्था तो मात्र बारह वर्षकी है, किंतु तुम्हारा ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों और योगियोंसे भी बढ़कर है ॥ २ ॥
सावित्रीवरदानेन त्वं सावित्री कला सती । प्राप्ता पुरा भूभृता च तपसा तत्समा सुते ॥ ३ ॥
हे पुत्रि ! तुम भगवती सावित्रीके वरदानसे उन्हींकी कलासे जन्म लेकर सती सावित्री नामसे विख्यात हो । प्राचीन कालमें राजा अश्वपतिने अपनी की गयी तपस्याके द्वारा उन्हीं सावित्रीके सदृश तुम्हें कन्यारूपमें प्राप्त किया है ॥ ३ ॥
यथा श्रीः श्रीपतेः क्रोडे भवानी च भवोरसि । यथादितिः कश्यपे च यथाहल्या च गौतमे ॥ ४ ॥ यथा शची महेन्द्रे च यथा चन्द्रे च रोहिणी । यथा रतिः कामदेवे यथा स्वाहा हुताशने ॥ ५ ॥ यथा स्वधा च पितृषु यथा सन्ध्या दिवाकरे । वरुणानी च वरुणे यज्ञे च दक्षिणा यथा ॥ ६ ॥ यथा वराहे पृथिवी देवसेना च कार्तिके । सौभाग्या सुप्रिया त्वं च तथा सत्यवतः प्रिये ॥ ७ ॥ अयं तुभ्यं वरो दत्तोऽप्यपरं च यथेप्सितम् । शृणु देवि महाभागे ददामि सकलेप्सितम् ॥ ८ ॥
जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णुकी गोदमें तथा भवानी भगवान् शिवके वक्षःस्थलपर विराजमान रहती हैं एवं जैसे अदिति कश्यपके, अहल्या गौतमके, शची महेन्द्रके, रोहिणी चन्द्रमाके, रति कामदेवके, स्वाहा अग्निके, स्वधा पितरोंके, सन्ध्या सूर्यके, वरुणानी वरुणके, दक्षिणा यज्ञके, पृथ्वी वाराहके और देवसेना कार्तिकेयके पास उनकी सौभाग्यवती प्रिया बनकर सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार हे प्रिये ! तुम भी सत्यवानकी सौभाग्यवती प्रियाके रूपमें सुशोभित होओ । यह वर मैंने तुम्हें प्रदान कर दिया । हे देवि ! हे महाभागे ! इसके अतिरिक्त और भी जो दूसरा वर तुम्हें अभीष्ट हो, उसे माँग लो; मैं तुम्हें सभी अभिलषित वर प्रदान करूंगा ॥ ४-८ ॥
सावित्र्युवाच सत्यवत औरसानां पुत्राणां शतकं मम । भविष्यति महाभाग वरमेतन्मदीप्सितम् ॥ ९ ॥ मत्पितुः पुत्रशतकं श्वशुरस्य च चक्षुषी । राज्यलाभो भवत्वेवं वरमेतन्मदीप्सितम् ॥ १० ॥ अन्ते सत्यवता सार्धं यास्यामि हरिमन्दिरम् । समतीते लक्षवर्षे देहीदं मे जगत्प्रभो ॥ ११ ॥
सावित्री बोली-हे महाभाग ! सत्यवानसे मुझे सौ औरस पुत्र प्राप्त हों, यह मेरा अभीष्ट वर है । मेरे पिताके भी सौ पुत्र हों, मेरे श्वसुरको नेत्र-ज्योति मिल जाय और उन्हें राज्य भी प्राप्त हो जाय-यह मेरा अभिलषित वर है । हे जगत्प्रभो ! अन्तमें एक लाख वर्ष बीतनेके पश्चात् मैं सत्यवान्के साथ भगवान् श्रीहरिके धाम चली जाऊँ-यह वर भी आप मुझे दीजिये ॥ ९-११ ॥
जीवकर्मविपाकं च श्रोतुं कौतूहलं मम । विश्वनिस्तारबीजं च तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १२ ॥
जीवके कर्मोंका फल तथा संसारसे उसके उद्धारका उपाय सुननेके लिये मुझे बहुत कौतूहल हो रहा है, अतः वह सब मुझे बतानेकी आप कृपा कीजिये ॥ १२ ॥
धर्मराज उवाच भविष्यति महासाध्वि सर्वं मानसिकं तव । जीवकर्मविपाकं च कथयामि निशामय ॥ १३ ॥
धर्मराज बोले-हे महासाध्वि ! तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे । अब मैं जीवोंके कर्मफलके विषयमें बता रहा हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो ॥ १३ ॥
शुभानामशुभानां च कर्मणां जन्म भारते । पुण्यक्षेत्रे च नान्यत्र सर्वं च भुञ्जते जनाः ॥ १४ ॥ सुरा दैत्या दानवाश्च गन्धर्वा राक्षसादयः । नराश्च कर्मजनका न सर्वे जीविनः सति ॥ १५ ॥ विशिष्टजीविनः कर्म भुञ्जते सर्वयोनिषु । शुभाशुभं च सर्वत्र स्वर्गेषु नरकेषु च ॥ १६ ॥
पुण्यभूमि भारतवर्षमें ही शुभ और अशुभ कर्मोकी उत्पत्ति होती है, अन्यत्र नहीं । दूसरी जगह लोग केवल कर्मोंका फल भोगते हैं । हे पतिव्रते ! देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व और राक्षसादि ये ही शुभाशुभ कर्म करनेवाले हैं, दूसरे पशु आदि प्राणी नहीं । देवादि विशिष्ट प्राणी ही सभी योनियोंका फल भोगते हैं, सभी योनियोंमें भटकते हैं और शुभाशुभ काँका फल स्वर्ग तथा नरकमें भोगते हैं ॥ १४-१६ ॥
विशेषतो जीविनश्च भ्रमन्ते सर्वयोनिषु । शुभाशुभं भुञ्जते च कर्म पूर्वार्जितं परम् ॥ १७ ॥ शुभेन कर्मणा याति स्वर्लोकादिकमेव च । कर्मणा चाशुभेनैव भ्रमन्ति नरकेषु च ॥ १८ ॥
वे विशिष्ट प्राणी समस्त योनियोंमें भ्रमण करते रहते हैं और पूर्वजन्ममें अर्जित किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मोका फल भोगते रहते हैं । शुभ कर्मके प्रभावसे प्राणी स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं तथा अशुभ कर्मक कारण वे विभिन्न नरकोंमें पड़ते हैं ॥ १७-१८ ॥
कर्मके नि:शेष हो जानेपर भक्ति उत्पन्न होती है । हे साध्वि ! वह भक्ति दो प्रकारकी बतलायी गयी है । एक निर्वाणस्वरूपा भक्ति है और दूसरी ब्रह्मरूपिणी भगवती प्रकृतिके लिये की जानेवाली भक्ति है ॥ १९ ॥
रोगी कुकर्मणा जीवश्चारोगी शुभकर्मणा । दीर्घजीवी च क्षीणायुः सुखी दुःखी च कर्मणा ॥ २० ॥ अन्धादयश्चाङ्गहीनाः कर्मणा कुत्सितेन च । सिद्ध्यादिकमवाप्नोति सर्वोत्कृष्टेन कर्मणा ॥ २१ ॥
प्राणी पूर्वजन्ममें किये गये कुकर्मके कारण रोगी और शुभ कर्मके कारण रोगरहित होता है । इस प्रकार अपने कर्मसे ही जीव दीर्घजीवी, अल्प आयुवाला, सुखी तथा दु:खी होता है । प्राणी अपने कुत्सित कर्मके प्रभावसे नेत्रहीन तथा अंगहीन होता है । सर्वोत्कृष्ट कर्मके द्वारा प्राणी अपने दूसरे जन्ममें सिद्धि आदि भी प्राप्त कर लेता है । २०-२१ ॥
सामान्यं कथितं देवि विशेषं शृणु सुन्दरि । सुदुर्लभं सुगोप्यं च पुराणेषु स्मृतिष्वपि ॥ २२ ॥
हे देवि ! साधारण बात कह चुका, अब विशेष बात सुनो । हे सुन्दरि ! यह अत्यन्त दुर्लभ विषय पुराणों और स्मृतियों में वर्णित है । इसे पूर्णरूपसे गुप्त रखना चाहिये ॥ २२ ॥
दुर्लभा मानुषी जातिः सर्वजातिषु भारते । सर्वेभ्यो ब्राह्मणः श्रेष्ठः प्रशस्तः सर्वकर्मसु ॥ २३ ॥ ब्रह्मनिष्ठो द्विजश्चैव गरीयान् भारते सति । निष्कामश्च सकामश्च ब्राह्मणो द्विविधः सति ॥ २४ ॥ सकामाज्ज प्रधानश्च निष्कामो भक्त एव च । कर्मभोगी सकामश्च निष्कामो निरुपद्रवः ॥ २५ ॥ स याति देहं त्यक्त्वा च पदं यत्तन्निरामयम् । पुनरागमनं नास्ति तेषां निष्कामिनां सति ॥ २६ ॥ सेवन्ते द्विभुजं कृष्णं परमात्मानमीश्वरम् । गोलोकं प्रति ते भक्ता दिव्यरूपविधारिणः ॥ २७ ॥
भारतवर्षमें समस्त योनियोंमें मानवयोनि परम दुर्लभ है । सभी मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है । वह सम्पूर्ण कर्मोमें प्रशस्त माना गया है । हे साध्वि ! उनमें ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण भारतवर्षमें अधिक गरिमामय माना जाता है । हे साध्वि ! सकाम तथा निष्काम भेदसे ब्राह्मण दो प्रकारके होते हैं । सकाम होनेसे वह कर्मप्रधान होता है । निष्काम केवल भक्त होता है । सकाम कर्मफल भोगता है और निष्काम समस्त सुखासुख भोगोंके उपद्रवोंसे रहित रहता है । हे साध्वि ! वह शरीर त्यागकर भगवान्का जो निरामय धाम है, उसे प्राप्त करता है और हे साध्वि ! उन निष्काम जनोंको पुनः इस लोकमें नहीं आना पड़ता । वे द्विभुज परमात्मा श्रीकृष्णकी उपासना करते हैं और अन्तमें वे भक्त दिव्यरूप धारणकर गोलोकको प्राप्त होते हैं ॥ २३-२७ ॥
सकामिनो वैष्णवाश्च गत्वा वैकुण्ठमेव च । भारतं पुनरायान्ति तेषां जन्म द्विजातिषु ॥ २८ ॥ काले गते च निष्कामा भवन्त्येव ्क्रमेण च । भक्तिं च निर्मलां तेभ्यो दास्यामि निश्चितं पुनः ॥ २९ ॥ ब्राह्मणा वैष्णवाश्चैव सकामाः सर्वजन्मसु । न तेषां निर्मला बुद्धिर्विष्णुभक्तिविवर्जिताः ॥ ३० ॥
सकाम वैष्णव वैकुण्ठधाममें जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्षमें लौट आते हैं और यहाँपर द्विजातियोंके कुलमें उनका जन्म होता है । वे सभी कुछ समय बीतनेपर क्रमशः निष्काम भक्त बन जाते हैं और मैं उन्हें अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर देता हूँ; यह सर्वथा निश्चित है । जो सकाम ब्राह्मण तथा वैष्णवजन हैं, अनेक जन्मोंमें भी विष्णुभक्तिसे रहित होनेके कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं हो पाती ॥ २८-३० ॥
तीर्थाश्रिता द्विजा ये च तपस्यानिरताः सति । ते यान्ति ब्रह्मलोकं च पुनरायान्ति भारते ॥ ३१ ॥
हे साध्यि ! जो द्विज तीर्थोंमें रहकर सदा तपस्यामें संलग्न रहते हैं, वे ब्रह्मलोक जाते हैं और समयानुसार पुनः भारतवर्षमें आते हैं ॥ ३१ ॥
स्वधर्मनिरता ये च तीर्थान्यत्रनिवासिनः । व्रजन्ति ते सत्यलोकं पुनरायान्ति भारते ॥ ३२ ॥
जो तीर्थोमें अथवा कहीं अन्यत्र रहकर सदा अपने ही धर्म-कर्ममें लगे रहते हैं, वे सत्यलोक पहुँचते हैं और पुनः भारतवर्ष में जन्म लेते हैं ॥ ३२ ॥
जो ब्राह्मण अपने धर्ममें संलग्न रहकर भारतवर्ष में सूर्यकी उपासना करते हैं, वे सूर्यलोक जाते हैं और समयानुसार लौटकर पुनः भारतवर्षमें जन्म लेते हैं ॥ ३३ ॥
जो धर्मपरायण तथा निष्काम मानव मूलप्रकृति भगवती जगदम्बाकी भक्ति करते हैं, वे मणिद्वीप लोकमें जाते हैं और फिर वहाँसे लौटकर नहीं आते ॥ ३४ ॥
स्वधर्मे निरता भक्ताः शैवाः शाक्ताश्च गाणपाः । ते यान्ति शिवलोकं च पुनरायान्ति भारते ॥ ३५ ॥
जो अपने धर्मोंमें संलग्न रहते हुए शिव, शक्ति और गणपतिकी उपासना करते हैं; वे शिवलोक जाते हैं और कुछ समय पश्चात् वहाँसे पुनः भारतवर्षमें लौट आते हैं ॥ ३५ ॥
ये विप्रा अन्यदेवेज्याः स्वधर्मनिरताः सति । ते यान्ति सर्वलोकं च पुनरायान्ति भारते ॥ ३६ ॥
हे साध्वि ! जो ब्राह्मण अपने धर्ममें निरत रहकर अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, वे विभिन्न लोकोंमें जाते हैं और समयानुसार पुनः भारतवर्षमें जन्म लेते हैं ॥ ३६ ॥
हरिभक्ताश्च निष्कामाः स्वधर्मनिरता द्विजाः । ते च यान्ति हरेर्लोकं क्रमाद्भक्तिबलादहो ॥ ३७ ॥
जो द्विज अपने धर्ममें संलग्न रहते हुए निष्काम भावसे भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करते हैं, वे उस भक्तिके प्रभावसे क्रमसे श्रीहरिके लोकको प्राप्त होते हैं ॥ ३७ ॥
स्वधर्मरहिता विप्रा देवान्यसेवनाः सदा । भ्रष्टाचाराश्च कामाश्च ते यान्ति नरकं ध्रुवम् ॥ ३८ ॥
जो विप्र सदा अपने धर्मसे विमुख, आचारहीन, कामलोलुप तथा देवाराधनसे रहित हैं, वे अवश्य ही नरकमें पड़ते हैं ॥ ३८ ॥
चारों व क लोग अपने-अपने धर्ममें संलग्न रहकर ही शुभ कर्मका फल भोगनेके अधिकारी होते हैं ॥ ३९ ॥
स्वकर्मरहिता ये च नरकं यान्ति ते ध्रुवम् । भारते न भवन्त्येव कर्मणः फलभोगिनः ॥ ४० ॥
जो अपने कर्तव्यसे विमुख हैं, वे अवश्य ही नरकमें जाते हैं और अपने कर्मका फल भोगते हैं । वे भारतवर्षमें नहीं आ सकते । अत: चारों वर्णोके लोगोंको अपने-अपने धर्मका पालन करना चाहिये ॥ ४० ॥
स्वधर्मनिरता एव वर्णाश्चत्वार एव च । स्वधर्मनिरता विप्राः स्वधर्मनिरताय च ॥ ४१ ॥ कन्यां ददति विप्राय चन्द्रलोकं प्रयान्ति ते । वसन्ति तत्र ते साध्वि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४२ ॥ सालङ्कृताया दानेन द्विगुणं फलमुच्यते । सकामा यान्ति तल्लोकं न निष्कामाश्च साधवः ॥ ४३ ॥ ते प्रयान्ति विष्णुलोकं फलसङ्घातवर्जिताः ।
हे साध्वि ! अपने धर्ममें तत्पर रहनेवाले जो ब्राह्मण अपने धर्ममें संलग्न ब्राह्मणको अपनी कन्या प्रदान करते हैं, वे चन्द्रलोकमें जाते हैं और वहाँपर चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त निवास करते हैं । कन्याको अलंकारोंसे विभूषित करके दान करनेसे दुगुना फल कहा जाता है । सकाम भावसे दान करनेवाले उसी चन्द्रलोकमें जाते हैं, किंतु निष्काम भावसे दान करनेवाले साधुपुरुष वहाँ नहीं जाते, फलकी इच्छासे रहित वे विष्णुलोकको प्राप्त होते हैं ॥ ४१-४३.५ ॥
गव्यं च रजतं स्वर्णं वस्त्रं सर्पिः फलं जलम् ॥ ४४ ॥ ये ददत्येव विप्रेभ्यश्चन्द्रलोकं प्रयान्ति ते । वसन्ति ते च तल्लोके यावन्मन्वन्तरं सति ॥ ४५ ॥ सुचिरात्सुचिरं वासं कुर्वन्ति तेन ते जनाः ।
जो लोग ब्राह्मणोंको गव्य, चाँदी, सोना, वस्त्र, घृत, फल और जल प्रदान करते हैं; वे चन्द्रलोकमें जाते हैं और हे साध्वि ! वे उस लोकमें एक मन्वन्तरतक निवास करते हैं । उस दानके प्रभावसे ही वे लोग वहाँ इतने दीर्घकालतक सुखपूर्वक निवास करते हैं । ४४-४५.५ ॥
ये ददति सुवर्णांश्च गाश्च ताम्रादिकं सति ॥ ४६ ॥ ते यान्ति सूर्यलोकं च शुचये ब्राह्मणाय च । वसन्ति ते तत्र लोके वर्षाणामयुतं सति ॥ ४७ ॥ विपुले सुचिरं वासं कुर्वन्ति च निरामयाः ।
हे साध्वि ! जो लोग पवित्र ब्राह्मणको सुवर्ण, गौ और ताम्र आदि देते हैं, वे सूर्यलोकमें जाते हैं और हे साध्वि ! वे वहाँ उस लोकमें दस हजार वर्षांतक निवास करते हैं । वे उस विस्तृत लोकमें निर्विकार होकर दीर्घकालतक निवास करते हैं ॥ ४६-४७.५ ॥
ददाति भूमिं विप्रेभ्यो धनानि विपुलानि च ॥ ४८ ॥ स याति विष्णुलोकं च श्वेतद्वीपं मनोहरम् । तत्रैव निवसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ४९ ॥ विपुले विपुलं वासं करोति पुण्यवान्मुने ।
जो मनुष्य ब्राह्मणोंको भूमि तथा प्रचुर धन प्रदान करता है, वह भगवान् विष्णुके श्वेतद्वीप नामक मनोहर लोकमें पहुँच जाता है और वहाँपर चन्द्रसूर्यकी स्थितिपर्यन्त निवास करता है । हे मुने ! वह पुण्यवान् मनुष्य उस महान् लोकमें विपुल कालतक वास करता है । ४८-४९.५ ॥
गृहं ददति विप्राय ये जना भक्तिपूर्वकम् ॥ ५० ॥ ते यान्ति विष्णुलोकं च सुचिरं सुखदायकम् । गृहरेणुप्रमाणं च विष्णुलोके महत्तमे ॥ ५१ ॥ विपुले विपुलं वासं कुर्वन्ति मानवाः सति । यस्मै यस्मै च देवाय यो ददाति गृहं नरः ॥ ५२ ॥ स याति तस्य लोकं च रेणुमानाब्दमेव च । सौधे चतुर्गुणं पुण्यं देशे शतगुणं फलम् ॥ ५३ ॥ प्रकृष्टे द्विगुणं तस्मादित्याह कमलोद्भवः ।
जो लोग विप्रको भक्तिपूर्वक गृहका दान करते हैं, वे चिरकालतक स्थिर रहनेवाले सुखदायी विष्णुलोकको प्राप्त होते हैं । हे साध्वि ! वे मनुष्य दानमें दिये गये उस गृहके रजकणकी संख्याके बराबर वर्षातक उस अत्यन्त श्रेष्ठ तथा विशाल विष्णुलोकमें निवास करते हैं । जो मनुष्य जिस किसी भी देवताके उद्देश्यसे मन्दिरका दान करता है, वह उस देवताके लोकमें जाता है और उस लोकमें उतने ही वर्षातक वास करता है, जितने उस मन्दिरमें रजकण होते हैं । अपने घरपर दान करनेसे चार गुना, किसी पवित्र तीर्थमें दान करनेसे सौ गुना और किसी श्रेष्ठ स्थानमें दान करनेसे दुगुना पुण्यफल प्राप्त होता है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है ॥ ५०-५३.५ ॥
यो ददाति तडागं च सर्वपापापनुत्तये ॥ ५४ ॥ स याति जनलोकं च रेणुमानाब्दमेव च । वाप्यां फलं दशगुणं प्राप्नोति मानवः सदा ॥ ५५ ॥ स तु वापीप्रदानेन तडागस्य फलं लभेत् । धनुश्चतुःसहस्रेण दर्श्यमानेन निश्चितम् ॥ ५६ ॥ न्यूना वा तावती प्रस्थे सा वापी परिकीर्तिता ।
जो व्यक्ति समस्त पापोंसे मुक्त होनेके लिये तड़ागका दान करता है, वह जनलोक जाता है और उस तड़ागमें विद्यमान रेणु-संख्याके बराबर वर्षांतक उस लोकमें रहता है । वापीका दान करनेसे मनुष्य उससे भी दस गुना फल प्राप्त कर लेता है । वापीके दानसे तड़ाग-दानका फल स्वतः प्राप्त हो जाता है । चार हजार धनुषके बराबर लम्बा तथा उतना ही अथवा उससे कुछ कम चौड़ा जिसका प्रमाण हो, उसे वापी कहा गया है ॥ ५४-५६.५ ॥
दशवापीसमा कन्या यदि पात्रे प्रदीयते ॥ ५७ ॥ फलं ददाति द्विगुणं यदि सालङ्कृता भवेत् । यत्फलं च तडागे च तदुद्धारे च तत्कलम् ॥ ५८ ॥ वाप्याश्च पङ्कोद्धरणे वापीतुल्यफलं लभेत् ।
यदि कन्या किसी योग्य वरको प्रदान की जाती है, तो वह दान दस वापीके दानके समान होता है और यदि कन्या अलंकारोंसे सम्पन्न करके दी जाती है, तो उससे भी दुगुना फल प्राप्त होता है । जो फल तड़ागके दानसे मिलता है. वही फल उस तड़ागके जीर्णोद्धारसे भी प्राप्त हो जाता है । किसी वापीका कीचड़ दूर कराकर उसका उद्धार करनेसे वापी-दानके समान पुण्य प्राप्त हो जाता है । ५७-५८.५ ॥
अश्वत्थवृक्षमारोप्य प्रतिष्ठां यः करोति च ॥ ५९ ॥ स प्रयाति तपोलोकं वर्षाणामयुतं सति । पुष्पोद्यानं यो ददाति सावित्रि सर्वभूतये ॥ ६० ॥ स वसेद् ध्रुवलोके च वर्षाणामयुतं धुवम् ।
हे साध्वि ! जो मनुष्य पीपलका वृक्ष लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह तपोलोक पहुँचता है और वहाँपर दस हजार वर्षांतक निवास करता है । हे सावित्रि ! जो व्यक्ति समस्त प्राणियोंके लिये पुष्पोद्यानका दान करता है, वह दस हजार वर्षांतक ध्रुवलोकमें निश्चितरूपसे निवास करता है ॥ ५९-६०.५ ॥
हे साध्वि ! जो मनुष्य विष्णुके उद्देश्यसे भारतमें विमानका दान करता है, वह पूरे एक मन्वन्तरतक विष्णुलोकमें निवास करता है । चित्रयुक्त तथा विशाल विमानका दान करनेपर उसके दानका चौगुना फल होता है । शिविकाका दान करनेसे मनुष्य उसका आधा फल प्राप्त करता है-यह निश्चित है । जो व्यक्ति भगवान् श्रीहरिके उद्देश्यसे भक्तिपूर्वक दोलामन्दिरका दान करता है, वह भी विष्णुलोकमें सौ मन्वन्तरतक निवास करता है । ६१-६३.५ ॥
हे पतिव्रते ! जो मनुष्य आरामगृहोंसे युक्त राजमार्गका निर्माण कराता है, वह दस हजार वर्षांतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ ६४.५ ॥
ब्राह्मणेभ्योऽथ देवेभ्यो दाने समफलं लभेत् ॥ ६५ ॥ यद्धि दत्तं च तद्भुङ्क्ते न दत्तं नोपतिष्ठते । भुक्त्वा स्वर्गादिजं सौख्यं पुण्यवाञ्जन्म भारते ॥ ६६ ॥ लभेद्विप्रकुलेष्वेव क्रमेणैवोत्तमादिषु । भारते पुण्यवान्विप्रो भुक्त्वा स्वर्गादिकं फलम् ॥ ६७ ॥ पुनः सोऽपि भवेद्विप्रश्चैवं च क्षत्रियादयः । क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा कल्पकोटिशतेन च ॥ ६८ ॥ तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुतौ श्रुतम् ।
ब्राह्मणों अथवा देवताओंको दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है । जो पूर्वजन्ममें दिया गया है, जन्मान्तरमें उसीका फल प्राप्त होता है और जो नहीं दिया गया है, उसका फल नहीं मिलता । पुण्यवान् मनुष्य स्वर्ग आदि लोकोंके सुख भोगकर भारतवर्षमें क्रमशः उत्तमसे उत्तम ब्राह्मणकुलोंमें जन्म ग्रहण करता है । इस प्रकार वह पुण्यवान् विप्र भी पुनः स्वर्गमें अपने कर्मफलका भोग करके भारतवर्षमें ब्राह्मण होकर जन्म प्राप्त करता है । क्षत्रिय आदिके लिये भी ऐसा ही है । क्षत्रिय हो अथवा वैश्य-कोई करोड़ों कल्पके तपस्याके प्रभावसे भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त कर सकता-ऐसा श्रुतियोंमें सुना गया है ॥ ६५-६८.५ ॥
करोड़ों कल्प बीत जानेपर भी बिना भोग प्राप्त किये कर्मका क्षय नहीं होता । अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मका फल मनुष्यको भोगना ही पड़ता है । देवता और तीर्थकी सहायतासे तथा कायव्यूह (तप)-से प्राणी शुद्ध हो जाता है । हे साध्वि ! ये कुछ बातें मैंने तुम्हें बतला दीं; अब आगे क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ६९-७० ॥