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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः

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नानाकर्मविपाकफलकथनम् -
विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन-


धर्मराज उवाच
देवसेवां विना साध्वि न भवेत्कर्मकृन्तनम् ।
शुद्धकर्म शुद्धबीजं नरकश्च कुकर्मणा ॥ १ ॥
धर्मराज बोले-हे साध्वि ! देवताओंकी उपासनाके बिना कर्म-बन्धनसे मुक्ति नहीं होती । शुद्ध कर्मका बीज शुद्ध होता है और कुकर्मसे नरककी प्राप्ति होती है ॥ १ ॥

पुंश्चल्यन्नं च यो भुङ्क्ते योऽस्यां गच्छेत्पतिव्रते ।
स द्विजः कालसूत्रं च मृतो याति सुदुर्गमम् ॥ २ ॥
शतवर्षं कालसूत्रे स्थिरीभूतो भवेद्‌ ध्रुवम् ।
तत्र जन्मनि रोगी च ततः शुद्धो भवेद्‌ द्विजः ॥ ३ ॥
हे पतिव्रते ! जो ब्राह्मण पुंश्चली स्त्रीका अन्न खाता है अथवा जो इसके साथ भोग करता है, वह मरनेके पश्चात् अत्यन्त कष्टदायक कालसूत्र नामक नरकमें जाता है और उस कालसूत्रमें सौ वर्षांतक पड़ा रहता है । तत्पश्चात् मानवयोनिमें जन्म लेकर वह सदा रोगी रहता है । उसके बाद वह द्विज शुद्ध हो जाता है ॥ २-३ ॥

पतिव्रता चैकपतौ द्वितीये कुलटा स्मृता ।
तृतीये धर्षिणी ज्ञेया चतुर्थे पुंश्चलीत्यपि ॥ ४ ॥
वेश्या च पञ्चमे षष्ठे पुङ्‌गी च सप्तमेऽष्टमे ।
तत ऊर्ध्वं महावेश्या सास्पृश्या सर्वजातिषु ॥ ५ ॥
एक पतिवाली स्त्री पतिव्रता तथा दो पतिवाली स्त्री कुलटा कही गयी है । तीन पतिवाली स्त्री धर्षिणी, चार पतिवाली पुंश्चली, पाँच-छ: पतिवाली वेश्या तथा सात-आठ पतिवाली स्त्रीको पुंगी जानना चाहिये । इससे अधिक पुरुषोंसे सम्बन्ध रखनेवाली स्त्रीको महावेश्या कहा गया है, वह सभी जातिके लोगोंके लिये अस्पृश्य है ॥ ४-५ ॥

यो द्विजः कुलटां गच्छेद्धर्षिणीं पुंश्चलीमपि ।
पुङ्‌गीं वेश्यां महावेश्यां मत्स्योदे याति निश्चितम् ॥ ६ ॥
शताब्दं कुलटागामी धृष्टागामी चतुर्गुणम् ।
षड्गुणं पुंश्चलीगामी वेश्यागामी गुणाष्टकम् ॥ ७ ॥
पुङ्‌गीगामी दशगुणं वसेत्तत्र न संशयः ।
महावेश्याकामुकश्च ततो दशगुणं वसेत् ॥ ८ ॥
तत्रैव यातनां भुङ्‌क्ते यमदूतेन ताडितः ।
तित्तिरिः कुलटागामी धृष्टागामी च वायसः ॥ ९ ॥
कोकिलः पुंश्चलीगामी वेश्यागामी वृकः स्मृतः ।
पुङ्‌गीगामी सूकरश्च सप्तजन्मनि भारते ॥ १० ॥
महावेश्याप्रगामी च जायते शाल्मलीतरुः ।
जो द्विज कुलटा, धर्षिणी, पुंश्चली, पुंगी, वेश्या तथा महावेश्याके साथ समागम करता है । वह निश्चित-रूपसे मत्स्योद नामक नरकमें जाता है । उस नरकमें कुलटागामी सौ वर्षोंतक, धर्षिणीगामी उससे चार गुने अर्थात् चार सौ वर्षोंतक, पुंश्चलीगामी छ: सौ वर्षांतक, वेश्यागामी आठ सौ वर्षोंतक और पुंगीगामी एक हजार वर्षांतक निवास करता है, महावेश्याके साथ गमन करनेवाले कामुक व्यक्तिको दस हजार वर्षांतक वहाँ रहना पड़ता है । इसमें संशय नहीं है । वहाँपर यमदूतसे पीटा जाता हुआ वह तरहतरहकी यातना भोगता है । उसके बाद कुलटागामी तीतर, धर्षिणीगामी कौवा, पुंश्चलीगामी कोयल, वेश्यागामी भेड़िया और पुंगीगामी सूअरकी योनिमें भारतवर्षमें सात जन्मोंतक पैदा होते रहते हैं-ऐसा कहा गया है । महावेश्यासे समागम करनेवाला मनुष्य सेमरका वृक्ष होता है ॥ ६-१०.५ ॥

यो भुङ्‌क्ते ज्ञानहीनश्च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥ ११ ॥
अरुन्तुदं स यात्येवाप्यन्नमानाब्दमेव च ।
ततो भवेन्मानवश्चाप्युदरे रोगपीडितः ॥ १२ ॥
गुल्मयुक्तश्च काणश्च दन्तहीनस्ततः शुचिः ।
जो अज्ञानी मनुष्य चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर भोजन करता है, वह अन्नके दानोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक अरुन्तुद नामक नरककुण्डमें जाता है । तत्पश्चात् वह मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है । उस समय वह उदररोगसे पीड़ित, प्लीहारोगसे ग्रस्त, काना तथा दन्तविहीन हो जाता है । उसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११-१२.५ ॥

वाक्प्रदत्तां स्वकन्यां च योऽन्यस्मै प्रददाति च ॥ १३ ॥
स वसेत्पांसुकुण्डे च तद्‍भोजी शतवत्सरम् ।
तद्द्रव्यहारी यः साध्वि पांसुवेष्टे शताब्दकम् ॥ १४ ॥
निवसेच्छरशय्यायां मम दूतेन ताडितः ।
जो अपनी कन्याका वाग्दान करके उसे किसी अन्य पुरुषको प्रदान कर देता है, वह पांसुकुण्ड नामक नरकमें सौ वर्षोंतक वास करता है और उसी धूलराशिका भोजन करता है । हे साध्वि ! जो मनुष्य अपनी कन्याके धनका हरण करता है, वह पांशुवेष्ट नामक नरककुण्डमें सौ वर्षोंतक वास करता है । वह वहाँ बाणोंकी शय्यापर लेटा रहता है और मेरे दूत उसे पीटते रहते हैं । १३-१४.५ ॥

भक्त्या न पूजयेद्विप्रः शिवलिङ्‌गं च पार्थिवम् ॥ १५ ॥
स याति शूलिनः पापाच्छूलप्रोतं सुदारुणम् ।
स्थित्वा शताब्दं तत्रैव श्वापदः सप्तजन्मसु ॥ १६ ॥
जो विप्र भक्तिपूर्वक पार्थिव शिवलिंगकी पूजा नहीं करता, वह त्रिशूल धारण करनेवाले भगवान् शिवके प्रति अपराधजन्य पापके कारण शूलप्रोत नामक अत्यन्त भयानक नरककुण्डमें जाता है । वहाँ सौ वर्षतक रहनेके पश्चात् वह सात जन्मोंतक वन्य पशु होता है । उसके बाद सात जन्मोंतक देवल होता है, फिर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १५-१६ ॥

ततो भवेद्देवलश्च सप्तजन्म ततः शुचिः ।
करोति कुण्ठितं विप्रं यद्‌भिया कम्पते द्विजः ॥ १७ ॥
प्रकम्पने वसेत्सोऽपि विप्रलोमाब्दमेव च ।
जो किसी विप्रको कुण्ठित कर देता है और उसके भयसे वह काँपने लगता है, वह उस द्विजके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने वर्षोंतक प्रकम्पनकुण्डमें निवास करता है । १७.५ ॥

प्रकोपवदना कोपात् स्वामिनं या च पश्यति ॥ १८ ॥
कटूक्तिं तं प्रवदति सोल्मुकं सम्प्रयाति हि ।
उल्कां ददाति तद्वक्त्रे सततं मम किङ्‌करः ॥ १९ ॥
दण्डेन ताडयेन्मूर्ध्नि तल्लोमाब्दप्रमाणकम् ।
ततो भवेन्मानवी च विधवा सप्तजन्मसु ॥ २० ॥
सा भुक्त्वा चैव वैधव्यं व्याधियुक्ता ततः शुचिः ।
है । वहाँपर मेरे दूत उसके मुख में निरन्तर प्रज्वलित अंगार डालते रहते हैं और उसके सिरपर डंडेसे प्रहार करते रहते हैं । उसके पतिके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने वर्षांतक उस स्त्रीको उस नरककुण्डमें रहना पड़ता है । उसके बाद मानवजन्म प्राप्त करके वह सात जन्मोंतक विधवा रहती है । विधवाका जीवन व्यतीत करनेके पश्चात् वह रोगसे ग्रस्त हो जाती है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १८-२०.५ ॥

या ब्राह्मणी शूद्रभोग्या चान्धकूपे प्रयाति सा ॥ २१ ॥
तप्तशौचोदके ध्वान्ते तदाहारी दिवानिशम् ।
निवसेदतिसन्तप्ता मम दूतेन ताडिता ॥ २२ ॥
शौचोदके निमग्ना सा यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
काकी जन्मसहस्राणि शतजन्मानि सूकरी ॥ २३ ॥
शृगाली शतजन्मानि शतजन्मानि कुक्कुटी ।
पारावती सप्तजन्म वानरी सप्तजन्मसु ॥ २४ ॥
ततो भवेत्सा चाण्डाली सर्वभोग्या च भारते ।
ततो भवेच्च रजकी यक्ष्मग्रस्ता च पुंश्चली ॥ २५ ॥
ततः कुष्ठयुता तैलकारी शुद्धा भवेत्ततः ।
जो ब्राह्मणी शूद्रके साथ भोग करती है, वह अन्धकूप नामक नरककुण्डमें जाती है । अन्धकारमय तथा तप्त शौचजलयुक्त उस कुण्डमें वह दिन-रात पड़ी रहती है और उसी तप्त शौचजलका भोजन करती है । मेरे दूतोंके द्वारा पीटी जाती हुई वह वहाँ अत्यन्त सन्तप्त रहती है । वह स्त्री चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त उस शौचजलमें डूबी रहती है । तत्पश्चात् वह एक हजार जन्मतक कौवी, एक सौ जन्मतक सूकरी, एक सौ जन्मतक सियारिन, एक सौ जन्मतक कुक्कुटी, सात जन्मतक कबूतरी और सात जन्मतक वानरी होती है । इसके बाद वह भारतवर्षमें सर्वभोग्या चाण्डाली होती है, उसके बाद वह व्यभिचारिणी धोबिन होती है और सदा यक्ष्मारोगसे ग्रस्त रहती है । तत्पश्चात् वह कोढ़रोगसे युक्त तैलकारी (तेलिन) होती है और उसके बाद शुद्ध हो जाती है ॥ २१-२५.५ ॥

निवसेद्वेधने वेश्या पुङ्‌गी च दण्डताडने ॥ २६ ॥
जलरन्ध्रे वसेद्वेश्या कुलटा देहचूर्णके ।
स्वैरिणी दलने चैव धृष्टा च शोषणे तथा ॥ २७ ॥
निवसेद्यातनायुक्ता मम दूतेन ताडिता ।
विण्मूत्रभक्षा सततं यावन्मन्वन्तरं सति ॥ २८ ॥
ततो भवेद्विट्कृमिश्च लक्षवर्षं ततः शुचिः ।
वेश्या वेधनकुण्डमें, पुंगी दण्डताडनकुण्डमें, महावेश्या जलरन्ध्रकुण्डमें, कुलटा देहचूर्णकुण्डमें, स्वैरिणी दलनकुण्डमें और धृष्टा शोषणकुण्डमें वास करती है । हे साध्वि ! मेरे दूतसे पीटी जाती हुई वह वहाँ यातना भोगती रहती है । उसे एक मन्वन्तरतक निरन्तर विष्ठा और मूत्रका भक्षण करना पड़ता है । उसके बाद वह एक लाख वर्षतक विष्ठाके कीटके रूपमें रहती है और फिर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ २६-२८.५ ॥

ब्राह्मणो ब्राह्मणीं गच्छेत्क्षत्रियां वापि क्षत्रियः ॥ २९ ॥
वैश्यो वैश्यां च शूद्रा वा शूद्रश्चापि व्रजेद्यदि ।
सवर्णपरदारैश्च कषायं यान्ति ते जनाः ॥ ३० ॥
भुक्त्वा कषायतप्तोदं निवसेद्वा शताब्दकम् ।
ततो विप्रो भवेच्छुद्धस्ततो वै क्षत्रियादयः ॥ ३१ ॥
योषितश्चापि शुद्ध्यन्तीत्येवमाह पितामहः ।
यदि ब्राह्मण किसी परायी ब्राह्मणीके साथ, क्षत्रिय क्षत्राणीके साथ, वैश्य किसी वैश्याके साथ और शूद्र किसी शूद्राके साथ भोग करता है तो अपने ही वर्णकी परायी स्त्रियोंके साथ भोग करनेवाले वे पुरुष कषाय नामक नरकमें जाते हैं । वहाँ वे कषाय (खारा) तथा गर्म जल पीते हुए सौ वर्षतक पड़े रहते हैं । उसके बाद वे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि पुरुष शुद्ध होते हैं । उसी प्रकार यातनाएँ भोगकर वे ब्राह्मणी आदि स्त्रियाँ भी शुद्ध होती हैं-ऐसा पितामह ब्रह्माने कहा है ॥ २९-३१.५ ॥

क्षत्रियो ब्राह्मणीं गच्छेद्वैश्यो वापि पतिव्रते ॥ ३२ ॥
मातृगामी भवेत्सोऽपि शूर्पे च नरके वसेत् ।
शूर्पाकारैश्च कृमिभिर्ब्राह्मण्या सह भक्षितः ॥ ३३ ॥
प्रतप्तमूत्रभोजी च मम दूतेन ताडितः ।
तत्रैव यातनां भुङ्क्ते यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ३४ ॥
सप्तजन्म वराहश्च छागलश्च ततः शुचिः ।
हे पतिव्रते ! जो क्षत्रिय अथवा वैश्य किसी ब्राह्मणीके साथ समागम करता है, वह मातृगामी होता है और वह शूर्प नामक नरकमें वास करता है । ब्राह्मणीसहित वह मनुष्य सूपके आकारके कीड़ोंके द्वारा नोचा जाता है । वहाँ वह अत्यन्त गर्म मूत्रका सेवन करता है और मेरे दूत उसे पीटते हैं । वहाँपर वह चौदह इन्द्रोंके आयुपर्यन्त यातना भोगता है । उसके बाद वह सात जन्मोंतक सूअर और सात जन्मोंतक बकरा होता है, तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ ३२-३४.५ ॥

करे धृत्वा तु तुलसीं प्रतिज्ञां यो न पालयेत् ॥ ३५ ॥
मिथ्या वा शपथं कुर्यात्स च ज्वालामुखं व्रजेत् ।
गङ्‌गातोयं करे कृत्वा प्रतिज्ञां यो न पालयेत् ॥ ३६ ॥
शिलां वा देवप्रतिमां स च ज्वालामुखं व्रजेत् ।
दत्त्वा दक्षिणहस्तं च प्रतिज्ञां यो न पालयेत् ॥ ३७ ॥
स्थित्वा देवगृहे वापि स च ज्वालामुखं व्रजेत् ।
आस्पृश्य ब्राह्मणं गां च ज्वालावह्निं व्रजेद्‌ द्विजः ॥ ३८ ॥
न पालयेत्प्रतिज्ञां च स च ज्वालामुखं व्रजेत् ।
मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यश्च विश्वासघातकः ॥ ३९ ॥
मिथ्यासाक्ष्यप्रदश्चैव स च ज्वालामुखं व्रजेत् ।
एते तत्र वसन्त्येव यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४० ॥
तथाङ्‌गारप्रदग्धाश्च मम दूतेन ताडिताः ।
जो मनुष्य हाथमें तुलसीदल लेकर की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता अथवा मिथ्या शपथ लेता है, वह ज्वालामुख नामक नरकमें जाता है । उसी प्रकार जो मनुष्य अपने हाथमें गंगाजल, शालग्रामशिला अथवा किसी देवताकी प्रतिमा लेकर की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है । जो मनुष्य किसी दूसरे व्यक्तिके दाहिने हाथमें अपना दायाँ हाथ रखकर अथवा किसी देवालयमें स्थित होकर की गयी प्रतिज्ञाको पूर्ण नहीं करता, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है । जो द्विज किसी ब्राह्मण अथवा गायका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह ज्वालामुख नामक नरकमें जाता है । उसी तरह जो मनुष्य अपने मित्रके साथ द्रोह करता है, कृतघ्न है, विश्वासघात करता है और झूठी गवाही देता है, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है । ये लोग उस नरकमें चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त निवास करते हैं । मेरे दूत अंगारोंसे उन्हें दागते हैं और बहुत पीटते हैं ॥ ३५-४०.५ ॥

चाण्डालस्तुलसीं स्पृष्ट्वा सप्तजन्म ततः शुचिः ॥ ४१ ॥
म्लेच्छो गङ्‌गाजलस्पर्शी पञ्चजन्म ततः शुचिः ।
शिलास्पर्शी विट्कृमिश्च सप्तजन्मसु सुन्दरि ॥ ४२ ॥
अर्चास्पर्शी ब्रह्मकृमिः सप्तजन्म ततः शुचि ।
दक्षहस्तप्रदाता च सर्पश्च सप्तजन्मसु ॥ ४३ ॥
ततो भवेद्‌ ब्रह्महीनो मानवश्च ततः शुचिः ।
मिथ्यावादी देवगृहे देवलः सप्तजन्मसु ॥ ४४ ॥
विप्रादिस्पर्शकारी च व्याघ्रजातिर्भवेद्‌ ध्रुवम् ।
ततो भवेच्च मूकः स बधिरश्च त्रिजन्मनि ॥ ४५ ॥
भार्याहीनो बन्धुहीनो वंशहीनस्ततः शुचिः ।
मित्रद्रोही च नकुलः कृतघ्नश्चापि गण्डकः ॥ ४६ ॥
विश्वासघाती व्याघ्रश्च सप्तजन्मसु भारते ।
मिथ्यासाक्षी च वक्तव्ये मण्डूकः सप्तजन्मसु ॥ ४७ ॥
पूर्वान्सप्तापरान्सप्त पुरुषान्हन्ति चात्मनः ।
तुलसीका स्पर्श करके मिथ्या शपथ लेनेवाला सात जन्मतक चाण्डाल होता है, उसके बाद उसकी शुद्धि होती है । गंगाजलका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन न करनेवाला पाँच जन्मतक म्लेच्छ होता है, उसके बाद वह शुद्ध होता है । हे सुन्दरि ! शालग्रामशिलाका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन न करनेवाला सात जन्मतक विष्ठाका कीड़ा होता है । किसी देवप्रतिमाका स्पर्श करके जो मिथ्या प्रतिज्ञा करता है, वह सात जन्मतक ब्राह्मण-गृहस्थके घर कीड़ा होता है, इसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है । किसीके दाहिने हाथपर अपना दाहिना हाथ रखकर मिथ्या शपथ लेनेवाला सात जन्मतक सर्प होता है । उसके बाद ब्रह्मज्ञानविहीन मानव होता है, पुनः शुद्ध हो जाता है । जो देवमन्दिरमें मिथ्या वचन बोलता है, वह सात जन्मतक देवल होता है । ब्राह्मण आदिको स्पर्श करके झूठी प्रतिज्ञा करनेवाला निश्चितरूपसे बाघयोनिमें जन्म लेता है । उसके बाद वह तीन जन्मतक गूंगा और फिर तीन जन्मतक बहरा होता है । वह भारहित, बन्धु-बान्धवोंसे विहीन तथा निःसन्तान रहता है, तत्पश्चात् शुद्ध हो जाता है । जो मित्रके साथ द्रोह करता है, वह नेवला होता है; जो दूसरोंका उपकार नहीं मानता, वह गैंडा होता है; जो विश्वासघाती होता है, वह सात जन्मतक भारतवर्षमें बाघ होता है और जो झूठी गवाही देता है, वह सात जन्मतक मेढक होता है । वह अपनी सात पीढ़ी पहले तथा सात पीढ़ी बादके पुरुषोंका अध:पतन करा देता है । ४१-४७.५ ॥

नित्यक्रियाविहीनश्च जडत्वेन युतो द्विजः ॥ ४८ ॥
यस्यानास्था वेदवाक्ये मन्दं हसति संततम् ।
व्रतोपवासहीनश्च सद्वाक्यपरनिन्दकः ॥ ४९ ॥
धूम्रान्धे च वसेत्सोऽपि शताब्दं धूम्रभक्षकः ।
जलजन्तुर्भवेत्सोऽपि शतजन्मक्रमेण च ॥ ५० ॥
जो द्विज नित्यक्रियासे विहीन तथा जड़तासे युक्त है, वेदवाक्योंमें जिसकी आस्था नहीं है, जो कपटपूर्वक उनका सदा उपहास करता है, जो व्रत तथा उपवास नहीं करता और दूसरोंके उत्तम विचारोंकी निन्दा करता है, वह धूम्रान्ध नामक नरकमें धूमका ही भक्षण करते हुए एक सौ वर्षतक निवास करता है । उसके बाद वह क्रमसे सौ जन्मोंतक अनेक प्रकारका जलजन्तु होता है । तत्पश्चात् वह अनेक प्रकारकी मत्स्ययोनिमें जन्म लेता है, उसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ४८-५० ॥

ततो नानाप्रकारश्च मत्स्यजातिस्ततः शुचिः ।
यः करोत्युपहासं च देवब्राह्मणयोर्धने ॥ ५१ ॥
पातयित्वा स पुरुषान्दशपूर्वान्दशापरान् ।
सोऽयं याति च धूम्रान्धं धूम्रध्वान्तसमन्वितम् ॥ ५२ ॥
धूम्रक्लिष्टो धूम्रभोजी वसेत्तत्र चतुर्गुणम् ।
ततो मूषकजातिश्च सप्तजन्मसु भारते ॥ ५३ ॥
ततो नानाविधाः पक्षिजातयः कृमिजातिभिः ।
ततो नानाविधा वृक्षा पशवश्च ततो नरः ॥ ५४ ॥
जो मनुष्य देवता तथा ब्राह्मणकी सम्पत्तिका उपहास करता है, वह अपनी दस पीढ़ी पहले तथा दस पीढ़ी बादके पुरुषोंका पतन कराकर स्वयं धूम्र तथा अन्धकारसे युक्त धूम्रान्ध नामक नरकमें जाता है । वहाँपर धुएंसे कष्ट सहते हुए तथा धुएँका ही भोजन करते हुए वह चार सौ वर्षतक रहता है । उसके बाद वह भारतवर्षमें सात जन्मतक चूहेकी योनिमें जन्म पाता है । तदनन्तर वह अनेक प्रकारके पक्षियों तथा कीड़ोंकी योनिमें जाता है, उसके बाद अनेकविध वृक्ष तथा पशु होनेके अनन्तर वह मनुष्ययोनिमें जन्म ग्रहण करता है । ५१-५४ ॥

विप्रो दैवज्ञजीवी च वैद्यजीवी चिकित्सकः ।
लाक्षालोहादिव्यापारी रसादिविक्रयी च यः ॥ ५५ ॥
स याति नागवेष्टं च नागैर्वेष्टितमेव च ।
वसेत्स लोममानाब्दं तत्रैव नागपाशितः ॥ ५६ ॥
ततो नानाविधाः पक्षिजातयश्च ततो नरः ।
ततो भवेत्स गणको वैद्यश्च सप्तजन्मसु ॥ ५७ ॥
गोपश्च कर्मकारश्च रङ्‌गकारस्ततः शुचिः ।
जो विप्र ज्योतिषविद्यासे अपनी आजीविका चलाता है, वैद्य होकर चिकित्सावृत्तिसे आजीविका चलाता है, लाख-लोहा आदिका व्यापार करता और रस आदिका विक्रय करता है; वह नागोंसे व्याप्त नागवेष्टन नामक नरकमें जाता है और नागोंसे आबद्ध होकर अपने शरीरके रोमप्रमाण वर्षातक वहाँ निवास करता है, तत्पश्चात् उसे नानाविध पक्षी-योनियाँ मिलती हैं और उसके बाद वह मनुष्य होता है, तत्पश्चात् वह सात जन्मतक गणक और सात जन्मतक वैद्य होता है । पुनः गोप, कर्मकार और रंगकार होकर शुद्ध होता है ॥ ५५-५७.५ ॥

प्रसिद्धानि च कुण्डानि कथितानि पतिव्रते ॥ ५८ ॥
अन्यानि चाप्रसिद्धानि क्षुद्राणि सन्ति तत्र वै ।
सन्ति पातकिनस्तेषु स्वकर्मफलभोगिनः ।
भ्रमन्ति नानायोनिं च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ५९ ॥
हे पतिव्रते ! मैंने प्रसिद्ध नरककुण्डोंका वर्णन कर दिया । इनके अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे कुण्ड हैं, जो प्रसिद्ध नहीं हैं, अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये पापी लोग वहाँ जाते हैं और विविध योनियोंमें भ्रमण करते रहते हैं, अब तुम और क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ५८-५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
नानाकर्मविपाकफलकथनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नानाकर्मविपाकफलकथनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥


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