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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

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नानाकर्मविपाकफलकथनम् -
विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकोंका वर्णन-


यम उवाच
छिनत्ति जीवं खड्गेन दयाहीनः सुदारुणः ।
नरघाती हन्ति नरमर्थलोभेन भारते ॥ १ ॥
असिपत्रे वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
तेषु यो ब्राह्मणान् हन्ति शतमन्वन्तरं वसेत् ॥ २ ॥
छिन्नाङ्‌गः संवसेत् सोऽपि खड्गधारेण सन्ततम् ।
अनाहारः शब्दमुच्चैर्यमदूतेन ताडितः ॥ ३ ॥
मन्थानः शतजन्मानि शतजन्मानि सूकरः ।
कुक्कुटः सप्त जन्मानि शृगालः सप्तजन्मसु ॥ ४ ॥
व्याघ्रश्च सप्त जन्मानि वृकश्चैव त्रिजन्मसु ।
सप्तजन्मसु मण्डूको यमदूतेन ताडितः ॥ ५ ॥
यमराज बोले-[हे सावित्रि !] भारतवर्षमें जो कोई निर्दयी तथा क्रूर व्यक्ति खड्गसे किसी जीवको काटता है या कोई नरघाती धनके लोभसे किसी मनुष्यकी हत्या करता है, वह चौदहों इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त असिपत्रवन नामक नरकमें वास करता है । उनमें भी जो ब्राह्मणोंकी हत्या करता है, वह सौ मन्वन्तरतक वहाँ रहता है । तलवारकी धारसे उसके शरीरके अंग निरन्तर कटते रहते हैं । आहार न मिलने और यमदूतोंसे पीटे जानेके कारण वह जोर-जोरसे चिल्लाता रहता है । तत्पश्चात् वह सौ जन्मोंतक मन्थान नामक कीड़ा, सौ जन्मोंतक सूअर, सात जन्मोंतक मुर्गा, सात जन्मोंतक सियार, सात जन्मोंतक बाघ, तीन जन्मोतक भेड़िया और सात जन्मोंतक मेंढक होता है, साथ ही वह यमदतसे निरन्तर पीटा भी जाता है । इसके बाद वह भारतवर्ष में महिष होता है, फिर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १-५ ॥

स भवेद्‍भारते वर्षे महिषश्च ततः शुचिः ।
ग्रामाणां नगराणां वा दहनं यः करोति च ॥ ६ ॥
क्षुरधारे वसेत्सोऽपि छिन्नाङ्‌गस्त्रियुगं सति ।
ततः प्रेतो भवेत्सद्यो वह्निवक्त्रो भ्रमन्महीम् ॥ ७ ॥
सप्तजन्मामेध्यभोजी कपोतः सप्तजन्मसु ।
ततो भवेन्महाशूली मानवः सप्तजन्मनि ॥ ८ ॥
सप्तजन्म गलत्कुष्ठी ततः शुद्धो भवेन्नरः ।
हे सति ! जो मनुष्य गाँवों और नगरोंको जलाता है, वह क्षुरधार नामक नरकमें क्षत-विक्षत अंगोंवाला होकर तीन युगोंतक रहता है । तत्पश्चात् वह शीघ्र ही प्रेत होता है और मुंहसे आग उगलते हुए पृथ्वीपर घूमता रहता है । फिर वह सात जन्मोंतक अपवित्र मल-मूत्र आदि पदार्थोंको खाता रहता है और सात जन्मोंतक कपोत होता है । तदनन्तर सात जन्मोंतक मानवयोनिमें उत्पन्न होता है और महान् शूलरोगसे पीड़ित रहता है । पुनः वह सात जन्मोंतक गलित कुष्ठरोगसे ग्रस्त रहता है और तत्पश्चात् वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ६-८.५ ॥

परकर्णे मुखं दत्त्वा परनिन्दां करोति यः ॥ ९ ॥
परदोषे महाश्लाघी देवब्राह्मणनिन्दकः ।
सूचीमुखे वसेत्सोऽपि सूचीविद्धो युगत्रयम् ॥ १० ॥
ततो भवेद्‌ वृश्चिकश्च सर्पश्च सप्तजन्मसु ।
वज्रकीटः सप्तजन्म भस्मकीटस्ततः परम् ॥ ११ ॥
जो मनुष्य दूसरेके कानमें अपना मुख लगाकर परायी निन्दा करता है, परदोष निकालकर बड़ीबड़ी डींग हाँकता है और देवता तथा ब्राह्मणकी निन्दा करता है, वह सूचीमुख नामक नरकमें तीन युगोंतक वास करता है । वहाँ उसके शरीरमें निरन्तर सूई चुभायी जाती है । तत्पश्चात् वह सात जन्मोंतक बिच्छू, सात जन्मोंतक सर्प, सात जन्मोंतक वज्रकीट और सात जन्मोंतक भस्मकीटकी योनिमें रहता है । तदनन्तर मानवयोनिमें जन्म लेकर वह महाव्याधिसे ग्रस्त रहता है, पुनः शुद्ध हो जाता है ॥ ९-११ ॥

ततो भवेन्मानवश्च महाव्याधिस्ततः शुचिः ।
गृहिणां हि गृहं भित्त्वा वस्तुस्तेयं करोति यः ॥ १२ ॥
गाश्च छागांश्च मेषांश्च याति गोकामुखे च सः ।
ताडितो यमदूतेन वसेत्तत्र युगत्रयम् ॥ १३ ॥
ततो भवेत्सप्तजन्म गोजातिर्व्याधिसंयुतः ।
त्रिजन्मनि मेषजातिश्छागजातिस्त्रिजन्मनि ॥ १४ ॥
ततो भवेन्मानवश्च नित्यरोगी दरिद्रकः ।
भार्याहीनो बन्धुहीनः सन्तापी च ततः शुचिः ॥ १५ ॥
जो व्यक्ति गृहस्थोंके घरमें सेंध लगाकर वस्तुओंकी चोरी करता है और गौओं, बकरों तथा भेड़ोंको चुरा लेता है; वह गोकामुख नामक नरकमें जाता है । वहाँपर यमदूतके द्वारा पीटा जाता हुआ वह तीन युगोतक वास करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मोंतक रोगग्रस्त गौकी योनिमें, तीन जन्मोंतक भेड़की योनिमें और तीन जन्मोंतक बकरेकी योनिमें जन्म पाता है । तत्पश्चात् वह मानवयोनिमें उत्पन्न होता है, उस समय वह नित्य रोगी, दरिद्र, भार्याहीन, बन्धुबान्धवरहित और दुःखी रहता है, उसके बाद वह शुद्ध हो जाता है ॥ १२-१५ ॥

सामान्यद्रव्यचौरश्च याति नक्रमुखं च सः ।
ताडितो यमदूतेन वसेत्तत्राब्दकत्रयम् ॥ १६ ॥
ततो भवेत्सप्तजन्म गोपतिर्व्याधिसंयुतः ।
ततो भवेन्मानवश्च महारोगी ततः शुचिः ॥ १७ ॥
सामान्य द्रव्योंकी चोरी करनेवाला नक्रमुख नामक नरकमें जाता है । वहाँपर वह यमदूतके द्वारा पीटा जाता हुआ तीन वर्षोंतक निवास करता है, तदनन्तर वह सात जन्मोंतक रोगसे पीड़ित रहनेवाला बैल होता है । उसके बाद वह मानवयोनिमें जन्म लेकर महान् रोगोंसे ग्रस्त रहता है और फिर शुद्ध हो जाता है ॥ १६-१७ ॥

हन्ति गाश्च गजांश्चैव तुरगांश्च नगांस्तथा ।
स याति गजदंशं च महापापी युगत्रयम् ॥ १८ ॥
ताडितो यमदूतेन नागदन्तेन सन्ततम् ।
स भवेद्‌गजजातिश्च तुरगश्च त्रिजन्मनि ॥ १९ ॥
जो मनुष्य गायों, हाथियों, घोड़ों और साँका वध करता है; वह महापापी गजदंश नामक नरकमें जाता है और तीन युगोंतक वहाँ वास करता है । यमदूत उसे हाथी-दाँतसे निरन्तर पीटते रहते हैं । तत्पश्चात् वह तीन जन्मोंतक हाथी, तीन जन्मोंतक घोड़े, तीन जन्मोंतक गाय और तीन जन्मोंतक म्लेच्छकी योनिमें पैदा होता है, तदनन्तर वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ १८-१९ ॥

गोजातिर्म्लेच्छजातिश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ।
जलं पिबन्तीं तृषितां गां वारयति यः पुमान् ॥ २० ॥
नरकं गोमुखाकारं कृमितप्तोदकान्वितम् ।
तत्र तिष्ठति सन्तप्तो यावन्मन्वन्तरावधि ॥ २१ ॥
ततो नरोऽपि गोहीनो महारोगी दरिद्रकः ।
सप्तजन्मान्त्यजातिश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ २२ ॥
जो मनुष्य पानी पीती हुई प्यासी गायको वहाँसे हटा देता है, वह कीड़ोंसे भरे तथा तप्त जलसे युक्त गोमुख नामक नरकमें जाता है । वहाँपर वह एक मन्वन्तरकी अवधितक सन्तप्त रहता है । तदनन्तर वह सात जन्मोंतक अन्त्य जातिमें उत्पन्न होकर गोहीन, महान् रोगी तथा दरिद्र मनुष्यके रूपमें रहता है । उसके बाद वह व्यक्ति शुद्ध हो जाता है । २०-२२ ॥

गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम् ।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ २३ ॥
भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते ।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २४ ॥
ताडितो यमदूतेन चूर्ण्यमानश्च सन्ततम् ।
क्षणं पतति वह्नौ च क्षणं पतति कण्टके ॥ २५ ॥
क्षणं पतेत्तप्ततैले तप्तो येन क्षणं क्षणम् ।
क्षणं च तप्तलोहे च क्षणं च तप्तताम्रके ॥ २६ ॥
गृध्रो जन्मसहस्राणि शतजन्मानि सूकरः ।
काकश्च सप्त जन्मानि सर्पश्च सप्तजन्मसु ॥ २७ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।
नानाजन्मसु स वृषस्ततः कुष्ठी दरिद्रकः ॥ २८ ॥
जो भारतवर्षमें शास्त्र-वचनकी आड़ लेकर गोहत्या, ब्रह्महत्या, स्त्रीहत्या, भिक्षुहत्या तथा भ्रूणहत्या करता है और जो अगम्या स्त्रीके साथ समागम करता है, वह महापापी व्यक्ति चौदह इन्द्रोंके स्थितिपर्यन्त कुम्भीपाक नरकमें वास करता है । यमदूतके द्वारा वह निरन्तर पीटा जाता है, जिससे उसके शरीरके अंग चूर-चूर हो जाते हैं । उसे कभी आगमें गिराया जाता है और कभी काँटॉपर लिटाया जाता है । उसे कभी तप्त तेलमें, कभी प्रतप्त लोहेमें और ताँबेमें डाला जाता है, जिससे वह प्रत्येक क्षण तपता रहता है । उसके बाद वह हजार जन्मोंतक गीध, सौ जन्मोंतक सूअर, सात जन्मोंतक कौवा और सात जन्मोंतक सर्प होता है । उसके बाद वह साठ हजार वर्षांतक विष्ठाका कीड़ा और अनेक जन्मोंतक बैल होता है । तत्पश्चात् मानवयोनिमें जन्म लेकर कोढ़ी तथा दरिद्र होता है ॥ २३-२८ ॥

सावित्र्युवाच
विप्रहत्या च गोहत्या किंविधा चातिदैशिकी ।
का वा नृणामगम्या च को वा संध्याविहीनकः ॥ २९ ॥
अदीक्षितः पुमान्को वा को वा तीर्थप्रतिग्रही ।
द्विजः को वा ग्रामयाजी को वा विप्रोऽथ देवलः ॥ ३० ॥
शूद्राणां सूपकारश्च प्रमत्तो वृषलीपतिः ।
एतेषां लक्षणं सर्वं वद वेदविदां वर ॥ ३१ ॥
सावित्री बोली-आतिदेशिकी ब्रह्महत्या तथा गोहत्या कितने प्रकारकी होती है ? मनुष्योंके लिये कौन स्त्री अगम्य होती है और कौन मनुष्य सन्ध्यासे विहीन है, कौन अदीक्षित है, तीर्थ-प्रतिग्रही कौन है ? कौन ग्रामयाजी द्विज है तथा कौन देवल ब्राह्मण है ? हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! जो ब्राह्मण शूद्रोंके यहाँ रसोइयाका काम करता है, प्रमत्त है और शूद्रापति है-इन सभीके समस्त लक्षणोंको आप मुझे बतलाइये ॥ २९-३१ ॥

धर्मराज उवाच
श्रीकृष्णे च तदर्चायामन्येषां प्रकृतौ सति ।
शिवे च शिवलिङ्‌गे च सूर्ये सूर्यमणौ तथा ॥ ३२ ॥
गणेशे वाथ दुर्गायामेवं सर्वत्र सुन्दरि ।
यः करोति भेदबुद्धिं ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३३ ॥
धर्मराज बोले-हे साध्यि ! हे सुन्दरि ! श्रीकृष्णमें तथा उनकी मूर्तिमें, अन्य देवताओंमें तथा उनकी प्रतिमामें, शिवमें तथा शिवलिंगमें, सूर्यमें तथा सूर्यकान्तमणिमें, गणेशमें तथा उनकी मूर्तिमें और दुर्गामें तथा उनकी प्रतिमामें जो भेदबुद्धि रखता है, उसे [आतिदेशिकी] ब्रह्महत्या लगती है ॥ ३२-३३ ॥

स्वगुरौ स्वेष्टदेवे च जन्मदातरि मातरि ।
करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३४ ॥
जो व्यक्ति अपने गुरु, अपने इष्टदेव तथा जन्म देनेवाली मातामें भेद मानता है; वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ ३४ ॥

वैष्णवेषु च भक्तेषु ब्राह्मणेष्वितरेषु च ।
करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३५ ॥
जो भगवान् विष्णुके भक्तों तथा दूसरे देवताओंकी पूजा करनेवाले ब्राह्मणोंमें भेदबुद्धि करता है, उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ३५ ॥

विप्रपादोदके चैव शालग्रामोदके तथा ।
करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३६ ॥
जो मनुष्य ब्राह्मणके चरणोदक तथा शालग्रामके जलमें भेदबुद्धि करता है, वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ ३६ ॥

शिवनैवेद्यके चैव हरिनैवेद्यके तथा ।
करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३७ ॥
जो मनुष्य शिवके नैवेद्य तथा भगवान् विष्णुके नैवेद्यमें भेदबुद्धि रखता है, वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ ३७ ॥

सर्वेश्वरेश्वरे कृष्णे सर्वकारणकारणे ।
सर्वाद्ये सर्वदेवानां सेव्ये सर्वान्तरात्मनि ॥ ३८ ॥
माययानेकरूपे वाप्येक एव हि निर्गुणे ।
करोतीशेन भेदं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ३९ ॥
जो व्यक्ति सर्वेश्वरोंके भी ईश्वर, सभी कारणोंके कारण, सबके आदिस्वरूप, सभी देवताओंके आराध्य, सबकी अन्तरात्मा, एक होते हुए भी अपनी योगमायाके प्रभावसे अनेक रूप धारण करनेमें सक्षम तथा निर्गुण श्रीकृष्णमें और ईशान शिवजीमें भेद करता है; उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ३८-३९ ॥

शक्तिभक्ते द्वेषबुद्धिं शक्तिशास्त्रे तथैव च ।
द्वेषं यः कुरुते मर्त्यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ४० ॥
जो मनुष्य भगवती शक्तिकी उपासना करनेवालेके प्रति द्वेषभाव रखता है तथा शक्ति-शास्त्रोंकी निन्दा करता है, उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ४० ॥

पितृदेवार्चनं यो वा त्यजेद्वेदनिरूपितम् ।
यः करोति निषिद्धं च ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ४१ ॥
जो मनुष्य वेदोंमें प्रतिपादित रीतिसे पितृपूजन तथा देवार्चनका त्याग कर देता है और निषिद्ध विधिसे कर्म सम्पन्न करता है, वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ ४१ ॥

यो निन्दति हृषीकेशं तन्मन्त्रोपासकं तथा ।
पवित्राणां पवित्रं च ज्ञानानन्दं सनातनम् ॥ ४२ ॥
प्रधानं वैष्णवानां च देवानां सेव्यमीश्वरम् ।
ये नार्चयन्ति निन्दन्ति ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ ४३ ॥
जो भगवान् हषीकेश और उनके मन्त्रोंकी उपासना करनेवालोंकी निन्दा करता है और जो पवित्रोंके भी पवित्र, ज्ञानानन्द, सनातन, वैष्णवोंके परम आराध्य तथा देवताओंके सेव्य परमेश्वरकी पूजा नहीं करते; अपितु निन्दा करते हैं, वे ब्रह्महत्याके पापके भागी होते हैं ॥ ४२-४३ ॥

ये निन्दन्ति महादेवीं कारणब्रह्मरूपिणीम् ।
सर्वशक्तिस्वरूपां च प्रकृतिं सर्वमातरम् ॥ ४४ ॥
सर्वदेवस्वरूपां च सर्वेषां वन्दितां सदा ।
सर्वकारणरूपां च ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ ४५ ॥
जो कारणब्रह्मरूपिणी, सर्वशक्तिस्वरूपा, सर्वजननी, सर्वदेवस्वरूपिणी, सबके द्वारा वन्दित तथा सर्वकारणरूपिणी मूलप्रकृति महादेवीकी सदा निन्दा करते हैं; उन्हें ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ४४-४५ ॥

कृष्णजन्माष्टमीं रामनवमीं च सुपुण्यदाम् ।
शिवरात्रिं तथा चैकादशीं वारे रवेस्तथा ॥ ४६ ॥
पञ्च पर्वाणि पुण्यानि ये न कुर्वन्ति मानवाः ।
लभन्ति ब्रह्महत्यां ते चाण्डालाधिकपापिनः ॥ ४७ ॥
जो मनुष्य पुण्यदायिनी कृष्णजन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि, एकादशी और रविवार-इन पाँच पुण्य पके अवसरपर व्रत नहीं करते, वे चाण्डालसे भी बढ़कर पापी हैं और उन्हें ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ४६-४७ ॥

अम्बुवाच्यां भूखननं जलशौचादिकं च ये ।
कुर्वन्ति भारते वर्षे ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ ४८ ॥
जो इस भारतवर्षमें अम्बुवाचीयोग (आर्द्रा नक्षत्रके प्रथम चरण)-में पृथ्वी खोदते हैं या जलमें शौच आदि करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ४८ ॥

गुरुञ्च मातरं तातं साध्वीं भार्यां सुतं सुताम् ।
अनिन्द्यां यो न पुष्णाति ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ४९ ॥
जो मनुष्य अपने गुरु, माता, पिता, साध्वी भार्या, पुत्र तथा अनिन्दनीय आचरण करनेवाली पुत्रीका भरण-पोषण नहीं करता; उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥ ४९ ॥

विवाहो यस्य न भवेन्न पश्यति सुतं तु यः ।
हरिभक्तिविहीनो यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ ५० ॥
जिसका विवाह न हुआ हो, जिसने पुत्र न देखा हो, अर्थात् पुत्रवान् न हो तथा जो भगवान् श्रीहरिकी भक्तिसे विमुख हो, वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ ५० ॥

हरेरनैवेद्यभोजी नित्यं विष्णुं न पूजयेत् ।
पुण्यं पार्थिवलिङ्‌गं च ब्रह्महासौ प्रकीर्तितः ॥ ५१ ॥
जो मनुष्य भगवान् श्रीहरिको नैवेद्य अर्पण किये बिना भोजन करता है, विष्णुका नित्य पूजन नहीं करता और पवित्र पार्थिव लिंगका पूजन नहीं करता; उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है ॥ ५१ ॥

गोप्रहारं प्रकुर्वन्तं दृष्ट्वा यो न निवारयेत् ।
याति गोविप्रयोर्मध्ये गोहत्या तु लभेत्तु सः ॥ ५२ ॥
जो किसी मनुष्यको गायपर प्रहार करते हुए देखकर उसे नहीं रोकता और जो गाय तथा ब्राह्मणके बीचसे निकलता है, वह गोहत्याके पापका भागी होता है ॥ ५२ ॥

दण्डैर्गोस्ताडयेन्मूढो यो विप्रो वृषवाहनः ।
दिने दिने गोवधं च लभते नात्र संशयः ॥ ५३ ॥
जो मूर्ख ब्राह्मण गायोंको डंडोंसे पीटता है और बैलपर सवारी करता है, उसे प्रतिदिन गोहत्याका पाप लगता है ॥ ५३ ॥

ददाति गोभ्य उच्छिष्टं भोजयेद्‌ वृषवाहकम् ।
भुनक्ति वृषवाहान्नं स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ५४ ॥
जो व्यक्ति गायोंको जूठा अन्न खिलाता है, बैलकी सवारी करनेवालेको भोजन कराता है और बैलकी सवारी करनेवालेका अन्न खाता है; उसे निश्चितरूपसे गोहत्याका पाप लगता है ॥ ५४ ॥

वृषलीपतिं याजयेद्यो भुङ्‌क्तेऽन्नं तस्य यो नरः ।
गोहत्याशतकं सोऽपि लभते नात्र संशयः ॥ ५५ ॥
जो ब्राह्मण शूद्रापतिके यहाँ यज्ञ कराता है और उसका अन्न ग्रहण करता है, वह एक सौ गोहत्याके पापका भागी होता है । इसमें सन्देह नहीं है । ५५ ॥

पादं ददाति वह्नौ यो गाश्च पादेन ताडयेत् ।
गेहं विशेदधौताङ्‌घ्रिः स्नात्वा गोवधमाप्नुयात् ॥ ५६ ॥
जो मनुष्य पैरसे अग्निका स्पर्श करता है, गायोंको पैरसे मारता है और स्नान करके बिना पैर धोये देवालयमें प्रवेश करता है; उसे गोहत्याका पाप लगता है ॥ ५६ ॥

यो भुङ्‌क्ते स्निग्धपादेन शेते स्निग्धाङ्‌घ्रिरेव च ।
सूर्योदये च यो भुङ्‌क्ते स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ५७ ॥
जो व्यक्ति गीले पैर भोजन करता है, गीले पैर सोता है और सूर्योदयके समय भोजन करता है उसे अवश्य ही गोहत्याका पाप लगता है ॥ ५७ ॥

अवीरान्नं च यो भुङ्‌क्ते योनिजीव्यस्य च द्विजः ।
यस्त्रिसन्ध्याविहीनश्च गोहत्या लभते च सः ॥ ५८ ॥
जो द्विज पति-पुत्रहीन स्त्रीका तथा योनिजीवी व्यक्तिका अन्न खाता है और जो त्रिकाल सन्ध्यासे विहीन है, उसे भी गोहत्याका पाप लगता है । ५८ ॥

स्वभर्तरि च देवे वा भेदबुद्धिं करोति या ।
कटूक्त्या ताडयेत् कान्तं सा गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ५९ ॥
जो स्त्री अपने पति तथा देवतामें भेदबुद्धि रखती है तथा कटु वचनोंसे अपने पतिको पीड़ित करती है, उसे निश्चितरूपसे गोहत्याका पाप लगता है ॥ ५९ ॥

गोमार्गवर्जनं कृत्वा ददाति सस्यमेव वा ।
तडागे वा तु दुर्गे वा स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६० ॥
जो मनुष्य गोचरभूमिको जोतकर उसमें अनाज बोता है या तालाब अथवा दुर्गमें फसल उगाता है, उसे निश्चय ही गोहत्याका पाप लगता है ॥ ६० ॥

प्रायश्चित्ते गोवधस्य यः करोति व्यतिक्रमम् ।
पुत्रलोभादथाज्ञानात्स गोहत्या लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६१ ॥
जो व्यक्ति पुत्रके मोहसे अथवा अज्ञानके कारण गोवधके प्रायश्चित्तमें व्यतिक्रम करता है, उसे निश्चितरूपसे गोहत्याका पाप लगता है ॥ ६१ ॥

राजके दैवके यत्‍नाद्‌ गोस्वामी गां न रक्षति ।
दुःखं ददाति यो मूढो गोहत्यां स लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६२ ॥
जो गायका स्वामी अराजकता तथा दैवोपद्रवके अवसरपर गायकी रक्षा नहीं करता तथा जो गायको पीड़ा पहुंचाता है, उस मूर्खको निश्चय ही गोहत्याका पाप लगता है ॥ ६२ ॥

प्राणिनो लङ्घयेद्यो हि देवार्चामनलं जलम् ।
नैवेद्यं पुष्पमन्नं च स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६३ ॥
जो मनुष्य प्राणियों, देवमूर्ति, अग्नि, जल, नैवेद्य, पुष्प तथा अन्नको लाँघता है; वह निश्चितरूपसे गोहत्याके पापका भागी होता है ॥ ६३ ॥

शश्वन्नास्तीति यो वादी मिथ्यावादी प्रतारकः ।
देवद्वेषी गुरुद्वेषी स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६४ ॥
मेरे पास कुछ नहीं है-ऐसा जो सदा कहता है, झूठ बोलता है, दूसरोंको ठगता है और देवता तथा गुरुसे द्वेष करता है, उसे गोहत्याका पाप अवश्य लगता है ॥ ६४ ॥

देवताप्रतिमां दृष्ट्वा गुरुं वा ब्राह्मणं सति ।
सम्भ्रमान्न नमेद्यो हि स गोहत्या लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६५ ॥
हे साध्वि । जो मनुष्य देवप्रतिमा, गुरु तथा ब्राह्मणको देखकर आदरपूर्वक प्रणाम नहीं करता, उसे निश्चित-रूपसे गोहत्याका पाप लगता है ॥ ६५ ॥

न ददात्याशिषं कोपात्प्रणताय च यो द्विजः ।
विद्यार्थिने च विद्यां च स गोहत्यां लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ६६ ॥
जो ब्राहाण प्रणाम करनेवालेको क्रोधवश आशीर्वाद नहीं देता और विद्यार्थीको विद्या प्रदान नहीं करता, उसे अवश्य ही गोहत्याका पाप लगता है ॥ ६६ ॥

गोहत्या विप्रहत्या च कथिता चातिदेशिकी ।
गम्यां स्त्रियं नृणामेव निबोध कथयामि ते ॥ ६७ ॥
[हे साध्वि !] यह मैंने आतिदेशिकी ब्रह्महत्या और गोहत्याका वर्णन कर दिया, अब मैं मनुष्योंके लिये गम्य स्त्रीके विषयमें तुमसे कह रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो ॥ ६७ ॥

स्वस्त्री गम्या च सर्वेषामिति वेदानुशासनम् ।
अगम्या च तदन्या या चेति वेदविदो विदुः ॥ ६८ ॥
सभी मनुष्योंको केवल अपनी भार्याक साथ गमन करना चाहिये-यह वेदोंका आदेश है । उसके अतिरिक्त अन्य स्त्री अगम्य है-ऐसा वेदवेत्ताओने कहा है । ६८ ॥

सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं शृणु सुन्दरि ।
अत्यगम्या हि या याश्च निबोध कथयामि ताः ॥ ६९ ॥
हे सुन्दरि ! यह सब सामान्य नियम कहा गया, अब कुछ विशेष नियमोंको सुनो । जो स्त्रियाँ विशेषरूपसे गमन करनेयोग्य नहीं हैं, उनके विषयमें बता रहा हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो ॥ ६९ ॥

शूद्राणां विप्रपत्‍नी च विप्राणां शूद्रकामिनी ।
अत्यगम्या च निन्द्या च लोके वेदे पतिव्रते ॥ ७० ॥
हे पतिव्रते ! शूदोंके लिये ब्राह्मणकी पत्नी और ब्राह्मणोंके लिये शूद्रकी पत्नी अति अगम्य तथा निन्द्य है -ऐसा लोक और वेदमें प्रसिद्ध है ॥ ७० ॥

शूद्रश्च ब्राह्मणीं गत्वा ब्रह्महत्याशतं लभेत् ।
तत्समं ब्राह्मणी चापि कुम्भीपाकं लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ७१ ॥
शूद्राणां विप्रपत्‍नी च विप्राणां शूद्रकामिनी ।
ब्राह्मणीके साथ समागम करनेसे शूद्र एक सौ गोहत्याके पापका भागी होता है और वह निश्चितरूपसे कुम्भीपाक नरक प्राप्त करता है तथा उस शूद्रके साथ ब्राह्मणी भी कुम्भीपाक नरकमें जाती है । अतः शूद्रोंके लिये ब्राहाणकी स्त्री तथा ब्राहाणोंके लिये शूद्रकी स्त्री सर्वथा अगम्य है ॥ ७१.५ ॥

यदि शूद्रा व्रजेद्विप्रो वृषलीपतिरेव सः ॥ ७२ ॥
स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चाण्डालात्सोऽधमः स्मृतः ।
विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रं तस्य च तर्पणम् ॥ ७३ ॥
न पितॄणां सुराणां च तद्दत्तमुपतिष्ठति ।
कोटिजन्मार्जितं पुण्यं तस्यार्चात्तपसार्जितम् ॥ ७४ ॥
द्विजस्य वृषलीलोभान्नश्यत्येव न संशयः ।
ब्राह्मणश्च सुरापीतिर्विड्भोजी वृषलीपतिः ॥ ७५ ॥
तप्तमुद्रादग्धदेहस्तप्तशूलाङ्‌कितस्तथा ।
हरिवासरभोजी च कुम्भीपाकं व्रजेद्‌ द्विजः ॥ ७६ ॥
यदि कोई विप्र शूद्रा नारीका सेवन करता है तो वह वृषलीपति कहा जाता है । वह विप्रजातिसे च्युत हो जाता है और वह चाण्डालसे भी बढ़कर अधम कहा गया है । उसके द्वारा दिया गया पिण्ड विष्ठातुल्य तथा तर्पण मूत्रके समान हो जाता है । उसके द्वारा प्रदत्त पिण्ड आदि पितरों तथा देवताओंको प्राप्त नहीं होता । करोड़ों जन्मोंमें पूजन तथा तप करके उस ब्राह्मणके द्वारा अर्जित किया गया पुण्य शुद्रा नारीके साथ गमन करनेसे नष्ट हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । सुरापान करनेवाला, वेश्याओंका अन्न खानेवाला, शूद्रा नारीका सेवन करनेवाला, तप्त मुद्रा तथा तप्त त्रिशूल आदिसे दागे गये शरीरवाला तथा एकादशीको अन्न ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण कुम्भीपाक नरकमें जाता है ॥ ७२-७६ ॥

गुरुपत्‍नीं राजपत्‍नीं सपत्‍नीं मातरं ध्रुवम् ।
सुतां पुत्रवधूं श्वश्रूं सगर्भां भगिनीं सतीम् ॥ ७७ ॥
सहोदरभ्रातृजायां मातुलानीं पितुः प्रसूम् ।
मातुः प्रसूं तत्स्वसारं भगिनीं भ्रातृकन्यकाम् ॥ ७८ ॥
शिष्यां शिष्यस्य पत्‍नीं च भागिनेयस्य कामिनीम् ।
भ्रातुः पुत्रप्रियां चैवात्यगम्या आह पद्मजः ॥ ७९ ॥
एताः कामेन कान्ता यो व्रजेद्वै मानवाधमः ।
स मातृगामी वेदेषु ब्रह्महत्याशतं व्रजेत् ॥ ८० ॥
अकर्मार्होऽप्यसंस्पृश्यो लोके वेदे च निन्दितः ।
स याति कुम्भीपाके च महापापी सुदुष्करे ॥ ८१ ॥
ब्रह्माजीने गुरुकी पत्नी, राजाकी पत्नी, सौतेली माँ, पुत्री, पुत्रवधू, सास, गर्भवती स्त्री, बहन, पतिव्रता स्त्री. सहोदर भाईकी पत्नी, मामी. दादी. नानी. मौसी. भतीजी, शिष्या, शिष्यकी पत्नी, भाँजेकी स्त्री और भाईके पुत्रकी पत्नीको अति अगम्या कहा है । जो नराधम काममोहित होकर इनके साथ गमन करता है, उसे वेदोंमें मातृगामी कहा गया है और उसे सौ ब्रह्महत्याका पाप लगता है । वह कोई भी कर्म करनेका पात्र नहीं रह जाता, वह अस्पृश्य है और लोकमें तथा वेदमें सब जगह उसकी निन्दा होती है । वह महापापी अत्यन्त क्लेशदायक कुम्भीपाक नरकमें जाता है ॥ ७७-८१ ॥

करोत्यशुद्धां सन्ध्यां वा न सन्ध्यां वा करोति च ।
त्रिसन्ध्यं वर्जयेद्यो वा सन्ध्याहीनश्च स द्विजः ॥ ८२ ॥
जो शास्त्रोक्त विधानसे सन्ध्या नहीं करता अथवा सन्ध्या करता ही नहीं और जो तीनों कालोंकी सन्ध्यासे रहित है, वह द्विज सन्ध्याहीन द्विज कहा गया है ॥ ८२ ॥

वैष्णवं च तथा शैवं शाक्तं सौरं च गाणपम् ।
योऽहङ्‌कारान्न गृह्णाति मन्त्रं सोऽदीक्षितः स्मृतः ॥ ८३ ॥
जो अहंकारके कारण विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य तथा गणेश-इन देवोंके मन्त्रकी दीक्षा ग्रहण नहीं करता, उसे 'अदीक्षित' कहा गया है ॥ ८३ ॥

प्रवाहमवधिं कृत्वा यावद्धस्तचतुष्टयम् ।
तत्र नारायणः स्वामी गङ्‌गागर्भान्तरे वसेत् ॥ ८४ ॥
तत्र नारायणक्षेत्रे मृतो याति हरेः पदम् ।
वाराणस्यां बदर्यां च गङ्‌गासागरसङ्‌गमे ॥ ८५ ॥
गंगाके प्रवाहके दोनों ओरको चार हाथकी चौड़ी भूमिको गंगागर्भ कहते हैं; वहींपर भगवान् नारायण निवास करते हैं । उस नारायणक्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होनेवाला व्यक्ति भगवान् श्रीहरिके धाममें पहुँच जाता है । ८४ ॥

पुष्करे हरिहरक्षेत्रे प्रभासे कामरूस्थले ।
हरिद्वारे च केदारे तथा मातृपुरेऽपि च ॥ ८६ ॥
सरस्वतीनदीतीरे पुण्ये वृन्दावने वने ।
गोदावर्यां च कौशिक्यां त्रिवेण्यां च हिमाचले ॥ ८७ ॥
एषु तीर्थेषु यो दानं प्रतिगृह्णाति कामतः ।
स च तीर्थप्रतिग्राही कुम्भीपाके प्रयाति सः ॥ ८८ ॥
वाराणसी, बदरिकाश्रम, गंगासागरसंगम, पुष्करक्षेत्र, हरिहरक्षेत्र, प्रभासक्षेत्र, कामाख्यापीठ, हरिद्वार, केदारक्षेत्र, मातृपुर, सरस्वती नदीके तट पवित्र वृन्दावन, गोदावरीनदी, कौशिकीनदी, त्रिवेणीसंगम और हिमालय-इन तीथोंमें जो मनुष्य कामनापूर्वक दान लेता है; वह तीर्थप्रतिग्राही है और इस दानग्रहणके कारण वह कुम्भीपाक नरकमें जाता है ॥ ८५-८८ ॥

शूद्रसेवी शूद्रयाजी ग्रामयाजीति कीर्तितः ।
तथा देवोपजीवी च देवलः परिकीर्तितः ॥ ८९ ॥
शूद्रपाकोपजीवी यः सूपकार इति स्मृतः ।
सन्ध्यापूजनहीनश्च प्रमत्तः पतितः स्मृतः ॥ ९० ॥
जो ब्राह्मण शूद्रोंकी सेवा करता है तथा उनके यहाँ यज्ञ आदि कराता है, उसे ग्रामयाजी कहा गया है । देवताकी पूजा करके अपनी आजीविका चलानेवाला ब्राह्मण देवल कहा गया है । शूद्रके यहाँ रसोई बनाकर आजीविका चलानेवाले विप्रको सूपकार कहा गया है । सन्ध्या तथा पूजनकर्मसे विमुख विप्रको प्रमत्त तथा पतित कहा गया है ॥ ८९-९० ॥

उक्तं सर्वं मया भद्रे लक्षणं वृषलीपतेः ।
एते महापातकिनः कुम्भीपाकं प्रयान्ति ते ।
कुण्डान्यन्यानि ये यान्ति निबोध कथयामि ते ॥ ९१ ॥
हे कल्याणि ! वृषलीपतिके समस्त लक्षणोंका वर्णन मैंने कर दिया है । ये सब महापापी हैं और वे कुम्भीपाक नामक नरकमें जाते हैं । [हे साध्वि !] जो पापी दूसरे कुण्डोंमें जाते हैं, उनके विषयमें अब मैं तुम्हें बता रहा हूँ: ध्यानपूर्वक सुनो ॥ ९१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्याने
नानाकर्मविपाकफलवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्याने नानाकर्मविपाकफलवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥


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