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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
सप्त‌त्रिंशोऽध्यायः

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नानानरककुण्डवर्णनम् -
विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन -


धर्मराज उवाच
पूर्णेन्दुमण्डलाकारं सर्वं कुण्डं च वर्तुलम् ।
निम्नं पाषाणभेदैश्च पाचितं बहुभिः सति ॥ १ ॥
न नश्वरं चाप्रलयं निर्मितं चेश्वरेच्छया ।
क्लेशदं पातकानां च नानारूपं तदालयम् ॥ २ ॥
धर्मराज बोले-हे साध्वि ! वे सभी नरककुण्ड पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति गोलाकार तथा बहुत गहरे हैं । वे अनेक प्रकारके पत्थरोंसे बनाये गये हैं । वे कुण्ड नाशवान् नहीं हैं और प्रलयकालतक बने रहते हैं । भगवान्की इच्छासे उनकी रचना की गयी है, वे पापियोंको क्लेश देनेवाले हैं और अनेक रूपोंवाले हैं ॥ १-२ ॥

ज्वलदङ्‌गाररूपं च शतहस्तशिखान्वितम् ।
परितः क्रोशमानं च वह्निकुण्डं प्रकीर्तितम् ॥ ३ ॥
महाशब्दं प्रकुर्वद्‌‍भिः पापिभिः परिपूरितम् ।
रक्षितं मम दूतैश्च ताडितैश्चापि सन्ततम् ॥ ४ ॥
चारों ओरसे एक कोसके विस्तारवाले, सौ हाथ ऊपरतक उठती हुई लपटोंवाले तथा प्रचलित अंगारके रूपवाले कुण्डको अग्निकुण्ड कहा गया है । भयानक चीत्कार करनेवाले पापियोंसे वह भरा रहता है । उन पापियोंको पीटनेवाले मेरे दूत निरन्तर उस कुण्डकी रक्षामें तत्पर रहते हैं ॥ ३-४ ॥

प्रतप्तोदकपूर्णं च हिंस्रजन्तुसमन्वितम् ।
महाघोरं काकुशब्दं प्रहारेण दृढेन च ॥ ५ ॥
क्रोशार्धमानं तद्दूतैस्ताडितैर्मम पार्षदैः ।
तप्तजल तथा हिंसक जन्तुओंसे भरा पड़ा, अत्यन्त भयंकर तथा आधे कोसके विस्तारवाला कुण्ड तप्तकुण्ड कहा गया है, जो मेरे सेवकों तथा दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे युक्त रहता है । उनके दृढ़ प्रहार करनेपर वे नारकी जीव उसमें चिल्लाते रहते हैं ॥ ५.५ ॥

तप्तक्षारोदकैः पूर्णं पुनः काकैश्च सङ्‌कुलम् ॥ ६ ॥
सङ्‌कुलं पापिभिश्चैव क्रोशमानं भयानकम् ।
त्राहीति शब्दं कुर्वद्‌‍भिर्मम दूतैश्च ताडितैः ॥ ७ ॥
प्रचलद्‌भिरनाहारैः शुष्ककण्ठोष्ठतालुकैः ।
तप्तक्षारोदकुण्ड एक कोश परिमाणवाला है, वह भयानक कुण्ड खौलते हुए खारे जलसे परिपूर्ण तथा कौवोंसे भरा पड़ा रहता है । मेरे दूतोंद्वारा पीटे जानेपर 'मेरी रक्षा करो'-ऐसे शब्दका जोर-जोरसे उच्चारण करते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड परिपूर्ण रहता है । आहार न मिलनेके कारण सूखे कण्ठ, ओष्ठ तथा तालुवाले पापी उस कुण्डमें इधर-उधर भागते फिरते हैं ॥ ६-७.५ ॥

विड्‌भिरेव कृतं पूर्णं क्रोशमानं च कुत्सितम् ॥ ८ ॥
अतिदुर्गन्धिसंसक्तं व्याप्तं पापिभिरन्वहम् ।
ताडितैर्मम दूतैश्च तदाहारैः सुदारुणैः ॥ ९ ॥
रक्षेति शब्दं कुर्वद्‌भिस्तत्कीटैरेव भक्षितैः ।
एक कोसके विस्तारवाला विकुण्ड है । वह दारुण नरक विष्ठासे सदा पूर्ण रहता है, उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध फैली रहती है । मेरे महानिर्दयी दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए, 'मेरी रक्षा करो'-ऐसे शब्द करके चिल्लाते हुए तथा विष्ठाका आहार करनेवाले पापियोंसे वह नरककुण्ड सदा भरा रहता है । विष्ठाके कीड़े उन पापियोंको सदा काटते रहते हैं ॥ ८-९.५ ॥

तप्तमूत्रद्रवैः पूर्णं मूत्रकीटैश्च सङ्‌कुलम् ॥ १० ॥
युक्तं महापातकिभिस्तत्कीटैर्भक्षितैः सदा ।
गव्यूतिमानं ध्वान्ताक्तं शब्दकृद्‌भिश्च सन्ततम् ॥ ११ ॥
मूत्रकुण्ड नामक नरक खौलते हुए मूत्रसे भरा रहता है । उसमें मूत्रके कीड़े सर्वत्र व्याप्त रहते हैं । दो कोसके विस्तारवाले तथा अन्धकारमय उस नरककुण्डमें मूत्रके कीड़ोंद्वारा निरन्तर काटे जाते हुए तथा मेरे भयानक दूतों द्वारा लगातार पीटे जानेके कारण जोरजोर चिल्लाते हुए और सूखे कण्ठ, ओष्ठ और तालुवाले महापापी भरे पड़े रहते हैं ॥ १०-११ ॥

मद्दूतैस्ताडितैर्घोरैः शुष्ककण्ठोष्ठतालुकैः ।
श्लेष्मपूर्णं प्रशमितं तत्कीटैः पूरितं सदा ॥ १२ ॥
श्लेष्मकुण्ड नामक नरक श्लेष्मा आदि अपवित्र वस्तुओं तथा उनके कीड़ोंसे सदा व्याप्त रहता है । वह नरककुण्ड श्लेष्माका ही निरन्तर भोजन करनेवाले पापीजनोंसे भरा पड़ा हुआ है ॥ १२ ॥

तद्‍भोजिभिः पापिभिश्च वेष्टितं वेष्टितैः सदा ।
क्रोशार्धं गरकुण्डं च गरभोजिभिरन्वितम् ॥ १३ ॥
गरकीटैर्भक्षितैश्च पापिभिः पूर्णमेव च ।
ताडितैर्मम दूतैश्च शब्दकृद्‌भिश्च कम्पितैः ॥ १४ ॥
सर्पाकारेर्वज्रदंष्ट्रै शुष्ककण्ठैः सुदारुणैः ।
गरकुण्डका विस्तार आधे कोसका है, जो विषका भोजन करनेवाले पापियोंसे परिपूर्ण रहता है । सर्पक समान आकारवाले, वज्रमय दाँतोंसे युक्त, सूखे कण्ठवाले तथा अत्यन्त भयंकर विषैले जन्तुओंके द्वारा काटे जाते हुए और मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर चीत्कार करते तथा अत्यन्त भयके मारे काँपते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड भरा पड़ा रहता है ॥ १३-१४.५ ॥

नेत्रयोर्मलपूर्णं च क्रोशार्धं कीटसंयुतम् ॥ १५ ॥
पापिभिः सङ्‌कुलं शश्वद्‌भ्रमद्‌भिः कीटभक्षितैः ।
आधे कोसके विस्तारवाला दूषिकाकुण्ड है, जो आँखोंके मल तथा कीटोंसे सदा भरा रहता है । कीड़ोंके काटनेपर व्याकुल होकर इधर-उधर सदा घूमते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड व्याप्त रहता है ॥ १५.५ ॥

वसारसेन सम्पूर्णं क्रोशतुर्यं सुदुःसहम् ॥ १६ ॥
तद्‍भोजिभिः पातकिभिर्मम दूतैश्च ताडितैः ।
वसारससे परिपूर्ण तथा चार कोसके विस्तारवाला वसाकुण्ड है, जो अत्यन्त दुःसह है । वह नरककुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए वसाभोजी पापियोंसे पूर्णतः भरा रहता है ॥ १६.५ ॥

शुक्रकुण्डं क्रोशमितं शुक्रकीटैश्च संयुतम् ॥ १७ ॥
पापिभिः सङ्‌कुलं शश्वद्‌ द्रवद्‌भिः कीटभक्षितैः ।
एक कोसके विस्तारवाला शुक्रकुण्ड है । शुक्रके कीड़ोंसे वह व्याप्त रहता है । कीड़ोंके द्वारा काटे जाते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे वह कुण्ड सदा भरा रहता है ॥ १७.५ ॥

दुर्गन्धिरक्तपूर्णं च वापीमानं गभीरकम् ॥ १८ ॥
तद्‍भोजिभिः पापिभिश्च सङ्‌कुलं कीटभक्षितम् ।
वापीके समान परिमाणवाला, दुर्गन्धित रक्तसे परिपूर्ण तथा अत्यन्त गहरा रक्तकुण्ड नामक नरक है । उसमें रक्तका पान करनेवाले पापी तथा उन्हें काटनेवाले कीड़े भरे रहते हैं ॥ १८.५ ॥

पूर्णं नेत्राश्रुभिस्तप्तं बहुपापिभिरन्वितम् ॥ १९ ॥
वापीतुर्यप्रमाणं च रुदद्‌भिः कीटभक्षितैः ।
अश्रुकुण्ड नामक नरक चार बावलियोंके समान विस्तारवाला है । वह अत्यन्त तप्त तथा नेत्रके आँसुओंसे परिपूर्ण रहता है एवं वहाँके कीड़ोंके काटनेपर रोते हुए बहुत से पापियोंसे भरा पड़ा रहता है ॥ १९.५ ॥

नृणां गात्रमलैर्युक्तं तद्‍भक्षैः पापिभिर्युतम् ॥ २० ॥
ताडितैर्मम दूतैश्च व्यग्रैश्च कीटभक्षितैः ।
मनुष्यके शरीरके मलोंसे तथा मलका भक्षण करनेवाले पापियोंसे युक्त गात्रकुण्ड नामक नरक है । मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा वहाँके कीटोंद्वारा काटे जाते हुए व्याकुल पापियोंसे वह कुण्ड व्याप्त रहता है ॥ २०.५ ॥

कर्णविट्परिपूर्णं च तद्‍भक्षैः पापिभिर्वृतम् ॥ २१ ॥
वापीतुर्यप्रमाणं च ब्रुवद्‌भिः कीटभक्षितैः ।
चार बावलियोंके समान विस्तारवाला कर्णविट्कुण्ड है । वह कानोंकी मैलसे सदा भरा रहता है । उसी मैलको खानेवाले तथा कीड़ोंके काटनेपर चिल्लाते हुए पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ २१.५ ॥

मज्जापूर्णं नराणां च महादुर्गन्धिसंयुतम् ॥ २२ ॥
महापातकिभिर्युक्तं वापीतुर्यप्रमाणकम् ।
मनुष्योकी मज्जासे भरा हुआ तथा अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त मज्जाकुण्ड है । चार बावलियोंके विस्तारवाला वह नरककुण्ड महापापियोंसे व्याप्त रहता है । २२.५ ॥

परिपूर्णं सिग्धमांसैर्मम दूतैश्च ताडितैः ॥ २३ ॥
पापिभिः सङ्‌कुलं चैव वापीमानं भयानकम् ।
कन्याविक्रयिभिश्चैव तद्‍भक्ष्यैः कीटभक्षितैः ॥ २४ ॥
पाहीति शब्दं कुर्वद्‌भिस्त्रासितैश्च भयानकैः ।
एक वापीके समान विस्तारवाला अत्यन्त भयानक मांसकुण्ड है । वह कुण्ड गीले मांसों तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे भरा रहता है । कन्याका विक्रय करनेवाले वे पापी वहाँ रहकर उसी मांसका भक्षण करते हैं और भयानक कीड़ोंके काटनेपर अत्यन्त भयभीत होकर 'बचाओ-बचाओ'-इस शब्दको बोलते रहते हैं । २३-२४.५ ॥

वापीतुर्यप्रमाणं च नखादिकचतुष्टयम् ॥ २५ ॥
पापिभिः संयुतं शश्वन्मम दूतैश्च ताडितैः ।
चार बावलियोंके विस्तारवाले नखादि चार कुण्ड हैं । मेरे दूतोंके द्वारा निरन्तर पीटे जाते हुए पापियोंसे वे कुण्ड भरे पड़े रहते हैं ॥ २५.५ ॥

प्रतप्तताम्रकुण्डं च ताम्रोपर्युल्मुकान्वितम् ॥ २६ ॥
ताम्राणां प्रतिमालक्षैः प्रतप्तैर्व्यापृतं सदा ।
प्रत्येकं प्रतिमाश्लिष्टैः रुदद्‌भिः पापिभिर्युतम् ॥ २७ ॥
गव्यूतिमानं विस्तीर्णं मम दूतैश्च ताडितैः ।
ताममयी उल्कासे युक्त तथा जलते हुए ताँबेके सदृश ताम्रकुण्ड है । वह ताँबेकी लाखों अतितप्त प्रतिमाओंसे परिपूर्ण रहता है । दो कोसके विस्तारवाला वह कुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा प्रत्येक प्रतिमासे सटानेपर रोते हुए पापियोंसे व्याप्त रहता है ॥ २६-२७.५ ॥

प्रतप्तलोहधारं च ज्ववलदङ्‌गारसंयुतम् ॥ २८ ॥
लोहानां प्रतिमाश्लिष्टैः रुदद्‌भिः पापिभिर्युतम् ।
प्रत्येकं प्रतिमाश्लिष्टैः शश्वत्प्रज्वलितैर्भिया ॥ २९ ॥
रक्ष रक्षेति शब्दं च कुर्वद्‌भिर्दूतताडितैः ।
महापातकिभिर्युक्तं द्विगव्यूतिप्रमाणकम् ॥ ३० ॥
प्रज्वलित लोहधार तथा दहकते हए अंगारोंसे युक्त लोहकुण्ड लोहेकी प्रतिमाओंसे चिपके हुए तथा रोते हुए पापियोंसे भरा रहता है । वहाँ निरन्तर दग्ध होते हुए तथा प्रत्येक प्रतिमासे श्लिष्ट और मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर भयभीत होकर 'रक्षा करो, रक्षा करो'-ऐसे शब्द करनेवाले महापापियोंसे भरे पड़े, भयानक, दो कोसके विस्तारवाले तथा अन्धकारमय उस कुण्डको लोहकुण्ड कहा गया है ॥ २८-३० ॥

भयानकं ध्वान्तयुक्तं लोहकुण्डं प्रकीर्तितम् ।
चर्मकुण्डं तप्तसुराकुण्डं वाप्यर्धमेव च ॥ ३१ ॥
तद्‍भोजिपापिभिर्व्याप्तं मम दूतैश्च ताडितैः ।
चर्मकुण्ड और तप्तसुराकुण्ड आधी बावलीके प्रमाणवाले हैं । चर्म खाते हुए तथा सुरापान करते हुए और मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे वे कुण्ड सदा व्याप्त रहते हैं ॥ ३१.५ ॥

अतः शाल्मलिकुण्डं च वृक्षकण्टकशोभितम् ॥ ३२ ॥
लक्षपौरुषमानं च क्रोशमानं च दुःखदम् ।
धनुर्मानैः कण्टकैश्च सुतीक्ष्णैः परिवेष्टितम् ॥ ३३ ॥
प्रत्येकं विद्धगात्रैश्च महापातकिभिर्युतम् ।
वृक्षाग्रान्निपतद्‌भिश्च मम दूतैश्च पातितैः ॥ ३४ ॥
जलं देहीति शब्दं च कुर्वद्‌भिः शुष्कतालुकैः ।
महाभियातिव्यग्रैश्च दण्डैः सम्भग्नमस्तकैः ॥ ३५ ॥
प्रचलद्‌भिर्यथा तप्ततैलजीविभिरेव च ।
कण्टकमय वृक्षोंसे भरा शाल्मलीकुण्ड है । एक कोसके विस्तारवाले उस दुःखप्रद कुण्डमें लाखों पुरुष समा सकते हैं । वहाँ शाल्मलीवृक्षसे गिरकर तथा मेरे दूतोंद्वारा गिराये जाकर धनुषकी लम्बाईवाले अत्यन्त तीखे काँट बिछे रहते हैं । एक-एक करके सभी पापियोंके अंग काँटोंसे छिद उठते हैं । सूखे तालुवाले वे पापी 'मुझे जल दो'-ऐसा शब्द करते रहते हैं । जिस प्रकार प्रतप्त तेलमें पड़नेपर जीव छटपटा उठते हैं, वैसे ही मेरे दूतोंके डण्डोंके प्रहारसे भग्न सिरवाले वे महापापी महान् भयसे अत्यधिक व्याकुल होकर चकराने लगते हैं ॥ ३२-३५.५ ॥

विषोदैस्तक्षकाणां च पूर्वं च क्रोशमानकम् ॥ ३६ ॥
तद्‍भक्षैः पापिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडिते ।
विषोदकुण्ड एक कोसके परिमाणवाला है । वह कुण्ड तक्षकके समान विषधर जीवों, मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए और उसी विषका भक्षण करनेवाले पापियोंसे भरा रहता है ॥ ३६.५ ॥

प्रतप्ततैलपूर्णं च कीटादिपरिवर्जितम् ॥ ३७ ॥
महापातकिभिर्युक्तं दग्धाङ्‌गारैश्च वेष्टितम् ।
काकुशब्दं प्रकुर्वद्‌भिश्चलद्‌भिर्दूतपीडितैः ॥ ३८ ॥
ध्वान्तयुक्तं क्रोशमानं क्लेशदं च भयानकम् ।
प्रतप्ततैलकुण्डमें सदा खौलता हुआ तेल भरा रहता है । उसमें कीड़े आदि नहीं रहते । चारों ओर जलते हुए अंगारोंसे घिरा हुआ वह नरककुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेसे चीत्कार करते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए महापापियोंसे भरा रहता है । एक कोसके विस्तारवाला वह नरककुण्ड बड़ा ही भयानक, क्लेशप्रद तथा अन्धकारपूर्ण है ॥ ३७-३८.५ ॥

शूलाकारैः सुतीक्ष्णाग्रैर्लोहशस्त्रैश्च वेष्टितम् ॥ ३९ ॥
शस्त्रतल्पस्वरूपञ्च कोशतुर्यप्रमाणकम् ।
वेष्टितं तत्पातकिभिः कुन्तविद्धैश्च वेष्टितैः ॥ ४० ॥
ताडितैर्मम दूतैश्च शुष्ककण्ठोष्ठतालुकैः ।
कुन्तकुण्ड त्रिशूलके समान आकारवाले तथा अत्यन्त तीखी धारवाले लौहके अस्त्रोंसे परिपूर्ण है । चार कोसके विस्तारवाला वह नरककुण्ड शस्त्रोंकी शय्याके समान प्रतीत होता है । मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए, भालोंसे बिंधे हुए, सूखे कंठ ओठ तथा तालुवाले पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ ३९-४०.५ ॥

कीटैश्च शङ्‌कुप्रमितैः सर्पमानैर्भयङ्‌करैः ॥ ४१ ॥
तीक्ष्णदन्तैश्च विकृतैर्व्याप्तं ध्वान्तयुतं सति ।
महापातकिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडिते ॥ ४२ ॥
हे साध्वि ! शंकु तथा सर्पके आकार-प्रकारवाले, भयंकर, तीक्ष्ण दाँतोंवाले तथा विकृत कीड़ोंसे युक्त कृमिकुण्ड है । वह अन्धकारमय कुण्ड मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए महापापियोंसे परिपूर्ण रहता है ॥ ४१-४२ ॥

द्विगव्यूतिप्रमाणं च पूयकुण्डं प्रचक्षते ।
तद्‍भक्ष्यैः प्राणिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडितैः ॥ ४३ ॥
पूयकुण्ड चार कोसके विस्तारवाला कहा गया है । मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पूयभक्षी पापियोंसे वह कुण्ड परिपूर्ण रहता है ॥ ४३ ॥

तालवृक्षप्रमाणैश्च सर्पकोटिभिरावृतम् ।
सर्पवेष्टितगात्रैश्च पापिभिः सर्पभक्षितैः ॥ ४४ ॥
सङ्‌कुलं शब्दकृद्‌भिश्च मम दूतैश्च ताडितैः ।
सर्पकुण्ड ताड़के वृक्षके समान लम्बाईवाले करोड़ों साँसे युक्त है । सर्पोसे जकड़े हुए शरीरवाले, सपोंके द्वारा डॅसे जाते हुए तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर चीत्कार करते हुए पापियोंसे वह कुण्ड सदा भरा रहता है ॥ ४४.५ ॥

कुण्डत्रयं मशादीनां पूर्णं च मशकादिभिः ॥ ४५ ॥
सर्वं कोशार्धमानं च महापातकिभिर्युतम् ।
हस्तपादादिबद्धैश्च क्षतजौघेन लोहितैः ॥ ४६ ॥
हाहेति शब्दं कुर्वद्‌भिस्ताडितैर्मम पार्षदैः ।
मशक आदि जन्तुओंसे पूर्ण मशककुण्ड, दंशकुण्ड और गरलकुण्ड-ये तीन नरक हैं । उन नरकोंका विस्तार आधे-आधे कोसका है । जिनके हाथ बँधे रहते हैं, रुधिरसे सभी अंग लाल रहते हैं तथा जो मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर 'हा-हा'-ऐसा शब्द करते रहते हैं-उन महापापियोंसे वे कुण्ड भरे रहते हैं ॥ ४५-४६.५ ॥

वज्रवृश्चिकयोः कुण्डं ताभ्यां च परिपूरितम् ॥ ४७ ॥
वाप्यर्धं पापिभिर्युक्तं वज्रवृश्चिकदंशितैः ।
वन तथा बिच्छुओंसे परिपूर्ण वजकुण्ड तथा वृश्चिककुण्ड है । आधी वापीके विस्तारवाले वे कुण्ड वज्र तथा बिच्छुओंसे निरन्तर डॅसे जाते हुए पापियोंसे भरे रहते हैं ॥ ४७.५ ॥

कुण्डत्रयं शरादीनां तैरेव परिपूरितम् ॥ ४८ ॥
तैर्विद्धैः पापिभिर्युक्तं वाप्यर्धं रक्तलोहितैः ।
शरकुण्ड, शूलकुण्ड और खड्गकुण्ड-ये तीन नरककुण्ड उन्हीं शर, शूल और खड्गसे परिपूर्ण हैं । आधी वापीके परिमाणवाले वे कुण्ड उन तीनों अस्त्रोंसे बिंधे तथा रक्तसे लोहित शरीरवाले पापियोंसे व्याप्त रहते हैं ॥ ४८.५ ॥

तप्ततोयोदकैः पूर्णं सध्वान्तं गोलकुण्डकम् ॥ ४९ ॥
कीटैः शङ्‌कुसमानैश्च भक्षितैः पापिभिर्युतम् ।
वाप्यर्थमानं भीतैश्च पापिभिः कीटभक्षितैः ॥ ५० ॥
रुदद्‌भिः क्रोशमानैश्च मम दूतैश्च ताडितैः ।
गोलकुण्ड तप्त जलसे भरा हुआ तथा अन्धकारसे पूर्ण रहता है । आधी वापीके विस्तारवाला वह नरककुण्ड शंकुके समान आकारवाले कीड़ोंसे भक्षित होनेवाले पापियोंसे भरा रहता है । वह कुण्ड कीड़ोंके काटने तथा मेरे दतोंके मारनेपर भयभीत तथा व्याकुल होकर रोते हुए पापियोंसे सदा व्याप्त रहता है ॥ ४९-५०.५ ॥

अतिदुर्गन्धिसंयुक्तं दुःखदं पापिनां सदा ॥ ५१ ॥
दारुणैर्विकृताकारैर्भक्षितं पापिभिर्युतम् ।
वाप्यर्धं परिपूर्णं च जलस्थैर्नक्रकोटिभिः ॥ ५२ ॥
अत्यन्त दुर्गन्धसे युक्त तथा पापियोंको निरन्तर दुःख देनेवाला नक्रकुण्ड है । नक आदि करोड़ों भयानक तथा विकृत आकारवाले जलचर जन्तुओंके द्वारा खाये जाते हुए पापियोंसे आधी वापीके परिमाणवाला वह कुण्ड भरा रहता है ॥ ५१-५२ ॥

विण्मूत्रश्लेष्मभक्षैश्च संयुतं शतकोटिभिः ।
काकैश्च विकृताकारैर्भक्षितैः पापिभिर्युतम् ॥ ५३ ॥
काककुण्ड भयानक तथा विकृत आकारवाले कौओंके द्वारा नोचे जाते हुए तथा विष्ठा, मूत्र, श्लेष्मभोजी सैकड़ों-करोड़ों पापियोंसे सदा परिपूर्ण रहता है ॥ ५३ ॥

मन्थानकुण्डं बीजकुण्डं ताभ्यां पूर्णं धनुःशतम् ।
भक्षितैः पापिभिर्युक्तं शब्दकृद्‌भिश्च सन्ततम् ॥ ५४ ॥
मन्थानकुण्ड तथा बीजकुण्ड-इन्हीं दोनों मन्थान तथा बीज नामक कीटोंसे भरे रहते हैं । इन कुण्डोंका परिमाण सौ धनुषके बराबर है । कीड़ोंके काटनेपर निरन्तर चीत्कार करनेवाले पापियोंसे वे कुण्ड व्याप्त रहते हैं ॥ ५४ ॥

धनुःशतं जीवयुक्तं पापिभिः सङ्‌कुलं सदा ।
शब्दकृद्‌भिर्वज्रदंष्ट्रैः सान्द्रध्वान्तमयं परम् ॥ ५५ ॥
हाहाकार करनेवाले पापियोंसे व्याप्त वज्रकुण्ड है । वज्रके समान दाँतवाले जन्तुओंसे युक्त तथा अत्यन्त घने अन्धकारसे आच्छादित उस नरककुण्डका विस्तार सौ धनुषके परिमाणके बराबर है ॥ ५५ ॥

वापीद्विगुणमानं च तप्तप्रस्तरनिर्मितम् ।
ज्वलदङ्‌गारसदृशं चलद्‌भिः पापिभिर्युतम् ॥ ५६ ॥
दो वापीके समान विस्तारवाला, अत्यन्त तप्त पत्थरोंसे निर्मित तथा जलते हुए अंगारके सदृश तप्तपाषाणकुण्ड है । वह व्याकुल होकर इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे व्याप्त रहता है ॥ ५६ ॥

क्षुरधारोपमैस्तीक्ष्णैः पाषाणैर्निर्मितं परम् ।
महापातकिभिर्युक्तं लालाकुण्डं च लोहितैः ॥ ५७ ॥
क्रोशमात्रं च गम्भीरं मम दूतैश्च ताडितैः ।
तप्ताञ्जनाचलाकारैः परिपूर्णं धनुःशतम् ॥ ५८ ॥
चलद्‌भिः पापिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडितैः ।
छुरेकी धारके समान तीक्ष्ण पाषाणोंसे बना हुआ विशाल तीक्ष्णपाषाणकुण्ड है । वह महापापियोंसे परिपूर्ण रहता है । रक्तसे लथपथ जीवोंसे भरा हुआ लालाकुण्ड है । कोसभरकी गहराईवाला यह कुण्ड मेरे दूतोंसे निरन्तर पीटे जाते हुए पापियोंसे परिपूर्ण रहता है । इसी प्रकार सौ धनुषके परिमाणवाला मसीकुण्ड है, वह काजलके समान वर्णवाले तप्त पत्थरोंसे बना हुआ है । मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे वह कुण्ड पूर्णरूपसे भरा रहता है ॥ ५७-५८.५ ॥

पूर्णं चूर्णद्रवैः क्रोशमानं पापिभिरन्वितम् ॥ ५९ ॥
तद्‍भोजिभिः प्रदग्धैश्च मम दूतैश्च ताडितैः ।
तपे हुए बालूसे परिपूर्ण एक कोसके विस्तारवाला चूर्णकुण्ड है । [अत्यन्त दहकते हुए बालूसे] दग्ध उसी बालूका भोजन करनेवाले तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे वह कुण्ड पूरित रहता है ॥ ५९.५ ॥

कुण्डं कुलालचक्रं च घूर्णमानञ्च सन्ततम् ॥ ६० ॥
सुतीक्ष्णं षोडशारं च चूर्णितैः पापिभिर्युतम् ।
अतीव वक्रं निम्नं च द्विगव्यूतिप्रमाणकम् ॥ ६१ ॥
कन्दराकारनिर्माणं तप्तोदैश्च समन्वितम् ।
महापातकिभिर्युक्तं भक्षितैर्जलजन्तुभिः ॥ ६२ ॥
ज्वलद्‌भिः शब्दकृद्‌भिश्च ध्वान्तयुक्तं भयानकम् ।
कुम्हारके चक्रकी भाँति निरन्तर घूमता हुआ, अत्यन्त तीक्ष्ण तथा सोलह अरोंवाला चक्रकुण्ड क्षतविक्षत अंगोंवाले पापियोंसे भरा रहता है । चार कोसके विस्तारवाला, कन्दराके आकारवाला, अत्यन्त गहरा, टेढ़ा-मेढ़ा तथा सदा खौलते हुए जलसे परिपूर्ण वक्रकुण्ड हैं । अत्यन्त भयानक तथा अन्धकारसे परिपूर्ण वह कुण्ड जल-जन्तुओंके काटने तथा तप्त जलसे दग्ध होनेके कारण चीत्कार करते हुए महापापियोंसे भरा रहता है ॥ ६०-६२.५ ॥

कोटिभिर्विकृताकारैः कच्छपैश्च सुदारुणैः ॥ ६३ ॥
जलस्थैः संयुतं तैश्च भक्षितैः पापिभिर्युतम् ।
ज्वालाकलापैस्तेजोभिर्निर्मितैः क्रोशमानकम् ॥ ६४ ॥
शब्दकृद्‌भिः पातकिभिः संयुतं क्लेशदं सदा ।
विकृत आकारवाले अत्यन्त भयानक करोड़ों कच्छपोंसे भरा हुआ कूर्मकुण्ड है । जलमें रहनेवाले कछुए वहाँकै पापियोंको नोंचते रहते हैं । प्रज्वलित ज्वालाओंसे व्याप्त ज्वालाकुण्ड है, जो एक कोसके विस्तारमें है । वह क्लेशप्रद कुण्ड चीखते चिल्लाते हुए पापियोंसे सदा भरा रहता है । ६३-६४.५ ॥

क्रोशमानञ्च गम्भीरं तप्तभस्मभिरन्वितम् ॥ ६५ ॥
शश्वज्ज्वलद्‌भिः संयुक्तं पापिभिर्भस्मभक्षितैः ।
तप्तपाषाणलोहानां समूहैः परिपूरितैः ॥ ६६ ॥
पापिभिर्दग्धगात्रैश्च युक्तञ्च शुष्कतालुकैः ।
क्रोशमानं ध्वान्तयुक्तं गम्भीरमतिदारुणम् ॥ ६७ ॥
ताडितैश्च प्रदग्धैश्च दग्धकुण्डं प्रकीर्तितम् ।
एक कोसकी गहराईवाला भस्मकुण्ड है । उस कुण्डमें अत्यन्त तपता हुआ भस्म व्याप्त रहता है । जलते भस्मको खानेके कारण वहाँकै पापियोंके अंगोंमें निरन्तर दाह उत्पन्न होता रहता है । जो तप्त पाषाण तथा लोहेके समूहोंसे परिपूर्ण तथा जले हुए शरीरवाले पापियोंसे युक्त नरक है, उसे दग्धकुण्ड कहा गया है । वह अत्यन्त भयंकर, गहरा,एक कोसके विस्तारवाला तथा अन्धकारमय कुण्ड मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए तथा जलाये जाते हुए शुष्क तालुवाले पापियोंसे भरा रहता है ॥ ६५-६७.५ ॥

तीवोर्मियुतं तोयं प्रतप्तक्षारसंयुतम् ॥ ६८ ॥
नानाप्रकारैर्विरुतैर्जलजन्तुभिरन्वितम् ।
द्विगव्यूतिप्रमाणं च गम्भीरं ध्वान्तसंयुतम् ॥ ६९ ॥
तद्‍भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं दंशितैर्जलजन्तुभिः ।
ज्वलद्‌भिः शब्दकृद्‌भिश्च न पश्यद्‌भिः परस्परम् ॥ ७० ॥
प्रतप्तसूचीकुण्डञ्च कीर्तितं च भयानकम् ।
जो बड़ी-बड़ी लहरोंवाले खौलते हुए खारे जल तथा नाना प्रकारके शब्द करनेवाले जलजंतुओंसे युक्त है, चार कोसके विस्तारमें फैला हुआ है, अत्यन्त गहरा तथा अन्धकारपूर्ण है, जलजन्तुओंके काटनेपर चीत्कार करनेवाले तथा तापसे जलते रहनेवाले और घोर अन्धकारके कारण एकदूसरेको न देख पानेवाले पापियोंसे सदा भरा रहता है, उस भयानक कुण्डको प्रतप्तसूचीकुण्ड कहा गया है ॥ ६८-७०.५ ॥

असीव धारापत्रस्याऽप्युच्चैस्तालतरोरधः ॥ ७१ ॥
क्रोशार्धमानं कुण्डं च पतत्पत्रसमन्वितम् ।
पापिनां रक्तपूर्णं च वृक्षाग्रात्पततां ध्रुवम् । ७२
परित्राहीति शब्दं च कुर्वतामसतामपि ।
गम्भीरं ध्वान्तयुक्तं च रक्तकीटसमन्वितम् ॥ ७३ ॥
तदसीपत्रकुण्डं च कीर्तितं च भयानकम् ।
तलवारकी धारके समान तीखे पत्तोंवाले ऊँचेऊँचे ताड़के वृक्षोंके नीचे स्थित, एक कोसके परिमाणवाले, उन वृक्षोंसे गिरे हुए पत्तोंसे परिपूर्ण, वृक्षोंके अग्रभागसे गिराये जानेपर 'रक्षा करो-रक्षा करो'-ऐसा शब्द करनेवाले अधम पापियोंके रक्तसे भरे हुए, अत्यन्त गहरे, अन्धकारपूर्ण, रक्तके कीड़ोंसे व्याप्त तथा अत्यन्त भयानक कुण्डको असिपत्रकुण्ड कहा गया है ॥ ७१-७३.५ ॥

धनुःशतप्रमाणं च क्षुरधारास्त्रसंयुतम् ॥ ७४ ॥
पापिनां रक्तपूर्णं च क्षुरधारं भयानकम् ।
क्षुरधारकुण्ड सौ धनुषके बराबर विस्तारवाला, छुरेकी धारके समान तीखे अस्त्रोंसे युक्त, पापियोंके रक्तसे परिपूर्ण और बड़ा ही भयानक है ॥ ७४.५ ॥

सूचीमुखास्त्रसंयुक्तं पापिरक्तौघपूरतम् ॥ ७५ ॥
पञ्चाशद्धनुरायामं क्लेशदं सूचिकामुखम् ।
सूईकी नोंकवाले अस्त्रोंसे युक्त, पापियोंके रक्तसे सदा परिपूर्ण, पचास धनुषके बराबर विस्तारवाले तथा क्लेशप्रद कुण्डको सूचीमुखकुण्ड कहा गया है ॥ ७५.५ ॥

कस्यचिज्जन्तुभेदस्य गोकाख्यस्य मुखाकृति ॥ ७६ ॥
कूपरूपं गभीरं च धनुर्विंशत्प्रमाणकम् ।
महापातकिनां चैव महत्क्लेशप्रदं परम् ॥ ७७ ॥
तत्कीटभक्षितानां च नम्रास्यानां च सन्ततम् ।
जो कुण्ड 'गोका' नामक जन्तुविशेषके मुखके समान आकृतिवाला, कुएंके समान गहरा, बीस धनुषके बराबर विस्तारवाला तथा महापापियोंके लिये अत्यन्त कष्टदायक है, वह गोकामुखकुण्ड है । उस नरकके कीड़ोंके काटनेसे वहाँकै पापी जीव सदा अपना मुख नीचे किये रहते हैं ॥ ७६-७७.५ ॥

कुण्डं नक्रमुखाकारं धनुःषोडशमानकम् ॥ ७८ ॥
गम्भीरं कूपरूपं च पापिनां सङ्‌कुलं सदा ।
धनुःशतप्रमाणं च कीर्तितं गजदंशनम् ॥ ७९ ॥
नक्र (मगर)-के मुखके समान आकृतिवाले कुण्डको नक्रमुखकुण्ड कहते हैं । वह सोलह धनुषके बराबर विस्तारवाला, गहरा, कुएंके सदृश तथा पापियोंसे परिपूर्ण है । गजदंशकुण्डको सौ धनुषके बराबर विस्तारवाला बताया गया है । ७८-७९ ॥

धनुस्त्रिंशत्प्रमाणं च कुण्डं च गोमुखाकृति ।
पापिनां क्लेशदं शश्वद्‌ गोमुखं परिकीर्तितम् ॥ ८० ॥
तीस धनुषके बराबर विस्तृत, गोके मुखकी आकृतिके तुल्य और पापियोंको निरन्तर क्लेश प्रदान करनेवाले कुण्डको गोमुखकुण्ड कहा गया है ॥ ८० ॥

कालचक्रेण संयुक्तं भ्रममाणं भयानकम् ।
कुम्भाकारं ध्वान्तयुक्तं द्विगव्यूतिप्रमाणकम् ॥ ८१ ॥
लक्षपौरुषमानं च गम्भीरं विस्मृतं सति ।
कुत्रचित्तप्ततैलं च ताम्रादिकुण्डमेव च ॥ ८२ ॥
पापिनां च प्रधानैश्च मूर्च्छितैः कृमिभिर्युतम् ।
परस्परं च नश्यद्‌भिः शब्दकृद्‌भिश्च सन्ततम् ॥ ८३ ॥
ताडितैर्यमदूतैश्च मुसलैर्मुद्‌गरैस्तथा ।
घूर्णमानैः पतद्‌भिश्च मूर्च्छितैश्च क्षणं क्षणम् ॥ ८४ ॥
पातितैर्यमदूतैश्च रुदन्त्यस्मात्क्षणं पुनः ।
यावन्तः पापिनः सन्ति सर्वकुण्डेषु सुन्दरि ॥ ८५ ॥
ततश्चतुर्गुणाः सन्ति कुम्भीपाके च दुःखदे ।
सुचिरं वध्यमानास्ते भोगदेहा न नश्वराः ॥ ८६ ॥
सर्वकुण्डप्रधानं च कुम्भीपाकं प्रकीर्तितम् ।
कुम्भीपाककुण्ड कालचक्रसे युक्त होकर निरन्तर चक्कर काटनेवाला तथा कुम्भके समान आकारवाला है । अत्यन्त भयानक तथा अन्धकारपूर्ण इस कुण्डका विस्तार चार कोसमें है । हे साध्वि ! यह नरक एक लाख पौरुष* (पोरसा) मानके बराबर गहरा तथा विस्तृत है । उसमें कहीं-कहीं तप्ततैल तथा ताम्रकुण्ड आदि अनेक कुण्ड हैं । उस कुण्डमें बड़े-बड़े पापी अचेत होकर पड़े रहते हैं । भयंकर कीड़ोंके काटनेपर चीत्कार करते हुए वे पापी एक-दूसरेको देखतक नहीं पाते हैं । मूसलों तथा मुद्‌गरोंसे मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए वे क्षण-क्षणमें कभी चक्कर खाने लगते हैं, कभी गिर पड़ते हैं और कभी मूच्छित हो जाते हैं । वे पापी क्षण-प्रतिक्षण यमदूतोंके द्वारा गिराये जानेपर रोने लगते हैं । हे सुन्दरि ! जितने पापी अन्य सभी कुण्डोंमें हैं, उनसे चौगुने पापी केवल इस अति दुःखप्रद कुम्भीपाक नरकमें हैं । दीर्घकालतक यातना पानेपर भी उन भोगदेहोंका विनाश नहीं होता । वह कुम्भीपाक समस्त कुण्डोंमें मुख्य कहा गया है ॥ ८१-८६.५ ॥

कालनिर्मितसूत्रेण निबद्धा यत्र पापिनः ॥ ८७ ॥
उत्थापिताश्च दूतैश्च क्षणमेव निमज्जिताः ।
निःश्वासबद्धाः सुचिरं तथा मोहं गताः पुनः ॥ ८८ ॥
अतीव क्लेशसंयुक्ता देहभोगेन सुन्दरि ।
प्रतप्ततोययुक्तं च कालसूत्रं प्रकीर्तितम् ॥ ८९ ॥
जहाँ कालके द्वारा निर्मित सूत्रसे बँधे हुए प्राणी निवास करते हैं, वे मेरे दूतोंके द्वारा क्षणभरमें ऊपर उठाये जाते हैं तथा क्षणभरमें डुबो दिये जाते हैं । उनकी साँसें बहुत देरतक बन्द रहती हैं, पुनः वे अचेत हो जाते हैं तथा हे सुन्दरि ! देहभोगके कारण पापियोंको जहाँ महान् क्लेश प्राप्त होता हैं तथा जो खौलते जलसे युक्त है, उसे कालसूत्रकुण्ड कहा गया है ॥ ८७-८९ ॥

अवटः कूपभेदश्च मत्स्योदः स उदाहृतः ।
प्रतप्ततोयपूर्णं च चतुर्विंशत्प्रमाणकम् ॥ ९० ॥
व्याप्तं महापातकिभिर्व्यादग्धाङ्‌गैश्च सन्ततम् ।
मद्दूतैस्ताडितैः शश्वदवटोदं प्रकीर्तितम् ॥ ९१ ॥
अवट नामक एक कूप है, उसीको मत्स्योदकुण्ड कहा गया है । चौबीस धनुषके बराबर विस्तारवाला वह कुण्ड प्रतप्त जलसे सदा परिपूर्ण रहता है । मेरे दूतोंके द्वारा निरन्तर पीटे जाते हुए, दग्ध अंगोंवाले महापापियोंसे युक्त उस नरकको अवटोदकुण्ड भी कहा गया है ॥ ९०-९१ ॥

यत्रोदस्पर्शमात्रेण सर्वव्याधिश्च पापिनाम् ।
भवेदकस्मात्पततां यस्मिन्कुण्डे धनुःशते ॥ ९२ ॥
अरुन्तुदैर्भक्षितैस्तु प्राणिभिर्यच्च सङ्‌कुलम् ।
हाहेति शब्दं कुर्वद्‌भिस्तदेवारुन्तुदं विदुः ॥ ९३ ॥
सौ धनुषकी लम्बाईके बराबर विस्तारवाले जिस नरककुण्डके जलका स्पर्श होते ही उसमें अकस्मात् गिरे हुए पापियोंको सभी व्याधियाँ ग्रस्त कर लेती हैं तथा जो अरुन्तुद नामक भयानक कीड़ोंके काटनेसे हाहाकार मचाते हुए पापी जीवोंसे सदा परिपूर्ण रहता है, उसे अरुन्तुदकुण्ड कहा गया है ॥ ९२-९३ ॥

तप्तपांसुभिराकीर्णं ज्वलद्‌भिस्तुषदग्धकैः ।
तद्‍भक्षैः पापिभिर्युक्तं पांसुभोजैर्धनुःशतम् ॥ ९४ ॥
पांसुकुण्ड अत्यन्त तपी हुई धूलसे भरा रहता है । उसका विस्तार सौ धनुषके बराबर है । जलती हुई धूलसे दग्ध त्वचावाले तथा उसी धूलका भक्षण करनेवाले पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ ९४ ॥

पातमात्रेण पापी च पाशेन वेष्टितो भवेत् ।
क्रोशमात्रेण कुण्डं च तत्पाशवेष्टनं विदुः ॥ ९५ ॥
जिसमें गिरते ही पापी पाशसे आवेष्टित हो जाता है तथा जिसका विस्तार कोसभरका है, उसे पाशवेष्टनकुण्ड कहा गया है ॥ ९५ ॥

पातमात्रेण पापी च शूलेन वेष्टितो भवेत् ।
धनुर्विंशत्प्रमाणं च शूलप्रोतं प्रकीर्तितम् ॥ ९६ ॥
जिसमें गिरते ही पापी शूलसे जकड़ उठता है तथा जिसका विस्तार बीस धनुषके परिमाणके बराबर है, उसे शूलप्रोतकुण्ड कहा गया है ॥ ९६ ॥

पततां पापिनां यत्र भवेदेव प्रकम्पनम् ।
अतीव हिमतोयाक्तं क्रोशार्धं च प्रकम्पनम् ॥ ९७ ॥
जिस नरककुण्डमें गिरनेवाले पापियोंके शरीरमें कैंपकैंपी उठने लगती है, उसे प्रकम्पनकुण्ड कहा जाता है । आधे कोसके विस्तारवाला वह कुण्ड सदा बर्फके समान अत्यन्त शीतल जलसे भरा रहता है ॥ ९७ ॥

ददत्येव हि मे दूता यत्रोल्काः पापिनां मुखे ।
धनुर्विंशत्प्रमाणं तदुल्काभिश्च सुसङ्‌कुलम् ॥ ९८ ॥
जिस नरकमें रहनेवाले पापियोंके मुखमें मेरे दूत जलती हुई लकड़ी डाल देते हैं, वह उल्कामुखकुण्ड है । जलती हुई लकड़ियोंसे युक्त उस कुण्डका विस्तार बीस धनुषके बराबर है ॥ ९८ ॥

लक्षपौरुषमानं च गम्भीरं च धनुःशतम् ।
नानाप्रकारकृमिभिः संयुक्तं च भयानकम् ॥ ९९ ॥
अत्यन्धकारव्याप्तं च कूपाकारं च वर्तुलम् ।
तद्‍भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं प्रणश्यद्‌भिः परस्परम् ॥ १०० ॥
तप्ततोयप्रदग्धैश्च ज्वलद्‌भिः कीटभक्षितैः ।
ध्वान्तेन चक्षुषा चान्धैरन्धकूपः प्रकीर्तितः ॥ १०१ ॥
एक लाख पोरसेके बराबर गहरे, सौ धनुषके बराबर विस्तृत, भयानक, अनेक प्रकारके कीड़ोंसे युक्त, कुएँके समान गोलाकार तथा सदा अन्धकारसे व्याप्त नरकको अन्धकूप कहा गया है । वह कीड़ोंके काटनेपर परस्पर लड़नेवाले, खौलते हुए जलसे दग्ध शरीरवाले, कीड़ोंके द्वारा निरन्तर काटे जाते हुए और अन्धकारके कारण नेत्रोंसे देखनेमें असमर्थ पापियोंसे युक्त रहता है । ९९-१०१ ॥

नानाप्रकारशस्त्रौघैर्यत्र विद्धाश्च पापिनः ।
धनुर्विंशत्प्रमाणं च वेधनं तत्प्रकीर्तितम् ॥ १०२ ॥
जहाँ पापियोंको अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे वेधा जाता है तथा जिसका विस्तार बीस धनुषके प्रमाणके बराबर है, उसे वेधनकुण्ड कहा गया है ॥ १०२ ॥

दण्डेन ताडिता यत्र मम दूतैश्च पापिनः ।
धनुःषोडशमानं च तत्कुण्डं दण्डताडनम् ॥ १०३ ॥
जहाँ मेरे दूतोंके द्वारा पापीलोग पीटे जाते हैं तथा जो सोलह धनुषोंके प्रमाणवाला है, वह दण्डताडनकुण्ड है ॥ १०३ ॥

निरुद्धाश्च महाजालैर्यथा मीनाश्च पापिनः ।
धनुर्विंशत्प्रमाणं च जालरन्ध्रं प्रकीर्तितम् ॥ १०४ ॥
जहाँ जाते ही पापी मछलियोंकी भाँति बड़े-बड़े जालोंमें फँस जाते हैं तथा जो बीस धनुषोंके प्रमाणवाला है, वह जालरन्ध्रकुण्ड कहा गया है । १०४ ॥

पततां पापिनां कुण्डे देहश्चूर्णो भवेदिह ।
लोहबन्दीनिबद्धानां कोटिपौरुषमानकम् ॥ १०५ ॥
गम्भीरं ध्वान्तसंयुक्तं धनुर्विंशत्प्रमाणकम् ।
मूर्च्छितानां जडानां च देहचूर्णं प्रकीर्तितम् ॥ १०६ ॥
जिस कुण्डमें गिरनेवाले पापियोंकी देह चूर-चूर हो जाती है, जहाँके पापियोंके पैरमें लोहेकी बेड़ियाँ पड़ी रहती हैं,जो करोड़ पोरसा गहरा तथा बीस धनुषके बराबर विस्तृत है, जो पूर्णरूपसे अन्धकारसे व्याप्त है तथा जहाँ पापी जीव मूच्छित होकर जड़की भाँति पड़े रहते हैं-उसे देहचूर्णकुण्ड कहा गया है ॥ १०५-१०६ ॥

दलिताः पापिनो यत्र मम दूतैश्च ताडिताः ।
धनुःषोडशमानं च तत्कुण्डं दलनं स्मृतम् ॥ १०७ ॥
जहाँ मेरे दूत पापियोंको कुचलते तथा पीटते हैं तथा जो सोलह धनुषके विस्तारमें है, उसे दलनकुण्ड कहा गया है ॥ १० ॥

पतनेनैव पापी च शुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
बालुकासु च तप्तासु धनुस्त्रिंशत्प्रमाणकम् ॥ १०८ ॥
शतपौरुषमानं च गम्भीरं ध्वान्तसंयुतम् ।
शोषणं कुण्डमेतद्धि पापिनां परदुःखदम् ॥ १०९ ॥
प्रतप्त बालूसे व्याप्त होनेके कारण जहाँ गिरते ही पापीके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं; जो तीस धनुषके परिमाणके विस्तारवाला तथा सौ पोरसा गहरा है, जो सदा अन्धकारसे आच्छादित रहता है तथा पापियोंको महान् कष्ट पहुँचानेवाला है, उसे शोषणकुण्ड कहा गया है ॥ १०८-१०९ ॥

नानाचर्मकषायोदपरिपूर्णं धनुःशतम् ।
दुर्गन्धियुक्ततद्‍भक्ष्यैः प्राणिभिः सङ्‌कुलं कषम् ॥ ११० ॥
जो अनेक प्रकारके चोंके कषाय (कसैले) जलसे परिपूर्ण रहता है, जिसका विस्तार सौ धनुषके बराबर है, जो दुर्गन्धसे भरा रहता है तथा जो चमड़ेके आहारपर रहनेवाले पापियोंसे सदा पूरित रहता है, उसे कषकुण्ड कहा गया है ॥ ११० ॥

शूर्पाकारमुखं कुण्डं धनुर्द्वादशमानकम् ।
तप्तलोहबालुकाभिः पूर्णं पातकिसंयुतम् ॥ १११ ॥
दुर्गन्धियुक्तं तद्‍भक्ष्यैः पापिभिः सङ्‌कुलं सति ।
शूर्पाकारमुखं कुण्डं धनुर्द्वादशमात्रकम् ॥ ११२ ॥
हे साध्वि ! जिस कुण्डका मुख सूपके आकारका है, जिसका विस्तार बारह धनुषके बराबर है, जो तपते हुए लौहकणोंसे व्याप्त रहता है, जहाँ सर्वत्र पापी भरे रहते हैं, जो दुर्गन्धसे परिपूर्ण रहता है तथा जो उसी लोहबालुकाका भक्षण करनेवाले पापियोंसे भरा रहता है, उसे शूर्पकुण्ड कहा जाता है ॥ १११-११२ ॥

प्रतप्तबालुकापूर्णं महापातकिभिर्युतम् ।
अन्तरग्निशिखानां च ज्वालाव्याप्तमुखं सदा ॥ ११३ ॥
धनुर्विंशतिमात्रं च प्रमाणं यस्य सुन्दरि ।
ज्वालाभिर्दग्धगात्रैश्च पापिभिर्व्याप्तमेव च ॥ ११४ ॥
तन्महाक्लेशदं शश्वत्कुण्डं ज्वालामुखं स्मृतम् ।
हे सुन्दरि ! जो प्रतप्त बालूसे भरा रहता है, महान् पापियोंसे युक्त रहता है, जिसके भीतर आगकी लपटें उठती रहती हैं, जिसका मुखभाग ज्वालाओंसे सदा व्याप्त रहता है, जिसका विस्तार बीस धनुषके बराबर है, जो ज्वालाओंसे दग्ध शरीरवाले पापियोंसे सदा पूरित रहता है, निरन्तर महान् कष्ट प्रदान करनेवाले उस कुण्डको ज्वालामुखकुण्ड कहा गया है ॥ ११३-११४.५ ॥

पातमात्राद्यत्र पापी मूर्च्छितो वै नरो भवेत् ॥ ११५ ॥
तप्तेष्टकाभ्यन्तरितं वाप्यर्धं जिह्मकुण्डकम् ।
धूमान्धकारसंयुक्तं धूम्रान्धैः पापिभिर्युतम् ॥ ११६ ॥
धनुःशतं श्वासरन्ध्रैर्धूम्रान्धं परिकीर्तितम् ।
पातमात्राद्यत्र पापी नागैश्च वेष्टितो भवेत् ॥ ११७ ॥
धनुःशतं नागपूर्णं तन्नागैर्वेष्टितं भवेत् ।
षडशीति च कुण्डानि मयोक्तानि निशामय ।
लक्षणं चापि तेषां च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११८ ॥
जिसमें गिरते ही पापी मनुष्य मूच्छित हो जाता है, जिसका भीतरी भाग तपती हुई ईंटोंसे युक्त है, जो आधी बावड़ीके विस्तारवाला है, वह जिहाकुण्ड है । धुएँके कारण अन्धकारसे युक्त, धूम्रसे अन्धे हो जानेवाले पापियोंसे सदा भरे रहनेवाले, सौ धनुषके बराबर परिमाणवाले तथा श्वास लेनेहेतु बहुतसे छिद्रोंसे युक्त नरककुण्डको धूम्रान्धकुण्ड कहा गया है । जहाँ जाते ही पापी नागोंके द्वारा लपेट लिये जाते हैं, जो सौ धनुषके तुल्य परिमाणवाला है तथा जो नागोंसे सदा परिपूर्ण रहता है, उसे नागवेष्टनकुण्ड कहा गया है । [हे सावित्रि !] सुनो, मैंने इन छियासी नरककुण्डों तथा इनके लक्षणोंका वर्णन कर दिया; अब तुम क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ११५-११८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादप्तसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
नानानरककुण्डवर्णनं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
इति श्रीमदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्ये नारायणनारदसंवादे नानानरककुण्डवर्णनं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥


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