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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
अष्टत्रिंशोऽध्यायः

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सावित्र्युपाख्यानवर्णनम् -
धर्मराजका सावित्रीसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना -


सावित्र्युवाच
देवीभक्तिं देहि मह्यं साराणां चैव सारकम् ।
पुंसां मुक्तिद्वारबीजं नरकार्णवतारकम् ॥ १ ॥
कारणं मुक्तिसाराणां सर्वाशुभविनाशनम् ।
दारकं कर्मवृक्षाणां कृतपापौघहारणम् ॥ २ ॥
सावित्री बोली-[हे प्रभो !] आप मुझे भगवतीकी भक्ति प्रदान कीजिये; वह देवीभक्ति समस्त तत्त्वोंका तत्त्व, मनुष्योंके लिये मुक्तिद्वारका मूल कारण, नरकरूपी समुद्रसे तारनेवाली, मुक्तिके तत्त्वोंका आधार, सभी अशुभोंका नाश करनेमें समर्थ, समस्त कर्मवृक्षोंको काटनेवाली तथा मनुष्यके द्वारा किये गये पापोंका हरण करनेवाली है ॥ १-२ ॥

मुक्तिश्च कतिथाप्यस्ति किं वा तासां च लक्षणम् ।
देवीभक्तिं भक्तिभेदं निषेकस्यापि खण्डनम् ॥ ३ ॥
तत्त्वज्ञानविहीना च स्त्रीजातिर्विधिनिर्मिता ।
किञ्चिञ्ज्ञानं सारभूतं वद वेदविदां वर ॥ ४ ॥
[हे भगवन् !] मुक्ति कितने प्रकारकी होती है और उनके क्या लक्षण हैं ? देवीभक्तिके स्वरूप, भक्तिके भेद तथा किये हुए कर्मोंके भोगके नाशके विषयमें मुझे बताइये । हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! ब्रह्माके द्वारा निर्मित स्त्रीजाति तत्त्वज्ञानसे रहित होती है, अत: आप संक्षेपमें मुझे सारभूत बात बताइये ॥ ३-४ ॥

सर्वं दानं च यज्ञश्च तीर्थस्नानं व्रतं तपः ।
अज्ञानिज्ञानदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ५ ॥
पितुः शतगुणा माता गौरवे चेति निश्चितम् ।
मातुः शतगुणः पूज्यो ज्ञानदाता गुरुः प्रभो ॥ ६ ॥
हे प्रभो ! दान, यज्ञ, तीर्थ, स्नान, व्रत और तपये सब अज्ञानी मनुष्यको ज्ञान देनेसे होनेवाले पुण्यफलकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं । पिताकी अपेक्षा माता सौ गुनी श्रेष्ठ हैं, यह निश्चित है, किंतु ज्ञान प्रदान करनेवाला गुरु मातासे भी सौ गुना अधिक श्रेष्ठ होता है ॥ ५-६ ॥

धर्मराज उवाच
पूर्वं सर्वो वरो दत्तो यस्ते मनसि वाञ्छितः ।
अधुना शक्तिभक्तिस्ते वत्से भवतु मद्वरात् ॥ ७ ॥
धर्मराज बोले-हे वत्से ! तुम्हारे मनमें पहले जो भी अभिलषित वर था, वह सब मैं दे चुका हूँ, अब जो तुम भगवतीकी भक्ति चाहती हो, वह भी मेरे वरके प्रभावसे तुम्हें प्राप्त हो जाय ॥ ७ ॥

श्रोतुमिच्छसि कल्याणि श्रीदेवीगुणकीर्तनम्।
वक्तॄणां पृच्छकानां च श्रोतॄणां कुलतारणम् ॥ ८ ॥
हे कल्याणि ! तुम जो श्रीदेवीका गुणकीर्तन सुनना चाहती हो, वह उसे करनेवाले, सुननेवाले तथा इसके विषयमें पूछनेवाले–इन सभीके कुलका उद्धार कर देता है । ॥ ८ ॥

शेषो वक्त्रसहस्रेण नहि यद्वक्तुमीश्वरः ।
मृत्युञ्जयो न क्षमश्च वक्तुं पञ्चमुखेन च ॥ ९ ॥
भगवान् शेषनाग अपने हजार मुखोंसे उसे बता नहीं सकते और मृत्युंजय महादेव भी अपने पाँच मुखसे उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं ॥ ९ ॥

धाता चतुर्णां वेदानां विधाता जगतामपि ।
ब्रह्मा चतुर्मुखेनैव नालं विष्णुश्च सर्ववित् ॥ १० ॥
चारों वेदोंकी उत्पत्ति तथा सम्पूर्ण लोकोंका विधान करनेवाले ब्रह्मा अपने चार मुखोंसे उसका वर्णन नहीं कर सकते, उसी प्रकार सर्वज्ञ विष्णु भी उसका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ १० ॥

कार्तिकेयः षण्मुखेन नापि वक्तुमलं ध्रुवम् ।
न गणेशः समर्थश्च योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ ११ ॥
भगवान् कार्तिकेय अपने छः मुखोंसे उसका वर्णन नहीं कर सकते और योगीश्वरोंके गुरुके भी गुरु श्रीगणेश भी भगवतीकी महिमाका वर्णन कर सकने में समर्थ नहीं हैं-यह निश्चित है ॥ ११ ॥

सारभूताश्च शास्त्राणां वेदाश्चत्वार एव च ।
कलामात्रं यद्‌गुणानां न विदन्ति बुधाश्च ये ॥ १२ ॥
सम्पूर्ण शास्त्रोंके सारभूत चारों वेद तथा उन्हें जाननेवाले जो विद्वान् हैं-ये सब उन भगवतीके गुणोंकी एक कलातकको नहीं जानते ॥ १२ ॥

सरस्वती जडीभूता नालं तद्‌गुणवर्णने ।
सनत्कुमारो धर्मश्च सनन्दनः सनातनः ॥ १३ ॥
सनकः कपिलः सूर्यो येऽन्ये च ब्रह्मणः सुताः ।
विचक्षणा न यद्वक्तुं किञ्चान्ये जडबुद्धयः ॥ १४ ॥
सरस्वती भी जड़के समान होकर उन भगवतीके गुणोंका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं । सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, धर्म, कपिल तथा सूर्य-ये लोग तथा ब्रह्माजीके अन्य बुद्धिमान् पुत्रगण भी उनकी महिमाका वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं, तो फिर अन्य जड़बुद्धिवाले लोगोंकी बात ही क्या ! ॥ १३-१४ ॥

न यद्वक्तुं क्षमाः सिद्धा मुनीन्द्रा योगिनस्तथा ।
के चान्ये च वयं के वा श्रीदेव्या गुणवर्णने ॥ १५ ॥
श्रीदेवीके जिन गुणोंका वर्णन करनेमें सिद्ध, मुनीन्द्र तथा योगीजन भी समर्थ नहीं हैं, उनका वर्णन करनेमें हम तथा अन्य लोग भला किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं ? ॥ १५ ॥

ध्यायन्ते यत्पदाम्भोजं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
अतिसाध्यं स्वभक्तानां तदन्येषां सुदुर्लभम् ॥ १६ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवगण भगवतीके जिस चरणकमलका ध्यान करते हैं, वह उनके भक्तोंके लिये तो अति सुगम है, किंतु अन्य लोगोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १६ ॥

कश्चित्किञ्चिद्विजानाति तद्‌गुणोत्कीर्तनं शुभम् ।
अतिरिक्तं विजानाति ब्रह्मा ब्रह्मविशारदः ॥ १७ ॥
ततोऽतिरिक्तं जानाति गणेशो ज्ञानिनां गुरुः ।
सर्वातिरिक्तं जानाति सर्वज्ञः शम्भुरेव सः ॥ १८ ॥
कोई व्यक्ति उन भगवतीके पवित्र गुणकीर्तनको कुछ कुछ जान सकता है, किंतु ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजी उससे अधिक जानते हैं । ज्ञानियोंके भी गुरु गणेशजी उन ब्रह्मासे भी कुछ विशेष जानते हैं और सब कुछ जाननेवाले भगवान् शिव सबसे अधिक जानते हैं ॥ १७-१८ ॥

तस्मै दत्तं पुरा ज्ञानं कृष्णेन परमात्मना ।
अतीव निर्जनेऽरण्ये गोलोके रासमण्डले ॥ १९ ॥
पूर्वकालमें गोलोकमें अत्यन्त निर्जन वनमें रासमण्डलके मध्य परमेश्वर श्रीकृष्णने उन शिवको ज्ञान प्रदान किया था । वहींपर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें भगवतीके कुछ पवित्र गुण बताये थे ॥ १९ ॥

तत्रैव कथितं किञ्चित्तद्‌गुणोत्कीर्तनं शुभम् ।
धर्मं च कथयामास शिवलोके शिवः स्वयम् ॥ २० ॥
धर्मस्तु कथयामास भास्वते पृच्छते तथा ।
यामाराध्य मत्पितापि सम्प्राप तपसा सति ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् स्वयं भगवान् शिवने शिवलोकमें धर्मके प्रति उसका उपदेश किया था । उसके बाद सूर्यके पूछनेपर धर्मने उनसे भगवतीके गुणोंका वर्णन किया था । हे साध्वि ! मेरे पिता सूर्यने भी तपस्याके द्वारा उन देवीकी आराधना करके उस ज्ञानको प्राप्त किया था ॥ २०-२१ ॥

पूर्वं स्वं विषयं चाहं न गृह्णामि प्रयत्‍नतः ।
वैराग्ययुक्तस्तपसे गन्तुमिच्छामि सुव्रते ॥ २२ ॥
तदा मां कथयामास पिता तद्‌गुणकीर्तनम् ।
यथागमं तद्वदामि निबोधातीव दुर्गमम् ॥ २३ ॥
हे सुव्रते ! पूर्वसमयमें मेरे पिताजी यत्नपूर्वक मुझे अपना राज्य देना चाहते थे, किंतु मैंने स्वीकार नहीं किया । उस समय वैराग्ययुक्त होनेके कारण मैं तपस्याके लिये जाना चाहता था । तब पिताजीने मेरे सामने भगवतीके गुणोंका वर्णन किया । उस समय मैंने उनसे जो प्राप्त किया, उसी परम दुर्लभ तत्त्वको तुम्हें बता रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो ॥ २२-२३ ॥

तद्‌गुणं सा न जानाति तदन्यस्य च का कथा ।
यथाकाशो न जानाति स्वान्तमेव वरानने ॥ २४ ॥
हे वरानने ! जैसे आकाश अपना ही अन्त नहीं जानता, उसी प्रकार वे भगवती भी अपने सभी गुण नहीं जानतीं, तो अन्य व्यक्तिकी बात ही क्या है ! ॥ २४ ॥

सर्वात्मा सर्वभगवान् सर्वकारणकारणः ।
सर्वेश्वरश्च सर्वाद्यः सर्ववित्परिपालकः । २५
नित्यरूपी नित्यदेही नित्यानन्दो निराकृतिः ।
निरङ्‌कुशो निराशङ्‌को निर्गुणश्च निरामयः ॥ २६ ॥
निर्लिप्तः सर्वसाक्षी च सर्वाधारः परात्परः ।
मायाविशिष्टः प्रकृतिस्तद्विकाराश्च प्राकृताः ॥ २७ ॥
सर्वात्मा, सबके भगवान्, सभी कारणोंके भी कारण, सर्वेश्वर, सबके आदिरूप, सर्वज्ञ, परिपालक, नित्यस्वरूप, नित्य देहवाले, नित्यानन्द, निराकार, स्वतन्त्र, निराशंक, निर्गुण, निर्विकार, अनासक्त, सर्वसाक्षी, सर्वाधार, परात्पर तथा मायाविशिष्ट परमात्मा ही मूलप्रकृतिके रूपमें अभिव्यक्त हो जाते हैं; सभी प्राकृत पदार्थ उन्हींसे आविर्भूत हैं ॥ २५-२७ ॥

स्वयं पुमांश्च प्रकृतिस्तावभिन्नौ परस्परम् ।
यथा वह्नेस्तस्य शक्तिर्न भिन्नास्त्येव कुत्रचित् ॥ २८ ॥
स्वयं परम पुरुष ही प्रकृति हैं । वे दोनों परस्पर उसी प्रकार अभिन्न हैं, जैसे अग्निसे उसकी शक्ति कुछ भी भिन्न नहीं है ॥ २८ ॥

सेयं शक्तिर्महामाया सच्चिदानन्दरूपिणी ।
रूपं बिभर्त्यरूपा च भक्तानुग्रहहेतवे ॥ २९ ॥
वे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी शक्ति महामाया हैं । वे निराकार होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये रूप धारण करती हैं ॥ २९ ॥

गोपालसुन्दरीरूपं प्रथमं सा ससर्ज ह ।
अतीव कमनीयं च सुन्दरं सुमनोहरम् ॥ ३० ॥
नवीननीरदश्यामं किशोरं गोपवेषकम् ।
कन्दर्पकोटिलावण्यं लीलाधाममनोहरम् ॥ ३१ ॥
शरन्मध्याह्नपद्मानां शोभामोचनलोचनम् ।
शरत्पार्वणकोटीन्दुशोभाप्रच्छादनाननम् ॥ ३२ ॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणनानाभूषणभूषितम् ।
सस्मितं शोभितं शश्वदमूल्यपीतवाससा ॥ ३३ ॥
परब्रह्मस्वरूपं च ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ।
सुखदृश्यं च शान्तं च राधाकान्तमनन्तकम् ॥ ३४ ॥
गोपीभिर्वीक्ष्यमाणं च सस्मिताभिश्च सन्ततम् ।
रासमण्डलमध्यस्थं रत्‍नसिंहासनस्थितम् ॥ ३५ ॥
वंशीं क्वणन्तं द्विभुजं वनमालाविभूषितम् ।
कौस्तुभेन्द्रमणीन्द्रेण शश्वद्वक्षःस्थलोज्ज्वलम् ॥ ३६ ॥
कुङ्‌कुमागुरुकस्तुरीचन्दनार्चितविग्रहम् ।
चारुचम्पकमालाक्तं मालतीमाल्यमण्डितम् ॥ ३७ ॥
चारुचन्द्रकशोभाढ्यं चूडावङ्‌क्रिमराजितम् ।
एवंभूतं च ध्यायन्ति भक्ता भक्तिपरिप्लुताः ॥ ३८ ॥
उन भगवतीने सर्वप्रथम गोपालसुन्दरीका रूप धारण किया था । वह रूप अत्यन्त कोमल, सुन्दर तथा मनोहर था । किशोर गोपवेषवाला वह रूप नवीन मेघके समान श्यामवर्णका था । वह करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर था, वह मनोहर लीलाधामस्वरूप था, उस विग्रहके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्नकालीन कमलोंकी शोभाको तुच्छ बना देनेवाले थे, मुख शरत्पूर्णिमाके करोड़ों चन्द्रमाकी शोभाको तिरस्कृत कर देनेवाला था, अमूल्य रत्नोंसे निर्मित अनेक प्रकारके आभूषणोंसे उनका विग्रह सुशोभित था, मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाला वह विग्रह निरन्तर अमूल्य पीताम्बरसे शोभित हो रहा था, परब्रह्मस्वरूप वह विग्रह ब्रह्मतेजसे प्रकाशित था, वह रूप देखनेमें बड़ा ही सुखकर था, वह शान्तरूप राधाको अत्यधिक प्रसन्न करनेवाला था, मुसकराती हुई गोपियाँ उस रूपको निरन्तर निहार रही थीं, वह भगवदविग्रह रासमण्डलके मध्य रत्नजटित सिंहासनपर विराजमान था, उनकी दो भुजाएँ थीं, वे वंशी बजा रहे थे, उन्होंने वनमाला धारण कर रखी थी, उनके वक्षःस्थलपर मणिराज श्रेष्ठ कौस्तुभमणि निरन्तर प्रकाशित हो रही थी, उनका विग्रह कुमकुमअगुरु कस्तूरीसे मिश्रित दिव्य चन्दनसे लिप्त था, वह चम्पा और मालतीकी मनोहर मालाओंसे सुशोभित था, वह कान्तिमान् चन्द्रमाकी शोभासे परिपूर्ण तथा मनोहर चूडामणिसे सुशोभित था । भक्तिरससे आप्लावित भक्तजन उनके इसी रूपका ध्यान करते हैं ॥ ३०-३८ ॥

यद्‍भयाज्जगता धाता विधत्ते सृष्टिमेव च ।
कर्मानुसाराल्लिखितं करोति सर्वकर्मणाम् ॥ ३९ ॥
तपसां फलदाता च कर्मणां च यदाज्ञया ।
विष्णुः पाता च सर्वेषां यद्‍भयात्पाति सन्ततम् ॥ ४० ॥
कालाग्निरुद्रः संहर्ता सर्वविश्वेषु यद्‍भयात् ।
शिवो मृत्युञ्जयश्चैव ज्ञानिनां च गुरोर्गुरुः ॥ ४१ ॥
यज्ज्ञानाज्ज्ञानवानस्ति योगीशो ज्ञानवित्प्रभुः ।
परमानन्दयुक्तश्च भक्तिवैराग्यसंयुतः ॥ ४२ ॥
जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्मा उन्हींके भयसे सृष्टिका विधान करते हैं तथा कर्मानुसार सभी प्राणियोंके कर्मोंका उल्लेख करते हैं और उन्हींकी आज्ञासे वे मनुष्योंको तपों तथा कर्मोका फल देते हैं । उन्होंके भयसे सभी प्राणियोंके रक्षक भगवान् विष्णु सदा रक्षा करते हैं और उन्हींके भयसे कालाग्निके समान भगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं । ज्ञानियोंके गुरुके भी गुरु मृत्युंजय शिव उसी परब्रह्मरूप विग्रहको जान लेनेपर ज्ञानवान्, योगीश्वर, ज्ञानविद्, परम आनन्दसे परिपूर्ण तथा भक्ति-वैराग्यसे सम्पन्न हो सके हैं ॥ ३९-४२ ॥

यद्‍भयाद्वाति पवनः प्रवरः शीघ्रगामिनाम् ।
तपनश्च प्रतपति यद्‍भयात्सन्ततं सति ॥ ४३ ॥
हे साध्वि ! उन्हींके भयसे तीव्र चलनेवालोंमें प्रमुख पवनदेव प्रवाहित होते हैं और उन्हींके भयसे सूर्य निरन्तर तपते रहते हैं ॥ ४३ ॥

यदाज्ञया वर्षतीन्द्रो मृत्युश्चरति जन्तुषु ।
यदाज्ञया दहेद्वह्निर्जलमेवं सुशीतलम् ॥ ४४ ॥
उन्हींकी आज्ञासे इन्द्र वृष्टि करते हैं, मृत्यु प्राणियोंपर अपना प्रभाव डालती है, उन्हींको आज्ञासे अग्नि जलाती है और जल शीतल करता है ॥ ४४ ॥

दिशो रक्षन्ति दिक्पाला महाभीता यदाज्ञया ।
भ्रमन्ति राशिचक्राणि ग्रहाश्च यद्‍भयेन च ॥ ४५ ॥
उन्हींक आदेशसे भयभीत दिक्पालगण दिशाओंकी रक्षा करते हैं और उन्हींके भयसे ग्रह तथा राशियाँ अपने मार्गपर परिभ्रमण करती हैं ॥ ४५ ॥

भयात्फलन्ति वृक्षाश्च पुष्यन्त्यपि च यद्‍भयात् ।
यदाज्ञां तु पुरस्कृत्य कालः काले हरेद्‍भयात् ॥ ४६ ॥
उन्हींके भयसे वृक्ष फलते तथा फूलते हैं और उन्हींकी आज्ञा स्वीकार करके भयभीत काल निश्चित समयपर प्राणियोंका संहार करता है ॥ ४६ ॥

तथा जलस्थलस्थाश्च न जीवन्ति यदाज्ञया ।
अकाले नाहरेद्विद्धं रणेषु विषमेषु च ॥ ४७ ॥
उनकी आज्ञाके बिना जल तथा स्थलमें रहनेवाले कोई भी प्राणी जीवन धारण नहीं कर सकते और संग्राममें आहत तथा विषम स्थितियोंमें पड़े प्राणीकी भी अकाल मृत्यु नहीं होती ॥ ४७ ॥

धत्ते वायुस्तोयराशिं तोयं कूर्मं तदाज्ञया ।
कूर्मोऽनन्तं स च क्षोणीं समुद्रान् सा च पर्वतान् ॥ ४८ ॥
सर्वा चैव क्षमारूपा नानारत्‍नं बिभर्ति या ।
यतः सर्वाणि भूतानि स्थीयन्ते हन्ति तत्र हि ॥ ४९ ॥
उन्हींकी आज्ञासे वायु जलराशिको, जल कच्छपको, कच्छप शेषनागको, शेष पृथ्वीको और पृथ्वी सभी समुद्रों तथा पर्वतोंको धारण किये रहती है । जो सब प्रकारसे क्षमाशालिनी हैं, वे पृथ्वी उन्हींकी आज्ञासे नानाविध रत्नोंको धारण करती हैं । उन्हींकी आज्ञासे पृथ्वीपर सभी प्राणी रहते हैं तथा नष्ट होते हैं ॥ ४८-४९ ॥

इन्द्रायुश्चैव दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ।
अष्टाविंशे शक्रपाते ब्रह्मणश्च दिवानिशम् ॥ ५० ॥
एवं त्रिंशद्दिनैर्मासो द्वाभ्यामाभ्यामृतुः स्मृतः ।
ऋतुभिः षड्भिरेवाब्दं ब्रह्मणो वै वयः स्मृतम् ॥ ५१ ॥
[हे साध्वि !] देवताओंके इकहत्तर युगोंकी इन्द्रकी आयु होती है । ऐसे अद्वाईस इन्द्रोंके समाप्त होनेपर ब्रह्माका एक दिन-रात होता है । ऐसे तीस दिनोंका एक महीना होता है और इन्हीं दो महीनोंकी एक ऋतु कही गयी है । इन्हीं छ: ऋतुओंका एक वर्ष होता है और ऐसे (सौ वर्षों)-की ब्रह्माकी आयु कही गयी है ॥ ५०-५१ ॥

ब्रह्मणश्च निपाते च चक्षुरुन्मीलनं हरेः ।
चक्षुरुन्मीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ॥ ५२ ॥
प्रलये प्राकृते सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ।
लीना धाता विधाता च श्रीकृष्णनाभिपङ्‌कजे ॥ ५३ ॥
ब्रह्माकी आयु समाप्त होनेपर श्रीहरि आँखें मैंद लेते हैं । श्रीहरिके आँखें मूंद लेनेपर प्राकृत प्रलय हो जाता है । उस प्राकृतिक प्रलयके समय समस्त चराचर प्राणी, देवता, विष्णु तथा ब्रह्मा-ये सब श्रीकृष्णके नाभिकमलमें लीन हो जाते हैं ॥ ५२-५३ ॥

विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ५४ ॥
यस्य ज्ञाने शिवो लीनो ज्ञानाधीशः सनातनः ।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्वशक्तयः ॥ ५५ ॥
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च ॥ ५६ ॥
क्षीरसागरमें शयन करनेवाले तथा वैकुण्ठवासी चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु प्रलयके समय परमात्मा श्रीकृष्णके वाम पार्श्वमें विलीन होते हैं । ज्ञानके अधिष्ठाता सनातन शिव उनके ज्ञानमें विलीन हो जाते हैं । सभी शक्तियाँ विष्णुमाया दुर्गामें समाविष्ट हो जाती हैं और वे बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवता दुर्गा भगवान् श्रीकृष्णकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो जाती हैं । नारायणके अंश स्वामी कार्तिकेय उनके वक्षःस्थलमें लीन हो जाते हैं ॥ ५४-५६ ॥

श्रीकृष्णांशश्च तद्‌बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः ।
पद्मांशाश्चैव पद्मायां सा राधायां च सुव्रते ॥ ५७ ॥
गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वाश्च देवयोषितः ।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु संस्थिता ॥ ५८ ॥
हे सुव्रते ! श्रीकृष्णके अंशस्वरूप तथा गणोंके स्वामी देवेश्वर गणेश श्रीकृष्णकी दोनों भुजाओंमें समाविष्ट हो जाते हैं । श्रीलक्ष्मीकी अंशस्वरूपा देवियाँ भगवती लक्ष्मीमें तथा वे देवी लक्ष्मी राधामें विलीन हो जाती हैं । इसी प्रकार समस्त गोपिकाएँ तथा देवपत्नियाँ भी उन्हीं श्रीराधामें अन्तर्हित हो जाती हैं और श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधीश्वरी वे राधा उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें अधिष्ठित हो जाती हैं ॥ ५७-५८ ॥

सावित्री च सरस्वत्यां वेदाः शास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां यस्य च परमात्मनः ॥ ५९ ॥
सावित्री तथा जितने भी वेद और शास्त्र हैं, वे सब सरस्वतीमें प्रवेश कर जाते हैं और सरस्वती उन परमात्मा श्रीकृष्णकी जिह्वा में विलीन हो जाती हैं ॥ ५९ ॥

गोलोकस्य च गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु ।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनाः ॥ ६० ॥
जठराग्नौ विलीनाश्च जलं तद्रसनाग्रतः ।
वैष्णवाश्चरणाम्भोजे परमानन्दसंयुताः ॥ ६१ ॥
सारात्सारतरा भक्तिरसपीयूषपायिनः ।
गोलोकके सभी गोप उनके रोमकूपोंमें प्रवेश कर जाते हैं । सभी प्राणियोंकी प्राणवायु उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें, समस्त अग्नियाँ उनकी जठराग्निमें तथा जल उनकी जिहाके अग्रभागमें विलीन हो जाते हैं । सारके भी सारस्वरूप तथा भक्तिरसरूपी अमृतका पान करनेवाले वैष्णवजन परम आनन्दित होकर उनके चरणकमलमें समाहित हो जाते हैं ॥ ६०-६१.५ ॥

विराडंशाश्च महति लीनाः कृष्णे महाविराट् ॥ ६२ ॥
यस्यैव लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।
यस्य चक्षुष उन्मेषे प्राकृतः प्रलयो भवेत् ॥ ६३ ॥
चक्षुरुन्मीलने सृष्टिर्यस्यैव पुनरेव सः ।
यावत्कालो निमेषेण तावदुन्मीलनेन च ॥ ६४ ॥
ब्रह्मणश्च शताब्दे च सृष्टेः सूत्रलयः पुनः ।
ब्रह्मसृष्टिलयानां च संख्या नास्त्येव सुव्रते ॥ ६५ ॥
यथा भूरजसां चैव संख्यानं नैव विद्यते ।
विराट्के अंशस्वरूप क्षुद्रविराट् महाविराट्में और महाविराट् उन श्रीकृष्णमें विलीन हो जाते हैं, जिनके रोमकूपोंमें सम्पूर्ण विश्व समाहित हैं, जिनके आँख मीचनेपर प्राकृतिक प्रलय हो जाता है और जिनके नेत्र खुल जानेपर पुनः सृष्टिकार्य आरम्भ हो जाता है । जितना समय उनके पलक गिरनेमें लगता है, उतना ही समय उनके पलक उठानेमें लगता है । ब्रह्माके सौ वर्ष बीत जानेपर सृष्टिका सूत्रपात और पुनः लय होता है । हे सुव्रते ! जैसे पृथ्वीके रजःकणोंकी संख्या नहीं है, वैसे ही ब्रह्माकी सृष्टि तथा प्रलयकी कोई संख्या नहीं है ॥ ६२-६५.५ ॥

चक्षुर्निमेषे प्रलयो यस्य सर्वान्तरात्मनः ॥ ६६ ॥
उन्मीलने पुनः सृष्टिर्भवेदेवेश्वरेच्छया ।
स कृष्णः प्रलये तस्यां प्रकृतौ लीन एव हि ॥ ६७ ॥
एकैव च परा शक्तिर्निर्गुणः परमः पुमान् ।
सदेवेदमग्र आसीदिति वेदविदो विदुः ॥ ६८ ॥
जिन सर्वान्तरात्मा परमेश्वरकी इच्छासे उनके पलक झपकते ही प्रलय होता है तथा पलक खोलते ही पुनः सृष्टि आरम्भ हो जाती है, वे श्रीकृष्ण प्रलयके समय उन परात्पर मूलप्रकृतिमें लीन हो जाते हैं; उस समय एकमात्र पराशक्ति ही शेष रह जाती है, यही निर्गुण परम पुरुष भी है । यही सत्स्वरूप तत्त्व सर्वप्रथम विराजमान था-ऐसा वेदोंके ज्ञाताओंने कहा है ॥ ६६-६८ ॥

मूलप्रकृतिरव्यक्ताप्यव्याकृतपदाभिधा ।
चिदभिन्नत्वमापन्ना प्रलये सैव तिष्ठति ॥ ६९ ॥
तद्‌गुणोत्कीर्तनं वक्तुं ब्रह्माण्डेषु च कः क्षमः ।
अव्यक्तस्वरूपी मूलप्रकृति 'अव्याकृत' नामसे कही जाती हैं । चैतन्यस्वरूपिणी वे ही केवल प्रलयकालमें विद्यमान रहती हैं । उनके गुणोंका वर्णन करनेमें ब्रह्माण्डमें कौन समर्थ है ? ॥ ६९.५ ॥

मुक्तयश्च चतुर्वेदैर्निरुक्ताश्च चतुर्विधाः ॥ ७० ॥
तत्प्रधाना देवभक्तिर्मुक्तेरपि गरीयसी ।
सालोक्यदा भवेदेका तथा सारूप्यदा परा ॥ ७१ ॥
सामीप्यदाथ निर्वाणप्रदा मुक्तिश्चतुर्विधा ।
भक्तास्ता न हि वाञ्छन्ति विना तत्सेवनं विभोः ॥ ७२ ॥
शिवत्वममरत्वं च ब्रह्मत्वं चावहेलया ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयशोकादिकं धनम् ॥ ७३ ॥
दिव्यरूपधारणं च निर्वाणं मोक्षणं विदुः ।
मुक्तिश्च सेवारहिता भक्तिः सेवाविवर्धिनी ॥ ७४ ॥
भक्तिमुक्त्योरयं भेदो निषेकखण्डनं शृणु ।
चारों वेदोंने चार प्रकारकी मुक्तियाँ बतलायी हैं । भगवान्की भक्ति प्रधान है; क्योंकि वह मुक्तिसे श्रेष्ठ है । एक मुक्ति सालोक्य प्रदान करनेवाली, दूसरी सारूप्य देनेवाली, तीसरी सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाली और चौथी निर्वाण प्रदान करनेवाली है; इस प्रकार मुक्ति चार तरहकी होती है । भक्तजन उन परमात्मप्रभुकी सेवा छोड़कर उन मुक्तियोंकी कामना नहीं करते हैं । वे शिवत्व, अमरत्व तथा ब्रह्मत्वतककी अवहेलना करते हैं । वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, भय, शोक, धन, दिव्यरूप धारण करना, निर्वाण तथा मोक्षकी अवहेलना करते हैं । मुक्ति सेवारहित है तथा भक्ति सेवाभावमें वृद्धि करनेवाली है-भक्ति तथा मुक्तिमें यही भेद है; अब निषेकखण्डनका प्रसंग सुनो ॥ ७०-७४.५ ॥

विदुर्बुधा निषेकं च भोगं च कृतकर्मणाम् ॥ ७५ ॥
तत्खण्डनं च शुभदं श्रीविभोः सेवनं परम् ।
तत्त्वज्ञानमिदं साध्वि स्थिरं च लोकवेदयोः ॥ ७६ ॥
निर्विघ्नं शुभदं चोक्तं गच्छ वत्से यथासुखम् ।
विद्वान् पुरुषोंने निषेक (जन्म) एवं भोगके खण्डनका कल्याणकारी उपाय श्रीप्रभुकी एकमात्र परम सेवाको ही कहा है । हे साध्वि ! यह तत्त्वज्ञान लोक और वेदमें प्रतिष्ठित है । इसे विघ्नरहित तथा शुभप्रद बताया गया है । हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक जाओ ॥ ७५-७६.५ ॥

इत्युक्त्वा सूर्यपुत्रश्च जीवयित्वा च तत्पतिम् ॥ ७७ ॥
तस्यै शुभाशिषं दत्त्वा गमनं कर्तुमुद्यतः ।
दृष्ट्वा यमं च गच्छन्तं सा सावित्री प्रणम्य च ॥ ७८ ॥
रुरोद चरणौ धृत्वा साधुच्छेदेन दुःखिता ।
ऐसा कहकर सूर्यपुत्र धर्मराज उसके पतिको जीवितकर और उसे आशीर्वाद प्रदान करके वहाँसे जानेके लिये उद्यत हो गये । धर्मराजको जाते देखकर सावित्री उन्हें प्रणाम करके उनके दोनों चरण पकड़कर साधुवियोगके कारण उत्पन्न दुःखसे व्याकुल हो रोने लगी ॥ ७७-७८.५ ॥

सावित्रीरोदनं श्रुत्वा यमश्चैव कृपानिधिः ॥ ७९ ॥
तामित्युवाच सन्तुष्टः स्वयं चैव रुरोद ह ।
सावित्रीका विलाप सुनकर कृपानिधि धर्मराज भी स्वयं रोने लगे और सन्तुष्ट होकर उससे इस प्रकार कहने लगे- ॥ ७९.५ ॥

धर्मराज उवाव
लक्षवर्षं सुखं भुक्त्वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ८० ॥
अन्ते यास्यसि तल्लोकं यत्र देवी विराजते ।
धर्मराज बोले-[हे सावित्रि !] तुम पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें एक लाख वर्षतक सुखका भोग करके अन्तमें उस लोकमें जाओगी, जहाँ साक्षात् भगवती विराजमान रहती हैं ॥ ८०.५ ॥

गत्वा च स्वगृहं भद्रे सावित्र्याश्च व्रतं कुरु ॥ ८१ ॥
द्विसप्तवर्षपर्यन्तं नारीणां मोक्षकारणम् ।
ज्येष्ठशुक्लचतुर्दश्यां सावित्र्याश्च व्रतं शुभम् ॥ ८२ ॥
शुक्लाष्टम्यां भाद्रपदे महालक्ष्या यथा व्रतम् ।
द्व्यष्टवर्षं व्रतं चैव प्रत्यादेयं शुचिस्मिते ॥ ८३ ॥
करोति भक्त्या या नारी सा याति च विभोः पदम् ।
हे भद्रे ! अब तुम अपने घर जाओ और स्त्रियोंके लिये मोक्षके कारणरूप सावित्रीव्रतका चौदह वर्षतक पालन करो । ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको किया गया सावित्रीव्रत उसी प्रकार अत्यन्त मंगलकारी होता है, जैसे भाद्रपद महीनेके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको महालक्ष्मीव्रत कल्याणप्रद होता है । हे शुचिस्मिते ! इस महालक्ष्मीव्रतको सोलह वर्षतक करना चाहिये । जो स्त्री इस व्रतका अनुष्ठान करती है, वह भगवान् श्रीहरिके चरणोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेती है ॥ ८१-८३.५ ॥

प्रतिमङ्‌गलवारे च देवीं मङ्‌गलदायिनीम् ॥ ८४ ॥
प्रतिमासं शुक्लषष्ठ्यां षष्ठीं मङ्‌गलदायिनीम् ।
तथा चाषाढसङ्‌क्रान्त्यां मनसां सर्वसिद्धिदाम् ॥ ८५ ॥
प्रत्येक मंगलवारको मंगलकारिणी भगवती मंगलचण्डिकाका व्रत करना चाहिये । प्रत्येक मासकी शुक्लषष्ठीके दिन व्रतपूर्वक मंगलदायिनी देवी षष्ठीकी पूजा करनी चाहिये । उसी प्रकार आषाढ़-संक्रान्तिके अवसरपर समस्त सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली देवी मनसाकी पूजा करनी चाहिये ॥ ८४-८५ ॥

राधां रासे च कार्तिक्यां कृष्णप्राणाधिकप्रियाम् ।
उपोष्य शुक्लाष्टम्यां च प्रतिमासं वरप्रदाम् ॥ ८६ ॥
विष्णुमायां भगवतीं दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् ।
प्रकृतिं जगदम्बां च पतिपुत्रवतीषु च ॥ ८७ ॥
पतिव्रतासु शुद्धासु यन्त्रेषु प्रतिमासु च ।
या नारी पूजयेद्‍भक्त्या धनसन्तानहेतवे ॥ ८८ ॥
इहलोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते श्रीविभोः पदम् ।
एवं देव्या विभूतीश्च पूजयेत्साधकोऽनिशम् ॥ ८९ ॥
सर्वकालं सर्वरूपा संसेव्या परमेश्वरी ।
नातः परतरं किञ्चित्कृतकृत्यत्वदायकम् ॥ ९० ॥
कार्तिकपूर्णिमाको रासके अवसरपर श्रीकृष्णके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय श्रीराधाकी उपासना करनी चाहिये । प्रत्येक मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको उपवासपूर्वक व्रत करके वर प्रदान करनेवाली भगवती दुर्गाकी पूजा करनी चाहिये । पति-पुत्रवती तथा पुण्यमयी पतिव्रताओं, प्रतिमाओं तथा यन्त्रों में दुर्गतिनाशिनी विष्णुमाया भगवती दुर्गाकी भावना करके जो स्त्री धन-सन्तानकी प्राप्तिके लिये भक्तिपूर्वक उनका पूजन करती है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें ऐश्वर्यमयी भगवतीके परम पदको प्राप्त होती है । इस प्रकार साधकको भगवतीकी विभूतियोंकी निरन्तर पूजा करनी चाहिये । उन सर्वरूपा परमेश्वरीकी निरन्तर उपासना करनी चाहिये । इससे बढ़कर कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला और कुछ भी नहीं है ॥ ८६-९० ॥

इत्युक्त्वा तां धर्मराजो जगाम निजमन्दिरम् ।
गृहीत्वा स्वामिनं सा च सावित्री च निजालयम् ॥ ९१ ॥
[हे नारद !] उससे ऐसा कहकर धर्मराज अपने लोकको चले गये और अपने पतिको साथ लेकर सावित्री भी अपने घर चली गयी ॥ ९१ ॥

सावित्री सत्यवांश्चैव प्रययौ च यथागमम् ।
अन्यांश्च कथयामास स्ववृत्तान्तं हि नारद ॥ ९२ ॥
हे नारद ! सावित्री और सत्यवान् जब घरपर आ गये तब सावित्रीने अपने अन्य बन्धु-बान्धवोंसे यह सारा वृत्तान्त कहा ॥ ९२ ॥

सावित्रीजनकः पुत्रान् सम्प्राप्तः प्रक्रमेण च ।
श्वशुरश्चक्षुषी राज्यं सा च पुत्रान् वरेण च ॥ ९३ ॥
लक्षवर्षं सुखं भुक्त्वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
जगाम स्वामिना सार्धं देवीलोकं पतिव्रता ॥ ९४ ॥
धर्मराजके वरके प्रभावसे सावित्रीके पिताने पत्र प्राप्त कर लिये, उसके ससुरकी दोनों आँखें ठीक हो गयीं और उन्हें अपना राज्य मिल गया तथा उस सावित्रीको भी पुत्रोंकी प्राप्ति हुई । इस प्रकार पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें एक लाख वर्षतक सुख भोगकर वह पतिव्रता सावित्री अपने पतिके साथ देवीलोक चली गयी । ९३-९४ ॥

सवितुश्चाधिदेवी या मन्त्राधिष्ठातृदेवता ।
सावित्री ह्यपि वेदानां सावित्री तेन कीर्तिता ॥ ९५ ॥
सविताकी अधिष्ठात्री देवी होने अथवा सूर्यके ब्रह्मप्रतिपादक गायत्री मन्त्रकी अधिदेवता होने तथा सम्पूर्ण वेदोंकी जननी होनेसे ये जगत्में सावित्री नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ ९५ ॥

इत्येवं कथितं वत्स सावित्र्याख्यानमुत्तमम् ।
जीवकर्मविपाकं च किं पुनः श्रोतुमिच्छसि ॥ ९६ ॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने सावित्रीके श्रेष्ठ उपाख्यान तथा प्राणियोंके कर्मविपाकका वर्णन कर दिया, अब आगे क्या सुनना चाहते हो ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
सावित्र्युपाख्यानवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्यानवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥


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