Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
चत्वारिंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


लक्ष्म्युत्पत्तिवर्णनम् -
दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना -


नारद उवाच
नारायणप्रिया सा च परा वैकुण्ठवासिनी ।
वैकुण्ठाधिष्ठातृदेवी महालक्ष्मीः सनातनी ॥ १ ॥
कथं बभूव सा देवी पृथिव्यां सिन्धुकन्यका ।
पुरा केन स्तुताऽऽदौ सा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
नारदजी बोले-[हे भगवन् !] वे श्रेष्ठ महालक्ष्मी भगवान् नारायणकी प्रिया होकर वैकुण्ठमें निवास करती हैं । वे सनातनी भगवती वैकुण्ठकी अधिष्ठात्री देवी हैं । वे महालक्ष्मी पूर्व कालमें पृथ्वीलोकमें सिन्धुकी पुत्री कैसे बनीं और सर्वप्रथम किसके द्वारा उनकी स्तुति की गयी, वह सब मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

श्रीनारायण उवाच
पुरा दुर्वाससः शापाद्‌ भ्रष्टश्रीश्च पुरन्दरः ।
बभूव देवसङ्‌घश्च मर्त्यलोके हि नारद ॥ ३ ॥
लक्ष्मीः स्वर्गादिकं त्यक्त्वा रुष्टा परमदुःखिता ।
गत्वा लीना तु वैकुण्ठे महालक्ष्मीश्च नारद ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! पूर्व कालमें दुर्वासाके शापके कारण इन्द्र श्रीविहीन हो गये थे और सम्पूर्ण देवसमुदाय मृत्युलोकमें भटकने लगा । हे नारद ! तब कुपित लक्ष्मीने स्वर्गका परित्याग करके अत्यन्त दुःखित हो वैकुण्ठलोक पहुँचकर वहाँ महालक्ष्मीमें अपनेको विलीन कर दिया ॥ ३-४ ॥

तदा शोकाद्ययुः सर्वे दुःखिता ब्रह्मणः सभाम् ।
ब्रह्माणं च पुरस्कृत्य ययुर्वैकुण्ठमेव च ॥ ५ ॥
वैकुण्ठे शरणापन्ना देवा नारायणे परे ।
अतीव दैन्ययुक्ताश्च शुष्ककण्ठोष्ठतालुकाः ॥ ६ ॥
उस समय शोकसे संतप्त सभी देवता ब्रह्माकी सभामें गये और वहाँसे ब्रह्माजीको आगे करके वैकुण्ठलोकको गये । वहाँपर सभी देवताओंने भगवान् नारायण श्रीविष्णुकी शरण ग्रहण की । उस समय अत्यन्त दीनतायुक्त सभी देवताओंके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे ॥ ५-६ ॥

तदा लक्ष्मीश्च कलया पुराणपुरुषाज्ञया ।
बभूव सिन्धुकन्या सा सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ॥ ७ ॥
तथा मथित्वा क्षीरोदं देवा दैत्यगणैः सह ।
सम्प्राप्ताश्च महालक्ष्मीं विष्णुस्तां च ददर्श ह ॥ ८ ॥
सुरादिभ्यो वरं दत्त्वा वनमालां च विष्णवे ।
ददौ प्रसन्नवदना तुष्टा क्षीरोदशायिने ॥ ९ ॥
तब पुराणपुरुष भगवान् श्रीहरिकी आज्ञासे वे सर्वसम्पत्तिस्वरूपा लक्ष्मी अपनी कलासे सिन्धुकी कन्या हुई थीं । उस समय सभी देवताओंने दैत्योंके साथ मिलकर समुद्रमन्थन करके महालक्ष्मीकी प्राप्ति की थी । भगवान् विष्णुने महालक्ष्मीको प्रेमपूर्वक देखा । तब प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डलवाली परम सन्तुष्ट भगवती महालक्ष्मीने देवता आदिको वर प्रदान करके क्षीरसागरमें शयन करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुको वनमाला अर्पित कर दी ॥ ७-९ ॥

देवाश्चाप्यसुरग्रस्तं राज्यं प्रापुश्च नारद ।
तां सम्पूज्य च सम्भूय सर्वत्र च निरापदः ॥ १० ॥
हे नारद ! देवताओंने असुरोंके द्वारा अपहत किया गया अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया । तत्पश्चात् उन भगवती महालक्ष्मीकी भलीभाँति पूजा करके वे देवता सब प्रकारसे विपत्तिरहित हो गये ॥ १० ॥

नारद उवाच
कथं शशाप दुर्वासा मुनिश्रेष्ठः कदाचन ।
केन दोषेण वा ब्रह्मन् ब्रह्मिष्ठस्तत्त्ववित्पुरा ॥ ११ ॥
ममन्थुः केनरूपेण जलधिं ते सुरादयः ।
केन स्तोत्रेण वा देवी शक्रं साक्षाद्‌बभूव सा ॥ १२ ॥
को वा तयोश्च संवादो बभूव तद्वद प्रभो ।
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! पूर्वकालमें ब्रह्मनिष्ठ तथा तत्त्वज्ञानी मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाने कब, क्यों और किस अपराधके कारण इन्द्रको शाप दिया था ? उन देवता आदिने किस रूपसे समुद्रका मन्थन किया, किस स्तोत्रसे प्रसन्न होकर भगवती लक्ष्मी इन्द्रके समक्ष प्रकट हुई और उन दोनोंके बीच क्या संवाद हुआ ? हे प्रभो ! यह सब आप मुझे बताइये ॥ ११-१२.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
मधुपानप्रमत्तश्च त्रैलोक्याधिपतिः पुरा ॥ १३ ॥
क्रीडां चकार रहसि रम्भया सह कामुकः ।
कृत्वा क्रीडां तया सार्धं कामुक्या हृतमानसः ॥ १४ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] प्राचीन कालकी बात है-तीनों लोकोंके अधिपति इन्द्र मधुपानसे प्रमत्त और कामासक्त होकर रम्भाके साथ एकान्तमें विहार कर रहे थे । उस कामुकी अप्सराके साथ क्रीडा करनेसे उनका मन मोहित हो गया था । इस प्रकार कामदेवसे मथित मनवाले वे इन्द्र उसी महावनमें स्थित हो गये ॥ १३-१४ ॥

तस्थौ तत्र महारण्ये कामोन्मथितमानसः ।
कैलासशिखरे यान्तं वैकुण्ठादृषिसत्तमम् ॥ १५ ॥
दुर्वाससं ददर्शेन्द्रो ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डसहस्रप्रभमीश्वरम् ॥ १६ ॥
प्रतप्तकाञ्चनाकारं जटाभारमहोज्ज्वलम् ।
शुक्लयज्ञोपवीतं च चीरदण्डौ कमण्डलुम् ॥ १७ ॥
महोज्ज्वलं च तिलकं बिभ्रन्तं चेन्दुसन्निभम् ।
समन्वितं शिष्यलक्षैर्वेदवेदाङ्‌गपारगैः ॥ १८ ॥
उसी समय इन्द्रने वैकुण्ठधामसे कैलासपर्वतकी ओर जाते हुए महर्षि दुर्वासाको देखा । उनका शरीर ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान था, ऐश्वर्यसम्पन्न वे ग्रीष्मऋतुके मध्याह्नकालीन हजारों सूर्योंकी प्रभासे युक्त थे, उनका अत्यन्त स्वच्छ जटाजूट प्रतप्त सुवर्णके समान प्रकाशमान था, वे श्वेतवर्णका यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे, उन्होंने अपने हाथोंमें चीर, दण्ड तथा कमण्डलु धारण कर रखा था, वे अपने ललाटपर चन्द्रमाके समान प्रतीत होनेवाला अत्यन्त उज्ज्वल तिलक धारण किये हुए थे । वेदवेदांगके पारगामी लाखों शिष्य उनके साथ विद्यमान थे ॥ १५-१८ ॥

दृष्ट्वा ननाम शिरसा सम्प्रमत्तः पुरन्दरः ।
शिष्यवर्गं तदा भक्त्या तुष्टाव च मुदान्वितम् ॥ १९ ॥
मुनिना च सशिष्येण दत्तास्तस्मै शुभाशिषः ।
विष्णुदत्तं पारिजातपुष्पं च सुमनोहरम् ॥ २० ॥
उन्हें देखकर अति प्रमत्त इन्द्रने सिर झुकाकर मुनि तथा शिष्यवर्गको प्रणाम किया और प्रसन्न होकर उनकी स्तुति की । तब शिष्योसहित मुनि दुर्वासाने इन्द्रको शुभाशीर्वाद दिया, साथ ही उन्होंने भगवान् विष्णुद्वारा प्रदत्त परम मनोहर पारिजात पुष्प भी उन्हें समर्पित किया ॥ १९-२० ॥

तज्जरारोगमृत्युघ्नं शोकजं मोक्षकारकम् ।
शक्रः पुष्पं गहीत्वा च प्रमत्तो राज्यसम्पदा ॥ २१ ॥
तब बुढ़ापा, रोग, मृत्यु तथा शोकका नाश करनेवाले और मोक्ष प्रदान करनेवाले उस पुष्पको लेकर राज्यसम्पदासे मदोन्मत्त इन्द्रने उसे ऐरावत हाथीके मस्तकपर फेंक दिया ॥ २१ ॥

पुष्पं स न्यस्तयामास तदैव करिमस्तके ।
हस्ती तत्स्पर्शमात्रेण रूपेण च गुणेन च ॥ २२ ॥
तेजसा वयसाकस्माद्विष्णुतुल्यो बभूव ह ।
त्यक्त्वा शक्रं गजेन्द्रश्च जगाम घोरकाननम् ॥ २३ ॥
न शशाक महेन्द्रस्तं रक्षितुं तेजसा मुने ।
उस पुष्पका स्पर्श होते ही वह ऐरावत हाथी रूप, गुण, तेज तथा आयुमें अकस्मात् भगवान् विष्णुके तुल्य हो गया । तब इन्द्रको छोड़कर वह गजराज घोर वनमें चला गया । हे मुने ! अपने तेजोबलसे सम्पन्न इन्द्र उस ऐरावतको रोक पानेमें समर्थ नहीं हो सके । २२-२३.५ ॥

तत्पुण्यं त्यक्तवन्तं च दृष्ट्वा शक्रं मुनीश्वरः ॥ २४ ॥
तमुवाच महारुष्टः शशाप च रुषान्वितः ।
इन्द्रने उस पुष्पका तिरस्कार किया हैऐसा जानकर मुनीश्वर दुर्वासा अत्यन्त कुपित हो उठे और रोषमें आकर उन्हें शाप देते हुए कहने लगे ॥ २४.५ ॥

मुनिरुवाच
अरे श्रिया प्रमत्तस्त्वं कथं मामवमन्यसे ॥ २५ ॥
मद्दत्तपुष्पं दत्तं च गर्वेण करिमस्तके ।
विष्णोर्निवेदितं चैव नैवेद्यं वा फलं जलम् ॥ २६ ॥
प्राप्तिमात्रेण भोक्तव्यं त्यागेन ब्रह्महा भवेत् ।
मुनि बोले-अरे ! राज्यश्रीके अभिमानसे प्रमत्त होकर तुम मेरा अपमान क्यों कर रहे हो ? मेरे द्वारा दिये गये पुष्पको तुमने गर्वित होकर हाथीके मस्तकपर फेंक दिया ? श्रीविष्णुको समर्पित किये हुए नैवेद्य, फल अथवा जलके प्राप्त होते ही उनका उपभोग कर लेना चाहिये, उनका त्याग करनेसे वह ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है ॥ २५-२६.५ ॥

भ्रष्टश्रीर्भ्रष्टबुद्धिश्च पुरभ्रष्टो भवेत्तु सः ॥ २७ ॥
यस्त्यजेद्विष्णुनैवेद्यं भाग्येनोपस्थितं शुभम् ।
जो मनुष्य सौभाग्यसे प्राप्त हुए भगवान् विष्णुके पावन नैवेद्यका त्याग करता है; वह श्री, बुद्धि तथा राज्य-इन सबसे वंचित हो जाता है ॥ २७.५ ॥

प्राप्तिमात्रेण यो भुङ्‌क्ते भक्तो विष्णुनिवेदितम् ॥ २८ ॥
पुंसां शतं समुद्धृत्य जीवन्मुक्तः स्वयं भवेत् ।
जो भक्त श्रीविष्णुके लिये अर्पित किये गये नैवेद्यको पाते ही उसे ग्रहण कर लेता है, वह अपने सौ पूर्वजोंका उद्धार करके स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ २८.५ ॥

नैवेद्यं भोजनं कृत्वा नित्यं यः प्रणमेद्धरिम् ॥ २९ ॥
पूजयेत्स्तौति वा भक्त्या स विष्णुसदृशो भवेत् ।
तत्स्पर्शवायुना सद्यस्तीर्थौघश्च विशुध्यति ॥ ३० ॥
तत्पादरजसा मूढ सद्यः पूता वसुन्धरा ।
जो मनुष्य प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिके नैवेद्यको ग्रहण करके उन्हें प्रणाम करता है तथा भक्तिपूर्वक उनका पूजन एवं स्तवन करता है, वह भगवान् विष्णुके समान हो जाता है । हे मूर्ख ! उसका स्पर्श करके चलनेवाली वायुका संयोग पाकर तीर्थसमुदाय शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है और उसकी चरणरजसे पृथ्वी शीघ्र ही पवित्र हो जाती है ॥ २९-३०.५ ॥

पुंश्चल्यन्नमवीरान्नं शूद्रश्राद्धान्तमेव च ॥ ३१ ॥
यद्धरेरनिवेद्यं च वृथा मांसस्य भक्षणम् ।
भगवान् श्रीहरिको भोग न लगाया हुआ अन्न व्यभिचारिणी स्त्री, पतिपुत्रहीन स्त्री तथा शूद्रके श्राद्धान्नके समान व्यर्थ होता है और वह मांसभक्षणके समान है ॥ ३१ ॥

शिवलिङ्‌गप्रदानं च यद्दत्तं शूद्रयाजिना ॥ ३२ ॥
चिकित्सकद्विजान्नं च देवलान्नं तथैव च ।
कन्याविक्रयिणामन्नं यदन्नं योनिजीविनाम् ॥ ३३ ॥
उच्छिष्टान्नं पर्युषितं सर्वभक्षावशेषितम् ।
शूद्रापतिद्विजानां च भूषवाहद्विजान्नकम् ॥ ३४ ॥
अदीक्षितद्विजानां च यदन्नं शवदाहिनाम् ।
अगम्यागामिनां चैव द्विजानामन्नमेव च ॥ ३५ ॥
मित्रद्रुहां कृतज्जानामन्नं विश्वासघातिनाम् ।
मिथ्यासाक्ष्यप्रदान्नं च ब्राह्मणान्नं तथैव च ॥ ३६ ॥
एते सर्वे विशुध्यन्ति विष्णोनैवेद्यभक्षणात् ।
शिवलिंगके लिये अर्पण किया हुआ अन्न, शूद्रोंके यहाँ यजन करानेवाले ब्राह्मणके द्वारा प्रदत्त अन्न, चिकित्सावृत्तिमें लगे ब्राह्मणका अन्न; देवल, कन्याविक्रयी तथा वेश्याओंकी वृत्तिपर आश्रित रहनेवाले पुरुषोंका अन्न; उच्छिष्ट, बासी तथा सबके भोजन कर लेनेपर बचा हुआ अन्न शूद्रापति द्विज, वृषवाही द्विज, दीक्षाहीन द्विज, शवदाही, अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाले द्विज, मित्रद्रोही, विश्वासघाती, कृतघ्न तथा झूठी गवाही देनेवाले और तीर्थप्रतिग्राही ब्राह्मणोंका अन्न ग्रहण करनेवाले-ये सभी भगवान् विष्णुका नैवेद्य भक्षण करनेसे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ३२-३६ ॥

श्वपचश्चेद्विष्णुसेवी वंशानां कोटिमुद्धरेत् ॥ ३७ ॥
हरेरभक्तो मनुजः स्वं च रक्षितुमक्षमः ।
यदि चाण्डाल भी भगवान् विष्णुकी उपासना करता है, तो वह अपनी करोड़ों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है । भगवान् श्रीहरिकी भक्ति न करनेवाला मनुष्य स्वयं अपनी भी रक्षा करनेमें असमर्थ रहता है ॥ ३७.५ ॥

अज्ञानाद्यदि गृह्णाति विष्णोर्निर्माल्यमेव च ॥ ३८ ॥
सप्तजन्मार्जितात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।
ज्ञात्वा भक्त्या च गृह्णाति विष्णोनैवेद्यमेव च ॥ ३९ ॥
कोटिजन्मार्जितात्पापान्मुच्यते निश्चितं हरे ।
यस्मात्संस्थापितं पुष्पं गर्वेण करिमस्तके ॥ ४० ॥
तस्माद्युष्मान्परित्यज्य यातु लक्ष्मीर्हरेः पदम् ।
यदि कोई मनुष्य अनजानमें भी श्रीविष्णुका नैवेद्य ग्रहण कर लेता है, वह अपने सात जन्मोंके अर्जित पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । जो ज्ञानपूर्वक भक्तिके साथ भगवान् विष्णुका नैवेद्य ग्रहण करता है, वह तो करोड़ों जन्मोंके अर्जित पापोंसे मुक्त हो जाता है-यह निश्चित है । हे इन्द्र ! तुमने जो अभिमानवश इस पारिजात पुष्पको हाथीके मस्तकपर फेंक दिया है, इस अपराधके कारण लक्ष्मीजी तुमलोगोंका परित्याग करके भगवान् श्रीहरिके लोकमें चली जाय ॥ ३८-४०.५ ॥

नारायणस्य भक्तोऽहं न बिभेमि सुराद्विधेः ॥ ४१ ॥
कालान्मृत्योर्जरातश्च कानन्यान् गणयामि च ।
किं करिष्यति ते तातः कश्यपश्च प्रजापतिः ॥ ४२ ॥
बृहस्पतिर्गुरुश्चैव निःशङ्‌कस्य च मे हरे ।
इदं पुष्पं यस्य मूर्ध्नि तस्यैव पूजनं परम् ॥ ४३ ॥
मैं नारायणका भक्त हूँ । मैं देवता, ब्रह्मा, काल, मृत्यु तथा जरासे भी भयभीत नहीं होता तो फिर अन्य किन लोगोंकी गिनती करूँ । हे इन्द्र ! तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप और गुरु बृहस्पति मुझ निःशंकका क्या कर लेंगे ? यह पारिजात पुष्प जिसके सिरपर रहता है, उसीकी पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है । ४१-४३ ॥

इति श्रुत्वा महेन्द्रश्च धृत्वा स चरणं मुनेः ।
उच्चै रुरोद शोकार्तस्तमुवाच भयाकुलः ॥ ४४ ॥
यह सुनकर देवराज इन्द्र मुनि दुर्वासाके चरण पकड़कर शोकसन्तप्त तथा भयसे व्याकुल हो उच्च स्वरसे रोने लगे और उनसे कहने लगे- ॥ ४४ ॥

महेन्द्र उवाच
दत्तः समुचितः शापो मह्यं मायापहः प्रभो ।
हृतां न याचे सम्पत्तिं किञ्चिज्ज्ञानं च देहि मे ॥ ४५ ॥
ऐश्वर्यं विपदां बीजं ज्ञानप्रच्छन्नकारणम् ।
मुक्तिमार्गकुठारश्च भक्तेश्च व्यवधायकम् ॥ ४६ ॥
महेन्द्र बोले-हे प्रभो ! आपने मुझे अत्यन्त उचित शाप दिया है । क्योंकि यह मायाका नाश कर देनेवाला है । मैं अपनी अपहत सम्पत्तिकी याचना नहीं कर रहा हूँ, आप मुझे कुछ ज्ञानोपदेश दीजिये । [क्योंकि यह लौकिक] ऐश्वर्य समस्त विपत्तियोंका बीजस्वरूप है, ज्ञानका आच्छादन कर देनेवाला है, मुक्तिमार्गका कुठार है तथा भक्तिमें व्यवधान उत्पन्न करनेवाला है ॥ ४५-४६ ॥

मुनिरुवाच
जन्ममृत्युजराशोकरोगबीजाङ्‌कुरं परम् ।
सम्पत्तितिमिरान्धश्च मुक्तिमार्गं न पश्यति ॥ ४७ ॥
मनि बोले-यह ऐश्वर्य जन्म, मृत्यु, जरा, शोक और रोगके बीजका महान् अंकुर है । सम्पत्तिके घोर अन्धकारसे अन्धा बना हुआ मानव मुक्तिका मार्ग नहीं देख पाता है ॥ ४७ ॥

सम्पन्मत्तो विमूढश्च सुरामत्तः स एव च ।
बान्धवैर्वेष्टितः सोऽपि बन्धुत्वेनैव हे हरे ॥ ४८ ॥
हे इन्द्र ! जो मूर्ख सम्पत्तिसे उन्मत्त है, उसको वास्तवमें मदिरापानसे भी प्रमत्त समझना चाहिये । बन्धु-बान्धव उसे बन्धु समझकर सदा घेरे रहते हैं । ४८ ॥

सम्पत्तिमदमत्तश्च विषयान्धश्च विह्वलः ।
महाकामी राजसिकः सत्त्वमार्गं न पश्यति ॥ ४९ ॥
सम्पत्तिके मदमें उन्मत्त वह व्यक्ति विषयान्ध, विह्वल, महाकामी और राजसिक होकर सात्विक मार्गका अवलोकन नहीं कर पाता है ॥ ४९ ॥

द्विविधो विषयान्धश्च राजसस्तामसः स्मृतः ।
अशास्त्रज्ञस्तामसश्च शास्त्रज्ञो राजसः स्मृतः ॥ ५० ॥
विषयान्ध भी राजस तथा तामस भेदसे दो प्रकारका बताया गया है । शास्त्रज्ञानसे हीन व्यक्तिको तामस तथा शास्त्रज्ञको राजस कहा गया है ॥ ५० ॥

शास्त्रं च द्विविधं मार्गं दर्शयेत्सुरपुङ्‌गव ।
प्रवृत्तिबीजमेकं च निवृत्तेः कारणं परम् ॥ ५१ ॥
हे सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र भी दो प्रकारके मार्ग दिखलाता है । एक संसृतिका हेतु है तथा दूसरा निवृत्तिका कारण कहा गया है ॥ ५१ ॥

चरन्ति जीविनश्चादौ प्रवृत्तेर्दुःखवर्त्मनि ।
स्वच्छन्दं च प्रसन्नं च निर्विरोधं च सन्ततम् ॥ ५२ ॥
आयाति मधुनो लोभात्क्लेशेन सुखमानितः ।
परिणामे नाशबीजे जन्ममृत्युजराकरे ॥ ५३ ॥
पहले प्रवृत्तिबीजरूपी दुःखमय मार्गपर सभी प्राणी स्वच्छन्द तथा प्रसन्न होकर निर्विरोधभावसे निरन्तर चलते रहते हैं । जैसे मधुके लोभसे भौंरा अत्यन्त सुख मानकर क्लेशके साथ पुष्पोंपर आता है, वैसे ही मनुष्य परिणाममें विनाशके बीजस्वरूप तथा जन्म-मृत्यु-जराके आश्रयस्वरूप इस प्रवृत्तिमार्गपर अग्रसर होता है ॥ ५२-५३ ॥

अनेकजन्मपर्यन्तं कृत्वा च भ्रमणं मुदा ।
स्वकर्मविहितायां च नानायोन्यां क्रमेण च ॥ ५४ ॥
ततश्चेशानुगहाग्रच्च सत्सङ्‌गं लभते च सः ।
सहस्रेषु शतेष्वेको भवाब्धिपारकारणम् ॥ ५५ ॥
प्रसन्नतापूर्वक अनेक जन्मोंतक अपने किये कर्मके परिणामस्वरूप नाना प्रकारकी योनियोंमें क्रमशः भ्रमण करनेके पश्चात् भगवान्की कृपासे ही सैकड़ों तथा हजारों प्राणियोंमेंसे कोई बिरला ही संसारसागरसे पार करनेवाले सत्संगको प्राप्त कर पाता है ॥ ५४-५५ ॥

साधुस्तत्त्वप्रदीपेन मुक्तिमार्गं प्रदर्शयेत् ।
तदा करोति यत्‍नं च जीवो बन्धनखण्डने ॥ ५६ ॥
अनेकजन्मयोगेन तपसानशनेन च ।
तदा लभेन्मुक्तिमार्गं निर्विघ्नं सुखदं परम् ॥ ५७ ॥
इदं श्रुतं गुरोर्वक्याद्यत् पृच्छसि पुरन्दर ।
जब कोई साधु तत्त्वज्ञानरूपी दीपकसे उसे मुक्तिमार्ग दिखा देता है, तब संसारबन्धनको तोड़नेके लिये जीव प्रयल करने लगता है । अनेक जन्मोंमें किये गये तप तथा उपवाससे जब मानवका पुण्योदय होता है, तब वह निर्विघ्न तथा परम सुखप्रद मुक्तिमार्गको प्राप्त कर पाता है । हे इन्द्र ! तुम जो बात पूछ रहे हो, उसे मैंने गुरुके मुखसे सुना है ॥ ५६-५७.५ ॥

मुनेस्तद्वचनं श्रुत्वा वीतरागो बभूव सः ॥ ५८ ॥
वैराग्यं वर्धयामास तस्य ब्रह्मन् दिने दिने ।
हे ब्रह्मन् ! मुनि दुर्वासाका यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र रागरहित हो गये और उनके हृदयमें दिनोंदिन वैराग्यकी भावना बढ़ने लगी ॥ ५८.५ ॥

मुनेः स्थानाद्‌ गृहं गत्वा स ददर्शामरावतीम् ॥ ५९ ॥
दैत्यैरसुरसङ्‌घैश्च समाकीर्णां भयाकुलाम् ।
विषमोपप्लवां पुत्रबन्धुहीनां च कुत्रचित् ॥ ६० ॥
पितृमातृकलत्रादिविहीनामतिचञ्चलाम् ।
शत्रुग्रस्तां च तां दृष्ट्वा जगाम वाक्पतिं प्रति ॥ ६१ ॥
तत्पश्चात् मुनिके स्थानसे अपने भवन पहुंचकर इन्द्रने देखा कि अमरावतीपुरी दैत्यों तथा असुरोंसे भरी हुई है, चारों ओर भय व्याप्त है, सर्वत्र विषमता तथा उपद्रवकी स्थिति है, कहीं किसीके पुत्र तथा बन्धु-बान्धव नहीं थे, कहीं किसीके माता-पिता और स्त्री आदिने उसका साथ छोड़ दिया है, चारों ओर हलचल मची हुई है तथा सम्पूर्ण नगरी शत्रुओंसे पूर्णतया आक्रान्त है । उस अमरावतीको इस स्थितिमें देखकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पतिके पास गये ॥ ५९-६१ ॥

शक्रो मन्दाकिनीतीरे ददर्श गुरुमीश्वरम् ।
ध्यायमानं परं ब्रह्म गङ्‌गातोये स्थितं परम् ॥ ६२ ॥
सूर्याभिसम्मुखं पूर्वमुखं च विश्वतोमुखम् ।
साश्रुनेत्रं पुलकिनं परमानन्दसंयुतम् ॥ ६३ ॥
वरिष्ठं च गरिष्ठं च धर्मिष्ठं श्रेष्ठसेवितम् ।
प्रेष्ठं च बन्धुवर्गाणामतिश्रेष्ठं च ज्ञानिनाम् ॥ ६४ ॥
ज्येष्ठं च भ्रातृवर्गाणामनिष्टं सुरवैरिणाम् ।
दृष्ट्वा गुरुं जपन्तं च तत्र तस्थौ सुरेश्वरः ॥ ६५ ॥
मन्दाकिनीनदीके तटपर पहुँचकर देवराज इन्द्रने देखा कि गुरुदेव बृहस्पति पूरबकी ओर सूर्यके अभिमुख हो गंगाजलमें खड़े होकर सर्वतोमुख परब्रह्म परमात्माका ध्यान कर रहे हैं और पुलकित तथा प्रसन्नतायुक्त उनके नेत्रोंसे अश्रु गिर रहे हैं । परम श्रेष्ठ, आदरणीय, धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठ जनोंद्वारा सेवित, बन्धुवाँमें अति महान्, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, भाई-बन्धुओंमें ज्येष्ठ तथा देवशत्रुओंके लिये अनिष्टकारी गुरु बृहस्पतिको जप करते हुए देखकर सुरेश्वर इन्द्र वहींपर स्थित हो गये ॥ ६२-६५ ॥

प्रहरान्ते गुरुं दृष्ट्वा चोत्थितं प्रणनाम सः ।
प्रणम्य चरणाम्भोजे रुरोदोच्चैर्मुहुर्मुहुः ॥ ६६ ॥
वृत्तान्तं कथयामास ब्रह्मशापादिकं तथा ।
पुनर्वरोपलब्धिं च ज्ञानप्राप्तिं सुदुर्लभाम् ॥ ६७ ॥
वैरिग्रस्तां च स्वपुरीं क्रमेणैव सुरेश्वरः ।
एक प्रहरके बाद गुरुको ध्यानसे उपरत देखकर इन्द्रने उन्हें प्रणाम किया । तत्पश्चात् उनके चरणकमलमें मस्तक झुकाकर इन्द्र उच्च स्वरसे बार-बार विलाप करने लगे । देवराज इन्द्रने गुरु बृहस्पतिसे दुर्वासाके द्वारा प्रदत्त शाप आदिसे सम्बन्धित सारा वृत्तान्त, वरकी उपलब्धि, दुर्वासासे अत्यन्त दुर्लभ ज्ञानकी प्राप्ति और शत्रुओंसे आक्रान्त अपनी नगरीके विषयमें सभी बातें क्रमसे कहीं ॥ ६६-६७.५ ॥

शिष्यस्य वचनं श्रुत्वा सुबुद्धिर्वदतां वरः ॥ ६८ ॥
बृहस्पतिरुवाचेदं कोपसंरक्तलोचनः ।
अपने शिष्य इन्द्रकी बात सुनकर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले परम बुद्धिमान् तथा वक्ताओंमें श्रेष्ठ बृहस्पति इस प्रकार कहने लगे- ॥ ६८.५ ॥

गुरुरुवाच
श्रुतं सर्वं सुरश्रेष्ठ मा रोदीर्वचनं शृणु ॥ ६९ ॥
न कातरो हि नीतिज्ञो विपत्तौ च कदाचन ।
सम्पत्तिर्वा विपत्तिर्वा नश्वरा श्रमरूपिणी ॥ ७० ॥
पूर्वस्य कर्मायत्ता च स्वयं कर्ता तयोरपि ।
सर्वेषां च भवत्येव शश्वज्जन्मनि जन्मनि ॥ ७१ ॥
चक्रनेमिक्रमेणैव तत्र का परिदेवना ।
गुरु बोले-हे सुरश्रेष्ठ ! मैंने सब कुछ सुन लिया, मत रोओ, मेरी बात सुनो । नीतिज्ञ पुरुष विपत्तिकालमें कभी भी घबराता नहीं; क्योंकि सम्पत्ति अथवा विपत्ति नश्वर हैं । ये दोनों ही श्रमसाध्य हैं । सम्पत्ति अथवा विपत्ति अपने पूर्व जन्ममें किये गये कर्मका फल है और उन्हींके अधीन होकर कर्ताको स्वयं फल भोगना पड़ता है । सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये प्रत्येक जन्ममें यही स्थिति है, जो चक्रमण्डलकी भाँति निरन्तर आती-जाती रहती है, अत: इस विषयमें चिन्ताकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ६९-७१.५ ॥

उक्तं हि स्वकृतं कर्म भुज्यतेऽखिलभारते ॥ ७२ ॥
शुभाशुभं च यत्किञ्चित्स्वकर्मफलभुक् पुमान् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥ ७३ ॥
ऐसा कहा गया है कि सम्पूर्ण भारतमें अपने द्वारा किये गये कर्मका फल भोगना ही पड़ता है । शुभ अथवा अशुभ जो कुछ भी कर्म मनुष्य करता है, वह उसे भोगता ही है । सैकड़ों करोड़ों कल्प बीत जानेके बाद भी बिना भोगे हुए कर्मोका क्षय नहीं होता ॥ ७२-७३ ॥

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
इत्येवमुक्तं वेदे च कृष्णेन परमात्मना ॥ ७४ ॥
सामवेदोक्तशाखायां सम्बोध्य कमलोद्‍भवम् ।
जन्मभोगावशेषे च सर्वेषां कृतकर्मणाम् ॥ ७५ ॥
अनुरूपं हि तेषां च भारतेऽन्यत्र चैव हि ।
अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य भोगना पड़ता है-ऐसा परमात्मा श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको सम्बोधित करके सामवेदकी शाखामें कहा है । किये हुए सम्पूर्ण कर्मोका भोग शेष रह जानेपर उन प्राणियोंका कर्मानुसार भारतवर्षमें अथवा अन्यत्र जन्म होता है । ७४-७५.५ ॥

कर्मणा ब्रह्मशापं च कर्मणा च शुभाशिषम् ॥ ७६ ॥
कर्मणा च महालक्ष्मीं लभेद्दैन्यं च कर्मणा ।
कोटिजन्मार्जितं कर्म जीविनामनुगच्छति ॥ ७७ ॥
न हि त्यजेद्विना भोगं तच्छायेव पुरन्दर ।
प्राणी कर्मसे ही ब्रह्मशाप, कर्मसे ही शुभाशीर्वाद, कर्मसे ही महालक्ष्मी और कर्मसे ही दरिद्रता प्राप्त करता है । हे पुरन्दर ! करोड़ों जन्मोंके संचित कर्म प्राणीके पीछे उसकी छायाकी भाँति लगे रहते हैं और बिना भोगे उस प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ ७६-७७.५ ॥

कालभेदे देशभेदे पात्रभेदे च कर्मणाम् ॥ ७८ ॥
न्यूनताधिकभावोऽपि भवेदेव हि कर्मणा ।
वस्तुदानेन वस्तूनां समं पुण्यं दिने दिने ॥ ७९ ॥
काल, देश और पात्रके भेदसे कर्मोका न्यूनाधिक भाव हुआ ही करता है । साधारण समयमें दानमें दी गयी वस्तुओंका साधारण फल होता है । यदि किसी विशेष पुण्य दिनमें कोई वस्तु दानमें दी जाती है तो उसका फल साधारण दिनकी अपेक्षा करोड़ों गुना उससे भी अधिक या असंख्य गुना प्राप्त होता है ॥ ७८-७९ ॥

दिनभेदे कोटिगुणमसंख्यं वा ततोऽधिकम् ।
समे देशे च वस्तूनां दाने पुण्यं समं सुर ॥ ८० ॥
देशभेदे कोटिगुणमसंख्यं वा ततोऽधिकम् ।
उसी प्रकार हे इन्द्रदेव ! साधारण स्थानमें दानमें दी गयी वस्तुका साधारण पुण्य होता है, किंतु देशभेदके अनुसार किसी विशेष स्थानमें दानका फल करोड़ गुना या उससे भी अधिक असंख्य गुना होता है । ८०.५ ॥

समे पात्रे समं पुण्यं वस्तूनां कर्तुरेव च ॥ ८१ ॥
पात्रभेदे शतगुणमसंख्यं वा ततोऽधिकम् ।
साधारण पात्रको दान करनेपर उन वस्तुओंका दान करनेवालेको उसका साधारण पुण्य मिलता है, किंतु किसी विशेष पात्रको दान देनेसे उसकी अपेक्षा सौ गुना या उससे अधिक असंख्य गुना पुण्य होता है ॥ ८१.५ ॥

यथा फलन्ति सस्यानि न्यूनान्यप्यधिकानि च ॥ ८२ ॥
कर्षकाणां क्षेत्रभेदे पात्रभेदे फलं तथा ।
जैसे क्षेत्रभेदसे भिन्न-भिन्न खेतोंमें बीज बोनेपर किसानोंके लिये कम या अधिक धान्य उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पात्रभेदसे दान देनेपर दाता न्यूनाधिक फल प्राप्त करता है । ८२.५ ॥

सामान्यदिवसे विप्रदानं समफलं भवेत् ॥ ८३ ॥
अमायां रविसंक्रान्त्यां फलं शतगुणं भवेत् ।
चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामनन्तं फलमेव च ॥ ८४ ॥
ग्रहणे शशिनः कोटिगुणं च फलमेव च ।
सूर्यस्य ग्रहणे वापि ततो दशगुणं भवेत् ॥ ८५ ॥
अक्षयायामक्षयं तदसंख्यं फलमुच्यते ।
एवमन्यत्र पुण्याहे फलाधिक्यं भवेदिति ॥ ८६ ॥
यथा दाने तथा स्नाने जपेऽन्यपुण्यकर्मसु ।
एवं सर्वत्र बोद्धव्यं नराणां कर्मणां फलम् ॥ ८७ ॥
सामान्य दिनमें ब्राह्मणको दिये गये दानका सामान्य फल होता है, किंतु अमावास्या तथा सूर्यसंक्रान्तिको दान देनेसे सौ गुना फल होता है और चातुर्मास्यमें तथा पूर्णिमा तिथिको दिये गये दानका अनन्त फल होता है । चन्द्रग्रहणके अवसरपर दान देनेसे करोड़ गुना फल प्राप्त होता है तथा सूर्यग्रहणके समयपर दिये गये दानका फल उससे भी दस गुना अधिक होता है । अक्षय तृतीयाको दिया गया दान अक्षय होता है और उसका अनन्त फल कहा गया है । इसी प्रकार अन्य पर्वदिनोंमें भी फलोंकी अधिकता हो जाती है । जिस प्रकार दानके फलमें आधिक्य हो जाता है, उसी प्रकार स्नान, जप तथा अन्य पुण्यकार्योंमें भी होता है । मनुष्योंके लिये कर्मफलके विषयमें इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये ॥ ८३-८७ ॥

यथा दण्डेन चक्रेण शरावेण भ्रमेण च ।
कुम्भं निर्माति निर्माता कुम्भकारो मृदा भुवि ॥ ८८ ॥
जिस प्रकार पृथ्वीलोकमें कुम्भकार दण्ड, चक्र, शराव और भ्रमणके द्वारा मिट्टीसे कुम्भका निर्माण करता है, उसी प्रकार विधाता कर्मसूत्रसे प्राणियोंको फल प्रदान करते हैं । ८८ ॥

तथैव कर्मसूत्रेण फलं धाता ददाति च ।
यस्याज्ञया सृष्टमिदं तं च नारायणं भज ॥ ८९ ॥
स विधाता विधातुश्च पातुः पाता जगत्त्रये ।
स्रष्टुः स्रष्टा च संहर्तुः संहर्ता कालकालकः ॥ ९० ॥
[अतः हे देवराज !] जिनकी आज्ञासे इस जगत्की सृष्टि हुई है, उन भगवान् नारायणकी आप आराधना कीजिये । वे भगवान् नारायण त्रिलोकीमें विधाताके भी विधाता, पालन करनेवालेके भी पालक, सृष्टि करनेवालेके भी स्रष्टा, संहार करनेवालेके भी संहारक और कालके भी काल हैं ॥ ८९-९० ॥

महाविपत्तौ संसारे यः स्मरेन्मधुसूदनम् ।
विपत्तौ तस्य सम्पत्तिर्भवेदित्याह शङ्‌करः ॥ ९१ ॥
जो मनुष्य इस संसारमें घोर विपत्तिके समयमें भगवान् मधुसूदनका स्मरण करता है, उसके लिये उस विपत्तिमें भी सम्पत्ति उत्पन्न हो जाती है-ऐसा भगवान् शंकरने कहा है । ॥ ९१ ॥

इत्येवमुक्त्वा तत्त्वज्ञः समालिङ्‌ग्य सुरेश्वरम् ।
दत्त्वा शुभाशिषं चेष्टं बोधयामास नारद ॥ ९२ ॥
हे नारद ! ऐसा कहकर तत्त्वज्ञानी बृहस्पतिने देवराज इन्द्रको हृदयसे लगाकर और शुभाशीर्वाद देकर उन्हें अभीष्ट बात समझा दी ॥ । ९२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
लक्ष्म्युत्पत्तिवर्णनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे लक्ष्युत्पत्तिवर्णनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥


GO TOP