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श्रीलक्ष्म्युपाख्यानवर्णनम् -
ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव -
श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! भगवान् श्रीहरिका ध्यान करके देवराज इन्द्र बृहस्पतिको आगे करके सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माकी सभामें गये ॥ १ ॥
शीघ्रं गत्वा ब्रह्मलोकं दृष्ट्वा च कमलोद्भवम् । प्रणेमुर्देवताः सर्वाः सहेन्द्रा गुरुणा सह ॥ २ ॥
इन्द्रसमेत सभी देवताओंने गुरु बृहस्पतिके साथ शीघ्र ही ब्रह्मलोक जाकर पायोनि ब्रह्माजीका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया ॥ २ ॥
वृत्तान्तं कथयामास सुराचार्यो विधिं प्रति । प्रहस्योवाच तच्छ्रुत्वा महेन्द्रं कमलासनः ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् देवगुरु बृहस्पतिने ब्रह्माजीसे सारा वृत्तान्त कहा । उसे सुनकर ब्रह्माजी हँस करके देवराज इन्द्रसे कहने लगे ॥ ३ ॥
ब्रह्मोवाच वत्स मद्वंशजातोऽसि प्रपौत्रो मे विचक्षणः । बृहस्पतेश्च शिष्यस्त्वं सुराणामधिपः स्वयम् ॥ ४ ॥ मातामहश्च दक्षस्ते विष्णुभक्तः प्रतापवान् । कुलत्रयं यस्य शुद्धं कथं सोऽहङ्कृतो भवेत् ॥ ५ ॥ माता पतिव्रता यस्य पिता शुद्धो जितेन्द्रियः । मातामहो मातुलश्च कथं सोऽहङ्कृतो भवेत् ॥ ६ ॥ जनः पैतृकदोषेण दोषान्मातामहस्य च । गुरुदोषात्त्रिभिर्दोषैर्हरिदोषी भवेद् ध्रुवम् ॥ ७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे वत्स ! तुम मेरे वंशमें उत्पन्न हुए हो और मेरे बुद्धिमान् प्रपौत्र हो, इसके अतिरिक्त बृहस्पतिके शिष्य हो और स्वयं देवताओंके स्वामी हो । परम प्रतापी तथा विष्णुभक्त दक्षप्रजापति तुम्हारे नाना हैं । जिसके तीनों कुल पवित्र हों, वह पुरुष अहंकारी कैसे हो सकता है ? जिसकी माता पतिव्रता, पिता शुद्धस्वरूप और नाना तथा मामा जितेन्द्रिय हों, वह अहंकारयुक्त कैसे हो सकता है ? पिताके दोष, नानाके दोष और गुरुके दोष-इन्हीं तीन दोषोंसे ही मनुष्य भगवान् श्रीहरिका द्रोही हो जाता है ॥ ४-७ ॥
सर्वान्तरात्मा भगवान् सर्वदेहेष्ववस्थितः । यस्य देहात्स प्रयाति स शवस्तत्क्षणं भवेत् ॥ ८ ॥
सभीकी अन्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सभी प्राणियोंके शरीरमें विराजमान रहते हैं । वे भगवान् जिसके शरीरसे निकल जाते हैं, वह प्राणी उसी क्षण शव हो जाता है ॥ ८ ॥
मनोऽहमिन्द्रियेशं च ज्ञानरूपो हि शङ्करः । विष्णुप्राणा च प्रकृतिर्बुद्धिर्भगवती सती ॥ ९ ॥ निद्रादयः शक्तयश्च ताः सर्वाः प्रकृतेः कलाः । आत्मनः प्रतिबिम्बश्च जीवो भोगशरीरभृत् ॥ १० ॥ आत्मनीशे गते देहात्सर्वे यान्ति ससम्भ्रमाः । यथा वर्त्मनि गच्छन्तं नरदेवमिवानुगाः ॥ ११ ॥
मैं प्राणियोंके शरीरमें इन्द्रियोंका स्वामी मन बनकर रहता हूँ, शंकर ज्ञानका रूप धारण करके रहते हैं और विष्णुकी प्राणस्वरूपा भगवती श्रीराधा मूलप्रकृतिके रूपमें और साध्वी भगवती दुर्गा बुद्धिरूपमें विराजमान हैं । निद्रा आदि सभी शक्तियाँ भगवती प्रकृतिकी कलाएँ हैं । आत्माका प्रतिबिम्ब भोगशरीर धारण करके जीवरूपमें प्रतिष्ठित है । शरीरके स्वामीरूप आत्माके देहसे निकल जानेपर ये सब उसीके साथ तुरंत उसी प्रकार चले जाते हैं, जैसे मार्गमें चलते हुए राजाके पीछे-पीछे उसके अनुचर आदि चलते हैं ॥ ९-११ ॥
मैं, शिव, शेषनाग, विष्णु, धर्म, महाविराट् तथा तुम सब लोग जिनके अंश तथा भक्त हैं; उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके पवित्र पुष्पका तुमने अपमान कर दिया है ॥ १२ ॥
शिवेन पूजितं पादपद्मं पुष्पेण येन च । तत्र दुर्वाससा दत्तं दैवेन न्यक्कृतं त्वया ॥ १३ ॥
शंकरजीने जिस पुष्पसे भगवान् श्रीहरिके चरणकमलकी पूजा की थी, वही पुष्प मुनि दुर्वासाके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया था; किंतु तुमने दैववश उसका तिरस्कार कर दिया ॥ १३ ॥
तत्पुण्यं मस्तके यस्य कृष्णपादाब्जप्रच्युतम् । सर्वेषां च सुराणां च तत्पूजापुरतो भवेत् ॥ १४ ॥
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलसे च्युत वह पुष्प जिसके मस्तकपर स्थान पाता है, उसकी पूजा सभी देवताओंमें सबसे पहले होती है ॥ १४ ॥
दैवेन वञ्चितस्त्वं हि दैवं च बलवत्तरम् । भाग्यहीनं जनं मूढं को वा रक्षितुमीश्वरः ॥ १५ ॥
तुम तो दैवके द्वारा ठग लिये गये हो । प्रारब्ध सबसे अधिक बलशाली होता है । भाग्यहीन तथा मूर्ख व्यक्तिकी रक्षा करने में कौन समर्थ है ? ॥ १५ ॥
सा श्रीर्गताधुना कोपात्कृष्णनिर्माल्यवर्जनात् । अधुना गच्छ वैकुण्ठं मया च गुरुणा सह ॥ १६ ॥
भगवान् श्रीकृष्णको अर्पित किये जानेवाले पुष्पका तुम्हारे द्वारा त्याग किये जानेके कारण वे भगवती श्रीदेवी कोप करके इस समय तुम्हारे पाससे चली गयी हैं । अतः तुम इसी समय मेरे तथा गुरु बृहस्पतिके साथ वैकुण्ठ चलो । मेरे वरके प्रभावसे वहाँपर लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरिकी सेवा करके तुम लक्ष्मीको पुनः प्राप्त कर लोगे ॥ १६ ॥
निषेव्य तत्र श्रीनाथं श्रियं प्राप्स्यति मद्वरात् । एवमुक्त्वा च स ब्रह्मा सर्वैः सुरगणैः सह ॥ १७ ॥ तत्र गत्वा परब्रह्म भगवन्तं सनातनम् । दृष्ट्वा तेजःस्वरूपं तं प्रज्वलन्तं स्वतेजसा ॥ १८ ॥ ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डशतकोटिसमप्रभम् । शान्तमनादिमध्यान्तं लक्ष्यीकान्तमनन्तकम् ॥ १९ ॥ चतुर्भुजैः पार्षदैश्च सरस्वत्या युतं प्रभुम् । भक्त्या चतुर्भिर्वेदैश्च गङ्गया परिवेष्टितम् ॥ २० ॥ तं प्रणेमुः सुराः सर्वे मूर्ध्ना ब्रह्मपुरोगमाः । भक्तिनम्राः साश्रुनेत्रास्तुष्टुवुः परमेश्वरम् ॥ २१ ॥
[हे नारद !] ऐसा कहकर ब्रह्माजीने सभी देवताओंके साथ वैकुण्ठलोक पहुँचकर परब्रह्म सनातन भगवान् श्रीहरिको देखा । वे तेजस्वरूप प्रभु अपने ही तेजसे देदीप्यमान हो रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतुके मध्याह्नकालीन सौ करोड़ सूर्योकी प्रभासे युक्त थे, आदि-अन्त-मध्यसे रहित अनन्तरूप लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरि शान्तभावसे विराजमान थे, वे प्रभु चार भुजाओंवाले पार्षदों तथा भगवती सरस्वतीके साथ सुशोभित हो रहे थे और चारों वेदोंसहित देवी गंगा भक्तिभावसे युक्त होकर उनके पास विराजमान थीं । उन प्रभुको देखकर ब्रह्माके अनुगामी सभी देवताओंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया । भक्ति तथा विनयसे युक्त होकर देवताओंने नेत्रोंमें आँसू भरकर उन परमेश्वरकी स्तुति की ॥ १७-२१ ॥
वृत्तान्तं कथयामास स्वयं ब्रह्मा कृताञ्जलिः । रुरुदुर्देवताः सर्वाः स्वाधिकाराच्चुताश्च ताः ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् स्वयं ब्रह्माजीने हाथ जोड़कर भगवान् श्रीहरिसे सारा वृत्तान्त कहा । अपने अधिकारसे वंचित सभी देवता उस समय रो रहे थे ॥ २२ ॥
स ददर्श सुरगणं विपद्ग्रस्तं भयाकुलम् । रत्नभूषणशून्यं च वाहनादिविवर्जितम् ॥ २३ ॥ शोभाशून्यं हतश्रीकं निष्प्रभं सभयं परम् । उवाच कातरं दृष्ट्वा भयभीतिविभञ्जनः ॥ २४ ॥
उन भगवान् श्रीहरिने देखा कि सभी देवगण विपत्तिसे ग्रस्त, भयसे व्याकुल, रत्न तथा आभूषणसे विहीन, वाहन आदिसे रहित, शोभाशून्य, श्रीहीन, निस्तेज तथा अत्यन्त भयग्रस्त हैं । उन्हें इस प्रकार कष्टसे व्याकुल देखकर संसारका भय दूर करनेवाले प्रभु कहने लगे ॥ २३-२४ ॥
श्रीभगवानुवाच मा भैर्ब्रह्मन् हे सुराश्च भयं किं वो मयि स्थिते । दास्यामि लक्ष्मीमचलां परमैश्वर्यवर्धिनीम् ॥ २५ ॥ किञ्च मद्वचनं किञ्चिच्छ्रूयतां समयोचितम् । हितं सत्यं सारभूतं परिणामसुखावहम् ॥ २६ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! हे देवगण ! आप लोग मत डरिये । मेरे रहते आपलोगोंको किस बातका भय है । मैं आपलोगोंको परम ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेवाली स्थिर लक्ष्मी प्रदान करूंगा । किंतु मेरी कुछ समयोचित बात सुनिये; जो हितकर, सत्य, सारभूत तथा परिणाममें सुखकारी है ॥ २५-२६ ॥
जनाश्चासंख्यविश्वस्था मदधीनाश्च सन्ततम् । यथा तथाहं मद्भक्तपराधीनोऽस्वतन्त्रकः ॥ २७ ॥ यं यं रुष्टो हि मद्भक्तो मत्परो हि निरङ्कुशः । तद्गृहेऽहं न तिष्ठामि पद्मया सह निश्चितम् ॥ २८ ॥
जैसे अनन्त ब्रह्माण्डोंमें रहनेवाले सभी प्राणी निरन्तर मेरे अधीन रहते हैं, वैसे ही मैं भी अपने भक्तोंके अधीन रहता हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ । मेरे प्रति समर्पित मेरा निरंकुश भक्त जिस-जिसके ऊपर रुष्ट होता है, उसके घर में लक्ष्मीके साथ कभी नहीं ठहरता-यह निश्चित है ॥ २७-२८ ॥
दुर्वासाः शङ्करांशश्च वैष्णवो मत्परायणः । तच्छापादागतोऽहं च सलक्ष्मीको हि वो गृहात् ॥ २९ ॥
भगवान् शंकरके अंशसे उत्पन्न ऋषि दुर्वासा महान् वैष्णव हैं तथा मेरे प्रति अनन्य भक्ति रखते हैं । उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया है, अत: मैं आपलोगोंके घरसे लक्ष्मीसहित चला आया हूँ ॥ २९ ॥
यत्र शङ्खध्वनिर्नास्ति तुलसी न शिवार्चनम् । न भोजनं च विप्राणां न पद्मा तत्र तिष्ठति ॥ ३० ॥
जहाँ शंखध्वनि नहीं होती, तुलसी नहीं रहती, शिवकी पूजा नहीं होती तथा ब्राह्मणोंको भोजन नहीं कराया जाता, वहाँ लक्ष्मी नहीं रहतीं ॥ ३० ॥
मद्भक्तानां च मे निन्दा यत्र ब्रह्मन् भवेत्सुराः । महारुष्टा महालक्ष्मीस्ततो याति पराभवम् ॥ ३१ ॥
हे ब्रह्मन् ! हे देवगण ! जहाँ मेरी तथा मेरे भक्तोंकी निन्दा होती है, वहाँसे महालक्ष्मी अत्यन्त रुष्ट होकर चली जाती हैं और उसका पराभव हो जाता है ॥ ३१ ॥
मद्भक्तिहीनो यो मूढो भुङ्क्ते यो हरिवासरे । मम जन्मदिने वापि याति श्रीस्तद्गृहादपि ॥ ३२ ॥
जो मूर्ख मनुष्य मेरी भक्तिसे रहित है तथा एकादशी और मेरे जन्मके दिन (जन्माष्टमी आदि)को भोजन करता है, उसके भी घरसे लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ३२ ॥
जो व्यक्ति मेरे नामका तथा अपनी कन्याका विक्रय करता है और जिसके यहाँ अतिथि भोजन नहीं करता, उसके घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ३३ ॥
यो विप्रः पुंश्चलीपुत्रो महापापी च तत्पतिः । पापिनो यो गृहं याति शूद्रश्राद्धान्नभोजकः ॥ ३४ ॥ महारुष्टा ततो याति मन्दिरात्कमलालया ।
जो ब्राह्मण वेश्याका पुत्र है अथवा उसका पति है, वह महापापी है । जो विप्र ऐसे पापीके घर जाता है तथा शूद्रका श्राद्धान्न खाता है, उसके घरसे कमलासना महालक्ष्मी अत्यन्त रुष्ट होकर चली जाती हैं ॥ ३४.५ ॥
हे देवगण ! जो द्विजाधम शूद्रोंका शव जलाता है, वह भाग्यहीन हो जाता है । उससे रुष्ट होकर कमलवासिनी लक्ष्मी उसके घरसे चली जाती हैं ॥ ३५.५ ॥
शूद्राणां सूपकारी यो ब्राह्मणो वृषवाहकः ॥ ३६ ॥ तत्तोयपानभीता च कमला याति तद्गृहात् ।
जो ब्राह्मण शूद्रोंके यहाँ भोजन पकानेका काम करता है तथा जो बैल हाँकता है, उसका जल पीनेसे लक्ष्मी डरती हैं और उसके घरसे चली जाती है ॥ ३६.५ ॥
अशुद्धहृदयः क्रूरो हिंसको निन्दको द्विजः ॥ ३७ ॥ ब्राह्मणः शूद्रयाजी च याति देवी च तद्गृहात् । अवीरान्नं च यो भुङ्क्ते तस्माद्याति जगत्प्रसूः ॥ ३८ ॥
जो ब्राह्मण अशुद्ध हृदयवाला, क्रूर, हिंसक, दूसरोंकी निन्दा करनेवाला तथा शूद्रोंका यज्ञ करानेवाला होता है, उसके घरसे भगवती लक्ष्मी चली जाती हैं । जो ब्राह्मण पति-पुत्रहीन स्त्रीका अन्न खाता है, उसके घरसे भी जगज्जननी लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ३७-३८ ॥
जो नखोंसे निष्प्रयोजन तृण तोड़ता है अथवा नखोंसे भूमिको कुरेदता रहता है तथा जिसके यहाँसे ब्राह्मण निराश होकर चला जाता है, उसके घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ३९ ॥
सूर्योदये द्विजो भुङ्क्ते दिवास्वापी च ब्राह्मणः । दिवा मैथुनकारी च यस्तस्माद्याति मत्प्रिया ॥ ४० ॥
जो ब्राह्मण सूर्योदयके समय भोजन करता है, दिनमें शयन करता है तथा दिनमें मैथुन करता है, उसके यहाँसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं । ४० ॥
आचारहीनो विप्रो यो यश्च शूद्रप्रतिग्रही । अदीक्षितो हि यो मूढस्तस्माद्वै याति मत्प्रिया ॥ ४१ ॥
जो ब्राह्मण आचारहीन, शूद्रोंसे दान ग्रहण करनेवाला, दीक्षासे विहीन तथा मूर्ख है; उसके भी घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ४१ ॥
जो व्यक्ति अपने सिरपर तेल लगाकर उसी हाथसे दूसरेके अंगका स्पर्श करता है और अपने किसी अंगको बाजेकी तरह बजाता है, उससे रुष्ट होकर वे लक्ष्मी उसके घरसे चली जाती हैं ॥ ४३ ॥
जो ब्राह्मण व्रत-उपवास नहीं करता, सन्ध्यावन्दन नहीं करता, सदा अपवित्र रहता है तथा भगवान् विष्णुकी भक्तिसे रहित है, उसके यहाँसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ४४ ॥
ब्राह्मणं निन्दयेद्यो हि तं च यो द्वेष्टि सन्ततम् । जीवहिंस्रो दयाहीनो याति सर्वप्रसूस्ततः ॥ ४५ ॥
जो व्यक्ति ब्राह्मणको निन्दा करता है और उससे सदा द्वेषभाव रखता है, जीवोंकी हिंसा करता है तथा प्राणियोंके प्रति दयाभाव नहीं रखता है । सबकी जननी लक्ष्मी उस व्यक्तिसे दूर चली जाती हैं ॥ ४५ ॥
यत्र यत्र हरेरर्चा हरेरुत्कीर्तनं तथा । तत्र तिष्ठति सा देवी सर्वमङ्गलमङ्गला ॥ ४६ ॥
जिस जिस जगह भगवान् विष्णुकी पूजा होती है तथा उनका गुणगान होता है, वहाँ सम्पूर्ण मंगलोंको भी मंगल प्रदान करनेवाली वे भगवती लक्ष्मी निवास करती हैं ॥ ४६ ॥
यत्र प्रशंसा कृष्णस्य तद्भक्तस्य पितामह । सा च कृष्णप्रिया देवी तत्र तिष्ठति सन्ततम् ॥ ४७ ॥
हे पितामह ! जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके भक्तोंका यशोगान किया जाता है, वहाँ उन श्रीकृष्णकी प्रिया भगवती लक्ष्मी निरन्तर निवास करती हैं । ४७ ॥
जहाँ शंखध्वनि होती है और शंख, शालग्रामशिला तथा तुलसीदल-ये रहते हैं एवं उनकी सेवा, वन्दना तथा ध्यान किया जाता है; वहाँ वे लक्ष्मी सर्वदा निवास करती हैं ॥ ४८ ॥
जहाँ शिवलिंगकी पूजा तथा उनके गुणोंका शुभ कीर्तन और भगवती दुर्गाका पूजन तथा उनका गुणगान किया जाता है, वहाँ पद्मनिवासिनी देवी लक्ष्मी वास करती हैं ॥ ४९ ॥
विप्राणां सेवनं यत्र तेषां च भोजनं शुभम् । अर्चनं सर्वदेवानां तत्र पद्ममुखी सती ॥ ५० ॥
जहाँ ब्राह्मणोंकी सेवा होती है, उन्हें उत्तम भोजन कराया जाता है और सभी देवताओंकी पूजा होती है, वहाँ कमलके समान मुखवाली साध्वी लक्ष्मी विराजमान रहती हैं ॥ ५० ॥
इत्युक्त्वा च सुरान्सर्वान् रमामाह रमापतिः । क्षीरोदसागरे जन्म कलयाकलयेति च ॥ ५१ ॥
[हे नारद !] समस्त देवताओंसे ऐसा कहकर लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीजीसे कहाक्षीरसागरके यहाँ तुम अपनी एक कलासे जन्म ग्रहण करो ॥ ५१ ॥
समस्त देवताओं तथा राक्षसोंने मन्दराचलपर्वतको मथानी, कच्छपको आधार और शेषनागको मथानीकी रस्सी बनाकर समुद्रमन्थन किया । उसके परिणामस्वरूप उन्हें धन्वन्तरि, अमृत, इच्छित उच्चैःश्रवा नामक अश्व, अनेकविध रत्न, हाथियोंमें रत्नस्वरूप ऐरावत, लक्ष्मी, सुदर्शन चक्र और वनमाला आदि प्राप्त हुए । हे मुने ! तब विष्णुपरायणा साध्वी लक्ष्मीने वह वनमाला क्षीरसागरमें शयन करनेवाले मनोहर सर्वेश्वर श्रीविष्णुको समर्पित कर दी ॥ ५४-५६ ॥
तत्पश्चात् ब्रह्मा, शिव तथा देवताओंके द्वारा पूजा तथा स्तुति किये जानेपर भगवती लक्ष्मीने देवताओंके भवनपर अपनी कृपादष्टि डाली, फलस्वरूप वे देवगण मुनि दुर्वासाके शापसे मुक्त हो गये । हे नारद ! इस प्रकार महालक्ष्मीके अनुग्रह तथा वरदानसे उन देवताओंने दैत्योंके द्वारा अधिकृत किये गये तथा भयंकर बना दिये गये अपने राज्यको पुनः प्राप्त कर लिया ॥ ५७-५८ ॥