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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः

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स्वाहोपाख्यानवर्णनम् -
भगवती स्वाहाका उपाख्यान -


नारद उवाच
नारायण महाभाग नारायण महाप्रभो ।
रूपेणैव गुणेनैव यशसा तेजसा त्विषा ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! हे महाप्रभो ! आप रूप, गुण, यश, तेज और कान्तिमें साक्षात् नारायण ही हैं ॥ १ ॥

त्वमेव ज्ञानिनां श्रेष्ठः सिद्धानां योगिनां मुने ।
तपस्विनां मुनीनां च परो वेदविदांवर ॥ २ ॥
महालक्ष्म्या उपाख्यानं विज्ञातं महदद्‍भुतम् ।
अन्यत्किञ्चिदुपाख्यानं निगूढं वद साम्प्रतम् ॥ ३ ॥
अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।
अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥ ४ ॥
हे मुने ! हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! आप ज्ञानियों, सिद्धों, योगियों, तपस्वियों और मुनियोंमें परम श्रेष्ठ हैं । मैंने आपसे महालक्ष्मीका अत्यन्त अद्‌भुत उपाख्यान जान लिया, अब आप मुझे कोई दूसरा उपाख्यान बतलाइये; जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणोंमें अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेदप्रतिपादित हो ॥ २-४ ॥

श्रीनारायण उवाच
नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।
श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम् ॥ ५ ॥
तेषु यत्सारभूतं च श्रोतुं किं वा त्वमिच्छसि ।
तन्मे ब्रूहि महाभाग पश्चाद्वक्ष्यामि तत्पुनः ॥ ६ ॥
श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन ! ऐसे अनेकविध आख्यान हैं, जो पुराणोंमें वर्णित नहीं हैं । कई प्रकारके आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं, उनमें किस सारभूत आख्यानको आप सुनना चाहते हैं ? हे महाभाग ! आप पहले मुझसे उसे बताइये, तब मैं उसका वर्णन करूँगा ॥ ५-६ ॥

नारद उवाच
स्वाहा देवी हविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु ।
पितृदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा ॥ ७ ॥
एतासां चरितं जन्मफलं प्राधान्यमेव च ।
श्रोतुमिच्छामि त्वद्वक्त्राद्‌वद वेदविदांवर ॥ ८ ॥
नारदजी बोले-सभी धार्मिक कौंमें हविप्रदानके समय स्वाहादेवी और श्राद्धकर्ममें स्वधादेवी प्रशस्त मानी गयी हैं । यज्ञ आदि कर्मोंमें दक्षिणादेवी सर्वश्रेष्ठ हैं । हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! मैं आपके मुखसे इन्हीं देवियोंके चरित्र, अवतारग्रहणका प्रयोजन तथा महत्त्व सुनना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ ७-८ ॥

सूत उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य मुनिसत्तमः ।
कथां कथितुमारेभे पुराणोक्तां पुरातनीम् ॥ ९ ॥
सूतजी बोले-नारदजीकी बात सुनकर मुनिवर नारायणने हँसकर पुराणप्रतिपादित प्राचीन कथा कहनी आरम्भ की ॥ ९ ॥

श्रीनारायण उवाच
सृष्टेः प्रथमतो देवाः स्वाहारार्थं ययुः पुरा ।
ब्रह्मलोकं ब्रह्मसभामाजग्मुः सुमनोहराम् ॥ १० ॥
गत्वा निवेदनं चक्रुराहारहेतुकं मुने ।
ब्रह्मा श्रुत्वा प्रतिज्ञाय निषेवे श्रीहरिं परम् ॥ ११ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! प्राचीन समयमें सृष्टिके प्रारम्भिक कालमें देवतागण अपने आहारके लिये ब्रह्मलोक गये । वहाँपर वे ब्रह्माजीकी मनोहर सभामें आये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपने आहारके लिये ब्रह्माजीसे प्रार्थना की । उनकी बात सुनकर ब्रह्माजीने उनके लिये आहारकी प्रतिज्ञा करके परमेश्वर श्रीहरिकी आराधना की ॥ १०-११ ॥

नारद उवाच
यज्ञरूपो हि भगवान् कलया च बभूव ह ।
यज्ञे यद्यद्धविर्दानं दत्तं तेभ्यश्च ब्राह्मणैः ॥ १२ ॥
नारदजी बोले-भगवान् श्रीहरि अपनी कलासे यज्ञके रूपमें प्रकट हो चुके थे । तब यज्ञमें ब्राह्मणोंके द्वारा उन देवताओंको जो-जो हव्य प्रदान किया जाता था, क्या उससे उनकी तृप्ति नहीं होती थी ? ॥ १२ ॥

श्रीनारायण उवाच
हविर्ददति विप्राश्च भक्त्या च क्षत्रियादयः ।
सुरा नैव प्राप्नुवन्ति तद्दानं मुनिपुङ्‌गव ॥ १३ ॥
देवा विषण्णास्ते सर्वे तत्सभां च ययुः पुनः ।
गत्वा निवेदनं चक्रुराहाराभावहेतुकम् ॥ १४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि वर्ण देवताओंके निमित्त भक्तिपूर्वक जो हविदान करते थे, उस प्रदत्त हविको देवगण नहीं प्राप्त कर पाते थे । उसीसे वे सभी देवता दुःखी होकर ब्रह्मसभामें गये और वहाँ जाकर उन्होंने आहारके अभावकी बात बतायी ॥ १३-१४ ॥

ब्रह्मा श्रुत्वा तु ध्यानेन श्रीकृष्णं शरणं ययौ ।
पूजाञ्चकार प्रकृतेध्यानेनैव तदाज्ञया ॥ १५ ॥
प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
अतीव सुन्दरी श्यामा रमणीया मनोहरा ॥ १६ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकातरा ।
उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने वरं वृणु ॥ १७ ॥
विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा सम्भ्रमात्समुवाच ताम् ।
देवताओंकी यह प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने ध्यान करके श्रीकृष्णकी शरण ग्रहण की । तब उन श्रीकृष्णके आदेशानुसार ब्रह्माजी ध्यानके साथ मूलप्रकृति भगवतीकी आराधना करने लगे । इसके फलस्वरूप सर्वशक्तिस्वरूपिणी स्वाहादेवी भगवती मूलप्रकृतिकी कलासे प्रकट हो गयीं । उनका श्रीविग्रह अत्यन्त सुन्दर, लावण्यमय, रमणीय तथा मनोहर था, उनका मुखमण्डल मन्द-मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये आतुर-सी प्रतीत हो रही थीं, ऐसे स्वरूपवाली उन भगवती स्वाहाने ब्रह्माके सम्मुख उपस्थित होकर कहा-हे पायोने ! वर माँगो । उनका वचन सुनकर ब्रह्माजी आदरपूर्वक उन भगवतीसे कहने लगे- ॥ १५-१७.५ ॥

प्रजापतिरुवाच
त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव यातीव सुन्दरी ॥ १८ ॥
दग्धुं न शक्तः प्रकृतीर्हुताशश्च त्वया विना ।
त्वन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्नरः ॥ १९ ॥
सुरेभ्यस्तत्प्राप्नुवन्ति सुराः सानन्दपूर्वकम् ।
अग्नेः सम्पत्स्वरूपा च श्रीरूपा सा गृहेश्वरी ॥ २० ॥
देवानां पूजिता शश्वन्नरादीनां भवाम्बिके ।
प्रजापति बोले-[हे देवि !] आप अग्निकी परम सुन्दर दाहिकाशक्ति हो जाइये; क्योंकि आपके बिना अग्निदेव आहुतियोंको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हैं । जो मनुष्य मन्त्रके अन्तमें आपके नामका उच्चारण करके देवताओंको हवि प्रदान करेगा, उसे देवगण प्रेमपूर्वक ग्रहण करेंगे । हे अम्बिके ! आप अग्निदेवकी सम्पत्स्वरूपिणी तथा श्रीरूपिणी गृहस्वामिनी बन जाइये, देवता तथा मनुष्य आदिके लिये आप नित्य पूजनीय होवें ॥ १८-२०.५ ॥

ब्रह्मणश्च वचः श्रुत्वा सा विषण्णा बभूव ह ॥ २१ ॥
तमुवाच ततो देवी स्वाभिप्रायं स्वयम्भुवम् ।
ब्रह्माजीकी बात सुनकर वे भगवती स्वाहा उदास हो गयीं । उसके बाद उन्होंने ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय व्यक्त कर दिया ॥ २१.५ ॥

स्वाहोवाच
अहं कृष्णं भजिष्यामि तपसा सुचिरेण च ॥ २२ ॥
ब्रह्मंस्तदन्यं यत्किञ्चित्स्वप्नवद्‌ भ्रममेव च ।
स्वाहा बोलीं-हे ब्रह्मन् ! मैं दीर्घकालतक तपस्या करके भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करूंगी; क्योंकि उनके अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह सब स्वप्नकी भाँति केवल भ्रम है ॥ २२.५ ॥

विधाता जगतस्त्वं च शम्भुर्मृत्युञ्जयो विभुः ॥ २३ ॥
बिभर्ति शेषो विश्वं च धर्मः साक्षी च धर्मिणाम् ।
सर्वाद्यपूज्यो देवानां गणेषु च गणेश्वरः ॥ २४ ॥
प्रकृतिः सर्वसम्पूज्या यत्प्रसादात्पुराभवत् ।
ऋषयो मुनयश्चैव पूजिता यन्निषेवया ॥ २५ ॥
तत्पादपद्मं नियतं भावेन चिन्तयाम्यहम् ।
जिनके अनुग्रहसे आप जगत्का विधान करते हैं, भगवान् शिवने मृत्युपर विजय प्राप्त की है, शेषनाग सम्पूर्ण विश्वको धारण करते हैं, धर्मराज सभी धर्मनिष्ठ प्राणियोंके साक्षी बने हैं, गणेश्वर सभी देवगणोंमें सबसे पहले पूजे जाते हैं, पूर्वकालमें भगवती मूलप्रकृति सबके द्वारा पूजित हुई और जिनकी उपासनाके प्रभावसे ऋषि तथा मुनिगण पूजित हुए हैं, मैं उन परमेश्वर श्रीकृष्णके चरणकमलका संयत होकर प्रेमपूर्वक निरन्तर ध्यान करती हूँ ॥ २३-२५.५ ॥

पद्मास्या पाद्यमित्युक्त्वा पद्मनाभानुसारतः ॥ २६ ॥
जगाम तपसे देवी ध्यात्वा कृष्णं निरामयम् ।
तपस्तेपे वर्षलक्षमेकपादेन पद्मजा ॥ २७ ॥
तदा ददर्श श्रीकृष्णं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
अतीव कमनीयं च रूपं दृष्ट्वा च रूपिणी ॥ २८ ॥
मूर्च्छां सम्प्राप कालेन कामेशस्य च कामुकी ।
ब्रह्माजीसे ऐसा कहकर कमलके समान मुखवाली स्वाहादेवी भगवान् विष्णुकी आज्ञाके अनुसार तपस्या करनेके लिये चली गयीं और उन पद्मजा स्वाहाने निर्विकार श्रीकृष्णका ध्यान करके एक पैरपर खड़े होकर एक लाख वर्षतक तप किया । तत्पश्चात् उन्हें अप्राकृत निर्गुण भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन हुए । भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त मनोहर रूप देखकर ही वे रूपवती भगवती स्वाहा मूञ्छित हो गयीं; क्योंकि उन कामुकी देवीने दीर्घकालके अनन्तर उन कामेश्वर श्रीकृष्णको देखा था ॥ २६-२८.५ ॥

विज्ञाय तदभिप्रायं सर्वज्ञस्तामुवाच ह ॥ २९ ॥
समुत्थाप्य च तां क्रोडे क्षीणाङ्‌गीं तपसा चिरम् ।
भगवती स्वाहाका अभिप्राय समझकर सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दीर्घकालतक तपस्याके कारण अत्यन्त क्षीण देहवाली उन देवीको गोदमें बैठाकर उनसे कहने लगे ॥ २९.५ ॥

श्रीभगवानुवाच
वाराहे वै त्वमंशेन मम पत्‍नी भविष्यसि ॥ ३० ॥
नाम्ना नाग्नजिती कन्या कान्ते नग्नजितस्य च ।
अधुनाग्नेर्दाहिका त्वं भव पत्‍नी च भामिनी ॥ ३१ ॥
मन्त्राङ्‌गरूपा पूज्या च मत्प्रसादाद्‌ भविष्यसि ।
वह्निस्त्वां भक्तिभावेन सम्पूज्य च गृहेश्वरीम् ॥ ३२ ॥
रमिष्यति त्वया सार्धं रामया रमणीयया ।
श्रीभगवान् बोले-हे कान्ते ! तुम अंशरूपसे वाराहकल्पमें मेरी भार्या बनोगी, उस समय तुम नग्नजित्की पुत्रीके रूपमें उत्पन्न होकर नाग्नजिती नामसे विख्यात होओगी । इस समय तुम दाहिकाशक्तिके रूपमें अग्निदेवकी मनोहर पत्नी बनो । मेरे अनुग्रहसे तुम मन्त्रोंकी अंगस्वरूपिणी बनकर सबसे पूजित होओगी । अग्निदेव तुम्हें गृहस्वामिनी बनाकर भक्तिभावके साथ तुम्हारी पूजा करेंगे और वे परम रमणीया भाकि रूपमें तुम्हारे साथ रमण करेंगे ॥ ३०-३२.५ ॥

इत्युक्त्वान्तर्दधे देवो देवीं सम्भाष्य नारद ॥ ३३ ॥
तत्राजगाम सन्त्रस्तो वह्निर्ब्रह्मनिदेशतः ।
सामवेदोक्तध्यानेन ध्यात्वा तां जगदम्बिकाम् ॥ ३४ ॥
सम्पूज्य परितुष्टाव पाणिं जग्राह मन्त्रतः ।
हे नारद ! देवी स्वाहासे ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये । इसके बाद ब्रह्माज्ञासे अत्यन्त भयभीत अग्निदेव वहाँ आये । उन्होंने सामवेदमें कही गयी ध्यानविधिसे उन भगवती जगदम्बिकाका ध्यान करके तथा विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें परम प्रसन्न किया तथा मन्त्रोच्चारपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ॥ ३३-३४.५ ॥

तदा दिव्यं वर्षशतं स रेमे रामया सह ॥ ३५ ॥
अतीव निर्जने देशे सम्भोगसुखदे सदा ।
बभूव गर्भस्तस्यां च हुताशस्य च तेजसा ॥ ३६ ॥
तं दधार च सा देवी दिव्यं द्वादशवत्सरम् ।
ततः सुषाव पुत्रांश्च रमणीयान्मनोहरान् ॥ ३७ ॥
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च ।
तत्पश्चात् वे विहारके लिये सुखप्रद तथा अत्यन्त निर्जन स्थानमें भगवती स्वाहाके साथ दिव्य एक सौ वर्षोंतक रमण करते रहे और अग्निके तेजसे उन्होंने गर्भधारण कर लिया । देवी स्वाहा उस गर्भको दिव्य बारह वर्षोंतक धारण किये रहीं । तत्पश्चात् उन भगवती स्वाहाने क्रमसे दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि तथा आहवनीयाग्नि-इन सुन्दर तथा मनोहर पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ ३५-३७.५ ॥

ऋषयो मुनयश्चैव ब्राह्मणाः क्षत्रियादयः ॥ ३८ ॥
स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे ।
स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् ॥ ३९ ॥
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य मन्त्रग्रहणमात्रतः ।
तभीसे ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मन्त्रके अन्तमें स्वाहा शब्द जोडकर मन्त्रोच्चारण करके अग्निमें हवन करने लगे । जो मनुष्य स्वाहायुक्त प्रशस्त मन्त्रका उच्चारण करता है; मन्त्रके उच्चारणमात्रसे उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥ ३८-३९.५ ॥

विषहीनो यथा सर्पो वेदहीनो यथा द्विजः ॥ ४० ॥
पतिसेवाविहीना स्त्री विद्याहीनो यथा पुमान् ।
फलशाखाविहीनश्च यथा वृक्षो हि निन्दितः ॥ ४१ ॥
स्वाहाहीनस्तथा मन्त्रो न हुतः फलदायकः ।
जिस प्रकार विषरहित सर्प, वेदविहीन ब्राह्मण, पतिसेवाविहीन स्त्री, विद्यासे शून्य मनुष्य और फल तथा शाखासे रहित वृक्ष निन्दनीय होता है, उसी प्रकार स्वाहारहित मन्त्र निन्द्य होता है । ऐसे मन्त्रसे किया गया हवन फलप्रद नहीं होता ॥ ४०-४१.५ ॥

परितुष्टा द्विजाः सर्वे देवाः सम्प्रापुराहुतीः ॥ ४२ ॥
स्वाहान्तेनैव मन्त्रेण सफलं सर्वमेव च ।
इत्येवं कथितं सर्वं स्वाहोपाख्यानमुत्तमम् ॥ ४३ ॥
सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
तब समस्त ब्राह्मण सन्तुष्ट हो गये और देवताओंको आहुतियाँ मिलने लगी । अन्तमें स्वाहायुक्त मन्त्रसे सब कुछ सफल हो जाता है । [हे मुने !] इस प्रकार मैंने भगवती स्वाहासे सम्बन्धित सम्पूर्ण उत्तम आख्यानका वर्णन कर दिया । यह आख्यान सुखदायक, सारभूत तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४२-४३.५ ॥

नारद उवाच
स्वाहापूजाविधानं च ध्यानं स्तोत्रं मुनीश्वर ॥ ४४ ॥
सम्पूज्य वह्निस्तुष्टाव येन तद्वद मे प्रभो ।
नारदजी बोले-हे मुनीश्वर ! हे प्रभो ! अग्निने जिस पूजा-विधान, ध्यान तथा स्तोत्रद्वारा स्वाहाको प्रसन्न किया था, उसे आप मुझे बताइये ॥ ४४.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
ध्यानं च सामवेदोक्तं स्तोत्रपूजाविधानकम् ॥ ४५ ॥
वदामि श्रूयतां ब्रह्मन् सावधानो मुनीश्वर ।
श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! हे मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं भगवतीके सामवेदोक्त ध्यान, स्तोत्र तथा पूजा-विधानको बता रहा हूँ, आप सावधान होकर सुनिये ॥ ४५.५ ॥

सर्वयज्ञारम्भकाले शालग्रामे घटेऽथवा ॥ ४६ ॥
स्वाहां सम्पूज्य यत्‍नेन यज्ञं कुर्यात्कलाप्तये ।
फलप्राप्तिके निमित्त सम्पूर्ण यज्ञोंके आरम्भिक कालमें शालग्राम अथवा कलशपर यत्नपूर्वक भगवती स्वाहाका विधिवत् पूजन करके यज्ञ करना चाहिये ॥ ४६.५ ॥

स्वाहां मन्त्राङ्‌गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम् ॥ ४७ ॥
सिद्धां च सिद्धिदां नॄणां कर्मणां फलदां शुभाम् ।
इति ध्यात्वा च मूलेन दत्त्वा पाद्यादिकं नरः ॥ ४८ ॥
सर्वसिद्धिं लभेत्स्तुत्वा मूलमन्त्रं मुने शृणु ।
ॐ ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहेत्यनेन च ॥ ४९ ॥
यः पूजयेच्च तां भक्त्या सर्वेष्टं सम्भवेद्‌ ध्रुवम् ।
भगवती स्वाहा वेदांगमय मन्त्रोंसे सम्पन्न, मन्त्रसिद्धिस्वरूपा, सिद्धस्वरूपिणी, मनुष्योंको सिद्धि तथा उनके कर्मोके फल प्रदान करनेवाली तथा कल्याणमयी हैं-इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्रसे पाद्य आदि अर्पण करके भगवतीका स्तवन करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेता है । हे मुने ! अब मूलमन्त्र सुनिये'ॐ ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहा'-इस मन्त्रसे जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक उन भगवती स्वाहाकी पूजा करता है, उसका समस्त अभीष्ट निश्चितरूपसे पूर्ण हो जाता है । ४७-४९.५ ॥

वह्निरुवाच
स्वाहा वह्निप्रिया वह्निजाया सन्तोषकारिणी ॥ ५० ॥
शक्तिः क्रिया कालदात्री परिपाककरी ध्रुवा ।
गतिः सदा नराणां च दाहिका दहनक्षमा ॥ ५१ ॥
संसारसाररूपा च घोरसंसारतारिणी ।
देवजीवनरूपा च देवपोषणकारिणी ॥ ५२ ॥
षोडशैतानि नामानि यः पठेद्‍भक्तिसंयुतः ।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य इह लोके परत्र च ॥ ५३ ॥
नाङ्‌गहीनं भवेत्तस्य सर्वं कर्म सुशोभनम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं भार्याहीनो लभेत्प्रियाम् ॥ ५४ ॥
रम्भोपमां स्वकान्तां च सम्प्राप्य सुखमाप्नुयात् ॥ ५५ ॥
वद्धि बोले-स्वाहा. वहिप्रिया, वहिजाया, सन्तोषकारिणी, शक्ति, क्रिया, कालदात्री, परिपाककरी, ध्रुवा, मनुष्योंकी गति, दाहिका, दहनक्षमा, संसारसाररूपा, घोरसंसारतारिणी, देवजीवनरूपा और देवपोषणकारिणी ये सोलह नाम भगवती स्वाहाके हैं । जो मनुष्य इनका भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इस लोक तथा परलोकमें सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है । उसका कोई कर्म अपूर्ण नहीं रहता, समस्त कर्म उत्तम फलदायी होते हैं, पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान् हो जाता है तथा भार्याहीन व्यक्ति पत्नीको प्राप्त कर लेता है और रम्भातुल्य अपनी उस भार्याको प्राप्त करके वह सुख भोगता है । ५०-५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
स्वाहोपाख्यानवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे स्वाहोपाख्यानवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥


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