नारदजी बोले-हे प्रभो ! मैंने भगवान श्रीहरिका कल्याणप्रद गुणानुवाद, उनका उत्तम ज्ञान तथा भगवती लक्ष्मीका अभीष्ट उपाख्यान सुना । अब उन देवीके ध्यान तथा स्तोत्रके विषयमें बताइये ॥ १ ॥
श्रीनारायण उवाच स्नात्वा तीर्थे पुरा शक्रो धृत्वा धौते च वाससी । घटं संस्थाप्य क्षीरोदे षड्देवान् पर्यपूजयत् ॥ २ ॥ गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् । एतान् भक्त्या समभ्यर्च्य पुष्पगन्धादिभिस्तदा ॥ ३ ॥ आवाह्य च महालक्ष्मीं परमैश्वर्यरूपिणीम् । पूजाञ्चकार देवेशो ब्रह्मणा च पुरोधसा ॥ ४ ॥ पुरःस्थितेषु मुनिषु ब्राह्मणेषु गुरौ हरौ । देवादिषु सुदेशे च ज्ञानानन्दं शिवे मुने ॥ ५ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] प्राचीन कालकी बात है । इन्द्रने क्षीरसमुद्रके तटपर तीर्थस्नान करके दो स्वच्छ वस्त्र धारण करनेके बाद कलशकी स्थापना करके श्रीगणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती-इन छ: देवताओंकी विधिवत् पूजा की । गन्ध, पुष्प आदिसे भक्तिपूर्वक इन देवोंकी पूजा करके देवेश्वर इन्द्रने ब्रह्माजी तथा अपने पुरोहित गुरु बृहस्पतिके द्वारा निर्दिष्ट विधानके अनुसार परम ऐश्वर्यमयी भगवती महालक्ष्मीका आवाहन करके उनकी पूजा की । हे मुने । उस समय उस पावन स्थलपर अनेक मुनि, ब्राह्मणसमुदाय, गुरु बृहस्पति, श्रीहरि, देवगण तथा ज्ञानानन्द भगवान् शिव आदि विराजमान थे ॥ २-५ ॥
पारिजातस्य पुष्पं च गृहीत्वा चन्दनोक्षितम् । ध्यात्वा देवीं महालक्ष्मीं पूजयामास नारद ॥ ६ ॥ ध्यानं च सामवेदोक्तं यद्दत्तं ब्रह्मणे पुरा । हरिणा तेन ध्यानेन तन्निबोध वदामि ते ॥ ७ ॥
हे नारद ! इन्द्रने पारिजातका चन्दन-चर्चित पुष्प लेकर पूर्वकालमें भगवान् श्रीहरिने ब्रह्माजीको सामवेदमें वर्णित जो ध्यान बतलाया था, उसी ध्यानके द्वारा भगवती महालक्ष्मीका ध्यान करके उनका पूजन किया, मैं वही ध्यान तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ६-७ ॥
सहस्रदलपद्मस्थकर्णिकावासिनीं पराम् । शरत्पार्वणकोटीन्दुप्रभामुष्टिकरांपराम् ॥ ८ ॥ स्वतेजसा प्रज्वलन्तीं सुखदृश्यां मनोहराम् । प्रतप्तकाञ्चननिभशोभां मूर्तिमतीं सतीम् ॥ ९ ॥ रत्नभूषणभूषाढ्यां शोभितां पीतवाससा । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ १० ॥ सर्वसम्पत्प्रदात्रीं च महालक्ष्मीं भजे शुभाम् ।
'ये पराम्बा महालक्ष्मी सहस्रदलवाले कमलपर स्थित कर्णिकाके ऊपर विराजमान हैं, वे श्रेष्ठ भगवती शरत्पूर्णिमाके करोड़ों चन्द्रमाओंकी कान्तिका हरण करनेवाली हैं, अपने ही तेजसे देदीप्यमान हैं, इन मनोहर देवीका दर्शन अत्यन्त सुखप्रद है, ये साध्वी महालक्ष्मी मूर्तिमान् होकर तपाये हुए सुवर्णके समान शोभित हो रही हैं, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत तथा पीताम्बरसे सुशोभित हो रही हैं, इनके प्रसन्न मुखमण्डलपर मन्द-मन्द मुसकान विराज रही है, ये सर्वदा स्थिर रहनेवाले यौवनसे सम्पन्न हैंऐसी कल्याणमयी तथा सर्वसम्पत्तिदायिनी महालक्ष्मीकी मैं उपासना करता हूँ' ॥ ८-१०.५ ॥
ध्यानेनानेन तां ध्यात्वा नानागुणसमन्विताम् ॥ ११ ॥ सम्पूज्य ब्रह्मवाक्येन चोपचाराणि षोडश । ददौ भक्त्या विधानेन प्रत्येकं मन्त्रपूर्वकम् ॥ १२ ॥ प्रशस्तानि प्रकृष्टानि वराणि विविधानि च ।
हे नारद ! इस प्रकार ध्यान करके इन्द्रने ब्रह्माजीके कथनानुसार सोलह पूजनोपचारोंसे अनेक गुणोंवाली उन भगवती महालक्ष्मीकी पूजा की, उन्होंने भक्तिके साथ मन्त्रपूर्वक विधानके अनुसार प्रत्येक उपचार अर्पित किया । इन्द्रने विविध प्रकारके प्रशस्त, उत्कृष्ट तथा श्रेष्ठ उपचार इस प्रकार समर्पित किये ॥ ११-१२.५ ॥
अमूल्यरत्नसारं च निर्मितं विश्वकर्मणा ॥ १३ ॥ आसनं च विचित्रं च महालक्ष्मि प्रगृह्यताम् ।
हे महालक्ष्मि ! विश्वकर्माके द्वारा निर्मित अमूल्य रत्नसारस्वरूप इस विचित्र आसनको ग्रहण कीजिये ॥ १३.५ ॥
शुद्धं गङ्गोदकमिदं सर्ववन्दितमीप्सितम् ॥ १४ ॥ पापेध्मवह्निरूपं च गृह्यतां कमलालये ।
हे कमलालये ! पापरूपी ईंधनको जलानेके लिये वहिस्वरूप, सबके द्वारा वन्दित तथा अभिलषित और परम पवित्र इस गंगाजलको [पाद्यके रूपमें] स्वीकार कीजिये ॥ १४.५ ॥
पुष्पचन्दनदूर्वादिसंयुतं जाह्नवीजलम् ॥ १५ ॥ शङ्खगर्भस्थितं स्वर्घ्यं गृह्यतां पद्मवासिनि ।
हे पद्मवासिनि ! पुष्प, चन्दन, दुर्वा आदिसे युक्त इस शंखमें स्थित गंगाजलको सुन्दर अय॑के रूपमें ग्रहण कीजिये ॥ १५.५ ॥
सुगन्धिपुष्पतैलं च सुगन्धामलकीफलम् ॥ १६ ॥ देहसौन्दर्यबीजं च गृह्यतां श्रीहरेः प्रिये । कार्पासजं च कृमिजं वसनं देवि गृह्यताम् ॥ १७ ॥
हे श्रीहरिप्रिये ! सुगन्धित पुष्पोंसे सुवासित तैल तथा सुगन्धपूर्ण आमलकीचूर्ण-इन देहसौन्दर्यक बीजरूप स्नानीय उपचारोंको आप ग्रहण कीजिये । हे देवि ! कपास तथा रेशमसे निर्मित इस वस्त्रको आप स्वीकार कीजिये ॥ १६-१७ ॥
रत्नस्वर्णविकारं च देहभूषाविवर्धनम् । शोभायै श्रीकरं रत्नं भूषणं देवि गृह्यताम् ॥ १८ ॥ सर्वसौन्दर्यबीजं च सद्यः शोभाकरं परम् । वृक्षनिर्यासरूपं च गन्धद्रव्यादिसंयुतम् ॥ १९ ॥ श्रीकृष्णकान्ते धूपं च पवित्रं प्रतिगृह्यताम् । सुगन्धियुक्तं सुखदं चन्दनं देवि गृह्यताम् ॥ २० ॥
हे देवि ! स्वर्ण तथा रत्नोंसे निर्मित, देहसौन्दर्यकी वृद्धि करनेवाले, ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सम्पूर्ण सुन्दरताके कारणस्वरूप तथा शीघ्र ही शोभा प्रदान करनेवाले इस श्रेष्ठ रत्नमय आभूषणको अपनी शोभाके लिये आप ग्रहण कीजिये । हे श्रीकृष्णकान्ते ! वृक्षसे रसके रूपमें निकले हुए तथा सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त यह पवित्र धूप आप ग्रहण करें । हे देवि ! सुगन्धसे परिपूर्ण तथा सुखप्रद इस चन्दनको आप स्वीकार कीजिये ॥ १८-२० ॥
जगच्चक्षुःस्वरूपं च पवित्रं तिमिरापहम् । प्रदीपं सुखरूपं च गृह्यतां च सुरेश्वरि ॥ २१ ॥
हे सुरेश्वरि ! जगत्के लिये चक्षुस्वरूप, अन्धकार दूर करनेवाले, सुखरूप तथा परम पवित्र इस दीपकको आप स्वीकार कीजिये ॥ २१ ॥
नानोपहाररूपं च नानारससमन्वितम् । अतिस्वादुकरं चैव नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ २२ ॥ अन्नं ब्रह्मस्वरूपं च प्राणरक्षणकारणम् । तुष्टिदं पुष्टिदं चैव देव्यन्नं प्रतिगृह्यताम् ॥ २३ ॥
नाना प्रकारके उपहारस्वरूप अनेकविध रसोंसे युक्त तथा अत्यन्त स्वादिष्ट इस नैवेद्यको आप स्वीकार कीजिये । अन्न ब्रह्मस्वरूप होता है, यह प्राणरक्षाका परम कारण है, तुष्टि तथा पुष्टि प्रदान करता है, अतः हे देवि ! आप इस अन्नको ग्रहण कीजिये ॥ २२-२३ ॥
शाल्यन्नजं सुपक्वं च शर्करागव्यसंयुतम् । स्वादुयुक्तं महालक्ष्मि परमान्नं प्रगृह्यताम् ॥ २४ ॥ शर्करागव्यपक्वं च सुस्वादु सुमनोहरम् । स्वस्तिकं नाम नैवेद्यं गृहाण परमेश्वरि ॥ २५ ॥
हे महालक्ष्मि ! शर्करा और गोघृत मिलाकर अगहनी चावलसे तैयार किये गये इस स्वादिष्ट पक्वान्नको परमान्नके रूपमें आप स्वीकार करें । हे परमेश्वरि ! शर्करा और घृतमें पकाया गया यह स्वादिष्ट तथा अत्यन्त मनोहर स्वस्तिक नामक नैवेद्य आप ग्रहण करें ॥ २४-२५ ॥
नानाविधानि रम्याणि पक्वान्नानि फलानि च । सुरभिस्तनसंत्यक्तं सुस्वादु सुमनोहरम् ॥ २६ ॥ मर्त्यामृतं सुगव्यं च गृह्यतामच्युतप्रिये । सुस्वादु रससंयुक्तमिक्षुवृक्षसमुद्भवम् ॥ २७ ॥ अग्निपक्वमतिस्वादु गुडं च प्रतिगृह्यताम् । यवगोधूमसस्यानां चूर्णरेणुसमुद्भवम् ॥ २८ ॥ सुपक्वं गुडगव्याक्तं मिष्टान्नं देवि गृह्यताम् । सस्यचूर्णोद्भवं पक्वं स्वस्तिकादिसमन्वितम् ॥ २९ ॥ मया निवेदितं भक्त्या नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ।
हे अच्युतप्रिये ! ये अनेक प्रकारके सुन्दर पक्वान्न तथा फल और सुरभीधेनुके स्तनसे दुहे गये मृत्युलोकके लिये अमृतस्वरूप, अत्यन्त मनोहर तथा सुस्वादु दुग्धको आप स्वीकार कीजिये । ईखसे निकाले गये अत्यन्त स्वादिष्ट रसको अग्निपर पकाकर निर्मित किये गये इस परम स्वादिष्ट गुडको आप स्वीकार कीजिये । हे देवि ! जौ, गेहूँ आदिके चूर्णमें गुड़ तथा गायका घृत मिलाकर भलीभाँति पकाये गये इस मिष्टान्नको आप ग्रहण कीजिये । मैंने धान्यके चूर्णसे बनाये गये तथा स्वस्तिक आदिसे युक्त यह पका हुआ नैवेद्य आपको भक्तिपूर्वक अर्पण किया है, इसे स्वीकार करें ॥ २६-२९.५ ॥
शीतवायुप्रदं चैव दाहे च सुखदं परम् ॥ ३० ॥ कमले गृह्यतां चेदं व्यजनं श्वेतचामरम् ।
हे कमले ! शीतल वायु प्रदान करनेवाला और उष्णकालमें परम सुखदायक यह पंखा तथा स्वच्छ चंवर ग्रहण कीजिये ॥ ३०.५ ॥
ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् ॥ ३१ ॥ जिह्वाजाड्यच्छेदकरं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ।
कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थोसे सुवासित तथा जिह्वाकी जड़ताको दूर करनेवाले इस उत्तम ताम्बूलको आप स्वीकार करें ॥ ३१.५ ॥
सुवासितं सुशीतं च पिपासानाशकारणम् ॥ ३२ ॥ जगज्जीवनरूपं च जीवनं देवि गृह्यताम् ।
हे देवि ! प्यास बुझानेवाले, अत्यन्त शीतल, सुवासित तथा जगत्के लिये जीवनस्वरूप इस जलको स्वीकार कीजिये ॥ ३२.५ ॥
देहसौन्दर्यबीजं च सदा शोभाविवर्धनम् ॥ ३३ ॥ कार्पासजं च कृमिजं वसनं देवि गृह्यताम् ।
हे देवि ! देहसौन्दर्यके मूल कारण तथा सदा शोभा बढ़ानेवाले इस सूती तथा रेशमी वस्त्रको आप ग्रहण करें ॥ ३३.५ ॥
रक्तस्वर्णविकारं च देहभूषादिवर्धनम् ॥ ३४ ॥ शोभाधारं श्रीकरं च भूषणं देवि गृह्यताम् ।
हे देवि ! रक्तस्वर्णनिर्मित, शरीरकी शोभा आदिको वृद्धि करनेवाला, सौन्दर्यका आधार तथा कान्तिवर्धक यह आभूषण ग्रहण कीजिये ॥ ३४.५ ॥
हे देवि ! विविध ऋतुओंके पुष्पोंसे गूंथी गयी, अत्यधिक शोभाके आश्रयस्वरूप तथा देवराज इन्द्रके लिये भी परम प्रिय इस श्रेष्ठ तथा पवित्र मालाको आप स्वीकार करें ॥ ३५.५ ॥
हे देवि ! अमूल्य रत्नोंसे निर्मित, पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित और वस्त्र-आभूषण तथा शृंगारसामग्रीसे सम्पन्न इस दिव्य शय्याको आप स्वीकार करें । हे देवि ! इस पृथ्वीपर जो भी अपूर्व तथा दुर्लभ द्रव्य शरीरकी शोभावृद्धिके योग्य हैं, उन समस्त द्रव्योंको आपको अर्पण कर रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिये ॥ ३८-३९.५ ॥
द्रव्याण्येतानि दत्त्वा च मूलेन देवपुङ्गवः ॥ ४० ॥ मूलं जजाप भक्त्या च दशलक्षं विधानतः । जपेन दशलक्षेण मन्त्रसिद्धिर्बभूव ह ॥ ४१ ॥
[हे मुने !] मूलमन्त्र पढ़ते हुए ये उपचार भगवतीको समर्पित करके देवराज इन्द्रने विधानके अनुसार भक्तिपूर्वक उनके मूल मन्त्रका दस लाख जप किया । उस दस लाख जपसे इन्द्रको मन्त्रकी सिद्धि हो गयी ॥ ४०-४१ ॥
सभीके लिये कल्पवृक्षके समान यह मूलमन्त्र उन्हें ब्रह्माजीके द्वारा प्रदान किया गया था । पूर्वमें लक्ष्मीबीज (श्री), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्ली) और वाणीबीज (एँ)-का प्रयोग करके कमलवासिनी इस शब्दके अन्तमें 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर पुनः 'स्वाहा' शब्द जोड़ देनेपर 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐंकमलवासिन्यै स्वाहा'-यही मन्त्र वैदिक मन्त्रराजके रूपमें प्रसिद्ध है । कुबेरने इसी मन्त्रके द्वारा परम ऐश्वर्य प्राप्त किया था और दक्षसावर्णि नामक मनुने राजराजेश्वरका पद प्राप्त कर लिया था । मंगल इसी मन्त्रके प्रभावसे सात द्वीपोंके राजा हुए थे । हे नारद ! प्रियव्रत, उत्तानपाद और केदार-ये सभी इसी मन्त्रके प्रभावसे परम सिद्ध राजाधिराज बने ॥ ४२-४५ ॥
इस मन्त्रके सिद्ध हो जानेपर भगवती महालक्ष्मीने इन्द्रको दर्शन दिया । उस समय वे वरदायिनी भगवती सर्वोत्तम रत्नसे निर्मित विमानपर विराजमान थीं, उन्होंने अपने तेजसे सात द्वीपोंवाली सम्पूर्ण पृथ्वीको व्याप्त कर रखा था, उनका श्रीविग्रह श्वेत चम्पाके पुष्पकी आभाके समान था, वे रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित थीं, उनका मुखमण्डल मन्द-मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये परम आतुर थीं, उन्होंने रलमयी माला धारण कर रखी थी और वे करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिसे युक्त थीं । उन शान्त स्वभाववाली जगज्जननी भगवती महालक्ष्मीको देखकर इन्द्रके सभी अंग पुलकित हो उठे और वे दोनों हाथ जोड़कर अश्रुपूरित नेत्रोंसे ब्रह्माजीसे प्राप्त तथा सम्पूर्ण अभीष्ट प्रदान करनेवाले इस वैदिक स्तोत्रराजके द्वारा उन महालक्ष्मीकी स्तुति करने लगे ॥ ४६-५० ॥
सर्वसम्पत्स्वरूपा तथा सबकी आराध्या देवीको बार-बार नमस्कार है । भगवान् श्रीहरिकी भक्ति प्रदान करनेवाली तथा हर्षदायिनी भगवती लक्ष्मीको बार-बार नमस्कार है ॥ ५३ ॥
कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः । चन्द्रशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने ॥ ५४ ॥
हे रत्नपो ! हे शोभने ! श्रीकृष्णके वक्षःस्थलपर सुशोभित होनेवाली तथा चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेवाली आप कृष्णेश्वरीको बार-बार नमस्कार है ॥ ५४ ॥
सम्पत्तिकी अधिष्ठात्री देवीको नमस्कार है । महादेवीको नमस्कार है । वृद्धिस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मीको नमस्कार है । वृद्धि प्रदान करनेवाली महालक्ष्मीको बार-बार नमस्कार है ॥ ५५ ॥
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मीः क्षीरसागरे । स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥ ५६ ॥ गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता । सुरभिः सागरे जाता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥ ५७ ॥
हे भगवति ! आप वैकुण्ठमें महालक्ष्मी, क्षीरसागरमें लक्ष्मी, इन्द्रके भवनमें स्वर्गलक्ष्मी, राजाओंके भवनमें राजलक्ष्मी, गृहस्थोंके घरमें गृहलक्ष्मी और गृहदेवता, सागरके यहाँ सुरभि तथा यज्ञके पास दक्षिणाके रूपमें विराजमान रहती हैं । ५६-५७ ॥
आप अदिति, देवमाता, कमला तथा कमलालया नामसे प्रसिद्ध हैं और हवि प्रदान करते समय स्वाहा तथा कव्य प्रदान करते समय स्वधा नामसे कही गयी हैं । ५८ ॥
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा । शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥ ५९ ॥ क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा शारदा शुभा । परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥ ६० ॥
सम्पूर्ण जगत्को धारण करनेवाली विष्णुस्वरूपिणी पृथ्वी आप ही हैं । आप भगवान् नारायणकी आराधनामें सदा तत्पर रहनेवाली तथा विशुद्ध सत्त्वसम्पन्न हैं । आप क्रोध तथा हिंसासे रहित, वर प्रदान करनेवाली, बुद्धि प्रदान करनेवाली, मंगलमयी, श्रेष्ठ, परमार्थ तथा भगवान्का दास्य प्रदान करनेवाली हैं ॥ ५९-६० ॥
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम् । जीवन्मृतं च विश्वं च शश्वत्सर्वं यया विना ॥ ६१ ॥
आपके बिना सम्पूर्ण जगत् भस्मीभूत तथा सारहीन है । आपके बिना यह समग्र विश्व सर्वथा जीते-जी मरे हुएके समान है ॥ ६१ ॥
सर्वेषां च परा माता सर्वबान्धवरूपिणी । धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥ ६२ ॥
आप समस्त प्राणियोंकी श्रेष्ठ माता, सबकी बान्धवस्वरूपिणी और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष (पुरुषार्थचतुष्टय)-की मूल कारण हैं ॥ ६२ ॥
यथा माता स्तनान्धानां शिशूनां शैशवे सदा । तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः ॥ ६३ ॥
जिस प्रकार माता शैशवावस्थामें स्तनपायी शिशुओंकी सदा रक्षा करती है, उसी प्रकार आप सभी प्राणियोंकी माताके रूपमें सब प्रकारसे उनकी रक्षा करती हैं ॥ ६३ ॥
मातृहीनः स्तनान्धस्तु स च जीवति दैवतः । त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥ ६४ ॥
स्तनपायी शिशु माताके न रहनेपर भी दैवयोगसे जी भी सकता है, किंतु आपसे रहित होकर कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता-यह निश्चित है । हे अम्बिके ! आप अत्यन्त प्रसन्नतापूर्ण स्वरूपवाली हैं, अत: मुझपर प्रसन्न हों ॥ ६४ ॥
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके । वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥ ६५ ॥ अहं यावत्त्वया हीनो बन्धुहीनश्च भिक्षुकः । सर्वसम्पद्विहीनश्च तावदेव हरिप्रिये ॥ ६६ ॥ ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् । प्रभावञ्च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च ॥ ६७ ॥ जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ।
हे सनातनि ! शत्रुओंके द्वारा अधिकृत किया गया मेरा राज्य मुझे पुनः प्राप्त कराइये । हे हरिप्रिये ! मैं जबतक आपके दर्शनसे वंचित था; तभीतक बन्धुहीन, भिक्षुक और सम्पूर्ण सम्पदाओंसे विहीन था । अब आप मुझे ज्ञान, धर्म, पूर्ण सौभाग्य, सम्पूर्ण अभीष्ट, प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, परम ऐश्वर्य, पराक्रम तथा युद्धमें विजय प्रदान कीजिये ॥ ६५-६७.५ ॥
इत्युक्त्वा च महेन्द्रश्च सर्वैः सुरगणैः सह ॥ ६८ ॥ प्रणनाम साश्रुनेत्रो मूर्ध्ना चैव पुनः पुनः । ब्रह्मा च शङ्करश्चैव शेषो धर्मश्च केशवः ॥ ६९ ॥
[हे नारद !] ऐसा कहकर सभी देवताओंके साथ इन्द्रने अश्रुपूरित नेत्रोंसे तथा मस्तक झुकाकर भगवतीको बार-बार प्रणाम किया । ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव-इन सभीने देवताओंके कल्याणहेतु भगवतीसे बार-बार प्रार्थना की ॥ ६८-६९ ॥
सर्वे चक्रुः परीहारं सुरार्थे च पुनः पुनः । देवेभ्यश्च वरं दत्त्वा पुष्पमालां मनोहराम् ॥ ७० ॥ केशवाय ददौ लक्ष्मीः सन्तुष्टा सुरसंसदि । ययुर्देवाश्च सन्तुष्टाः स्वं स्वं स्थानं च नारद ॥ ७१ ॥ देवी ययौ हरेः स्थानं हृष्टा क्षीरोदशायिनः । ययतुश्चैव स्वगृहं ब्रह्मेशानौ च नारद ॥ ७२ ॥ दत्त्वा शुभाशिषं तौ च देवेभ्यः प्रीतिपूर्वकम् ।
तब देवसभामें परम प्रसन्न होकर भगवती महालक्ष्मीने देवताओंको वर प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्णको मनोहर पुष्पमाला समर्पित कर दी । हे नारद ! तदनन्तर सभी देवता प्रसन्न होकर अपनेअपने स्थानको चले गये और प्रसन्नचित्त महालक्ष्मी भी क्षीरसागरमें शयन करनेवाले भगवान् श्रीहरिके लोकको चली गयीं । हे नारद ! देवताओंको आशीर्वाद देकर ब्रह्मा और शिव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोकको चले गये ॥ ७०-७२.५ ॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ॥ ७३ ॥ कुबेरतुल्यः स भवेद्राजराजेश्वरो महान् । पञ्चलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ७४ ॥ सिद्धस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं तु सन्ततम् । महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशयः ॥ ७५ ॥
[हे नारद !] जो मनुष्य तीनों सन्ध्याकालमें इस परम पवित्र स्तोत्रका पाठ करता है, वह कुबेरके समान महान् राजराजेश्वर हो जाता है । पाँच लाख जप करनेपर मनुष्योंके लिये यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है । यदि कोई मनुष्य एक मासतक निरन्तर इस सिद्ध स्तोत्रका पाठ करे, तो वह परम सुखी तथा राजेन्द्र हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७३-७५ ॥