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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

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दक्षिणोपाख्यानवर्णनम् -
भगवती दक्षिणाका उपाख्यान -


श्रीनारायण उवाच
उक्तं स्वाहास्वधाख्यानं प्रशस्तं मधुरं परम् ।
वक्ष्यामि दक्षिणाख्यानं सावधानो निशामय ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया । अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ १ ॥

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः ।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥ २ ॥
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३ ॥
कलावती कोमलाङ्‌गी कान्ता कमललोचना ।
सुश्रोणी सुस्तनी श्यामा न्यग्रोधपरिमण्डिता ॥ ४ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या रत्‍नालङ्‌कारभूषिता ।
श्वेतचम्पकवर्णाभा बिम्बोष्ठी मृगलोचना ॥ ५ ॥
कामशास्त्रेषु निपुणा कामिनी हंसगामिनी ।
भावानुरक्ता भावज्ञा कृष्णस्य प्रियभामिनी ॥ ६ ॥
रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७ ॥
प्राचीनकालमें गोलोकमें भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी । परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी । वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता, साध्वी, विद्या; गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी । वह विविध कलाओंमें निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थलसे सुशोभित होती हुई वटवृक्षोंसे घिरी रहती थी । उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वह रत्नमय अलंकारोंसे सुशोभित थी, उसके शरीरकी कान्ति श्वेत चम्पाके समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफलके समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी । भगवान् श्रीकृष्णकी प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी तथा उनके भावोंसे सदा अनुरक्त रहती थी । रसज्ञानसे परिपूर्ण, रासक्रीडाकी रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंकमें बैठ गयी ॥ २-७ ॥

सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥ ८ ॥
कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥ ९ ॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥ १० ॥
तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओंमें परम श्रेष्ठ राधाकी ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया । उस समय कामिनी राधाका मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमलके समान हो गये । क्रोधसे उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे । तब उन राधाको बड़े वेगसे जाती देखकर उनके विरोधसे अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ ८-१० ॥

पलायन्तं च कान्तं च शान्तं सत्त्वं सुविग्रहम् ।
विलोक्य कम्पिता गोप्यः सुशीलाद्यास्ततो भिया ॥ ११ ॥
विलोक्य लम्पटं तत्र गोपीनां लक्षकोटयः ।
पुटाञ्जलियुता भीता भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ १२ ॥
रक्ष रक्षेत्युक्तवन्त्यो देवीमिति पुनः पुनः ।
ययुर्भयेन शरणं यस्याश्चरणपङ्‌कजे ॥ १३ ॥
त्रिलक्षकोटयो गोपाः सुदामादय एव च ।
ययुर्भयेन शरणं तत्पादाब्जे च नारद ॥ १४ ॥
कान्तिमान्, शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्णको अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं । श्रीकृष्णको अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये-रक्षा कीजिये'ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगी और उन राधाके चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गयीं । हे नारद ! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरणकमलकी शरणमें गये ॥ ११-१४ ॥

पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥ १५ ॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥ १६ ॥
परमेश्वरी राधाने अपने कान्त श्रीकृष्णको अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आंते ही भस्मसात् हो जायगी ॥ १५-१६ ॥

इत्येवमुक्त्वा तत्रैव देवदेवेश्वरी रुषा ।
रासेश्वरी रासमध्ये रासेशमाजुहाव ह ॥ १७ ॥
ऐसा कहकर देवदेवेश्वरी रासेश्वरी राधा रोषपूर्वक रासमण्डलके मध्य रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको पुकारने लगीं ॥ १७ ॥

नालोक्य पुरतः कृष्णं राधा विरहकातरा ।
युगकोटिसमं मेने क्षणभेदेन सुव्रता ॥ १८ ॥
हे कृष्ण प्राणनाथेशागच्छ प्राणाधिकप्रिय ।
प्राणाधिष्ठातृदेवेश प्राणा यान्ति त्वया विना ॥ १९ ॥
श्रीकृष्णको समक्ष न देखकर राधिकाजी विरहसे व्याकुल हो गयीं । उन परम साध्वीको एक-एक क्षण करोड़ों युगोंके समान प्रतीत होने लगा । उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की-हे कृष्ण ! हे प्राणनाथ ! हे ईश ! आ जाइये । हे प्राणोंसे अधिक प्रिय तथा प्राणके अधिष्ठाता देवेश्वर ! आपके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं ॥ १८-१९ ॥

स्त्रीगर्वः पतिसौभाग्याद्वर्धते च दिने दिने ।
सुखं च विपुलं यस्मात्तं सेवेद्धर्मतः सदा ॥ २० ॥
पतिके सौभाग्यसे स्त्रियोंका स्वाभिमान दिनप्रतिदिन बढ़ता रहता है और उन्हें महान् सुख प्राप्त होता है । अतः स्त्रीको सदा धर्मपूर्वक पतिकी सेवा करनी चाहिये ॥ २० ॥

पतिर्बन्धुः कुलस्त्रीणामधिदेवः सदागतिः ।
परसम्पत्स्वरूपश्च मूर्तिमान् भोगदः सदा ॥ २१ ॥
कुलीन स्त्रियोंके लिये पति ही बन्धु, अधिदेवता, आश्रय, परम सम्पत्तिस्वरूप तथा भोग प्रदान करनेवाला साक्षात् विग्रह है ॥ २१ ॥

धर्मदः सुखदः शश्वत्प्रीतिदः शान्तिदः सदा ।
सम्मानैर्दीप्यमानश्च मानदो मानखण्डनः ॥ २२ ॥
सारात्सारतरः स्वामी बन्धूनां बन्धुवर्धनः ।
न च भर्तुः समो बन्धुर्बन्धोर्बन्धुषु दृश्यते ॥ २३ ॥
वही स्त्रीके लिये धर्म, सुख, निरन्तर प्रीति, सदा शान्ति तथा सम्मान प्रदान करनेवाला; आदरसे देदीप्यमान होनेवाला और मानभंग भी करनेवाला है । पति ही स्त्रीके लिये परम सार है और बन्धुओंमें बन्धुभावको बढ़ानेवाला है । समस्त बन्धु-बान्धवोंमें पतिके समान कोई बन्धु दिखायी नहीं देता ॥ २२-२३ ॥

भरणादेव भर्ता च पालनात्पतिरुच्यते ।
शरीरेशाच्च स स्वामी कामदः कान्त उच्यते ॥ २४ ॥
बन्धुश्च सुखवृद्ध्या च प्रीतिदानात्प्रियः स्मृतः ।
ऐश्वर्यदानादीशश्च प्राणेशात्प्राणनायकः ॥ २५ ॥
रतिदानाच्च रमणः प्रियो नास्ति प्रियात्परः ।
पुत्रस्तु स्वामिनः शुक्राज्जायते तेन स प्रियः ॥ २६ ॥
वह स्त्रीका भरण करनेके कारण 'भर्ता', पालन करनेके कारण 'पति', उसके शरीरका शासक होनेके कारण 'स्वामी' तथा उसकी कामनाएँ पूर्ण करनेके कारण 'कान्त' कहा जाता है । वह सुखकी वृद्धि करनेसे 'बन्धु', प्रीति प्रदान करनेसे 'प्रिय', ऐश्वर्य प्रदान करनेसे 'ईश', प्राणका स्वामी होनेसे 'प्राणनायक' और रतिसुख प्रदान करनेसे 'रमण' कहा गया है । स्त्रियोंके लिये पतिसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है । पतिके शुक्रसे पुत्र उत्पन्न होता है, इसलिये वह प्रिय होता है ॥ २४-२६ ॥

शतपुत्रात्परः स्वामी कुलजानां प्रियः सदा ।
असत्कुलप्रसूता या कान्तं विज्ञातुमक्षमा ॥ २७ ॥
उत्तम कुलमें उत्पन्न स्त्रियोंके लिये उनका पति सदा सौ पुत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है । जो असत्कुलमें उत्पन्न स्त्री है, वह पतिके महत्त्वको समझनेमें सर्वथा असमर्थ रहती है ॥ २७ ॥

स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणा ।
प्रादक्षिण्यं पृथिव्याश्च सर्वाणि च तपांसि च ॥ २८ ॥
सर्वाण्येव व्रतादीनि महादानानि यानि च ।
उपोषणानि पुण्यानि यानि यानि श्रुतानि च ॥ २९ ॥
गुरुसेवा विप्रसेवा देवसेवादिकं च यत् ।
स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३० ॥
सभी तीर्थोंमें स्नान, सम्पूर्ण यज्ञोंमें दक्षिणादान, पृथ्वीकी प्रदक्षिणा, सम्पूर्ण तप, सभी प्रकारके व्रत और जो महादान आदि हैं, जो-जो पुण्यप्रद उपवास आदि प्रसिद्ध हैं और गुरुसेवा, विप्रसेवा तथा देवपूजन आदि जो भी शुभ कृत्य हैं, वे सब पतिके चरणकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ २८-३० ॥

गुरुविप्रेन्द्रदेवेषु सर्वेभ्यश्च पतिर्गुरुः ।
विद्यादाता यथा पुंसां कुलजानां तथा प्रियः ॥ ३१ ॥
गुरु, ब्राह्मण और देवता-इन सभीकी अपेक्षा स्त्रीके लिये पति ही श्रेष्ठ है । जिस प्रकार पुरुषोंके लिये विद्याका दान करनेवाला गुरु श्रेष्ठ है; उसी प्रकार कुलीन स्त्रियोंके लिये पति श्रेष्ठ है ॥ ३१ ॥

गोपीनां लक्षकोटीनां गोपानां च तथैव च ।
ब्रह्माण्डानामसंख्यानां तत्रस्थानां तथैव च ॥ ३२ ॥
विश्वादिगोलकान्तानामीश्वरी यत्प्रसादतः ।
अहं न जाने तं कान्तं स्त्रीस्वभावो दुरत्ययः ॥ ३३ ॥
जिनके अनुग्रहसे मैं लाखों-करोड़ गोपियों, गोपों, असंख्य ब्रह्माण्डों, वहाँक निवासियों तथा अखिल ब्रह्माण्ड गोलककी ईश्वरी बनी हूँ, अपने उन कान्त श्रीकृष्णका रहस्य मैं नहीं जानती । स्त्रियोंका स्वभाव अत्यन्त दुर्लध्य है ॥ ३२-३३ ॥

इत्युक्त्वा राधिका कृष्णं तत्र दध्यौ स्वभक्तितः ।
रुरोद प्रेम्णा सा राधा नाथ नाथेति चाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगी । विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'-ऐसा कह रही थीं ॥ ३४ ॥

दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥ ३५ ॥
सुचिरं च तपस्तप्त्वा विवेश कमलातनौ ।
अथ देवादयः सर्वे यज्ञं कृत्वा सुदुष्करम् ॥ ३६ ॥
हे मुने ! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोकसे च्युत सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नामसे प्रसिद्ध हुई । दीर्घकालतक तपस्या करके उसने भगवती लक्ष्मीके विग्रहमें स्थान प्राप्त कर लिया । अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करनेपर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥ ३५-३६ ॥

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥ ३७ ॥
दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥ ३८ ॥
विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥ ३९ ॥
यज्ञः सम्पूज्य विधिवत्तां तुष्टाव तदा मुदा ।
देवताओंकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया । अन्तमें उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ । भगवान् नारायणने महालक्ष्मीके विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया । ब्रह्माजीने भी यज्ञकार्योंकी सम्पन्नताके लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुषको समर्पित कर दिया । तब यज्ञपुरुषने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणाकी विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ॥ ३७-३९.५ ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ॥ ४० ॥
अतीव कमनीयां च सुन्दरीं सुमनोहराम् ।
कमलास्यां कोमलाङ्‌गीं कमलायतलोचनाम् ॥ ४१ ॥
कमलासनपूज्यां च कमलाङ्‌गसमुद्‍भवाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां बिम्बोष्ठीं सुदतीं सतीम् ॥ ४२ ॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ४३ ॥
सुवेषाढ्यां च सुस्नातां मुनिमानसमोहिनीम् ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धं सुगन्धिचन्दनेन्दुभिः ॥ ४४ ॥
सिन्दूरबिन्दुनाल्पेनाप्यलकाधःस्थलोज्ज्वलाम् ।
सुप्रशस्तनितम्बाढ्यां बृहच्छ्रोणिपयोधराम् ॥ ४५ ॥
कामदेवाधाररूपां कामबाणप्रपीडिताम् ।
तां दृष्ट्वा रमणीयां च यज्ञो मूर्च्छामवाप ह ॥ ४६ ॥
पत्‍नीं तामेव जग्राह विधिबोधितपूर्वकम् ।
उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हए सोनेके समान था; उनके विग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर र्थी; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमलके समान उनके विशाल नेत्र थे; कमलके आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमलाके शरीरसे प्रकट हुई थी, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वीके ओष्ठ बिम्बाफलके समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाशमें मालतीके पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डलपर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था; वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं; वे मुनियोंके भी मनको मोह लेती थीं: कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दनसे बिन्दीके रूपमें अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाटपर सुशोभित हो रहा था; केशोंके नीचेका भाग (सीमन्त) सिन्दूरकी छोटी-छोटी बिन्दियोंसे अत्यन्त प्रकाशमान था । सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थलसे वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेवका आधारस्वरूप था और वे कामदेवके बाणसे अत्यन्त व्यथित थीं-ऐसी उन रमणीया दक्षिणाको देखकर यज्ञपुरुष मूञ्छित हो गये । पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणाको पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया । ४०-४६.५ ॥

दिव्यं वर्षशतं चैव तां गृहीत्वा तु निर्जने ॥ ४७ ॥
यज्ञो रेमे मुदा युक्तो रामेशो रमया सह ।
गर्भं दधार सा देवी दिव्यं द्वादशवर्षकम् ॥ ४८ ॥
ततः सुषाव पुत्रं च फलं वै सर्वकर्मणाम् ।
परिपूर्णे कर्मणि च तत्पुत्रः फलदायकः ॥ ४९ ॥
यज्ञो दक्षिणया सार्धं पुत्रेण च फलेन च ।
कर्मिणां फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रामेशने रमारूपिणी भगवती दक्षिणाको निर्जन स्थानमें ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षोंतक आनन्दपूर्वक रमण किया । वे देवी दक्षिणा दिव्य बारह वर्षोंतक गर्भ धारण किये रहीं । तत्पश्चात् उन्होंने सभी कर्मोके फलरूप पुत्रको जन्म दिया । कर्मके परिपूर्ण होनेपर वही पुत्र फल प्रदान करनेवाला होता है । भगवान् यज्ञ भगवती दक्षिणा तथा अपने पुत्र फलसे युक्त होनेपर ही कर्म करनेवालोंको फल प्रदान करते हैं-ऐसा वेदवेत्ता पुरुषोंने कहा है ॥ ४७-५० ॥

यज्ञश्च दक्षिणां प्राप्य पुत्रं च फलदायकम् ।
फलं ददौ च सर्वेभ्यः कर्मणां चैव नारद ॥ ५१ ॥
तदा देवादयस्तुष्टाः परिपूर्णमनोरथाः ।
स्वस्थाने ते ययुः सर्वे धर्मवक्त्रादिदं श्रुतम् ॥ ५२ ॥
हे नारद ! इस प्रकार देवी दक्षिणा तथा फलदायक पुत्रको प्राप्तकर यज्ञपुरुष सभी प्राणियोंको उनके कर्मोका फल प्रदान करने लगे । तदनन्तर परिपूर्ण मनोरथवाले वे सभी देवगण प्रसन्न होकर अपनेअपने स्थानको चले गये-ऐसा मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है ॥ ५१-५२ ॥

कृत्वा कर्म च कर्ता च तूर्णं दद्याच्च दक्षिणाम् ।
तत्क्षणं फलमाप्नोति वेदैरुक्तमिदं मुने ॥ ५३ ॥
हे मुने ! कर्ताको चाहिये कि कर्म करके तुरंत दक्षिणा दे दे । ऐसा करनेसे कर्ताको उसी क्षण फल प्राप्त हो जाता है-ऐसा वेदोंने कहा है ॥ ५३ ॥

कर्मी कर्मणि पूर्णे च तत्क्षणे यदि दक्षिणाम् ।
न दद्याद्‌ ब्राह्मणेभ्यश्च दैवेनाज्ञानतोऽथवा ॥ ५४ ॥
मुहूर्ते समतीते तु द्विगुणा सा भवेद्‌ ध्रुवम् ।
एकरात्रे व्यतीते तु भवेच्छतगुणा च सा ॥ ५५ ॥
त्रिरात्रे तच्छतगुणा सप्ताहे द्विगुणा ततः ।
मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्राह्मणानां च वर्धते ॥ ५६ ॥
संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत् ।
कर्म तद्यजमानानां सर्वं वै निष्फलं भवेत् ॥ ५७ ॥
कर्मके सम्पन्न हो जानेपर यदि कर्ता दैववश या अज्ञानसे उसी क्षण ब्राह्मणोंको दक्षिणा नहीं दे देता, तो एक मुहूर्त बीतनेपर वह दक्षिणा निश्चय ही दो गुनी हो जाती है और एक रात बीतनेपर वह सौ गुनी हो जाती है । वह दक्षिणा तीन रात बीतनेके बाद उसकी सौ गुनी और एक सप्ताह बीतनेपर उसकी दो सौ गुनी हो जाती है । एक माहके बाद वह लाख गुनी बतायी गयी है । इस प्रकार ब्राह्मणोंकी दक्षिणा बढ़ती जाती है और एक वर्ष बीत जानेपर वह तीन करोड़ गुनी हो जाती है, जिससे यजमानोंका सारा कर्म भी व्यर्थ हो जाता है ॥ ५४-५७ ॥

स च ब्रह्मस्वहारी च न कर्मार्होऽशुचिर्नरः ।
दरिद्रो व्याधियुक्तश्च तेन पापेन पातकी ॥ ५८ ॥
तद्‌गृहाद्याति लक्ष्मीश्च शापं दत्त्वा सुदारुणम् ।
पितरो नैव गृह्णन्ति तद्दत्तं श्राद्धतर्पणम् ॥ ५९ ॥
एवं सुराश्च तत्पूजां तद्दत्तामग्निराहुतिम् ।
ब्राह्मणका धन हरनेवाला वह मनुष्य अपवित्र हो जाता है तथा किसी भी कर्मानुष्ठानके योग्य नहीं रह जाता । उस पापके कारण वह पापी मनुष्य रोगी तथा दरिद्र रहता है । भगवती लक्ष्मी उसे दारुण शाप देकर उसके घरसे चली जाती हैं । उसके द्वारा प्रदत्त श्राद्ध तथा तर्पणको पितर ग्रहण नहीं करते । उसी प्रकार देवतागण उसकी पूजा तथा उसके द्वारा अग्निमें प्रदत्त आहुतिको स्वीकार नहीं करते ॥ ५८-५९.५ ॥

दत्तं न दीयते दानं ग्रहीता नैव याचते ॥ ६० ॥
उभौ तौ नरके यातश्छिन्नरज्जौ यथा घटः ।
यदि यज्ञके समय कर्ताके द्वारा संकल्पित दान नहीं दिया गया और प्रतिग्रह लेनेवालेने उसे माँगा भी नहीं, तो वे दोनों ही (यजमान और ब्राह्मण) नरकमें उसी प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जानेपर घड़ा ॥ ६०.५ ॥

नार्पयेद्यजमानश्चेद्याचितश्चापि दक्षिणाम् ॥ ६१ ॥
भवेद्ब्रह्मस्वापहारी कुम्भीपाकं व्रजेद्‌ ध्रुवम् ।
वर्षलक्षं वसेत्तत्र यमदूतेन ताडितः ॥ ६२ ॥
ततो भवेत्स चाण्डालो व्याधियुक्तो दरिद्रकः ।
पातयेत्पुरुषान्सप्त पूर्वांश्च सप्त जन्मतः ॥ ६३ ॥
इत्येवं कथितं विप्र किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
ब्राह्मणके याचना करनेपर भी यदि यजमान उसे दक्षिणा नहीं देता, तो वह ब्राह्मणका धन हरण करनेवाला कहा जाता है और वह निश्चितरूपसे कुम्भीपाक नरकमें पड़ता है । वहाँ यमदूतोंके द्वारा पीटा जाता हुआ वह एक लाख वर्षतक रहता है । उसके बाद वह चाण्डाल होकर सदा दरिद्र तथा रोगी बना रहता है । वह अपनी सात पीढ़ी पूर्वके तथा सात पीढ़ी बादके पुरुषोंको नरकमें गिरा देता है । हे विप्र ! मैंने यह सब कह दिया । अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६१-६३.५ ॥

नारद उवाच
यत्कर्म दक्षिणाहीनं को भुङ्क्ते तत्फलं मुने ॥ ६४ ॥
पूजाविधिं दक्षिणायाः पुरा यज्ञकृतं वद ।
नारदजी बोले-हे मुने ! जो कर्म बिना दक्षिणाके किया जाता है, उसका फल कौन भोगता है ? साथ ही, यज्ञपुरुषके द्वारा पूर्वकालमें की गयी भगवती दक्षिणाकी पूजाविधिको भी मुझे बतलाइये ॥ ६४.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
कर्मणोऽदक्षिणस्यैव कुत एव फलं मुने ॥ ६५ ॥
सदक्षिणे कर्मणि च फलमेव प्रवर्तते ।
अदक्षिणं च यत्कर्म तद्‌भुङ्‌क्ते च बलिर्मुने ॥ ६६ ॥
बलये तत्प्रदत्तं च वामनेन पुरा मुने ।
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! दक्षिणाविहीन कर्मका फल हो ही कहाँ सकता है ? दक्षिणायुक्त कर्ममें ही फल-प्रदानका सामर्थ्य होता है । हे मुने ! जो कर्म बिना दक्षिणाके सम्पन्न होता है, उसके फलका भोग राजा बलि करते हैं । हे मुने ! पूर्वकालमें भगवान् वामन राजा बलिके लिये वैसा कर्म अर्पण कर चुके हैं । ६५-६६.५ ॥

अश्रोत्रियः श्राद्धद्रव्यमश्रद्धादानमेव च ॥ ६७ ॥
वृषलीपतिविप्राणां पूजाद्रव्यादिकं च यत् ।
असद्द्विजैः कृतं यज्ञमशुचेः पूजनं च यत् ॥ ६८ ॥
गुरावभक्तस्य कर्म बलिर्भुङ्‌क्ते न संशयः ।
अश्रोत्रिय व्यक्तिके द्वारा श्रद्धाहीन होकर दिया गया श्राद्धद्रव्य तथा दान आदि, शूद्रापति ब्राह्मणोंका पूजा-द्रव्य आदि, सदाचारहीन विप्रोद्वारा किया गया यज्ञ, अपवित्र व्यक्तिका पूजन और गुरुभक्तिसे हीन मनुष्यके कर्मफलको राजा बलि आहारके रूपमें ग्रहण करते हैं, इसमें संशय नहीं है । ६७-६८.५ ॥

दक्षिणायाश्च यद्ध्यानं स्तोत्रं पूजाविधिक्रमम् ॥ ६९ ॥
तत्सर्वं कण्वशाखोक्तं प्रवक्ष्यामि निशामय ।
[हे नारद !] भगवती दक्षिणाका जो भी ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधिका क्रम आदि है, वह सब कण्वशाखामें वर्णित है, अब मैं उसे बताऊँगा, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ ६९.५ ॥

पुरा सम्प्राप्य तां यज्ञः कर्मदक्षां च दक्षिणाम् ॥ ७० ॥
मुमोहास्याः स्वरूपेण तुष्टाव कामकातरः ।
पूर्वसमयमें कर्मका फल प्रदान करनेमें दक्ष उन भगवती दक्षिणाको प्राप्त करके वे यज्ञपुरुष कामपीड़ित होकर उनके स्वरूपपर मोहित हो गये और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ७०.५ ॥

यज्ञ उवाच
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥ ७१ ॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
यज्ञ बोले-[हे महाभागे !] तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियोंमें परम श्रेष्ठ थी । श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी थी ॥ ७१.५ ॥

कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा ।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने ॥ ७३ ॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥ ७४ ॥
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
एक बार कार्तिकपूर्णिमाको राधामहोत्सवके अवसरपर रासलीलामें तुम भगवती लक्ष्मीके दक्षिणांशसे प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया । हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शीलके कारण तुम सुशीला नामसे प्रसिद्ध थी । तुम भगवती राधिकाके शापसे गोलोकसे च्युत होकर और पुनः देवी लक्ष्मीके दक्षिांशसे आविर्भूत हो अब देवी दक्षिणाके रूपमें मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो । हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥ ७२-७४.५ ॥

कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥ ७५ ॥
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥ ७६ ॥
तुम्ही यज्ञ करनेवालोंको उनके कर्मोका सदा फल प्रदान करनेवाली देवी हो । तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियोंका सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओंका कर्म शोभा नहीं पाता है ॥ ७५-७६ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करनेमें समर्थ नहीं हैं । ७७ ॥

कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः ।
यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ॥ ७८ ॥
ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं, महेश्वर फलरूप हैं और मैं विष्णु यज्ञरूप हूँ, इन सबमें तुम ही साररूपा हो ॥ ७८ ॥

फलदातृपरं ब्रह्म निर्गुणा प्रकृतिः परा ।
स्वयं कृष्णश्च भगवान् स च शक्तस्त्वया सह ॥ ७९ ॥
फल प्रदान करनेवाले परब्रह्म, गुणरहित पराप्रकृति तथा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे ही सहयोगसे शक्तिमान् हैं ॥ ७९ ॥

त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि ।
सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ॥ ८० ॥
हे कान्ते । जन्म-जन्मान्तरमें तुम्हीं सदा मेरी शक्ति रही हो । हे वरानने ! तुम्हारे साथ रहकर ही मैं सारा कर्म करनेमें समर्थ हूँ ॥ ८० ॥

इत्युक्त्वा च पुरस्तस्थौ यज्ञाधिष्ठातृदेवता ।
तुष्टा बभूव सा देवी भेजे तं कमलाकला ॥ ८१ ॥
ऐसा कहकर यज्ञके अधिष्ठातृदेवता भगवान् यज्ञपुरुष दक्षिणाके समक्ष स्थित हो गये । तब भगवती कमलाकी कलास्वरूपिणी देवी दक्षिणा प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने यज्ञपुरुषका वरण कर लिया ॥ ८१ ॥

इदं च दक्षिणास्तोत्रं यज्ञकाले च यः पठेत् ।
फलं च सर्वयज्ञानां प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ ८२ ॥
जो मनुष्य यज्ञके अवसरपर भगवती दक्षिणाके इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ८२ ॥

राजसूये वाजपेये गोमेधे नरमेधके ।
अश्वमेधे लाङ्‌गले च विष्णुयज्ञे यशस्करे ॥ ८३ ॥
धनदे भूमिदे पूर्ते फलदे गजमेधके ।
लोहयज्ञे स्वर्णयज्ञे रत्‍नयज्ञेऽथ ताम्रके ॥ ८४ ॥
शिवयज्ञे रुद्रयज्ञे शक्रयज्ञे च बन्धुके ।
वृष्टौ वरुणयागे च कण्डके वैरिमर्दने ॥ ८५ ॥
शुचियज्ञे धर्मयज्ञेऽध्वरे च पापमोचने ।
ब्रह्माणीकर्मयागे च योनियागे च भद्रके ॥ ८६ ॥
एतेषां च समारम्भे इदं स्तोत्रं च यः पठेत् ।
निर्विघ्नेन च तत्कर्म सर्वं भवति निश्चितम् ॥ ८७ ॥
राजसूय, वाजपेय, गोमेध, नरमेध, अश्वमेध, लांगलयज्ञ, यश बढ़ानेवाला विष्णुयज्ञ, धनदायक और भूमि देनेवाला पूर्तयज्ञ, फल प्रदान करनेवाला गजमेध, लोहयज्ञ, स्वर्णयज्ञ, रत्नयज्ञ, ताम्रयज्ञ, शिवयज्ञ, रुद्रयज्ञ, इन्द्रयज्ञ, बन्धुकयज्ञ, वृष्टिकारक वरुणयज्ञ, वैरिमर्दन कण्डकयज्ञ, शुचियज्ञ, धर्मयज्ञ, पापमोचनयज्ञ, ब्रह्माणीकर्मयज्ञ और कल्याणकारी अम्बायज्ञ-इन सभीके आरम्भमें जो व्यक्ति इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसका सारा यज्ञकर्म निर्विघ्नरूपसे अवश्य ही सम्पन्न हो जाता है ॥ ८३-८७ ॥

इदं स्तोत्रं च कथितं ध्यानं पूजाविधिं शृणु ।
शालग्रामे घटे वापि दक्षिणां पूजयेत्सुधीः ॥ ८८ ॥
यह स्तोत्र मैंने कह दिया, अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो । शालग्राममें अथवा कलशपर भगवती दक्षिणाका आवाहन करके विद्वान्को उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ८८ ॥

लक्ष्मीदक्षांससम्भूतां दक्षिणां कमलाकलाम् ।
सर्वकर्मसुदक्षां च फलदां सर्वकर्मणाम् ॥ ८९ ॥
विष्णोः शक्तिस्वरूपां च पूजितां वन्दितां शुभाम् ।
शुद्धिदां शुद्धिरूपां च सुशीलां शुभदां भजे ॥ ९० ॥
[उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये-] भगवती लक्ष्मीके दाहिने स्कन्धसे आविर्भूत होनेके कारण दक्षिणा नामसे विख्यात ये देवी साक्षात् कमलाकी कला हैं, सभी कर्मोंमें अत्यन्त प्रवीण हैं, सम्पूर्ण काँका फल प्रदान करनेवाली हैं, भगवान् विष्णुकी शक्तिस्वरूपा हैं, सबकी वन्दनीय तथा पूजनीय, मंगलमयी, शुद्धिदायिनी, शुद्धिस्वरूपिणी, शोभनशीलवाली और शुभदायिनी हैं-ऐसी देवीकी मैं आराधना करता हूँ ॥ ८९-९० ॥

ध्यात्वानेनैव वरदां मूलेन पूजयेत्सुधीः ।
दत्त्वा पाद्यादिकं देव्यै वेदोक्तेनैव नारद ॥ ९१ ॥
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणायै स्वाहेति च विचक्षणः ।
पूजयेद्विधिवद्‌ भक्त्या दक्षिणां सर्वपूजिताम् ॥ ९२ ॥
हे नारद ! इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रसे इन वरदायिनी देवीकी पूजा करनी चाहिये । वेदोक्त मन्त्रके द्वारा देवी दक्षिणाको पाद्य आदि अर्पण करके 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं दक्षिणायै स्वाहा'-इस मूल मन्त्रसे बुद्धिमान् व्यक्तिको सभी प्राणियोंद्वारा पूजित भगवती दक्षिणाकी भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥ ९१-९२ ॥

इत्येवं कथितं ब्रह्मन् दक्षिणाख्यानमेव च ।
सुखदं प्रीतिदं चैव फलदं सर्वकर्मणाम् ॥ ९३ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने भगवती दक्षिणाका यह आख्यान आपसे कह दिया; यह सुख, प्रीति तथा सम्पूर्ण कर्मोका फल प्रदान करनेवाला है ॥ ९३ ॥

इदं च दक्षिणाख्यानं यः शृणोति समाहितः ।
अङ्‌गहीनं च तत्कर्म न भवेद्‍भारते भुवि ॥ ९४ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं निश्चितं च गुणान्वितम् ।
भार्याहीनो लभेद्‍भार्यां सुशीलां सुन्दरीं पराम् ॥ ९५ ॥
वरारोहां पुत्रवतीं विनीतां प्रियवादिनीम् ।
पतिव्रतां च शुद्धां च कुलजां च वधूं वराम् ॥ ९६ ॥
विद्याहीनो लभेद्विद्यां धनहीनो लभेद्धनम् ।
भूमिहीनो लभेद्‌भूमिं प्रजाहीनो लभेत्प्रजाम् ॥ ९७ ॥
सङ्‌कटे बन्धुविच्छेदे विपत्तौ बन्धने तथा ।
मासमेकमिदं श्रुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९८ ॥
पृथ्वीतलपर भारतवर्षमें जो मनुष्य सावधान होकर देवी दक्षिणाके इस आख्यानका श्रवण करता है, उसका कोई भी कार्य अपूर्ण नहीं रहता । पुत्रहीन व्यक्ति गुणी पुत्र तथा भार्याहीन पुरुष परम सुन्दर तथा सुशील पत्नी प्राप्त कर लेता है । साथ ही वह सुन्दर, पुत्रवती, विनम्र, प्रियभाषिणी, पतिव्रता, पवित्र तथा कुलीन श्रेष्ठ पुत्रवधू भी प्राप्त कर लेता है और विद्याहीन विद्या प्राप्त कर लेता है तथा धनहीन धन पा जाता है । भूमिहीन व्यक्तिको भूमि उपलब्ध हो जाती है और सन्तानहीन व्यक्ति सन्तान प्राप्त कर लेता है । संकट, बन्धुविच्छेद, विपत्ति तथा बन्धनकी स्थितिमें एक महीनेतक इस आख्यानका श्रवण करके मनुष्य इनसे मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९४-९८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
दक्षिणोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे दक्षिणोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥


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