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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः

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षष्ठ्युपाख्यानवर्णनम् -
भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा -


नारद उवाच
अनेकानां च देवीनां श्रुतमाख्यानमुत्तमम् ।
अन्यासां चरितं ब्रह्मन् वद वेदविदांवर ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! मैंने अनेक उत्तम देवियोंका उत्तम आख्यान सुन लिया; अब आप दूसरी देवियोंके चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच
सर्वासां चरितं विप्र वेदेषु च पृथक्पृथक् ।
पूर्वोक्तानां च देवीनां कासां श्रोतुमिहेच्छसि ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे विप्र ! पूर्वकालमें कही गयी सभी देवियोंके चरित्र वेदोंमें अलग-अलग बताये गये हैं, आप इनमेंसे किनका चरित्र सुनना चाहते हैं ? ॥ २ ॥

नारद उवाच
षष्ठी मङ्‌गलचण्डी च मनसा प्रकृतेः कला ।
उत्पत्तिमासां चरितं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-भगवती षष्ठी, मंगलचण्डी और मनसादेवी मूलप्रकृतिकी कला हैं; मैं इनकी उत्पत्ति तथा इनका चरित्र साररूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥

श्रीनारायण उवाच
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता ।
बालकानामधिष्ठात्री विष्णुमाया च बालदा ॥ ४ ॥
मातृकासु च विख्याता देवसेनाभिधा च या ।
प्राणाधिकप्रिया साध्वी स्कन्दभार्या च सुव्रता ॥ ५ ॥
आयुःप्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी ।
सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी ॥ ६ ॥
श्रीनारायण बोले-मूलप्रकृतिके छठे अंशसे जो देवी आविर्भूत हैं, वे भगवती षष्ठी कही गयी हैं । ये बालकोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं । इन्हें विष्णुमाया और बालदा भी कहा जाता है । ये मातृकाओंमें देवसेना नामसे प्रसिद्ध हैं । उत्तम व्रतका पालन करनेवाली तथा साध्वी ये भगवती षष्ठी स्वामी कार्तिकेयकी भार्या हैं और उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं । ये बालकोंको आयु प्रदान करनेवाली, उनका भरण-पोषण करनेवाली तथा उनकी रक्षा करनेवाली हैं । ये सिद्धयोगिनी देवी अपने योगके प्रभावसे शिशुओंके पास निरन्तर विराजमान रहती हैं ॥ ४-६ ॥

तस्याः पूजाविधिं ब्रह्मनितिहासमिदं शृणु ।
यच्छ्रुतं धर्मवक्येण सुखदं पुत्रदं परम् ॥ ७ ॥
हे ब्रह्मन् ! उन षष्ठीदेवीको पूजाविधि तथा यह इतिहास भी सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है; यह आख्यान पुत्र तथा परम सुख प्रदान करनेवाला है ॥ ७ ॥

राजा प्रियव्रतश्चासीत्स्वायम्भुवमनोः सुतः ।
योगीन्द्रो नोद्वहद्‍भार्यां तपस्यासु रतः सदा ॥ ८ ॥
स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रत नामवाले एक राजा थे । योगिराज प्रियव्रत विवाह नहीं करना चाहते थे । वे सदा तपस्याओंमें संलग्न रहते थे, किंतु ब्रह्माजीकी आज्ञा तथा उनके प्रयलसे उन्होंने विवाह कर लिया ॥ ८ ॥

ब्रह्माज्ञया च यत्‍नेन कृतदारो बभूव ह ।
सुचिरं कृतदारश्च न लेभे तनयं मुने ॥ ९ ॥
पुत्रेष्टियज्ञं तं चापि कारयामास कश्यपः ।
मालिन्यं तस्य कान्तायै मुनिर्यज्ञचरुं ददौ ॥ १० ॥
भुक्त्वा च तं चरुं तस्याः सद्यो गर्भो बभूव ह ।
दधार तं च सा देवी दैवं द्वादशवत्सरम् ॥ ११ ॥
हे मुने ! विवाह करनेके अनन्तर बहुत समयतक जब उन्हें पुत्रप्राप्ति नहीं हुई, तब महर्षि कश्यपने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया । मुनिने उनकी प्रिय भार्या मालिनीको यज्ञचरु प्रदान किया । उस चरुको ग्रहण कर लेनेपर उन्हें शीघ्र ही गर्भ स्थित हो गया । वे देवी उस गर्भको दिव्य बारह वर्षातक धारण किये रहीं ॥ ९-११ ॥

ततः सुषाव सा ब्रह्मन् कुमारं कनकप्रभम् ।
सर्वावयवसम्पन्नं मृतमुत्तारलोचनम् ॥ १२ ॥
हे ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्णसदृश कान्तिवाले, शरीरके समस्त अवयवोंसे सम्पन्न, मरे हुए तथा उलटी आँखोंवाले पुत्रको जन्म दिया ॥ १२ ॥

तं दृष्ट्वा रुरुदुः सर्वा नार्यश्च बान्धवस्त्रियः ।
मूर्च्छामवाप तन्माता पुत्रशोकेन भूयसा ॥ १३ ॥
उसे देखकर सभी स्त्रियाँ तथा बान्धवोंकी पलियाँ रोने लगी और महान् पुत्रशोकके कारण उसकी माता मूच्छित हो गयीं ॥ १३ ॥

श्मशानं च ययौ राजा गहीत्वा बालकं मुने ।
रुरोद तत्र कान्तारे पुत्रं कृत्वा स्ववक्षसि ॥ १४ ॥
नोत्सृजद्‌ बालकं राजा प्राणांस्त्यक्तुं समुद्यतः ।
ज्ञानयोगं विसस्मार पुत्रशोकात्सुदारुणात् ॥ १५ ॥
हे मुने ! उस बालकको लेकर राजा प्रियव्रत श्मशान गये और वहाँ निर्जन स्थानमें पुत्रको अपने वक्षसे लगाकर रुदन करने लगे । राजाने उस पुत्रको नहीं छोड़ा । वे प्राणत्याग करनेको तत्पर हो गये । अत्यन्त दारुण पुत्रशोकके कारण राजाका ज्ञानयोग विस्मृत हो गया ॥ १४-१५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र विमानं च ददर्श सः ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं मणिराजविनिर्मितम् ॥ १६ ॥
तेजसा ज्वलितं शश्वच्छोभितं क्षौमवाससा ।
नानाचित्रविचित्राढ्यं पुष्पमालाविराजितम् ॥ १७ ॥
ददर्श तत्र देवीं च कमनीयां मनोहराम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ १८ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
कृपामयीं योगसिद्धां भक्तानुग्रहकातराम् ॥ १९ ॥
इसी बीच वहाँ उन्होंने शुद्ध स्फटिकमणिके समान प्रकाशमान, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित, तेजसे निरन्तर देदीप्यमान, रेशमी वस्त्रसे सुशोभित, अनेक प्रकारके अद्‌भुत चित्रोंसे विभूषित और पुष्प तथा मालाओंसे सुसज्जित एक विमान देखा । साथ ही उन्होंने उस विमानमें कमनीय, मनोहर, श्वेत चम्पाके वर्णके समान आभावाली, सदा स्थायी रहनेवाले तारुण्यसे सम्पन्न, मन्द-मन्द मुसकानयुक्त, प्रसन्न मुखमण्डलवाली, रत्ननिर्मित आभूषणोंसे अलंकृत, कृपाकी साक्षात् मूर्ति, योगसिद्ध और भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये परम आतुर प्रतीत होनेवाली देवीको भी देखा ॥ १६-१९ ॥

दृष्ट्वा तां पुरतो राजा तुष्टाव परमादरात् ।
चकार पूजनं तस्या विहाय बालकं भुवि ॥ २० ॥
पप्रच्छ राजा तां तुष्टां ग्रीष्मसूर्यसमप्रभाम् ।
तेजसा ज्वलितां शान्तां कान्तां स्कन्दस्य नारद ॥ २१ ॥
उन देवीको समक्ष देखकर राजाने उस बालकको भूमिपर रखकर परम आदरपूर्वक उनका स्तवन तथा पूजन किया । हे नारद ! तत्पश्चात् राजा प्रियव्रत प्रसन्नताको प्राप्त, ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान प्रभावाली, अपने तेजसे देदीप्यमान तथा शान्त स्वभाववाली उन कार्तिकेयप्रिया [भगवती षष्ठी]-से पूछने लगे- ॥ २०-२१ ॥

राजोवाच
का त्वं सुशोभने कान्ते कस्य कान्तासि सुव्रते ।
कस्य कन्या वरारोहे धन्या मान्या च योषिताम् ॥ २२ ॥
राजा बोले-हे सुशोभने ! हे कान्ते ! हे सुव्रते ! हे वरारोहे । समस्त स्त्रियों में परम धन्य तथा आदरणीय तुम कौन हो, किसकी भार्या हो और किसकी पुत्री हो ? ॥ २२ ॥

नृपेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा जगन्मङ्‌गलचण्डिका ।
उवाच देवसेना सा देवानां रणकारिणी ॥ २३ ॥
देवानां दैत्यग्रस्तानां पुरा सेना बभूव सा ।
जयं ददौ सा तेभ्यश्च देवसेना च तेन सा ॥ २४ ॥
[हे नारद !] नृपेन्द्र प्रियव्रतकी बात सुनकर जगत्का कल्याण करनेमें दक्ष तथा देवताओंके लिये संग्राम करनेवाली भगवती देवसेना उनसे कहने लगीं । वे देवी प्राचीनकालमें दैत्योंके द्वारा पीडित देवताओंकी सेना बनी थीं । उन्होंने उन्हें विजय प्रदान किया था, इसलिये वे देवसेना नामसे विख्यात हैं ॥ २३-२४ ॥

श्रीदेवसेनोवाच
ब्रह्मणो मानसी कन्या देवसेनाहमीश्वरी ।
सृष्ट्वा तां मनसा धाता ददौ स्कन्दाय भूमिप ॥ २५ ॥
मातृकासु च विख्याता स्कन्दभार्या च सुव्रता ।
विश्वे षष्ठीति विख्याता षष्ठांशा प्रकृतेः परा ॥ २६ ॥
अपुत्राय पुत्रदाहं प्रियादात्री प्रियाय च ।
धनदाहं दरिद्रेभ्यः कर्मिभ्यश्च स्वकर्मदा ॥ २७ ॥
श्रीदेवसेना बोली-हे राजन् ! मैं ब्रह्माकी मानसी कन्या हूँ । सबपर शासन करनेवाली मैं 'देवसेना' नामसे विख्यात हूँ । विधाताने अपने मनसे मेरी सृष्टि करके स्वामी कार्तिकेयको सौंप दिया । मातृकाओंमें विख्यात मैं स्वामी कार्तिकेयकी पतिव्रता भार्या हूँ । भगवती परा-प्रकृतिका षष्ठांश होनेके कारण मैं विश्वमें 'षष्ठी'-इस नामसे प्रसिद्ध है । मैं पुत्रहीनको पुत्र, पतिको प्रिय पत्नी, दरिद्रोंको धन देनेवाली और कर्म करनेवालोंको उनके कर्मका फल प्रदान करनेवाली हूँ ॥ २५-२७ ॥

सुखं दुःखं भयं शोको हर्षो मङ्‌गलमेव च ।
सम्पत्तिश्च विपत्तिश्च सर्वं भवति कर्मणा ॥ २८ ॥
कर्मणा बहुपुत्रश्च वंशहीनः स्वकर्मणा ।
कर्मणा मृतपुत्रश्च कर्मणा चिरजीवनः ॥ २९ ॥
कर्मणा गुणवांश्चैव कर्मणा चाङ्‌गहीनकः ।
कर्मणा बहुभार्यश्च भार्याहीनश्च कर्मणा ॥ ३० ॥
कर्मणा रूपवान्धर्मी रोगी शश्वत्स्वकर्मणा ।
कर्मणा च भवेद्व्याधिः कर्मणाऽऽरोग्यमेव च ॥ ३१ ॥
तस्मात्कर्म परं राजन् सर्वेभ्यश्च श्रुतौ श्रुतम् ।
हे राजन् ! सुख, दुःख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति—यह सब कर्मानुसार होता है । अपने कर्मसे मनुष्य अनेक पुत्रोंवाला होता है, कर्मसे ही वह वंशहीन होता है, कर्मसे ही उसे मरा हुआ पुत्र होता है और कर्मसे ही वह पुत्र दीर्घजीवी होता है । मनुष्य कर्मसे ही गुणी, कर्मसे ही अंगहीन, कर्मसे ही अनेक पलियोंवाला तथा कर्मसे ही भार्याहीन होता है । कर्मसे ही मनुष्य रूपवान् तथा कर्मसे ही निरन्तर रोगग्रस्त रहता है, कर्मसे ही व्याधि तथा कर्मसे ही नीरोगता होती है । अतः हे राजन् ! कर्म सबसे बलवान् है-ऐसा श्रुतिमें कहा गया है ॥ २८-३१.५ ॥

इत्येवमुक्त्वा सा देवी गृहीत्वा बालकं मुने ॥ ३२ ॥
महाज्ञानेन सा देवी जीवयामास लीलया ।
राजा ददर्श तं बालं सस्मितं कनकप्रभम् ॥ ३३ ॥
देवसेना च पश्यन्तं नृपमापृच्छ्य सा तदा ।
गृहीत्वा बालकं देवी गगनं गन्तुमुद्यता ॥ ३४ ॥
हे मुने ! इस प्रकार कहकर उन भगवती षष्ठीने बालकको लेकर अपने महाज्ञानके द्वारा खेल-खेलमें उसे जीवित कर दिया । अब राजा प्रियव्रत स्वर्णकी प्रभाके समान कान्तिसे सम्पन्न तथा मुसकानयुक्त उस बालकको देखने लगे । उसी समय वे भगवती देवसेना बालकको देख रहे राजासे कहकर उस बालकको ले करके आकाशमें जानेको उद्यत हो गयीं ॥ ३२-३४ ॥

पुनस्तुष्टाव तां राजा शुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
नृपस्तोत्रेण सा देवी परितुष्टा बभूव ह ॥ ३५ ॥
उवाच तं नृपं ब्रह्मन् वेदोक्तं कर्मनिर्मितम् ।
[यह देखकर] शुष्क कण्ठ, ओष्ठ तथा तालुवाले वे राजा उन भगवतीकी स्तुति करने लगे, तब राजाके स्तोत्रसे वे देवी षष्ठी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं और हे ब्रह्मन् ! उन राजासे कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहने लगीं ॥ ३५.५ ॥

देव्युवाच
त्रिषु लोकेषु त्वं राजा स्वायम्भुवमनोः सुतः ॥ ३६ ॥
मम पूजां च सर्वत्र कारयित्वा स्वयं कुरु ।
तदा दास्यामि पुत्रं ते कुलपद्मं मनोहरम् ॥ ३७ ॥
सुव्रतं नाम विख्यातं गुणवन्तं सुपण्डितम् ।
जातिस्मरं च योगीन्द्रं नारायणकलात्मकम् ॥ ३८ ॥
शतक्रतुकरं श्रेष्ठं क्षत्रियाणां च वन्दितम् ।
मत्तमातङ्‌गलक्षाणां धृतवन्तं बलं शुभम् ॥ ३९ ॥
धनिनं गुणिनं शुद्धं विदुषां प्रियमेव च ।
योगिनां ज्ञानिनां चैव सिद्धिरूपं तपस्विनाम् ॥ ४० ॥
यशस्विनं च लोकेषु दातारं सर्वसम्पदाम् ।
देवी बोलीं-तुम स्वायम्भुव मनुके पुत्र हो और तीनों लोकोंके राजा हो । तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराकर स्वयं भी करो, तभी मैं तुम्हें कुलके कमलस्वरूप यह मनोहर पुत्र प्रदान करूँगी । यह सुव्रत नामसे विख्यात होगा, यह गुणी तथा विद्वान् होगा, इसे पूर्वजन्मकी बातें याद रहेंगी, यह योगीन्द्र होगा तथा भगवान् नारायणकी कलासे सम्पन्न होगा, यह क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ तथा सभीके द्वारा वन्दनीय होगा और सौ अश्वमेधयज्ञ करनेवाला होगा । यह बालक लाखों मतवाले हाथियोंके समान बल धारण करेगा तथा महान् कल्याणकारी होगा । यह धनी, गुणवान्, शुद्ध, विद्वानोंका प्रिय और योगियों, ज्ञानियों तथा तपस्वियोंका सिद्धिस्वरूप, समस्त लोकोंमें यशस्वी तथा सभीको समस्त सम्पदाएँ प्रदान करनेवाला होगा ॥ ३६-४०.५ ॥

इत्येवमुक्त्वा सा देवी तस्मै तद्बालकं ददौ ॥ ४१ ॥
राजा चकार स्वीकारं पूजार्थं च प्रियव्रतः ।
जगाम देवी स्वर्गं च दत्त्वा तस्मै शुभं वरम् ॥ ४२ ॥
आजगाम सहामात्यः स्वगृहं हृष्टमानसः ।
आगत्य कथयामास वृत्तान्तं पुत्रहेतुकम् ॥ ४३ ॥
श्रुत्वा बभूवुः सन्तुष्टा नरा नार्यश्च नारद ।
ऐसा कहकर उन देवीने वह बालक राजाको दे दिया । राजा प्रियव्रतने भी पूजाकी बातें स्वीकार कर ली । तब भगवती भी उन्हें कल्याणकारी वर देकर स्वर्ग चली गयीं और राजा प्रसन्नचित्त होकर मन्त्रियोंके साथ अपने घर आ गये । घर आकर उन्होंने पत्रविषयक वृत्तान्त सबसे कहा । हे नारद ! उसे सुनकर समस्त नर तथा नारी परम प्रसन्न हुए ॥ ४१-४३.५ ॥

मङ्‌गलं कारयामास सर्वत्र पुत्रहेतुकम् ॥ ४४ ॥
देवीं च पूजयामास ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ।
राजाने पुत्र-प्राप्तिके उपलक्ष्यमें सर्वत्र मंगलोत्सव कराया, भगवती षष्ठीकी पूजा की तथा ब्राह्मणोंको धन प्रदान किया ॥ ४४.५ ॥

राजा च प्रतिमासेषु शुक्लषष्ठ्यां महोत्सवम् ॥ ४५ ॥
षष्ट्या देव्याश्च यत्‍नेन कारयामास सर्वतः ।
उसी समयसे राजा प्रियव्रत प्रत्येक महीनेमें शुक्लपक्षकी षष्ठी तिथिको भगवती षष्ठीका महोत्सव प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र कराने लगे ॥ ४५.५ ॥

बालानां सूतिकागारे षष्ठाहे यत्‍नपूर्वकम् ॥ ४६ ॥
तत्पूजां कारयामास चैकविंशतिवासरे ।
बालानां शुभकार्ये च शुभान्नप्राशने तथा ॥ ४७ ॥
सर्वत्र वर्धयामास स्वयमेव चकार ह ।
सूतिकागृहमें बालकोंके जन्मके छठे दिन, इक्कीसवें दिन, बालकोंसे सम्बन्धित किसी भी मांगलिक कार्य में तथा शुभ अन्नप्राशनके अवसरपर वे भगवतीकी पूजा कराने लगे और स्वयं भी करने लगे, इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र भगवतीकी पूजाका प्रचार कराया ॥ ४६-४७.५ ॥

ध्यानं पूजाविधानं च स्तोत्रं मत्तो निशामय ॥ ४८ ॥
यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रेण कौथुमोक्तं च सुव्रत ।
हे सुव्रत ! अब आप मुझसे भगवती षष्ठीके ध्यान, पूजाविधान तथा स्तोत्रको सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना था और जो सामवेदकी कौथुमशाखामें वर्णित है । ४८.५ ॥

शालग्रामे घटे वाथ वटमूलेऽथवा मुने ॥ ४९ ॥
भित्त्यां पुत्तलिकां कृत्वा पूजयेद्वा विचक्षणः ।
षष्ठांशां प्रकृतेः शुद्धां प्रतिष्ठाप्य च सुप्रभाम् ॥ ५० ॥
हे मुने ! शालग्राम, कलश अथवा वटके मूलमें अथवा दीवालपर पुत्तलिका बनाकर भगवती प्रकृतिके छठे अंशसे प्रकट होनेवाली, शुद्धस्वरूपिणी तथा दिव्य प्रभासे सम्पन्न षष्ठीदेवीको प्रतिष्ठित करके बुद्धिमान् मनुष्यको उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४९-५० ॥

सुपुत्रदां च शुभदा दयारूपां जगत्प्रसूम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ५१ ॥
पवित्ररूपां परमां देवसेनां परां भजे ।
इति ध्यात्वा स्वशिरसि पुष्पं दत्त्वा विचक्षणः ॥ ५२ ॥
पुनर्ध्यात्वा च मूलेन पूजयेत्सुव्रतां सतीम् ।
पाद्यार्घ्याचमनीयैश्च गन्धपुष्पप्रदीपकैः ॥ ५३ ॥
नैवेद्यैर्विविधैश्चापि फलेन शोभनेन च ।
ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहेति विधिपूर्वकम् ॥ ५४ ॥
अष्टाक्षरं महामन्त्रं यथाशक्ति जपेन्नरः ।
ततः स्तुत्वा च प्रणमेद्‍भक्तियुक्तः समाहितः ॥ ५५ ॥
स्तोत्रं च सामवेदोक्तं वरं पुत्रफलप्रदम् ।
अष्टाक्षरं महामन्त्रं लक्षधा यो जपेत्ततः ॥ ५६ ॥
सुपुत्रं स लभेन्नूनमित्याह कमलोद्‍भवः ।
'उत्तम पुत्र प्रदान करनेवाली, कल्याणदायिनी, दयास्वरूपिणी, जगत्की सृष्टि करनेवाली, श्वेत चम्पाके पुष्पकी आभाके समान वर्णवाली, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत, परम पवित्रस्वरूपिणी तथा अतिश्रेष्ठ परा भगवती देवसेनाकी मैं आराधना करता हूँ । ' विद्वान् पुरुषको चाहिये कि इस विधिसे ध्यान करके [हाथमें लिये हुए] पुष्पको अपने मस्तकसे लगाकर उसे भगवतीको अर्पण कर दे । पुनः ध्यान करके मूलमन्त्रके उच्चारणपूर्वक पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, दीप, विविध प्रकारके नैवेद्य तथा सुन्दर फल आदि उपचारोंके द्वारा उत्तम व्रतमें निरत रहनेवाली साध्वी भगवती देवसेनाकी पूजा करनी चाहिये और उस मनुष्यको 'ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा' इस अष्टाक्षर महामन्त्रका अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक जप भी करना चाहिये । तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक स्तुति करके देवीको प्रणाम करना चाहिये । पुत्र-फल प्रदान करनेवाला यह उत्तम स्तोत्र सामवेदमें वर्णित है । जो मनुष्य भगवती षष्ठीके अष्टाक्षर महामन्त्रका एक लाख जप करता है, वह निश्चितरूपसे सुन्दर पुत्र प्राप्त करता है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है ॥ ५१-५६.५ ॥

स्तोत्रं शृणु मुनिश्रेष्ठ सर्वकामशुभावहम् ॥ ५७ ॥
वाञ्छाप्रदं च सर्वेषां गूढं वेदेषु नारद ।
हे मुनिश्रेष्ठ ! अब आप सम्पूर्ण शुभ कामनाओंको प्रदान करनेवाले, सभी प्राणियोंको वांछित फल प्रदान करनेवाले तथा वेदोंमें रहस्यमय रूपसे प्रतिपादित स्तोत्रका श्रवण कीजिये ॥ ५७.५ ॥

नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः ॥ ५८ ॥
शुभायै देवसेनायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः ।
वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः ॥ ५९ ॥
सुखदायै मोक्षदायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः ।
सृष्ट्यै षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः ॥ ६० ॥
मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
सारायै शारदायै च परादेव्यै नमो नमः ॥ ६१ ॥
बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम् ॥ ६२ ॥
प्रत्यक्षायै स्वभक्तानां षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः ।
पूज्यायै स्कन्दकान्तायै सर्वेषां सर्वकर्मसु ॥ ६३ ॥
देवरक्षणकारिण्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वन्दितायै नृणां सदा ॥ ६४ ॥
हिंसाक्रोधवर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि ॥ ६५ ॥
मानं देहि जयं देहि द्विषो जहि महेश्वरि ।
धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६६ ॥
देहि भूमिं प्रजां देहि विद्यां देहि सुपूजिते ।
कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६७ ॥
देवीको नमस्कार है, महादेवीको नमस्कार है, भगवती सिद्धि एवं शान्तिको नमस्कार है । शुभा, देवसेना तथा देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है । वरदा, पुत्रदा तथा धनदा देवीको बार-बार नमस्कार है । सुखदा, मोक्षदा तथा भगवती षष्ठीको बार-बार नमस्कार है । मूलप्रकृतिके छठे अंशसे अवतीर्ण, सृष्टिस्वरूपिणी तथा सिद्धस्वरूपिणी भगवतीको बारबार नमस्कार है । माया तथा सिद्धयोगिनी षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है । सारस्वरूपिणी, शारदा तथा परादेवीको बार-बार नमस्कार है । बालकोंकी अधिष्ठात्री देवीको नमस्कार है । षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है । कल्याण प्रदान करनेवाली, कल्याणस्वरूपिणी, सभी कर्मोक फल प्रदान करनेवाली तथा अपने भक्तोंको प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाली देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है । सम्पूर्ण कार्योंमें सभीके लिये पूजनीय तथा देवताओंकी रक्षा करनेवाली स्वामी कार्तिकेयकी भार्या देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है । शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी, मनुष्योंके लिये सदा वन्दनीय तथा क्रोध-हिंसासे रहित षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है । हे सुरेश्वरि ! आप मुझे धन दीजिये, प्रिय भार्या दीजिये, पुत्र प्रदान कीजिये, मान प्रदान कीजिये तथा विजय प्रदान कीजिये और हे महेश्वरि ! मेरे शत्रुओंका संहार कर डालिये । मुझे धर्म दीजिये और कीर्ति दीजिये, आप षष्ठीदेवीको बारबार नमस्कार है । हे सुपूजिते ! भूमि दीजिये, प्रजा दीजिये, विद्या दीजिये, कल्याण और जय प्रदान कीजिये, आप षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ ५८-६७ ॥

इति देवीं च संस्तूय लेभे पुत्रं प्रियव्रतः ।
यशस्विनं च राजेन्द्रः षष्ठीदेव्याः प्रसादतः ॥ ६८ ॥
इस प्रकार भगवती षष्ठीकी स्तुति करके महाराज प्रियव्रतने षष्ठीदेवीकी कृपासे यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया ॥ ६८ ॥

षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मन् यः शृणोति तु वत्सरम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं वरं सुचिरजीविनम् ॥ ६९ ॥
वर्षमेकं च यो भक्त्या सम्पूज्येदं शृणोति च ।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो महावन्ध्या प्रसूयते ॥ ७० ॥
वीरं पुत्रं च गुणिनं विद्यावन्तं यशस्विनम् ।
सुचिरायुष्यवन्तं च सूते देवीप्रसादतः ॥ ७१ ॥
काकवन्ध्या च या नारी मृतवत्सा च या भवेत् ।
वर्षं श्रुत्वा लभेत्पुत्रं षष्ठीदेवीप्रसादतः ॥ ७२ ॥
रोगयुक्ते च बाले च पिता माता शृणोति चेत् ।
मासेन मुच्यते बालः षष्ठीदेवीप्रसादतः ॥ ७३ ॥
हे ब्रह्मन् ! जो एक वर्षतक भगवती षष्ठीके इस स्तोत्रका श्रवण करता है, वह पुत्रहीन मनुष्य सुन्दर तथा दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त कर लेता है । जो एक वर्षतक भक्तिपूर्वक देवी षष्ठीकी विधिवत् पूजा करके इस स्तोत्रका श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है । महावन्ध्या स्त्री भी इसके श्रवणसे प्रसवके योग्य हो जाती है और वह भगवती षष्ठीकी कृपासे वीर, गुणी, विद्वान, यशस्वी तथा दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न करती है । यदि कोई स्त्री काकवन्ध्या अथवा मृतवत्सा हो तो भी वह एक वर्षतक इस स्तोत्रका श्रवण करके षष्ठीदेवीके अनुग्रहसे पुत्र प्राप्त कर लेती है । पुत्रके व्याधिग्रस्त हो जानेपर यदि मातापिता एक मासतक इस स्तोत्रको सुनें तो षष्ठीदेवीकी कृपासे वह बालक रोगमुक्त हो जाता है ॥ ६९-७३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे
षष्ठ्युपाख्यानवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे षष्ठ्युपाख्यानवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥


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