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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

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मनसोपाख्यानवर्णनम् -
भगवती मनसाका पूजन-विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना -


श्रीनारायण उवाच
मत्तः पूजाविधानं च श्रूयतां मुनिपुङ्‌गव ।
ध्यानं च सामवेदोक्तं प्रोक्तं देवीविधानकम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने देवी मनसाके विषयमें विधानपूर्वक कह दिया । अब आप उनके सामवेदोक्त ध्यान तथा पूजा-विधानके विषयमें मुझसे सुनिये ॥ १ ॥

श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां नागयज्ञोपवीतिनीम् ॥ २ ॥
महाज्ञानयुतां तां च प्रवरज्ञानिनां वराम् ।
सिद्धाधिष्ठातृदेवीं च सिद्धां सिद्धिप्रदां भजे ॥ ३ ॥
'भगवती मनसा श्वेत चम्पकपुष्पके वर्णके समान आभावाली हैं, ये रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, इन्होंने अग्निके समान विशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है, ये नागोंके यज्ञोपवीतसे युक्त हैं, महान् ज्ञानसे सम्पन्न हैं, प्रसिद्ध ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं, सिद्ध पुरुषोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, सिद्धिस्वरूपिणी हैं तथा सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं-ऐसी भगवती मनसाकी मैं आराधना करता हूँ' ॥ २-३ ॥

इति ध्यात्वा च तां देवीं मूलेनैव प्रपूजयेत् ।
नैवेद्यैर्विविधैर्धूपैः पुष्पगन्धानुलेपनैः ॥ ४ ॥
मूलमन्त्रैश्च वेदोक्तैर्भक्तानां वाच्छितप्रदः ।
मुने कल्पतरुर्नाम सुसिद्धो द्वादशाक्षरः ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मनसादेव्यै स्वाहेति कीर्तितः ।
पञ्चलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ६ ॥
मन्त्रसिद्धिर्भवेद्यस्य स सिद्धो जगतीतले ।
सुधासमं विषं तस्य धन्वन्तरिसमो भवेत् ॥ ७ ॥
इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्रसे देवी मनसाकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये । वेदोक्त मूलमन्त्रोंका उच्चारण करके विविध प्रकारके नैवेद्य, धूप, पुष्प तथा पवित्र गन्ध-द्रव्योंके अनुलेपनसे उनकी पूजा सम्पन्न करनी चाहिये । हे मुने ! भगवतीका द्वादशाक्षर मन्त्र पूर्णरूपसे सिद्ध हो जानेपर कल्पतरु नामक वृक्षकी भाँति भक्तोंको वांछित फल प्रदान करनेवाला हो जाता है । वह मन्त्र 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मनसादेव्यै स्वाहा'-ऐसा बताया गया है । पाँच लाख जप करनेसे मनुष्योंके लिये इस मन्त्रकी सिद्धि हो जाती है । जिसकी मन्त्रसिद्धि हो जाती है, वह पृथ्वीतलपर सिद्ध हो जाता है । उसके लिये विष भी अमृतके समान हो जाता है और वह धन्वन्तरितुल्य हो जाता है ॥ ४-७ ॥

ब्रह्मन्स्नात्वा तु सङ्‌क्रान्त्यां गूढशालासु यत्‍नतः ।
आवाह्य देवीमीशानां पूजयेद्योऽतिभक्तितः ॥ ८ ॥
पञ्चम्यां मनसा ध्यायन् देव्यै दद्याच्च यो बलिम् ।
धनवान्पुत्रवांश्चैव कीर्तिमान्स भवेद्‌ ध्रुवम् ॥ ९ ॥
हे ब्रह्मन् ! जो मनुष्य संक्रान्तिके दिन स्नान करके यत्नपूर्वक किसी गुप्त स्थानमें अति भक्तिसे सम्पन्न होकर भगवती मनसाका आवाहन करके इनकी पूजा करता है तथा पंचमी तिथिको मनसे ध्यान करते हुए देवीको नैवेद्य अर्पण करता है, वह निश्चितरूपसे धनवान्, पुत्रवान् तथा कीर्तिमान् होता है ॥ ८-९ ॥

पूजाविधानं कथितं तदाख्यानं निशामय ।
कथयामि महाभाग यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रतः ॥ १० ॥
हे महाभाग ! मैं देवी मनसाकी पूजाका विधान बतला चुका, अब मैं उनके उपाख्यानका वर्णन आपसे कर रहा हूँ, जिसे मैंने साक्षात् धर्मदेवके मुखसे सुना, उसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ १० ॥

पुरा नागभयाक्रान्ता बभूवुर्मानवा भुवि ।
गतास्ते शरणं सर्वे कश्यपं मुनिपुङ्‌गवम् ॥ ११ ॥
प्राचीन कालमें एक बार भूमण्डलके सभी मानव नागोंके भयसे आक्रान्त हो गये थे । तब वे सब मुनिश्रेष्ठ कश्यपकी शरणमें गये ॥ ११ ॥

मन्त्रांश्च ससृजे भीतः कश्यपो ब्रह्मणान्वितः ।
वेदबीजानुसारेण चोपदेशेन ब्रह्मणः ॥ १२ ॥
मन्त्राधिष्ठातृदेवीं तां मनसा ससृजे तथा ।
तपसा मनसा तेन बभूव मनसा च सा ॥ १३ ॥
तत्पश्चात् अत्यन्त भयभीत मुनि कश्यपने ब्रह्माजीके साथ मिलकर मन्त्रोंकी रचना की । उन्होंने वेदबीजमन्त्रोंके अनुसार तथा ब्रह्माजीके उपदेशसे मन्त्रोंका सृजन किया था । साथ ही उन्होंने अपने मनसे मन्त्रोंकी अधिष्ठात्री देवी उन भगवती मनसाका सृजन भी किया, अतः तपस्या तथा मनसे सृजित होनेके कारण वे 'मनसा' नामसे विख्यात हुई ॥ १२-१३ ॥

कुमारी सा च सम्भूता जगाम शङ्‌करालयम् ।
भक्त्या सम्पूज्य कैलासे तुष्टाव चन्द्रशेखरम् ॥ १४ ॥
दिव्यवर्षसहस्रं तं सिषेवे च मुनेः सुता ।
कुमारी अवस्थामें विद्यमान वे भगवान् शिवके धाममें चली गयीं । कैलासपर उन्होंने भक्तिपूर्वक विधिवत् शिवजीकी पूजा करके उनकी स्तुति की । इस प्रकार दिव्य एक हजार वर्षांतक उस मुनिकन्याने शिवजीकी उपासना की ॥ १४.५ ॥

आशुतोषो महेशश्च तां च तुष्टो बभूव ह ॥ १५ ॥
महाज्ञानं ददौ तस्यै पाठयामास साम च ।
कृष्णमन्त्रं कल्पतरुं ददावष्टाक्षरं मुने ॥ १६ ॥
लक्ष्मीमायाकामबीजं ङेऽन्तं कृष्णपदं ततः ।
आशुतोष भगवान् शिव उनपर प्रसन्न हो गये । हे मुने ! तब उन्होंने मनसादेवीको महाज्ञान प्रदान किया तथा सामवेद पढ़ाया और श्रीकृष्णके कल्पवृक्षस्वरूप अष्टाक्षर मन्त्रका उपदेश किया । लक्ष्मीबीज, मायाबीज और कामबीजका पूर्वमें प्रयोग करके कृष्ण शब्दके अन्तमें 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर उसके बाद 'नमः' जोड़ देनेपर बना हुआ अष्टाक्षर (श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः) मन्त्र है ॥ १५-१६.५ ॥

त्रैलोक्यमङ्‌गलं नाम कवचं पूजनक्रमम् ॥ १७ ॥
पुरश्चर्याक्रमं चापि वेदोक्तं सर्वसम्मतम् ।
प्राप्य मृत्युञ्जयान्मन्त्रं सा सती च मुनेः सुता ॥ १८ ॥
जगाम तपसे साध्वी पुष्करं शङ्‌कराज्ञया ।
त्रियुगं च तपस्तप्त्वा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ १९ ॥
सिद्धा बभूव सा देवी ददर्श पुरतः प्रभुम् ।
भगवान् मृत्युंजय शिवसे त्रैलोक्यमंगल नामक कवच, पूजनक्रम, सर्वसम्मत तथा वेदोक्त पुरश्चरणक्रम और मन्त्र प्राप्त करके वे मनिकन्या साध्वी मनसा भगवान् शंकरकी आज्ञासे तपस्या करनेके लिये पुष्करक्षेत्रमें चली गयीं । वहाँ तीन युगोंतक परमेश्वर श्रीकृष्णकी तपस्या करके वे देवी सिद्ध हो गयीं और उन्होंने अपने समक्ष साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन किये ॥ १७-१९.५ ॥

दृष्ट्वा कृशाङ्‌गीं बालां च कृपया च कृपानिधिः ॥ २० ॥
पूजां च कारयामास चकार च स्वयं हरिः ।
वरं च प्रददौ तस्यै पूजिता त्वं भवे भव ॥ २१ ॥
वरं दत्त्वा तु कल्याण्यै ततश्चान्तर्दधे हरिः ।
उस समय कृपानिधि भगवान् श्रीकृष्णने कृश शरीरवाली उन बालाको कृपापूर्वक देखकर उनकी स्वयं पूजा की तथा दूसरोंसे भी पूजा करायी । उन्होंने उन देवीको यह वर भी दिया कि 'तुम जगत्में पूजित होओ' । कल्याणी मनसादेवीको यह वर प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ २०-२१.५ ॥

प्रथमे पूजिता सा च कृष्णेन परमात्मना ॥ २२ ॥
द्वितीये शङ्‌करेणैव कश्यपेन सुरेण च ।
मुनिना मनुना चैव नागेन मानवादिभिः ॥ २३ ॥
बभूव पूजिता सा च त्रिषु लोकेषु सुव्रता ।
इस प्रकार वे मनसादेवी सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्णके द्वारा पूजित हुई । दूसरी बार भगवान् शिवने उनकी पूजा की और इसके बाद कश्यप, देवता, मुनि, मनु, नाग एवं मानव आदिके द्वारा वे सुव्रता मनसादेवी तीनों लोकोंमें पूजित हुईं ॥ २२-२३.५ ॥

जरत्कारुमुनीन्द्राय कश्यपस्तां ददौ पुरा ॥ २४ ॥
अयाचितो मुनिश्रेष्ठो जग्राह ब्राह्मणाज्ञया ।
कृत्वोद्वाहं महायोगी विश्रान्तस्तपसा चिरम् ॥ २५ ॥
सुष्वाप देव्या जघने वटमूले च पुष्करे ।
निद्रां जगाम स मुनिः स्मृत्वा निद्रेशमीश्वरम् ॥ २६ ॥
इसके बाद कश्यपजीने उन देवीको जरत्कारुमुनिको सौंप दिया । कामनारहित होते हुए भी मुनिश्रेष्ठ जरत्कारुने ब्रह्माजीकी आज्ञासे उन्हें पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया । विवाह करनेके पश्चात् चिरकालीन तपस्यासे थके हुए महायोगी मुनि जरत्कारु पुष्करक्षेत्र में एक वटवृक्षके नीचे देवी मनसाके जंघापर लेट गये और निद्रेश्वर भगवान् शिवका स्मरण करके सो गये ॥ २४-२६ ॥

जगामास्तं दिनकरः सायङ्‌काल उपस्थिते ।
सञ्चिन्त्य मनसा साध्वी मनसा सा पतिव्रता ॥ २७ ॥
धर्मलोपभयेनैव चकारालोचनं सती ।
अकृत्वा पश्चिमां सन्ध्यां नित्यां चैव द्विजन्मनाम् ॥ २८ ॥
ब्रह्महत्यादिकं पापं लभिष्यति पतिर्मम ।
नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम् ॥ २९ ॥
स सर्वत्राशुचिर्नित्यं ब्रह्महत्यादिकं लभेत् ।
वेदोक्तमिति सञ्चिन्त्य बोधयामास सुन्दरी ॥ ३० ॥
स च बुद्धो मुनिश्रेष्ठस्तां चुकोप भृशं मुने ।
इतनेमें सूर्य अस्त हो गये । तब सायंकाल उपस्थित होनेपर परम साध्वी देवी मनसा धर्मलोपके भयसे अपने मनमें विचार करके यह सोचने लगीं कि 'ब्राह्मणोंके लिये नित्यकी सायंकालीन सन्ध्या न करके मेरे पतिदेव ब्रह्महत्या आदि पापके भागी होंगे । जो मनुष्य प्रातः तथा सायंकालकी सन्ध्या नहीं करता, वह सब प्रकारसे सदा अपवित्र होकर ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है-ऐसा वेदोंमें कहा गया है'यह सोचकर उस सुन्दरीने अपने पतिको जगा दिया । हे मुने ! जग जानेपर मुनि श्रेष्ठ जरत्कारु मनसादेवीपर अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ २७-३०.५ ॥

मुनिरुवाच
कथं मे सुखिनः साध्वि निद्राभङ्‌गः कृतस्त्वया ॥ ३१ ॥
व्यर्थं व्रतादिकं तस्या या भर्तुश्चापकारिणी ।
तपश्चानशनं चैव व्रतं दानादिकं च यत् ॥ ३२ ॥
भर्तुरप्रियकारिण्याः सर्वं भवति निष्कलम् ।
मुनि बोले-हे साध्वि ! तुमने सुखपूर्वक सोये हुए मेरी निद्रा क्यों भंग कर दी ? जो स्त्री अपने पतिका अपकार करती है, उसके व्रत आदि निरर्थक हो जाते हैं । अपने पतिका अपकार करनेवाली स्त्रीका जो भी तप, उपवास, व्रत, दान आदि है; वह सब निष्फल हो जाता है । ३१-३२.५ ॥

यया प्रियः पूजितश्च श्रीकृष्णः पूजितस्तया ॥ ३३ ॥
पतिव्रताव्रतार्थञ्च पतिरूपो हरिः स्वयम् ।
जिस स्त्रीने अपने पतिकी पूजा की, उसने मानो साक्षात् श्रीकृष्णकी पूजा कर ली । पतिव्रता नारियोंके व्रतके लिये स्वयं भगवान् श्रीहरि पतिरूपमें विराजमान रहते हैं ॥ ३३.५ ॥

सर्वदानं सर्वयज्ञः सर्वतीर्थनिषेवणम् ॥ ३४ ॥
सर्वं व्रतं तपः सर्वमुपवासादिकं च यत् ।
सर्वधर्मश्च सत्यं च सर्वदेवप्रपूजनम् ॥ ३५ ॥
तत्सर्वं स्वामिसेवायाः कलां नार्हति षोडशीम् ।
समस्त दान, यज्ञ, तीर्थसेवन, व्रत, तप, उपवास, धर्म, सत्य और सभी देवताओंका पूजन आदि जो भी पुण्य-कर्म है, वह सब पतिकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं है ॥ ३४-३५.५ ॥

पुण्ये च भारते वर्षे पतिसेवा करोति या ॥ ३६ ॥
वैकुण्ठे स्वामिना सार्धं सा याति ब्रह्मणः पदम् ।
जो स्त्री पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें पतिकी सेवा करती है, वह अपने पतिके साथ वैकुण्ठधाम जाती है और वहाँ परब्रह्म भगवान् श्रीहरिके चरणोंमें शरण पाती है ॥ ३६.५ ॥

विप्रियं कुरुते भर्तुर्विप्रियं वदति प्रियम् ॥ ३७ ॥
असत्कुले प्रसूता हि तत्फलं श्रूयतां सति ।
कुम्भीपाकं व्रजेत्सा च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ३८ ॥
ततो भवति चाण्डाली पतिपुत्रविवर्जिता ।
हे साध्वि ! असत्कुलमें उत्पन्न जो स्त्री अपने पतिके प्रतिकूल आचरण करती है तथा उससे अप्रिय वचन बोलती है, उसके कृत्यका फल सुनो । वह स्त्री कुम्भीपाक नरकमें जाती है और वहाँ सूर्य तथा चन्द्रमाके स्थितिकालतक निवास करती है । तत्पश्चात् वह चाण्डाली होती है और पति तथा पुत्रसे विहीन रहती है ॥ ३७-३८.५ ॥

इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठो बभूव स्फुरिताधरः ॥ ३९ ॥
चकम्पे तेन सा साध्वी भयेनोवाच तं पतिम् ।
ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ जरत्कारुके ओष्ठ प्रस्फुरित होने लगे, जिससे वह साध्वी भयसे काँपने लगी और वह अपने पतिसे कहने लगी ॥ ३९.५ ॥

साध्व्युवाच
सन्ध्यालोपभयेनैव निद्राभङ्‌गः कृतस्तव ॥ ४० ॥
कुरु शान्तिं महाभाग दुष्टाया मम सुव्रत ।
साध्वी बोली-हे महाभाग ! आपकी सन्ध्याके लोपके भयसे ही मैंने आपकी निद्रा भंग की है । हे सुव्रत ! मुझ दुष्टाका यह अपराध अवश्य है, अब आप शान्त हो जाइये ॥ ४०.५ ॥

शृङ्‌गाराहारनिद्राणां यश्च भङ्‌गं करोति वै ॥ ४१ ॥
स व्रजेत्कालसूत्रं वै यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
जो मानव श्रृंगार, आहार और निद्राका भंग करता है, वह सूर्य तथा चन्द्रमाको स्थितिपर्यन्त कालसूत्रनरकमें वास करता है ॥ ४१.५ ॥

इत्युक्त्वा मनसा देवी स्वामिनश्चरणाम्बुजे ॥ ४२ ॥
पपात भक्त्या भीता च रुरोद च पुनः पुनः ।
ऐसा कहकर भयभीत मनसादेवी भक्तिपूर्वक अपने स्वामीके चरणकमलोंपर गिर पड़ी और बारबार विलाप करने लगीं ॥ ४२.५ ॥

कुपितं च मुनिं दृष्ट्वा श्रीसूर्यं शप्तुमुद्यतम् ॥ ४३ ॥
तत्राजगाम भगवान्सन्ध्यया सह नारद ।
तत्रागत्य मुनिं सम्यगुवाच भास्करः स्वयम् ॥ ४४ ॥
विनयेन च भीतश्च तया सह यथोचितम् ।
मुनि जरत्कारुको कुपित होकर सूर्यको शाप देनेके लिये उद्यत देखकर भगवान् सूर्य देवी सन्ध्याको साथ लेकर वहाँ आ गये । हे नारद ! उन देवीके साथ स्वयं भगवान् भास्कर वहाँ आकर भयभीत होकर विनयपूर्वक मुनिसे सम्यक् प्रकारसे यथोचित बात कहने लगे ॥ ४३-४४.५ ॥

भास्कर उवाच
सूर्यास्तसमयं दृष्ट्वा साध्वी धर्मभयेन च ॥ ४५ ॥
बोधयामास त्वां विप्र शरणं त्वामहं गतः ।
क्षमस्व भगवन्ब्रह्मन् मां शप्तुं नोचितं मुने ॥ ४६ ॥
ब्राह्मणानां च हृदयं नवनीतसमं सदा ।
तेषां क्षणार्धं क्रोधश्च ततो भस्म भवेज्जगत् ॥ ४७ ॥
पुनः स्रष्टुं द्विजः शक्तो न तेजस्वी द्विजात्परः ।
ब्राह्मणो ब्रह्मणो वंशः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ ४८ ॥
श्रीकृष्णं भावयेन्नित्यं ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
भास्कर बोले-हे विप्र ! सूर्यास्तका समय जानकर साध्वी मनसाने धर्मलोपके भयसे आपको जगा दिया है । हे भगवन् ! मैं आपकी शरणमें आ गया हूँ, मुझे क्षमा कर दीजिये । हे ब्रह्मन् ! हे मुने ! मुझे शाप देना आपके लिये उचित नहीं है । ब्राह्मणोंका हृदय तो सदा नवनीतके समान कोमल होता है, उनके आधे क्षणमात्रके क्रोधसे सारा संसार भस्म हो सकता है, द्विज फिरसे जगत्की सृष्टि भी कर सकता है, द्विजसे बढ़कर तेजस्वी दूसरा कोई नहीं है । ब्रह्मतेजसे जाज्वल्यमान, ब्रह्मज्योतिस्वरूप तथा ब्रह्मवंश ब्राह्मणको निरन्तर सनातन भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनी चाहिये । ४५-४८.५ ॥

सूर्यस्य वचनं श्रुत्वा द्विजस्तुष्टो बभूव ह ॥ ४९ ॥
सूर्यो जगाम स्वस्थानं गृहीत्वा ब्राह्मणाशिषम् ।
तत्याज मनसां विप्रः प्रतिज्ञापालनाय च ॥ ५० ॥
रुदतीं शोकसंयुक्तां हृदयेन विदूयता ।
सूर्यका वचन सुनकर द्विज जरत्कारु प्रसन्न हो गये । भगवान सूर्य भी विप्र जरत्कारुका आशीर्वाद लेकर अपने स्थानको चले गये । प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये उन विप्रने विक्षुब्ध हृदयसे रुदन करती हुई तथा शोकसन्तप्त देवी मनसाका परित्याग कर दिया ॥ ४९-५०.५ ॥

सा सस्मार गुरुं शम्भुमिष्टदेवं विधिं हरिम् ॥ ५१ ॥
कश्यपं जन्मदातारं विपत्तौ भयकर्शिता ।
उस विपत्तिमें भयसे व्याकुल देवी मनसाने अपने गुरुदेव शिव, इष्टदेवता ब्रह्मा, भगवान् श्रीहरि तथा जन्मदाता कश्यपजीका स्मरण किया ॥ ५१.५ ॥

तत्राजगाम गोपीशो भगवाच्छम्भुरेव च ॥ ५२ ॥
विधिश्च कश्यपश्चैव मनसा परिचिन्तितः ।
मनसे देवी मनसाके ध्यान करनेपर गोपियोंके ईश भगवान् श्रीकृष्ण, शंकर, ब्रह्मा और कश्यपजी वहाँ आ गये ॥ ५२.५ ॥

दृष्ट्वा विप्रोऽभीष्टदेवं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥ ५३ ॥
तुष्टाव परया भक्त्या प्रणनाम मुहुर्मुहुः ।
नमश्चकार शम्भुं च ब्रह्माणं कश्यपं तथा ॥ ५४ ॥
कथमागमनं देवा इति प्रश्नं चकार सः ।
प्रकृतिसे परे तथा निर्गुण अपने अभीष्ट देवको देखकर मुनि जरत्कारुने उनकी स्तुति की तथा बारबार उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । उन्होंने भगवान् शिव, ब्रह्मा तथा कश्यपको भी नमस्कार किया । 'हे देवगण ! यहाँ आपलोगोंका आगमन किसलिये हुआ है ?' उन्होंने ऐसा प्रश्न किया ॥ ५३-५४.५ ॥

ब्रह्मा तद्वचनं श्रुत्वा सहसा समयोचितम् ॥ ५५ ॥
प्रत्युवाच नमस्कृत्य हृषीकेशपदाम्बुजम् ।
यदि त्यक्ता धर्मपत्‍नी धर्मिष्ठा मनसा सती ॥ ५६ ॥
कुरुष्वास्यां सुतोत्पत्तिं स्वधर्मपालनाय वै ।
जायायां च सुतोत्पत्तिं कृत्वा पश्चात्त्यजेन्मुने ॥ ५७ ॥
अकृत्वा तु सुतोत्पत्तिं विरागी यस्त्यजेत्प्रियाम् ।
स्रवते तस्य पुण्यं च चालन्यां च यथा जलम् ॥ ५८ ॥
मुनि जरत्कारुका वचन सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलको प्रणाम करके सहसा समयोचित उत्तर दिया-'हे मुने ! यदि आप अपनी साध्वी तथा धर्मपरायणा पत्नी मनसाका त्याग ही करना चाहते हैं, तो इसे स्त्रीधर्म-पालनके योग्य बनानेहेतु पहले इससे पुत्र उत्पन्न कीजिये । अपनी भार्यासे पुत्र उत्पन्न करनेके बाद आप इसका त्याग कर सकते हैं । क्योंकि जो विरागी पुरुष पुत्र उत्पन्न किये बिना ही अपनी प्रिय भार्याका त्याग करता है, उसका पुण्य चलनीसे बहकर निकल जानेवाले जलकी भाँति नष्ट हो जाता है' ॥ ५५-५८ ॥

ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा जरत्कारुर्मुनीश्वरः ।
चकार नाभिसंस्पर्शं योगेन मन्त्रपूर्वकम् ॥ ५९ ॥
मनसाया मुनिश्रेष्ठ मुनिश्रेष्ठ उवाच ताम् ।
हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्रह्माजीका वचन सुनकर मुनीश्वर जरत्कारुने मन्त्रोच्चारण करते हुए योगबलका आश्रय लेकर मनसादेवीकी नाभिका स्पर्श किया । तत्पश्चात् मुनिवर जरत्कारु उन देवीसे कहने लगे ॥ ५९.५ ॥

जरत्कारुरुवाच
गर्भेणानेन मनसे तव पुत्रो भविष्यति ॥ ६० ॥
जितेन्द्रियाणां प्रवरो धार्मिको ब्राह्मणाग्रणीः ।
तेजस्वी च तपस्वी च यशस्वी च गुणान्वितः ॥ ६१ ॥
वरो वेदविदां चैव ज्ञानिनां योगिनां तथा ।
स च पुत्रो विष्णुभक्तो धार्मिकः कुलमुद्धरेत् ॥ ६२ ॥
नृत्यन्ति पितरः सर्वे जन्ममात्रेण वै मुदा ।
पतिव्रता सुशीला या सा प्रिया प्रियवादिनी ॥ ६३ ॥
धर्मिष्ठा पुत्रमाता च कुलस्त्री कुलपालिका ।
हरिभक्तिप्रदो बन्धुर्न चाभीष्टसुखप्रदः ॥ ६४ ॥
यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः ।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी ॥ ६५ ॥
जरत्कारु बोले-हे मनसे ! तुम्हारे इस गर्भसे जितेन्द्रियोंमें श्रेष्ठ, धार्मिक, ब्राह्मणोंमें अग्रणी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी, गुणसम्पन्न और वेदवेत्ताओं-ज्ञानियोंयोगियोंमें श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न होगा । वह धार्मिक तथा विष्णुभक्त पुत्र कुलका उद्धार करेगा । ऐसे पुत्रके जन्म लेनेमात्रसे पितृगण हर्षपूर्वक नाच उठते हैं । प्रिय पत्नी वही है जो मृदुभाषिणी, सुशीला, पतिव्रता, धर्मिष्ठा, सुपुत्रकी माता, कुलस्वी तथा कुलका पालन करनेवाली होती है । श्रीहरिकी भक्ति प्रदान करनेवाला ही सच्चा बन्धु होता है, न कि अभीष्ट सुख देनेवाला । भगवत्प्राप्तिका मार्ग दिखानेवाला बन्धु ही सच्चा पिता है । जो आवागमनसे मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता होती है । वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यमके त्राससे छुटकारा दिला दे ॥ ६०-६५ ॥

दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी ।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः ॥ ६६ ॥
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम् ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम् ॥ ६७ ॥
आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः ।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम् ॥ ६८ ॥
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम् ।
गुरु वही है, जो विष्णुका मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न करनेवाला हो । ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करानेवाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृणसे लेकर ब्रह्मपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत होकर पुनः विनष्ट हो जाता है, तो फिर अन्य वस्तुसे ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञसे जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरिकी सेवा ही है । यही हरिसेवा समस्त तत्त्वोंका सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरिकी सेवाके अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बनामात्र है ॥ ६६-६८.५ ॥

दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः ॥ ६९ ॥
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः ।
[हे देवि !] इस प्रकार मैंने तुम्हें ज्ञानोपदेश कर दिया । ज्ञानदाता स्वामी वही है, जो ज्ञानके द्वारा बन्धनसे मुक्त कर देता है और जो बन्धनमें डालता है, वह शत्रु है ॥ ६९.५ ॥

विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः ॥ ७० ॥
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा ॥ ७१ ॥
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः ।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम् ॥ ७२ ॥
न दर्शयेद्यः सततं कीदृशो बान्धवो नृणाम् ।
जो गुरु भगवान् श्रीहरिमें भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नहीं देता, वह शिष्यघाती तथा शत्रु है; क्योंकि वह बन्धनसे मुक्त नहीं करता । जो जननीके गर्भजनित कष्ट तथा यमयातनासे मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो भगवान् श्रीकृष्णके परमानन्दस्वरूप सनातन मार्गका निरन्तर दर्शन नहीं कराता, वह मनुष्योंके लिये कैसा बान्धव है ? ॥ ७०-७२.५ ॥

भज साध्वि परं ब्रह्माच्युतं कृष्णं च निर्गुणम् ॥ ७३ ॥
निर्मूलं च भवेत्पुंसां कर्म वै तस्य सेवया ।
मया छलेन त्वं त्यक्ता क्षमस्वैतन्मम प्रिये ॥ ७४ ॥
क्षमायुतानां साध्वीनां सत्त्वात्क्रोधो न विद्यते ।
पुष्करे तपसे यामि गच्छ देवि यथासुखम् ॥ ७५ ॥
श्रीकृष्णचरणाम्भोजे निःस्पृहाणां मनोरथाः ।
अतः हे साध्वि ! तुम निर्गुण तथा अच्युत परब्रह्म श्रीकृष्णकी आराधना करो । उनकी उपासनासे मनुष्योंका सारा कर्म निर्मूल हो जाता है । हे प्रिये ! मैंने छलपूर्वक तुम्हारा परित्याग किया है, अतः मेरे इस अपराधको क्षमा करो । सत्त्वगुणके प्रभावसे क्षमाशील साध्वी नारियोंमें क्रोध नहीं रहता । हे देवि ! मैं तप करनेके लिये पुष्करक्षेत्र जा रहा हूँ । तुम भी यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ । भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलमें अनुराग ही निःस्पृह प्राणियोंका एकमात्र मनोरथ होता है । ७३-७५.५ ॥

जरत्कारुवचः श्रुत्वा मनसा शोककातरा ॥ ७६ ॥
साश्रुनेत्रा च विनयादुवाच प्राणवल्लभम् ।
मुनि जरत्कारुका वचन सुनकर शोकसे व्याकुल तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाली मनसादेवी अपने प्राणप्रिय पतिदेवसे विनम्रतापूर्वक कहने लगीं ॥ ७६.५ ॥

मनसोवाच
दोषो नास्त्येव मे त्यक्तुं निद्राभङ्‌गेन ते प्रभो ॥ ७७ ॥
यत्र स्मरामि त्वां नित्यं तत्र मामागमिष्यसि ।
मनसा बोलीं-हे प्रभो ! निद्राभंग कर देनेके कारण जो आप मेरा त्याग कर रहे हैं, इसमें मेरा दोष नहीं है । [अतः आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि] मैं जहाँ भी आपका स्मरण करूँ, वहीं आप मुझे सदा दर्शन दीजियेगा ॥ ७७.५ ॥

बन्धुभेदः क्लेशतमः पुत्रभेदस्ततः परम् ॥ ७८ ॥
प्राणेशभेदः प्राणानां विच्छेदात्सर्वतः परः ।
अपने बन्धुओंका वियोग अत्यन्त कष्टदायक होता है, पुत्रका वियोग उससे भी अधिक कष्टदायक होता है, किंतु प्राणेश्वर पतिदेवका वियोग प्राणविच्छेदके तुल्य होनेके कारण सबसे अधिक कष्टकर होता है ॥ ७८.५ ॥

पतिः पतिव्रतानां तु शतपुत्राधिकं प्रियः ॥ ७९ ॥
सर्वस्मात्तु प्रियः स्त्रीणां प्रियस्तेनोच्यते बुधैः ।
पतिव्रता स्त्रियोंके लिये पति सौ पत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है । स्त्रियोंके लिये पति सबसे बढ़कर प्रिय होता है, अतः विद्वान् पुरुषोंने पतिको प्रियकी संज्ञा प्रदान की है ॥ ७९.५ ॥

पुत्रे यथैकपुत्राणां वैष्णवानां यथा हरौ ॥ ८० ॥
नेत्रे यथैकनेत्राणां तृषितानां यथा जले ।
क्षुधितानां यथान्ने च कामुकानां च मैथुने ॥ ८१ ॥
यथा परस्वे चौराणां यथा जारे कुयोषिताम् ।
विदुषां च यथा शास्त्रे वाणिज्ये वणिजां यथा ॥ ८२ ॥
तथा शश्वन्मनः कान्ते साध्वीनां योषितां प्रभो ।
जिस प्रकार एक पुत्रवाले लोगोंका मन पुत्रमें, वैष्णवजनोंका भगवान् श्रीहरिमें, एक नेत्रवालोंका नेत्रमें, प्यासे प्राणियोंका जलमें, भूखे प्राणियोंका अन्नमें, कामासक्त-जनोंका मैधनमें, चोरोंका पराये धनमें, स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंका व्यभिचारी पुरुषमें, विद्वानोंका शास्त्रमें तथा वैश्योंका मन वाणिज्यमें लगा रहता है; उसी प्रकार हे प्रभो ! पतिव्रता स्त्रियोंका मन सदा अपने पतिमें लगा रहता है ॥ ८०-८२.५ ॥

इत्युक्त्वा मनसा देवी पपात स्वामिनः पदे ॥ ८३ ॥
क्षणं चकार क्रोडे तां कृपया च कृपानिधिः ।
नेत्रोदकेन मनसां स्नापयामास तां मुनिः ॥ ८४ ॥
साश्रु नेत्रा मुनेः क्रोडं सिषेच भेदकातरा ।
ऐसा कहकर मनसादेवी अपने स्वामीके चरणोंपर गिर पड़ीं । कृपानिधि मुनिवर जरत्कारुने कृपा करके क्षणभरके लिये उन्हें अपनी गोदमें ले लिया । मुनिने अश्रुसे मनसादेवीको सम्पृक्त कर दिया । वियोगजन्य भयसे व्याकुल तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाली देवी मनसाने भी अपने आँसुओंसे उन मुनिकी गोदको सींच डाला ॥ ८३-८४.५ ॥

तदा ज्ञानेन तौ द्वौ च विशोकौ सम्बभूवतुः ॥ ८५ ॥
स्मारं स्मारं पदाम्भोजं कृष्णस्य परमात्मनः ।
जगाम तपसे विप्रः स्वकान्तां सम्प्रबोध्य च ॥ ८६ ॥
जगाम मनसा शम्भोः कैलासं मन्दिरं गुरोः ।
पार्वती बोधयामास मनसां शोककर्शिताम् ॥ ८७ ॥
शिवश्चातीव ज्ञानेन शिवेन च शिवालयः ।
तत्पश्चात् मुनि जरत्कारु तथा देवी मनसा-वे दोनों ही ज्ञानद्वारा शोकसे मुक्त हो गये । अपनी प्रियाको समझाकर बार-बार परमात्मा श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान करते हुए मुनि जरत्कारु तपस्याके लिये चले गये और देवी मनसा भी अपने गुरु भगवान् शिवके धाम कैलासपर चली गयीं । वहाँ पार्वतीने शोकसन्तप्त देवी मनसाको बहुत समझाया और कल्याण-निधान भगवान् शिवने भी उसे अत्यन्त मंगलकारी ज्ञान प्रदान किया । ८५-८७.५ ॥

सुप्रशस्ते दिने साध्वी सुषुवे मङ्‌गलक्षणे ॥ ८८ ॥
नारायणांशं पुत्रं तं योगिनां ज्ञानिनां गुरुम् ।
गर्भस्थितो महाज्ञानं श्रुत्वा शङ्‌करवक्त्रतः ॥ ८९ ॥
तदनन्तर देवी मनसाने अत्यन्त प्रशस्त तथा मंगलमय वेलामें एक पुत्रको जन्म दिया, जो भगवान् नारायणका अंश और योगियों तथा ज्ञानियोंका भी गुरु था । वह बालक गर्भमें स्थित रहते हुए ही भगवान् शिवके मुखसे महाज्ञानका श्रवण करके योगियों तथा ज्ञानियोंका गुरु और योगीश्वर हो गया था ॥ ८८-८९ ॥

सम्बभूव च योगीन्द्रो योगिनां ज्ञानिनां गुरुः ।
जातकं कारयामास वाचयामास मङ्‌गलम् ॥ ९० ॥
वेदांश्च पाठयामास शिवाय च शिवः शिशोः ।
भगवान् शिवने उस शिशुका जातकर्म-संस्कार कराया तथा उसके कल्याणके लिये स्वस्तिवाचन और वेदपाठ कराया ॥ ९०.५ ॥

मणिरत्‍नकिरीटांश्च ब्राह्मणेभ्यो ददौ शिवः ॥ ९१ ॥
पार्वती च गवां लक्षं रत्‍नानि विविधानि च ।
शिवजीने बहुतसे मणि, रत्न तथा मुकुट ब्राह्मणोंको दान दिये और पार्वतीजीने लाखों गौएँ तथा भाँतिभौतिके रत्न उन्हें प्रदान किये ॥ ९१.५ ॥

शम्भुश्च चतुरो वेदान्वेदाङ्‌गानितरांस्तथा ॥ ९२ ॥
बालकं पाठयामास ज्ञानं मृत्युञ्जयं परम् ।
भगवान् शिवने उस बालकको चारों वेद तथा वेदांग पढ़ाये और उसे श्रेष्ठ मृत्युंजय-ज्ञानका उपदेश दिया ॥ ९२.५ ॥

भक्तिरस्त्यधिका कान्तेऽभीष्टदेवे गुरौ तथा ॥ ९३ ॥
यस्यास्तेन च तत्पुत्रो बभूवास्तीक एव च ।
अपने पति, अभीष्ट देवता तथा गुरुमें उस मनसाकी अत्यधिक भक्ति थी, इसलिये उसके पुत्रका नाम 'आस्तीक' हुआ ॥ ९३.५ ॥

जगाम तपसे विष्णोः पुष्करं शङ्‌कराज्ञया ॥ ९४ ॥
सम्प्राप्य च महामन्त्रं ततश्च परमात्मनः ।
दिव्यं वर्षत्रिलक्षं च तपस्तप्त्वा तपोधनः ॥ ९५ ॥
आजगाम महायोगी नमस्कर्तुं शिवं प्रभुम् ।
शङ्‌करं च नमस्कृत्य स्थित्वा तत्रैव बालकः ॥ ९६ ॥
मुनि जरत्कारु पहले ही शिवजीकी आज्ञासे भगवान् विष्णुकी तपस्या करनेके लिये पुष्करक्षेत्रमें चले गये थे । वहाँ परमात्मा श्रीकृष्णका महामन्त्र प्राप्त करके वे तपोधन महायोगी जरत्कारु दिव्य तीन लाख वर्षातक तपस्या करनेके पश्चात् भगवान् शिवको नमस्कार करनेके लिये आये । शंकरको नमस्कार करके वे वहीं रुक गये । बालक भी वहींपर था ॥ ९४-९६ ॥

सा चाजगाम मनसा कश्यपस्याश्रमं पितुः ।
तां सपुत्रां सुतां दृष्ट्वा मुदं प्राप प्रजापतिः ॥ ९७ ॥
शतलक्षं च रत्‍नानां बाह्मणेभ्यो ददौ मुने ।
ब्राह्मणान्भोजयामास सोऽसंख्यान् श्रेयसे शिशोः ॥ ९८ ॥
तत्पश्चात् वे देवी मनसा अपने पिता कश्यपमुनिके आश्रममें आ गयीं । पुत्रसहित उस पुत्रीको देखकर प्रजापति कश्यप अत्यन्त हर्षित हुए । हे मुने ! कश्यपजीने शिशुके कल्याणके लिये ब्राह्मणोंको करोड़ों रत्नोंका दान किया और असंख्य ब्राह्मणोंको भोजन कराया ॥ ९७-९८ ॥

अदितिश्च दितिश्चान्या मुदं प्राप परन्तप ।
सा सपुत्रा च सुचिरं तस्थौ तातालये सदा ॥ ९९ ॥
तदीयं पुनराख्यानं वक्ष्यामि तन्निशामय ।
हे परंतप ! प्रजापति कश्यपकी दिति, अदिति तथा अन्य सभी पलियाँ परम प्रसन्न हुई । उस समय देवी मनसा अपने पुत्रके साथ दीर्घकालतक अपने पिताके आश्रममें स्थित रहीं । अब उनका आगेका आख्यान पुन: कहूँगा, उसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ ९९.५ ॥

अथाभिमन्युतनये ब्रह्मशापः परीक्षिते ॥ १०० ॥
बभूव सहसा ब्रह्मन् दैवदोषेण कर्मणा ।
सप्ताहे समतीते तु तक्षकस्त्वां च धक्ष्यति ॥ १०१ ॥
शशाप शृङ्‌गी तत्रैव कौशिक्याश्च जलेन वै ।
हे ब्रह्मन् ! एक समयकी बात है, अभिमन्युपुत्र राजा परीक्षित् दैवकी प्रेरणासे अपने द्वारा किये गये सदोष कर्मके कारण ब्रह्मशापसे सहसा ग्रस्त हो गये । शृंगीऋषिने कौशिकीनदीका जल लेकर उन्हें शाप दे दिया कि एक सप्ताह व्यतीत होते ही तक्षकनाग तुम्हें डंस लेगा ॥ १००-१०१.५ ॥

राजा श्रुत्वा तत्प्रवृत्तिं निर्वातस्थानमागतः ॥ १०२ ॥
तत्र तस्थौ च सप्ताहं देहरक्षणतत्परः ।
शृंगीऋषिका वह शाप सुनकर राजा परीक्षित् ऐसे सुरक्षित स्थानपर आ गये, जहाँ वायु भी प्रवेश नहीं कर सकता था । अपने देहकी रक्षामें तत्पर रहते हुए राजा परीक्षित् एक सप्ताहतक वहाँ रहे ॥ १०२.५ ॥

सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि ॥ १०३ ॥
धन्वन्तरिर्नृपं भोक्तुं ददर्श गामुकः पथि ।
राजा परीक्षित्को विषमुक्त करनेके लिये जाते हुए धन्वन्तरिने सप्ताह बीतनेपर राजाको डंसनेके लिये जा रहे तक्षकको मार्गमें देखा ॥ १०३.५ ॥

तयोर्बभूव संवादः सुप्रीतिश्च परस्परम् ॥ १०४ ॥
धन्वन्तरिर्मणिं प्राप तक्षकः स्वेच्छया ददौ ।
स ययौ तं गृहीत्वा तु सन्तुष्टो हृष्टमानसः ॥ १०५ ॥
तक्षको भक्षयामास नृपं तं मञ्चके स्थितम् ।
राजा जगाम तरसा देहं त्यक्त्वा परत्र च ॥ १०६ ॥
संस्कारं कारयामास पितुर्वै जनमेजयः ।
उन दोनोंमें बातचीत होने लगी और परस्पर बड़ी प्रीति हो गयी । तक्षकने अपनी इच्छासे उन्हें मणि दे दी और धन्वन्तरिने मणि ग्रहण कर ली । मणि पाकर वे सन्तुष्ट हो गये और प्रसन्नचित्त होकर लौट गये । इसके बाद तक्षकने मंचपर बैठे हुए राजाको डंस लिया । इसके परिणामस्वरूप राजा परीक्षित् तत्काल देह त्यागकर परलोक चले गये । तब राजा जनमेजयने अपने पिताका समस्त औदैहिक संस्कार कराया ॥ १०४-१०६.५ ॥

राजा चकार यज्ञं च सर्पसत्रं ततो मुने ॥ १०७ ॥
प्राणांस्तत्याज सर्पाणां समूहो ब्रह्मतेजसा ।
स तक्षको वै भीतस्तु महेन्द्रं शरणं ययौ ॥ १०८ ॥
सेन्द्रं च तक्षकं हन्तुं विप्रवर्गः समुद्यतः ।
हे मुने ! तत्पश्चात् राजाने सर्पसत्र नामक यज्ञ आरम्भ किया, जिसमें ब्रह्मतेजके कारण अनेक सर्प प्राण त्यागने लगे । तब तक्षक भयभीत होकर इन्द्रकी शरणमें चला गया । विप्रसमुदाय इन्द्रसहित तक्षकको मारनेके लिये उद्यत हुआ ॥ १०७-१०८.५ ॥

अथ देवाश्च सेन्द्राश्च सञ्जग्मुर्मनसान्तिकम् ॥ १०९ ॥
तां तुष्टाव महेन्द्रश्च भयकातरविह्वलः ।
ऐसी स्थितिमें इन्द्रसहित सभी देवगण देवी मनसाके पास गये । वहाँपर भयातुर तथा व्याकुल इन्द्रने उन भगवती मनसाकी स्तुति की ॥ १०९.५ ॥

तत आस्तीक आगत्य यज्ञं च मातुराज्ञया ॥ ११० ॥
महेन्द्रतक्षकप्राणान्ययाचे भूमिपं परम् ।
ददौ वरं नृपश्रेष्ठः कृपया ब्राह्मणाज्ञया ॥ १११ ॥
यज्ञं समाप्य विप्रेभ्यो दक्षिणां च ददौ मुदा ।
तदनन्तर मुनिवर आस्तीकने माताकी आज्ञासे यज्ञमें आकर श्रेष्ठ राजा जनमेजयसे इन्द्र और तक्षकके प्राणोंकी याचना की । तब महाराज जनमेजयने उन्हें कृपापूर्वक प्राणदानका वर दे दिया और ब्राह्मणोंकी आज्ञासे यज्ञका समापन करके विप्रोंको प्रसन्नतापूर्वक दक्षिणा दी ॥ ११०-१११.५ ॥

विप्राश्च मुनयो देवा गत्वा च मनसान्तिकम् ॥ ११२ ॥
मनसां पूजयामासुस्तुष्टुवुश्च पृथक् पृथक् ।
शक्रः सम्भृतसम्भारो भक्तियुक्तः सदा शुचिः ॥ ११३ ॥
मनसां पूजयामास तुष्टाव परमादरात् ।
नत्वा षोडशोपचारं बलिं च तत्प्रियं तदा ॥ ११४ ॥
प्रददौ परितुष्टश्च ब्रह्मविष्णुशिवाज्ञया ।
सम्पूज्य मनसां देवीं प्रययुः स्वालयं च ते ॥ ११५ ॥
इत्येवं कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
तत्पश्चात् ब्राह्मण, मुनि तथा देवताओंने देवी मनसाके पास जाकर पृथक्-पृथक् उनकी पूजा तथा स्तुति की । इन्द्रने भी सभी पूजन-सामग्री एकत्र करके पवित्र होकर परम आदरपूर्वक मनसादेवीका पूजन तथा स्तवन किया । उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवीको श्रद्धापूर्वक नमस्कार करके उन्हें षोडशोपचार तथा प्रियपदार्थ प्रदान किये । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी आज्ञाके अनुसार देवी मनसाकी पूजा करके वे सब अपने-अपने स्थानको चले गये । [हे मुने !] इस प्रकार मैंने मनसादेवीका सम्पूर्ण आख्यान कह दिया, अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ११२-११५.५ ॥

नारद उवाच
केन स्तोत्रेण तुष्टाव महेन्द्रो मनसां सतीम् ॥ ११६ ॥
पूजाविधिक्रमं तस्याः श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।
नारदजी बोले-[हे भगवन् !] देवराज इन्द्रने किस स्तोत्रसे देवी मनसाकी स्तुति की ? साथ ही मैं उन देवीके पूजा-विधानका क्रम यथार्थरूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ ११६.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
सुस्नातः शुचिराचान्तो धृत्वा धौते च वाससी ॥ ११७ ॥
रत्‍नसिंहासने देवीं वासयामास भक्तितः ।
स्वर्गङ्‌गाया जलेनैव रत्‍नकुम्भस्थितेन च ॥ ११८ ॥
स्नापयामास मनसां महेन्द्रो वेदमन्त्रतः ।
वाससी वासयामास वह्मिशुद्धे मनोहरे ॥ ११९ ॥
सर्वाङ्‌गे चन्दनं कृत्वा पादार्घ्यं भक्तिसंयुतः ।
गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् ॥ १२० ॥
सम्पूज्यादौ देवषट्कं पूजयामास तां सतीम् ।
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] देवराज इन्द्रने विधिपूर्वक स्नान किया । इसके बाद पवित्र होकर तथा आचमन करके उन्होंने दो शुद्ध वस्त्र धारण किये, फिर देवी मनसाको भक्तिपूर्वक रत्नमय सिंहासनपर विराजित किया । तत्पश्चात् इन्द्रने वेदमन्त्रोंका उच्चारण करते हुए रत्नमय कलशमें भरे हुए स्वर्गगाके जलसे भगवतीको स्नान कराया और अग्नितुल्य शुद्ध दो मनोहर वस्त्र पहनाये । देवीके सम्पूर्ण अंगोंमें चन्दन लगाकर उन्हें भक्तिपूर्वक पाद्य तथा अर्घ्य अर्पण करनेके अनन्तर गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती-इन छ: देवताओंकी विधिवत् पूजा करके इन्द्रने साध्वी मनसाका पूजन किया ॥ ११७–१२०.५ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं मनसादेव्यै स्वाहेत्येवं च मन्त्रतः ॥ १२१ ॥
दशाक्षरेण मूलेन ददौ सर्वं यथोचितम् ।
दत्त्वा षोडशोपचारान्दुर्लभान्देवनायकः ॥ १२२ ॥
पूजयामास भक्त्या च विष्णुना प्रेरितो मुदा ।
वाद्यं नानाप्रकारं च वादयामास तत्र वै ॥ १२३ ॥
इन्द्रने 'ॐ ह्रीं श्रीं मनसादेव्यै स्वाहा'इस दशाक्षर मूल मन्त्रके द्वारा यथोचितरूपसे सभी पूजन-सामग्री अर्पित की । इस तरह भगवान् विष्णुकी प्रेरणा पाकर देवराज इन्द्रने सोलह प्रकारके दुर्लभ पूजनोपचार अर्पण करके प्रसन्नतापूर्वक भक्तिके साथ देवी मनसाकी पूजा की । उस समय इन्द्रने नाना प्रकारके वाद्य बजवाये ॥ १२१-१२३ ॥

बभूव पुष्पवृष्टिश्च नभसो मनसोपरि ।
देवप्रियाज्ञया तत्र बह्मविष्णुशिवाज्ञया ॥ १२४ ॥
तुष्टाव साश्रुनेत्रश्च पुलकाङ्‌कितविग्रहः ।
देवताओंके प्रिय इन्द्रकी आज्ञा तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी आज्ञासे देवी मनसाके ऊपर आकाशसे पुष्पवृष्टि होने लगी । तत्पश्चात् पुलकित शरीरवाले इन्द्र नेत्रोंमें आँसू भरकर भगवती मनसाकी स्तुति करने लगे ॥ १२४.५ ॥

पुरन्दर उवाच
देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि साध्वीनां प्रवरां वराम् ॥ १२५ ॥
परात्परां च परमां न हि स्तोतुं क्षमोऽधुना ।
स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाख्यानतत्परम् ॥ १२६ ॥
न क्षमः प्रकृते वक्तुं गुणानां गणनां तव ।
पुरन्दर बोले-हे देवि ! पतिव्रताओंमें अतिश्रेष्ठ, परात्पर तथा परमा आप भगवतीकी मैं स्तुति करना चाहता है । किंतु इस समय आपकी स्तुति कर पानेमें समर्थ नहीं हूँ । हे प्रकृते ! मैं वेदमें वर्णित आपके स्तोत्रोंके लक्षण तथा आपके चरित्रसम्बन्धी आख्यान आदिका वर्णन करने में सक्षम नहीं हूँ । [हे देवि !] मैं आपके गुणोंकी गणना नहीं कर सकता ॥ १२५-१२६.५ ॥

शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं कोपहिंसादिवर्जिता ॥ १२७ ॥
न च शक्तो मुनिस्तेन त्यक्तुं याञ्चा कृता यतः ।
त्वं मया पूजिता साध्वी जननी मे यथादितिः ॥ १२८ ॥
दयारूपा च भगिनी क्षमारूपा यथा प्रसूः ।
आप शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हैं तथा क्रोध, हिंसा आदिसे रहित हैं । मुनि जरत्कारु आपका त्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं थे, इसलिये उन्होंने आपसे क्षमायाचना की थी । आप साध्वी मेरी माता अदितिके समान ही मेरी पूजनीया हैं । आप दयारूपसे मेरी भगिनी तथा क्षमारूपसे मेरी जननी हैं ॥ १२७-१२८.५ ॥

त्वया मे रक्षिताः प्राणाः पुत्रदाराः सुरेश्वरि ॥ १२९ ॥
अहं करोमि त्वत्पूजां प्रीतिश्च वर्धतां सदा ।
नित्या यद्यपि पूज्या त्वं सर्वत्र जगदम्बिके ॥ १३० ॥
तथापि तव पूजां च वर्धयामि सुरेश्वरि ।
ये त्वामाषाढसङ्‌क्रान्त्यां पूजयिष्यन्ति भक्तितः ॥ १३१ ॥
पञ्चम्यां मनसाख्यायां मासान्ते वा दिने दिने ।
पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते च धनानि वै ॥ १३२ ॥
यशस्विनः कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो गुणान्विताः ।
ये त्वां न पूजयिष्यन्ति निन्दन्त्यज्ञानतो जनाः ॥ १३३ ॥
लक्ष्मीहीना भविष्यन्ति तेषां नागभयं सदा ।
हे सुरेश्वरि ! आपके द्वारा मेरे प्राण, पुत्र और स्त्रीकी रक्षा हुई है, अत: मैं आपकी पूजा करता हूँ । आपके प्रति मेरी प्रीति निरन्तर बढ़ती रहे । हे जगदम्बिके ! यद्यपि आप सनातनी भगवती सर्वत्र पूज्य हैं, फिर भी मैं आपकी पूजाका प्रचार कर रहा हूँ । हे सुरेश्वरि ! जो मनुष्य आषाढ़-मासकी संक्रान्ति, मनसा-पंचमी (नागपंचमी), मासके अन्तमें अथवा प्रतिदिन भक्तिपूर्वक आपकी पूजा करेंगे, उनके पुत्र-पौत्र आदि तथा धनकी वृद्धि अवश्य ही होगी और वे यशस्वी, कीर्तिमान्, विद्यासम्पन्न तथा गुणी होंगे । जो प्राणी आपकी पूजा नहीं करेंगे तथा अज्ञानके कारण आपकी निन्दा करेंगे, वे लक्ष्मीविहीन रहेंगे और उन्हें सदा नागोंसे भय बना रहेगा ॥ १२९-१३३.५ ॥

त्वं स्वयं सर्वलक्ष्मीश्च वैकुण्ठे कमलालया ॥ १३४ ॥
नारायणांशो भगवाञ्जरत्कारुर्मुनीश्वरः ।
तपसा तेजसा त्वां च मनसा ससृजे पिता ॥ १३५ ॥
अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिधा ।
[हे देवि !] आप स्वयं सर्वलक्ष्मी हैं तथा वैकुण्ठमें कमलालया हैं और मुनीश्वर भगवान् जरत्कारु नारायणके अंश हैं । आपके पिताने हमलोगोंकी रक्षाके उद्देश्यसे ही तपस्या और तेजके प्रभावसे मनके द्वारा आपका सृजन किया है, अतः आप 'मनसा' नामसे विख्यात हैं ॥ १३४-१३५.५ ॥

मनसादेवि शक्त्या त्वं स्वात्मना सिद्धयोगिनी ॥ १३६ ॥
तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता भव ।
ये भक्त्या मनसां देवाः पूजयन्त्यनिशं भृशम् ॥ १३७ ॥
तेन त्वां मनसां देवीं प्रवदन्ति मनीषिणः ।
सत्यस्वरूपा देवि त्वं शश्वत्सत्यनिषेवणात् ॥ १३८ ॥
यो हि त्वां भावयेन्नित्यं स त्वां प्राप्नोति तत्परः ।
हे मनसादेवि ! आप अपनी शक्तिसे सिद्धयोगिनी हैं, अत: आप मनसादेवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हों । देवगण भक्तिपूर्वक मनसे निरन्तर आपकी श्रेष्ठ पूजा करते हैं, इसीलिये विद्वान् पुरुष आपको 'मनसादेवी' कहते हैं । हे देवि ! सत्यकी सर्वदा उपासना करनेके कारण आप सत्यस्वरूपिणी हैं । जो मनुष्य तत्पर होकर निरन्तर आपका ध्यान करता है, वह आपको प्राप्त कर लेता है ॥ १३६-१३८.५ ॥

इन्द्रश्च मनसां स्तुत्वा गृहीत्वा भगिनीवरम् ॥ १३९ ॥
प्रजगाम स्वभवनं भूषया सपरिच्छदम् ।
[हे मुने !] इस प्रकार मनसादेवीकी स्तुति करके और उन भगिनीरूप देवीसे वर प्राप्तकर देवराज इन्द्र अनेकविध भूषणोंसे अलंकृत अपने भवनको चले गये ॥ १३९.५ ॥

पुत्रेण सार्धं सा देवी चिरं तस्थौ पितुर्गृहे ॥ १४० ॥
भ्रातृभिः पूजिता शश्वन्मान्या वन्द्या च सर्वतः ।
मनसादेवीने अपने पुत्रके साथ पिता कश्यपके आश्रममें दीर्घकालतक निवास किया । भ्राताओंके द्वारा वे सदा पूजित, सम्मानित और वन्दित हुई ॥ १४०.५ ॥

गोलोकात्सुरभिर्ब्रह्मन् तत्रागत्य सुपूजिताम् ॥ १४१ ॥
तां स्नापयित्वा क्षीरेण पूजयामास सादरम् ।
ज्ञानं च कथयामास गोप्यं सर्वं सुदुर्लभम् ॥ १४२ ॥
तया देवैः पूजिता सा स्वर्लोकं च पुनर्ययौ ।
हे ब्रह्मन् ! तदनन्तर सुरभि गौने गोलोकसे वहाँ आकर इन्द्रद्वारा सुपूजित उन मनसादेवीको अपने दुग्धसे स्नान कराकर आदरपूर्वक उनकी पूजा की और उन देवीने उन्हें अत्यन्त दुर्लभ तथा गोपनीय सम्पूर्ण ज्ञानका उपदेश दिया । तत्पश्चात् उस सुरभि तथा देवताओंके द्वारा पूजित वे देवी मनसा पुनः स्वर्गलोकको चली गयीं ॥ १४१-१४२.५ ॥

इन्द्रस्तोत्रं पुण्यबीजं मनसां पूजयेत्पठेत् ॥ १४३ ॥
तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्‍भवस्य च ।
विषं भवेत्सुधातुल्यं सिद्धस्तोत्रो यदा भवेत् ॥ १४४ ॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धस्तोत्रो भवेन्नरः ।
सर्पशायी भवेत्सोऽपि निश्चितं सर्पवाहनः ॥ १४५ ॥
जो मनुष्य पुण्यबीजस्वरूप इस इन्द्रस्तोत्रका पाठ करता है तथा भगवती मनसाकी पूजा करता है, उसे तथा उसके वंशजोंके लिये नागोंका भय नहीं रह जाता । यदि मनुष्य इस स्तोत्रको सिद्ध कर ले, तो उसके लिये विष भी अमृत-तुल्य हो जाता है । इस स्तोत्रका पाँच लाख जप कर लेनेसे मनुष्यको इसकी सिद्धि हो जाती है और वह निश्चय ही सर्पपर शयन करनेवाला तथा सर्पपर सवारी करनेवाला हो जाता है ॥ १४३-१४५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
मनसोपाख्यानवर्णनं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां नवमस्कन्धे मनसोपाख्यानवर्णनं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥


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