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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
दशमः स्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः

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विन्ध्योपाख्यानवर्णनम् -
देवीद्वारा मनुको वरदान, नारदजीका विन्थ्यपर्वतसे सुमेरुपर्वतकी श्रेष्ठता कहना -


श्रीदेव्युवाच
भूमिपाल महाबाहो सर्वमेतद्‍भविष्यति ।
यत्त्वया प्रार्थितं तत्ते ददामि मनुजाधिप ॥ १ ॥
श्रीदेवी बोलीं-हे भूमिपाल ! हे महाबाहो ! हे मनुजाधिप ! यह सब पूर्ण होगा । तुमने जो-जो माँगा है, वह मैं तुम्हें दे रही हूँ ॥ १ ॥

अहं प्रसन्ना दैत्येन्द्रनाशनामोघविक्रमा ।
वाग्भवस्य जपेनैव तपसा ते सुनिश्चितम् ॥ २ ॥
राज्यं निष्कण्टकं तेऽस्तु पुत्रा वंशकरा अपि ।
मयि भक्तिर्दृढा वत्स मोक्षान्ते सत्पदे भवेत् ॥ ३ ॥
बड़े-बड़े दैत्योंका संहार करनेवाली तथा अमोष पराक्रमवाली मैं तुम्हारे द्वारा किये गये वाग्भव-मन्त्रके जप तथा तपसे निश्चितरूपसे प्रसन्न हूँ । हे वत्स ! तुम्हारा राज्य निष्कण्टक होगा और तुम्हारे पुत्र वंशकी वृद्धि करनेवाले होंगे; तुम मेरे प्रति दृढ़ भक्तिवाले रहोगे और अन्तमें परमपद प्राप्त करोगे ॥ २-३ ॥

एवं वरान्महादेवी तस्मै दत्त्वा महात्मने ।
पश्यतस्तु मनोरेव जगाम विन्ध्यपर्वतम् ॥ ४ ॥
इस प्रकार उन महात्मा मनुको वर देकर महादेवी जगदम्बा उनके देखते-देखते विन्ध्यपर्वतपर चली गयीं ॥ ४ ॥

योऽसौ विन्ध्याचलो रुद्धः कुम्भोद्‍भवमहर्षिणा ।
भानुमार्गावरोधार्थं प्रवृत्तो गगनं स्पृशन् ॥ ५ ॥
यह वही विन्ध्याचल है, जो सूर्यके मार्गका अवरोध करनेके लिये आकाशको छूता हुआ ऊपरकी ओर बढ़नेके लिये प्रवृत्त था और महर्षि अगस्त्यने उसे रोक दिया था ॥ ५ ॥

सा विन्ध्यवासिनी विष्णोरनुजा वरदेश्वरी ।
बभूव पूज्या लोकानां सर्वेषां मुनिसत्तम ॥ ६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! वरदायिनी तथा परमेश्वरी वे विष्णुभगिनी विन्ध्यवासिनी सभी लोगोंके लिये पूज्य हो गयीं ॥ ६ ॥

ऋषय ऊचुः
कोऽसौ विन्ध्याचलः सूत किमर्थं गगनं स्पृशन् ।
भानुमार्गावरोधं च किमर्थं कृतवानसौ ॥ ७ ॥
कथं च मैत्रावरुणिः पर्वतं तं महोन्नतम् ।
प्रकृतिस्थं चकारेति सर्वं विस्तरतो वद ॥ ८ ॥
ऋषि बोले-हे सूतजी ! वह विन्ध्याचल कौन है, आकाशको छूता हुआ वह क्यों बढ़ा, उसने सूर्यके मार्गका अवरोध क्यों किया और मैत्रावरुणि अगस्त्यजीने उस महान् ऊँचे पर्वतको बढ़नेसे क्यों रोक दिया ? यह सब आप विस्तारसे मुझे बताइये ॥ ७-८ ॥

न हि तृप्यामहे साधो त्वदास्यगलितामृतम् ।
देव्याश्चरित्ररूपाख्यं पीत्वा तृष्णा प्रवर्धते ॥ ९ ॥
हे साधो ! आपके मुखसे निःसृत देवीचरित्ररूपी अमृतका पान करते हुए हम सब तृप्त नहीं हो रहे हैं, अपितु तृष्णा बढ़ती ही जा रही है ॥ ९ ॥

सूत उवाच
आसीद्विन्ध्याचलो नाम मान्यः सर्वधराभृताम् ।
महावनसमूहाढ्यो महापादपसंवृतः ॥ १० ॥
सुपुष्पितैरनेकैश्च लतागुल्मैस्तु संवृतः ।
मृगा वराहा महिषा व्याघ्राः शार्दूलका अपि ॥ ११ ॥
वानराः शशका ऋक्षाः शृगालाश्च समन्ततः ।
विचरन्ति सदा हृष्टा पुष्टा एव महोद्यमाः ॥ १२ ॥
नदीनदजलाक्रान्तो देवगन्धर्वकिन्नरैः ।
अप्सरोभिः किम्पुरुषैः सर्वकामफलद्रुमैः ॥ १३ ॥
सूतजी बोले-सम्पूर्ण पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल नामक एक पर्वत था । वह बड़े-बड़े वनोंसे सम्पन्न तथा अति विशाल वृक्षोंसे घिरा था । वह अनेक प्रकारके पुष्पोंसे लदी हुई लताओं तथा वल्लरियोंसे आच्छादित था । मृग, वराह, महिष, बाघ, सिंह, वानर, खरगोश, भालू, सियार आदि हष्ट-पुष्ट तथा अति शक्ति-शाली वन्य जन्तु उसमें चारों ओर सदा विचरण करते रहते थे । वह नदियों तथा नदोंके जलसे व्याप्त था एवं देवताओं, गन्धों, किन्नरों, अप्सराओं, किम्पुरुषों तथा सभी प्रकारके मनोवांछित फल देनेवाले वृक्षोंसे शोभायमान था ॥ १०-१३ ॥

एतादृशे विन्ध्यनगे कदाचित्पर्यटन् महीम् ।
देवर्षिः परमप्रीतो जगाम स्वेच्छया मुनिः ॥ १४ ॥
किसी समय देवर्षि नारद परम प्रसन्न होकर इच्छापूर्वक पृथ्वीलोकमें विचरण करते हुए इस प्रकारके विन्ध्यपर्वतपर पहुँच गये ॥ १४ ॥

तं दृष्ट्वा स नगो मङ्‌क्षु तूर्णमुत्थाय सम्भ्रमात् ।
पाद्यमर्घ्यं तथा दत्त्वा वरासनमथार्पयत् ॥ १५ ॥
सुखोपविष्टं देवर्षिं प्रसन्नं नग ऊचिवान् ।
उन्हें देखकर विन्ध्याचलने शीघ्र ही वेगपूर्वक उठ करके आदरपूर्वक उन्हें पाद्य-अर्घ्य प्रदानकर उत्तम आसन अर्पित किया । तदनन्तर सुखपूर्वक आसनपर विराजमान उन प्रसन्न देवर्षि नारदसे विन्ध्यपर्वत कहने लगा ॥ १५.५ ॥

विन्ध्य उवाच
देवर्षे कथ्यतां जात आगमः कुत उत्तमः ॥ १६ ॥
विन्ध्य बोला-हे देवर्षे ! कहिये, आपका यह शुभागमन कहाँसे हुआ है ? ॥ १६ ॥

तवागमनतो जातमनर्घ्यं मम मन्दिरम् ।
तव चङ्‌क्रमणं देवाभयार्थं हि यथा रवेः ॥ १७ ॥
अपूर्वं यन्मनोवृत्तं तद्‌ ब्रूहि मम नारद ।
आपके आगमनसे मेरा घर परम पावन हो गया । जैसे सूर्य संसारके कल्याणार्थ भ्रमण करते हैं, उसी प्रकार आप भी देवताओंको अभय प्रदान करनेहेतु भ्रमण करते रहते हैं । हे नारदजी ! आपके मनमें जो भी विशेष बात हो, उसे मुझे बताइये ॥ १७.५ ॥

नारद उवाच
ममागमनमिन्द्रारे जातं स्वर्णगिरेरथ ॥ १८ ॥
तत्र दृष्टा मया लोकाः शक्राग्नियमपाशिनाम् ।
सर्वेषां लोकपालानां भवनानि समन्ततः ॥ १९ ॥
मया दृष्टानि विन्ध्याग नानाभोगप्रदानि च ।
नारदजी बोले-हे इन्द्रशत्रु ! मेरा आगमन सुमेरुगिरिसे हुआ है । वहाँ मैंने इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुणके लोकोंको देखा है । हे विन्ध्यपर्वत ! वहाँपर मुझे समस्त लोकपालोंके नानाविध भोग प्रदान करनेवाले भवन चारों ओर दिखायी पड़े ॥ १८-१९.५ ॥

इति चोक्त्वा ब्रह्मयोनिः पुनरुच्छ्वासमाविशत् ॥ २० ॥
उच्छ्वसन्तं मुनिं दृष्ट्वा पुनः पप्रच्छ शैलराट् ।
उच्छ्वासकारणं किं तद्‌ ब्रूहि देवऋषे मम ॥ २१ ॥
ऐसा कहकर ब्रह्माजीके पुत्र नारदने दीर्घ श्वास ली । नारदमुनिको इस प्रकार श्वास लेते हुए देखकर पर्वतराज विन्ध्यने उनसे पुनः पूछा-हे देवर्षे ! इस उच्छ्वासका क्या कारण है, उसे मुझे बताइये । २०-२१ ॥

इत्याकर्ण्य नगस्योक्तं देवर्षिरमितद्युतिः ।
अब्रवीच्छ्रूयतां वत्स ममोच्छ्वासस्य कारणम् ॥ २२ ॥
विन्ध्यपर्वतका यह कथन सुनकर अपरिमित तेजवाले देवर्षि नारद बोले-हे वत्स ! मेरे उच्छ्वासका कारण सुनो ॥ २२ ॥

गौरीगुरुस्तु हिमवाञ्छिवस्य श्वशुरः किल ।
सम्बन्धित्वात्पशुपतेः पूज्य आसीत्क्षमाभृताम् ॥ २३ ॥
पार्वतीके पिता हिमालय शिवजीके श्वसुर हैं । इस प्रकार शंकरजीसे सम्बन्ध होनेके कारण वे सभी पर्वतोंके पूज्य हो गये ॥ २३ ॥

एवमेव च कैलासः शिवस्यावसथः प्रभुः ।
पूज्यः पृथ्वीभृतां जातो लोके पापौघदारणः ॥ २४ ॥
इसी प्रकार शिवजीका निवास-स्थल कैलास भी सभी पर्वतोंका पूज्य स्वामी बन गया और लोकमें पापसमूहका विनाशक हो गया ॥ २४ ॥

निषधः पर्वतो नीलो गन्धमादन एव च ।
पूज्याः स्वस्थानमासाद्य सर्व एव क्षमाभृतः ॥ २५ ॥
इसी तरह निषध, नील तथा गन्धमादन आदि सभी पर्वत भी अपने-अपने स्थानपर स्थित होकर पूज्य पर्वतके रूपमें प्रतिष्ठित हैं ॥ २५ ॥

यं पर्येति च विश्वात्मा सहस्रकिरणः स्वराट् ।
सग्रहर्क्षगणोपेतः सोऽयं कनकपर्वतः ॥ २६ ॥
यह वही सुमेरुगिरि है, जिसकी परिक्रमा समस्त विश्वकी आत्मा, स्वर्गके राजा तथा हजारों किरणें धारण करनेवाले सूर्य समस्त ग्रह-नक्षत्रोंके समूहसहित करते हैं ॥ २६ ॥

आत्मानं मनुते श्रेष्ठं वरिष्ठं च धराभृताम् ।
सर्वेषामहमेवाग्र्यो नास्ति लोकेषु मत्समः ॥ २७ ॥
वह अपनेको पर्वतोंमें श्रेष्ठ तथा महान् मानता है । वह समझता है कि मैं ही सभी पर्वतोंमें अग्रणी हूँ तथा मेरे समान लोकोंमें कोई नहीं है ॥ २७ ॥

एवंमानाभिमानं तं स्मृत्वोच्छ्वासो मयोज्झितः ।
अस्तु नैतावता कृत्यं तपोबलवतां नग ।
प्रसङ्‌गतो मयोक्तं ते गमिष्यामि निजं गृहम् ॥ २८ ॥
इस प्रकारके मान-अभिमानवाले उस पर्वतका स्मरण करके मैंने यह उच्छ्वास लिया है । हे पर्वत ! जो भी हो, तपरूपी बलवाले हम सबको इससे कोई प्रयोजन नहीं है । मैंने तो प्रसंगवश आपसे ऐसा कह दिया; अब मैं अपने घरके लिये प्रस्थान कर रहा हूँ ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
दशमस्कन्धे विन्ध्योपाख्यानवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां दशमस्कन्धे विन्ध्योपाख्यानवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥


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