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देवीमाहात्म्ये विन्ध्योपाख्यानवर्णनम् -
विन्ध्यपर्वतका आकाशतक बढ़कर सूर्यके मार्गको अवरुद्ध कर लेना -
सूतउवाच एवं समुपदिश्यायं देवर्षिः परमः स्वराट् । जगाम ब्रह्मणो लोकं स्वैरचारी महामुनिः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषियो ! इस प्रकार विन्ध्यगिरिसे वार्तालाप करके परम स्वतन्त्र तथा स्वेच्छापूर्वक विचरण करनेवाले महामुनि देवर्षि नारद ब्रह्मलोक चले गये ॥ १ ॥
गते मुनिवरे विन्ध्यश्चिन्तां लेभेऽनपायिनीम् । नैव शान्तिं स लेभे च सदान्तःकृतशोचनः ॥ २ ॥ कथं किं त्वत्र मे कार्यं कथं मेरुं जयाम्यहम् । नैव शान्तिं लभे नापि स्वास्थ्यं मे मानसे भवेत् ॥ ३ ॥ (धिगुत्साहं च मानं च धिङ्मे कीर्तिं च धिक्कुलम्)
मुनिवर नारदके चले जानेपर विन्ध्य निरन्तर चिन्तित रहने लगा । उसे शान्ति नहीं मिल पाती थी । वह अपने अन्तर्मनमें सदा यही सोचता कि अब मैं कौन-सा कार्य करूँ तथा किस प्रकारसे सुमेरुगिरिको जीत लूँ ? इस समय मुझे न तो शान्ति मिल पा रही है और न तो मेरा मन ही सुस्थिर हो पा रहा है । (मेरे उत्साह, सम्मान, यश तथा कुलको धिक्कार है) मेरे बल तथा पुरुषार्थको धिक्कार है । पूर्वकालीन महात्माओंने भी ऐसा ही कहा है ॥ २-३.५ ॥
धिग्बलं मे पौरुषं धिक् स्मृतं पूर्वैर्महात्मभिः । एवं चिन्तयमानस्य विन्ध्यस्य मनसि स्फुटम् ॥ ४ ॥ प्रादुर्भूता मतिः कार्ये कर्तव्ये दोषकारिणी ।
इस प्रकार चिन्तन करते हुए विन्ध्यगिरिके मनमें कर्तव्यके निर्णयमें दोष उत्पन्न कर देनेवाली बुद्धिका उदय हो गया ॥ ४.५ ॥
मेरुप्रदक्षिणां कुर्वन्नित्यमेव दिवाकरः ॥ ५ ॥ सग्रहर्क्षगणोपेतः सदा दृप्यत्ययं नगः । तस्य मार्गस्य संरोधं करिष्यामि निजैः करैः ॥ ६ ॥ तदा निरुद्धो द्युमणिः परिक्रामेत्कथं नगम् ।
सूर्य सभी ग्रह-नक्षत्रसमूहोंसे युक्त होकर सुमेरुपर्वतकी सदा परिक्रमा करते रहते हैं, जिससे यह सुमेरु-गिरि अभिमानमें चूर रहता है । मैं अपने शिखरोंसे उस सूर्यका मार्ग रोक दूंगा । तब इस प्रकार अवरुद्ध हुए ये सूर्य सुमेरुगिरिका परिक्रमण कैसे कर सकेंगे ? ॥ ५-६.५ ॥
एवं मार्गे निरुद्धे तु मया दिनकरस्य च ॥ ७ ॥ भग्नदर्पो दिव्यनगो भविष्यति विनिश्चयम् ।
इस प्रकार मेरे द्वारा सूर्यका मार्गावरोध कर दिये जानेसे उस दिव्य सुमेरुगिरिका अभिमान निश्चितरूपसे खण्डित हो जायगा ॥ ७.५ ॥
एवं निश्चित्य विन्ध्याद्रिः खं स्पृशन् ववृधे भुजैः ॥ ८ ॥ महोन्नतैः शृङ्गवरैः सर्वं व्याप्य व्यवस्थितः । कदोदेष्यति भास्वांस्तं रोधयिष्याम्यहं कदा ॥ ९ ॥
ऐसा निश्चय करके विन्ध्यगिरि अपने शिखरोंसे आकाशको छूता हुआ बढ़ने लगा और अत्युच्च श्रेष्ठ शिखरोंसे सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करके व्यवस्थित हो गया । वह प्रतीक्षा करने लगा कि कब सूर्य उदित हों और कब मैं उनका मार्ग अवरुद्ध करूँ ॥ ८-९ ॥
एवं सञ्चिन्तयानस्य सा व्यतीयाय शर्वरी । प्रभातं विमलं जज्ञे दिशो वितिमिराः करैः ॥ १० ॥ कुर्वन्स निर्गतो भानुरुदयायोदये गिरौ । प्रकाशते स्म विमलं नभो भानुकरैः शुभैः ॥ ११ ॥ विकासं नलिनी भेजे मीलनं च कुमुद्वती । स्वानि कार्याणि सर्वे च लोकाः समुपतस्थिरे ॥ १२ ॥
इस प्रकार उसके सोचते-सोचते वह रात्रि व्यतीत हो गयी और विमल प्रभातका आगमन हो गया । अपनी किरणोंसे दिशाओंको अन्धकाररहित करते हुए भगवान् सूर्य उदयाचलपर उदित होनेके लिये प्रकट होने लगे । सूर्यकी शुभ किरणोंसे आकाश स्वच्छ प्रकाशित होने लगा, कमलिनी खिलने लगी और कुमुदिनी संकुचित होने लगी, सभी प्राणी अपनेअपने कार्योंमें लग गये ॥ १०-१२ ॥
हव्यं कव्यं भूतबलिं देवानां च प्रवर्धयन् । प्राह्णापराह्णमध्याह्नविभागेन त्विषां पतिः ॥ १३ ॥ एवं प्राचीं तथाग्नेयीं समाश्वास्य वियोगिनीम् । ज्वलन्तीं चिरकालीनविरहादिव कामिनीम् ॥ १४ ॥ भास्करोऽथ कृशानोश्च दिशं नूनं विहाय च । याम्यां गन्तुं ततस्तूर्णं प्रतस्थे कमलाकरः ॥ १५ ॥ न शशाकाग्रतो गन्तुं ततोऽनूरुर्व्यजिज्ञपत् ।
इस प्रकार पूर्वाह्न, अपराह्न तथा मध्याह्रके विभागसे देवताओंके लिये हव्य, कव्य तथा भूतबलिका संवर्धन करते हुए प्रभाके स्वामी सूर्य चिरकालीन विरहाग्निसे सन्तप्त तथा वियोगिनी कामिनीसदृश प्राची तथा आग्नेयी दिशाओंको आश्वासन देकर एवं पुनः अग्नि-दिशाको छोड़कर बड़ी तेजीसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करनेका प्रयास करने लगे । किंतु जब वे सूर्य आगे नहीं बढ़ सके, तब उनका सारथि अनूरु (अरुण) कहने लगा- ॥ १३-१५.५ ॥
अनूरुरुवाच भानो मानोन्नतो विन्ध्यो निरुध्य गगनं स्थितः ॥ १६ ॥ स्पर्धते मेरुणा प्रेप्सुस्त्वद्दत्तां च प्रदक्षिणाम् ।
अनूरु बोला-हे सूर्य । अत्यधिक अभिमानी विन्ध्यगिरि आपका मार्ग रोककर आकाशमें स्थित हो गया है । वह सुमेरुगिरिसे स्पर्धा करता है और आपके द्वारा सुमेरुकी की जानेवाली परिक्रमा प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है ॥ १६.५ ॥
सूत उवाच अनूरुवाक्यमाकर्ण्य सविता ह्यास चिन्तयन् ॥ १७ ॥ अहो गगनमार्गोऽपि रुध्यते चातिविस्मयः । प्रायः शूरो न किं कुर्यादुत्पथे वर्त्मनि स्थितः ॥ १८ ॥
सूतजी बोले-अरुणका यह वचन सुनकर सूर्य सोचने लगे-अहो ! आकाशका भी मार्ग अवरुद्ध हो गया, यह तो महान् आश्चर्य है । प्राय: कुमार्गपर चलनेवाला पराक्रमी व्यक्ति क्या नहीं कर सकता ॥ १७-१८ ॥
निरुद्धो नो वाजिमार्गो दैवं हि बलवत्तरम् । राहुबाहुग्रहव्यग्रो यः क्षणं नावतिष्ठते ॥ १९ ॥ स चिरं रुद्धमार्गोऽपि किं करोति विधिर्बली ।
दैव बड़ा बलवान् होता है । आज मेरे घोड़ोंका मार्ग रोक दिया गया है । राहुकी भुजाओंमें जकड़े जानेपर जो क्षणभरके लिये भी नहीं रुकता था, वही मैं चिरकालसे अवरुद्ध मार्गवाला हो गया हूँ । बलवान् विधाता अब न जाने क्या करेगा ? ॥ १९.५ ॥
एवं च मार्गे संरुद्धे लोकाः सर्वे च सेश्वराः ॥ २० ॥ नान्वविन्दन्त शरणं कर्तव्यं नान्वपद्यत ।
इस प्रकार सूर्यका मार्ग अवरुद्ध हो जानेसे समस्त लोक तथा लोकेश्वर कहीं भी शरण नहीं प्राप्त कर सके और वे अपने-अपने कार्य सम्पादित करने में अक्षम हो गये ॥ २०.५ ॥
चित्रगुप्त आदि सभी लोग जिन सूर्यसे समयका ज्ञान करते थे, वे ही सूर्य आज विन्ध्यगिरिके द्वारा अवरुद्ध कर दिये गये । अहो ! दैव भी कितना विपरीत हो जाता है ॥ २१.५ ॥
जब स्पर्धाके कारण विन्ध्यने सूर्यको रोक दिया, तब स्वाहा-स्वधाकार नष्ट हो गये और सम्पूर्ण जगत् भी नष्टप्राय हो गया ॥ २२.५ ॥
एवं च पाश्चिमा लोका दाक्षिणात्यास्तथैव च ॥ २३ ॥ निद्रामीलितचक्षुष्का निशामेव प्रपेदिरे । प्राञ्चस्तथोत्तराहाश्च तीक्ष्णतापप्रतापिताः ॥ २४ ॥ मृता नष्टाश्च भग्नाश्च विनाशमभजन् प्रजाः । हाहाभूतं जगत्सर्वं स्वधाकव्यविवर्जितम् । देवाः सेन्द्राः समुद्विग्नाः किं कुर्म इतिवादिनः ॥ २५ ॥
पश्चिम तथा दक्षिणके प्राणी रात्रिके प्रभावमें थे और निद्रासे नेत्र बन्द किये हुए थे, साथ ही पूर्व तथा उत्तरके प्राणी सूर्यको प्रचण्ड गर्मीसे दग्ध हो रहे थे । प्रजाओंका विनाश होने लगा । बहुत-से प्राणी मर गये, कितने ही नष्ट हो गये, कितने भग्न हो गये, सम्पूर्ण जगत्में हाहाकार मच गया और श्राद्धतर्पणसे जगत् रहित हो गया । इन्द्रसहित सभी देवता व्याकुल होकर आपसमें कहने लगे कि अब हमलोग क्या करें ? ॥ २३-२५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये विन्ध्योपाख्यानवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां दशमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये विन्ध्योपाख्यानवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥