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श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानम् -
देवताओंका भगवान् शंकरसे विन्ध्यपर्वतकी वृद्धि रोकनेकी प्रार्थना करना और शिवजीका उन्हें भगवान् विष्णुके पास भेजना -
सूत उवाच ते गत्वा देवदेवेशं रमानाथं जगद्गुरुम् । विष्णुं कमलपत्राक्षं ददृशुः प्रभयान्वितम् ॥ १ ॥ स्तोत्रेण तुष्टुवुर्भक्त्या गद्गदस्वरसत्कृताः ।
सूतजी बोले-वैकुण्ठमें जाकर उन देवताओंने कमलपत्रके समान नेत्रोंवाले, देवदेवेश्वर, रमाकान्त, जगद्गुरु भगवान् विष्णुको लक्ष्मीजीके साथ विराजमान देखा । वे गद्गद वाणीसे सत्कार करते हुए भक्तिपूर्वक स्तोत्रसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ १.५ ॥
देवा ऊचुः जय विष्णो रमेशाद्य महापुरुष पूर्वज ॥ २ ॥ दैत्यारे कामजनक सर्वकामफलप्रद । महावराह गोविन्द महायज्ञस्वरूपक ॥ ३ ॥
देवता बोले-हे विष्णो ! हे रमेश ! हे आद्य ! हे महापुरुष ! हे पूर्वज ! हे दैत्यशत्रु ! हे कामजनक ! हे सम्पूर्ण कामनाओंके फल प्रदान करनेवाले ! हे महावराह ! हे गोविन्द ! हे महायज्ञस्वरूप ! आपकी जय हो ॥ २-३ ॥
महाविष्णो ध्रुवेशाद्य जगदुत्पत्तिकारण । मत्स्यावतारे वेदानामुद्धाराधाररूपक ॥ ४ ॥ सत्यव्रत धराधीश मत्स्यरूपाय ते नमः ।
हे महाविष्णो ! हे ध्रुवेश ! हे आद्य ! हे जगत्की उत्पत्तिके कारण ! हे मत्स्यावतारमें वेदोंका उद्धार करनेके लिये आधारस्वरूप ! हे सत्यव्रत ! हे धराधीश ! आप मत्स्यरूपधारीको नमस्कार है ॥ ४.५ ॥
जयाकूपार दैत्यारे सुरकार्यसमर्पक ॥ ५ ॥ अमृताप्तिकरेशान कूर्मरूपाय ते नमः ।
हे कच्छपावतार ! हे दैत्यशत्रु ! हे देवकार्यसमर्पक ! आपकी जय हो । अमृतकी प्राप्ति करानेवाले हे ईश्वर ! आप कूर्मरूपधारीको नमस्कार है ॥ ५.५ ॥
जयादिदैत्यनाशार्थमादिसूकररूपधृक् ॥ ६ ॥ मह्युद्धारकृतोद्योगकोलरूपाय ते नमः ।
आदिदैत्य हिरण्याक्षका संहार करनेके लिये सूकररूप-धारी हे ईश्वर ! आपकी जय हो । पृथ्वीका उद्धार करनेहेतु उद्योगपरायण आप वराहरूपधारीको नमस्कार है ॥ ६.५ ॥
राजाओंके लिये कलंकस्वरूप कंस, दुर्योधन आदि दैत्योंके द्वारा भाराकान्त पृथ्वीका जिन महाप्रभने उद्धार किया तथा पापोंका अन्त करके जिन्होंने धर्मकी स्थापना की, हे विभो ! उन आप श्रीकृष्णभगवानको बार-बार नमस्कार है ॥ ११-१२.५ ॥
दुष्टयज्ञविघाताय पशुहिंसानिवृत्तये ॥ १३ ॥ बौद्धरूपं दधौ योऽसौ तस्मै देवाय ते नमः ।
दुष्ट यज्ञोंको विनष्ट करने तथा पशुहिंसा रोकनेके लिये जिन्होंने बौद्धरूप धारण किया; उन आप बुद्धदेवको नमस्कार है ॥ १३.५ ॥
म्लेच्छप्रायेऽखिले लोके दुष्टराजन्यपीडिते ॥ १४ ॥ कल्किरूपं समादध्यौ देवदेवाय ते नमः ।
सम्पूर्ण जगत्में म्लेच्छोंका बाहुल्य हो जानेपर तथा दुष्ट राजाओंद्वारा प्रजाओंको पीड़ित किये जानेपर आपने कल्किरूप धारण किया था; उन आप देवाधिदेवको नमस्कार है ॥ १४.५ ॥
दशावतारास्ते देव भक्तानां रक्षणाय वै ॥ १५ ॥ दुष्टदैत्यविघाताय तस्मात्त्वं सर्वदुःखहृत् ।
हे देव ! आपके ये दसों अवतार भक्तोंकी रक्षाके लिये तथा दुष्ट राक्षसोंके विनाशके लिये ही हुए हैं, अतएव आप सभी प्राणियोंका दुःख हरनेवाले हैं ॥ १५.५ ॥
जय भक्तार्तिनाशाय धृतं नारीजलात्मसु ॥ १६ ॥ रूपं येन त्वया देव कोऽन्यस्त्वत्तो दयानिधिः ।
भक्तोंका दु:ख दूर करनेके लिये आपने मोहिनी स्त्री तथा जल-जन्तुओका रूप धारण किया, अतएव हे देव ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन दयासागर हो सकता है ? आपकी जय हो ॥ १६.५ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे देवताओ ! मैं आपलोगोंकी स्तुतिसे प्रसन्न हूँ, आपलोग शोकका त्याग कर दें । मैं आपलोगोंके इस परम दुःसह कष्टको दूर करूँगा ॥ १९.५ ॥
वृणुध्वं च वरं मत्तो देवाः परमदुर्लभम् ॥ २० ॥ ददामि परमप्रीतः स्तवस्यास्य प्रसादतः ।
हे देवताओ ! आपलोग मुझसे परम दुर्लभ वर माँग लीजिये; [आपलोगोंकी] इस स्तुतिके प्रभावसे अति प्रसन्न होकर मैं वर प्रदान करूंगा ॥ २०.५ ॥
य एतत्पठते स्तोत्रं कल्य उत्थाय मानवः ॥ २१ ॥ मयि भक्तिं परां कृत्वा न तं शोकः स्पृशेत्कदा । अलक्ष्मीः कालकर्णी च नाक्रामेत्तद्गृहं सुराः ॥ २२ ॥ नोपसर्गा न वेताला न ग्रहा ब्रह्मराक्षसाः । न रोगा वातिकाः पैत्ताः श्लेष्मसम्भविनस्तथा ॥ २३ ॥ नाकालमरणं तस्य कदापि च भविष्यति । सन्ततिश्चिरकालस्था भोगाः सर्वे सुखादयः ॥ २४ ॥ सम्भविष्यन्ति तन्मर्त्यगृहे यः स्तोत्रपाठकः । किं पुनर्बहुनोक्तेन स्तोत्रं सर्वार्थसाधकम् ॥ २५ ॥
जो मनुष्य प्रात:काल उठकर मुझमें दृढ़ भक्ति रखकर इस स्तोत्रका पाठ करेगा, उसे कभी शोक स्पर्श नहीं कर सकेगा । हे देवताओ ! दरिद्रता तथा दुर्भाग्य उसके घरपर आक्रमण नहीं कर सकेंगे । विघ्न-बाधाएँ, वेताल, ग्रह तथा ब्रह्मराक्षस उसे पीड़ित नहीं कर सकते । वात-पित्त-कफसम्बन्धी रोग भी उसे नहीं होंगे । उसकी अकाल मृत्यु कभी नहीं होगी और उसकी सन्ताने दीर्घ कालतक जीवित रहेंगी । जो इस स्तोत्रका पाठ करेगा, उस मनुष्यके घरमें सुख आदि सभी भोग-साधन विद्यमान रहेंगे । अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन, यह स्तोत्र सभी अर्थाका परम साधन करनेवाला है ॥ २१-२५ ॥
एतस्य पठनानॄणां भुक्तिमुक्ती न दूरतः । देवा भवत्सु यद्दुःखं कथ्यतां तदसंशयम् ॥ २६ ॥ नाशयामि न सन्देहश्चात्र कार्योऽणुरेव च ।
इस स्तोत्रका पाठ करनेसे मनुष्योंके लिये भोग तथा मोक्ष उनसे दूर नहीं रहेंगे । हे देवताओ ! आपलोगोंको जो कष्ट हो, उसे आप नि:संकोच बताइये, मैं उसे दूर करूंगा; इसमें आपलोगोंको अणुमात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २६.५ ॥
एवं श्रीभगवद्वाक्यं श्रुत्वा सर्वे दिवौकसः । प्रसन्नमनसः सर्वे पुनरूचुर्वृषाकपिम् ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीभगवान्का वचन सुनकर सभी देवताओंका मन प्रसन्नतासे भर गया और वे पुनः वृषाकपि भगवान् विष्णुसे कहने लगे ॥ २७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादप्तसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयाँ संहितायां दशमस्कन्धे श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥