सूतजी बोले-[हे मुनियो !] तत्पश्चात् इन्द्र आदि सभी प्रधान देवगण ब्रह्माजीको आगे करके भगवान् शिवकी शरणमें गये ॥ १ ॥
उपतस्थुः प्रणतिभिः स्तोत्रैश्चारुविभूतिभिः । देवदेवं गिरिशयं शशिलोलितशेखरम् ॥ २ ॥
गिरिपर शयन करनेवाले तथा चन्द्रमासे सुशोभित मस्तकवाले देवदेव शिवको प्रणाम करके वे देवता उनके सम्मुख खड़े हो गये और सुन्दर महिमासे युक्त स्तोत्रोंसे उनका स्तवन करने लगे ॥ २ ॥
देववा ऊचुः जय देव गणाध्यक्ष उमालालितपङ्कज । अष्टसिद्धिविभूतीनां दात्रे भक्तजनाय ते ॥ ३ ॥
देवता बोले-हे देव ! हे गणाध्यक्ष ! हे पार्वतीद्वारा पूजित चरणकमलवाले ! हे भक्तजनको आठों सिद्धियोंकी विभूतियाँ प्रदान करनेवाले आपकी जय हो ॥ ३ ॥
महामायाविलसितस्थानाय परमात्मने । वृषाङ्कायामरेशाय कैलासस्थितिशालिने ॥ ४ ॥ अहिर्बुध्न्याय मान्याय मनवे मानदायिने । अजाय बहुरूपाय स्वात्मारामाय शम्भवे ॥ ५ ॥ गणनाथाय देवाय गिरिशाय नमोऽस्तु ते । महाविभूतिदात्रे ते महाविष्णुस्तुताय च ॥ ६ ॥
महामायारूपी स्थलीमें विलास करनेवाले, परमात्मा, वृषांक, अमरेश, कैलासवासी, अहिर्बुध्न्य, मान्य, मनु, मान प्रदान करनेवाले, अज, अनेक रूपोंवाले, अपनी आत्मामें रमण करनेवाले, शम्भु, गणोंके नाथ, गिरिपर शयन करनेवाले, महान् ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले तथा महाविष्णुके द्वारा स्तुत किये जानेवाले आप महादेवको नमस्कार है ॥ ४-६ ॥
विष्णुहृत्कञ्जवासाय महायोगरताय च । योगगम्याय योगाय योगिनां पतये नमः ॥ ७ ॥
विष्णुके हृदयकमलमें निवास करनेवाले, महायोगमें रत रहनेवाले, योगसे प्राप्त होनेवाले, योगस्वरूप तथा योगियोंके अधीश्वरको नमस्कार है ॥ ७ ॥
योगीशाय नमस्तुभ्यं योगानां फलदायिने । दीनदानपरायापि दयासागरमूर्तये ॥ ८ ॥
योगीश, योगोंके फलदाता, दीनोंको दान देनेमें तत्पर तथा दयासागरकी साक्षात् मूर्ति आपको नमस्कार है ॥ ८ ॥
आर्तिप्रशमनायोग्रवीर्याय गुणमूर्तये । वृषध्वजाय कालाय कालकालाय ते नमः ॥ ९ ॥
आर्त प्राणियोंका कष्ट निवारण करनेवाले, उग्र पराक्रमवाले, गुणमूर्ति, वृषध्वज, कालस्वरूप तथा कालोंके भी काल आपको नमस्कार है ॥ ९ ॥
सूत उवाच एवं स्तुतः स देवेशो यज्ञभुग्भिर्वृषध्वजः । प्राह गम्भीरया वाचा प्रहसन्विबुधर्षभान् ॥ १० ॥
सूतजी बोले-यज्ञभोक्ता देवताओंके द्वारा इस प्रकार स्तुत किये गये वृषध्वज देवेश शिव उन श्रेष्ठ देवताओंसे हँसते हुए गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ १० ॥
श्रीभगवान् बोले-हे स्वर्गमें निवास करनेवाले ! हे उत्तम पुरुषो ! मैं [आपलोगोंकी] स्तुतिसे प्रसन्न हूँ । हे श्रेष्ठ देवताओ ! मैं आप सभीका मनोरथ पूर्ण करूँगा ॥ ११ ॥
देवा ऊचुः सर्वदेवेश गिरिश शशिमौलिविराजित । आर्तानां शङ्करस्त्वं च शं विधेहि महाबल ॥ १२ ॥
देवता बोले-हे सर्वदेवेश ! हे गिरिश ! हे शशिशेखर ! हे महाबल ! आप दुःखी प्राणियोंका कल्याण करनेवाले हैं, अतएव हमारा भी कल्याण कीजिये ॥ १२ ॥
पर्वतो विन्ध्यनामास्ति मेरुद्वेष्टा महोन्नतः । भानुमार्गनिरोद्धा हि सर्वेषां दुःखदोऽनघ ॥ १३ ॥
हे पुण्यात्मन् ! विन्ध्य नामक एक पर्वत है, जिसने सुमेरुगिरिसे द्वेष करके आकाशमें अत्यधिक ऊपर उठकर सूर्यका मार्ग रोक दिया है और वह सबके लिये दु:खदायी बन गया है ॥ १३ ॥
तदवृद्धिं स्तम्भयेशान सर्वकल्याणकृद्भव । भानुसञ्चाररोधेन कालज्ञानं कथं भवेत् ॥ १४ ॥ नष्टे स्वाहास्वधाकारे लोके कः शरणं भवेत् । अस्माकं च भयार्तानां भवानेव हि दृश्यते ॥ १५ ॥ दुःखनाशकरो देव प्रसीद गिरिजापते ।
हे ईशान ! उसकी वृद्धिको रोक दीजिये और सबके लिये कल्याणकारी बन जाइये । सूर्यकी गति अवरुद्ध हो जानेपर लोगोंको कालज्ञान कैसे होगा ? लोकमें स्वाहा तथा स्वधाकारके विलुप्त हो जानेपर हमें कौन शरण देगा ? भयसे पीड़ित हम देवताओंके लिये एकमात्र शरणदाता तो केवल आप ही परिलक्षित हो रहे हैं । हे पार्वतीपते ! हे देव ! आप हमपर प्रसन्न होइये और हमारे कष्टका निवारण कीजिये ॥ १४-१५.५ ॥
श्रीशिव बोले-हे देवताओ ! उस विन्ध्यगिरिकी वृद्धिको रोकनेकी शक्ति इस समय मुझमें नहीं है । अब हमलोग भगवान् लक्ष्मीकान्तसे यह समाचार कहेंगे ॥ १६.५ ॥
सोऽस्माकं प्रभुरात्मा च पूज्यः कारणरूपधृक् ॥ १७ ॥ गोविन्दो भगवान्विष्णुः सर्वकारणकारणः । तं गत्वा कथयिष्यामः स दुःखान्तो भविष्यति ॥ १८ ॥
वे कारणरूपधारी, समस्त कारणोंके कारण, आत्मारूप, गोविन्द भगवान् श्रीविष्णु हमलोगोंके पूज्य स्वामी हैं । अतएव उन्हींके पास जाकर हम कहेंगे और वे हमारा दु:ख दूर करनेवाले होंगे ॥ १७-१८ ॥
इत्येवमाकर्ण्य गिरीशभाषितं देवाश्च सेन्द्राः सपयोजसम्भवाः । रुद्रं पुरस्कृत्य च वेपमाना वैकुण्ठलोकं प्रतिजग्मुरञ्जसा ॥ १९ ॥
इस प्रकार भगवान् शिवका कथन सुनकर इन्द्र तथा ब्रह्मासहित समस्त देवता शंकरजीको आगे करके थर-थर काँपते हुए शीघ्रतापूर्वक वैकुण्ठलोकके लिये प्रस्थित हुए ॥ १९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे रुद्रप्रार्थनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां दशमस्कन्धे रुद्रप्रार्थनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥