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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
दशमः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

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विन्ध्यवृद्ध्यवरोधवर्णनम् -
अगस्त्यजीकी कृपासे सूर्यका मार्ग खुलना -


सूत उवाच
इति वाक्यं समाकर्ण्य विबुधानां द्विजोत्तमः ।
करिष्ये कार्यमेतद्वः प्रत्युवाच ततो मुनिः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनियो !] देवताओंका यह वचन सुनकर द्विज श्रेष्ठ अगस्त्यमुनिने उनसे कहामैं आपलोगोंका यह कार्य करूँगा ॥ १ ॥

अङ्‌गीकृते तदा कार्ये मुनिना कुम्भजन्मना ।
देवाः प्रमुदिताः सर्वे बभूबुर्द्विजसत्तमाः ॥ २ ॥
हे द्विजवरो ! कुम्भसे आविर्भूत अगस्त्यमुनिके द्वारा देवकार्य करना स्वीकार कर लिये जानेपर समस्त देवता अत्यन्त हर्षित हो उठे ॥ २ ॥

ते देवाः स्वानि धिष्ण्यानि भेजिरे मुनिवाक्यतः ।
पत्‍नीं मुनिवरः श्रीमानुवाच नृपकन्यकाम् ॥ ३ ॥
मुनिके वचनसे आश्वस्त होकर जब वे देवता अपने-अपने स्थानोंको चले गये तब श्रीमान् मनिवर अगस्त्यने अपनी पत्नी राजकन्या लोपामुद्रासे कहा- ॥ ३ ॥

अये नृपसुते प्राप्तो विघ्नोऽनर्थस्य कारकः ।
भानुमार्गनिरोधेन कृतो विन्ध्यमहीभृता ॥ ४ ॥
हे राजपुत्रि ! विन्ध्यगिरिने सूर्यके मार्गका अवरोध करके महान् अनर्थकारी विघ्न उपस्थित कर दिया है ॥ ४ ॥

आज्ञातं कारणं तच्च स्मृतं वाक्यं पुरातनम् ।
काशीमुद्दिश्य यद्‌गीतं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ५ ॥
अविमुक्तं न मोक्तव्यं सर्वथैव मुमुक्षुभिः ।
किन्तु विघ्ना भविष्यन्ति काश्यां निवसतां सताम् ॥ ६ ॥
सोऽन्तरायो मया प्राप्तः काश्यां निवसता प्रिये ।
मुझे इसका कारण ज्ञात हो गया । काशीको उद्देश्य करके तत्त्वदर्शी मुनियोंने जो कहा है, वह पुरातन वाक्य मुझे स्मरण हो आया कि मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले प्राणियोंको अविमुक्त काशीक्षेत्रका त्याग कभी नहीं करना चाहिये, किंतु काशीवास करनेवाले सत्पुरुषोंके समक्ष भी विघ्न आते हैं । हे प्रिये ! काशीमें निवास कर रहे मेरे समक्ष भी वही बाधा उपस्थित हुई ॥ ५-६.५ ॥

इत्येवमुक्त्वा भार्यां तां मुनिः परमतापनः ॥ ७ ॥
मणिकर्ण्यां समाप्लुत्य दृष्ट्वा विश्वेश्वरं विभुम् ।
दण्डपाणिं समभ्यर्च्य कालराजं समागतः ॥ ८ ॥
अपनी उन भार्यासे ऐसा कहकर परम तपस्वी मुनि अगस्त्य मणिकर्णिकाकुण्डमें स्नान करके तथा भगवान् विश्वनाथ और दण्डपाणिका सम्यक् पूजन करके कालभैरवका दर्शन करने वहाँ आये ॥ ७-८ ॥

कालराज महाबाहो भक्तानां भयहारक ।
कथं दूरयसे पुर्याः काशीपुर्यास्त्वमीश्वरः ॥ ९ ॥
[वहाँ पहुँचकर वे कहने लगे-] हे भक्तोंका भय दूर करनेवाले महाबाहो कालराज ! आप काशीपुरीके अधिपति हैं, मुझे इस पुरीसे दूर क्यों कर रहे है ? ॥ ९ ॥

त्वं काशीवासविघ्नानां नाशको भक्तरक्षकः ।
मां किं दूरयसे स्वामिन् भक्तार्तिविनिवारक ॥ १० ॥
आप तो काशीमें निवास करनेवाले प्राणियोंकी बाधाओंका नाश करनेवाले तथा भक्तजनोंके रक्षक हैं, तो फिर हे भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले स्वामिन् ! मुझे क्यों दूर कर रहे हैं ? ॥ १० ॥

परापवादो नोक्तो मे न पैशुन्यं न चानृतम् ।
केन कर्मविपाकेन काश्या दूरं करोषि माम् ॥ ११ ॥
मैंने दूसरोंके लिये कभी निन्दित वचन नहीं कहा, चुगली नहीं की तथा मिथ्याभाषण नहीं किया, तो मेरे किस कर्मके परिणामस्वरूप आप मुझे काशीसे दूर कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥

एवं प्रार्थ्य च तं कालनाथं कुम्भोद्‍भवो मुनिः ।
जगाम साक्षिविघ्नेशं सर्वविघ्ननिवारणम् ॥ १२ ॥
उन कालभैरवसे ऐसी प्रार्थना करके कुम्भयोनि अगस्त्यमुनि समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाले साक्षीविनायकके पास गये ॥ १२ ॥

तं दृष्ट्वाभ्यर्च्य सम्प्रार्थ्य ततः पुर्या विनिर्गतः ।
लोपामुद्रापतिः श्रीमानगस्त्यो दक्षिणां दिशम् ॥ १३ ॥
उन साक्षीविनायकका दर्शन, पूजन तथा स्तवन करके लोपामुद्रापति श्रीमान् अगस्त्य उस पुरीसे दक्षिण दिशाकी ओर निकल पड़े ॥ १३ ॥

काशीविरहसन्तप्तो महाभाग्यनिधिर्मुनिः ।
संस्मृत्यानुक्षणं काशीं जगाम सह भार्यया ॥ १४ ॥
तपोयानमिवारुह्य निमिषार्धेन वै मुनिः ।
अग्रे ददर्श तं विन्ध्यं रुद्धाम्बरमथोन्नतम् ॥ १५ ॥
काशीत्यागसे सन्तप्त महान् भाग्यशाली अगस्त्यमुनि प्रतिक्षण काशीका स्मरण करते हए अपने तपोबलरूपी विमानपर चढ़कर अपनी भार्याके साथ आधे निमेषमें ही वहाँ पहुँच गये और मुनिने देखा कि सामने विन्ध्यगिरिने अत्यन्त ऊँचे उठकर आकाशको आच्छादित कर रखा है ॥ १४-१५ ॥

चकम्पे चाचलस्तूर्णं दृष्ट्वैवाग्रे स्थितं मुनिम् ।
गिरिः खर्वतरो भूत्वा विवक्षुरवनीमिव ॥ १६ ॥
दण्डवत्पतितो भूमौ साष्टाङ्‌गं भक्तिभावितः ।
मुनिको समक्ष उपस्थित देखकर विध्यपर्वत तेजीसे काँपने लगा । वह पर्वत पूर्णरूपसे अभिमानरहित होकर कुछ कहनेके विचारसे उनके सम्मुख पृथ्वीकी भाँति विनयावनत हो भक्ति-भावनासे युक्त होकर दण्डकी भाँति भूमिपर गिरकर साष्टांग प्रणाम करने लगा ॥ १६.५ ॥

तं दृष्ट्वा नम्रशिखरं विन्ध्यं नाम महागिरिम् ॥ १७ ॥
प्रसन्नवदनोऽगस्त्यो मुनिर्विन्ध्यमथाब्रवीत् ।
वत्सैवं तिष्ठ तावत्त्वं यावदागम्यते मया ॥ १८ ॥
अशक्तोऽहं गण्डशैलारोहणे तव पुत्रक ।
तब उस विन्ध्य नामक महागिरिको उस समय नम्र शिखरवाला देखकर प्रसन्न मुखवाले अगस्त्यमुनिने विन्ध्याचलसे कहा-हे वत्स ! जबतक मैं लौटकर आता हूँ तबतक तुम इसी प्रकार स्थित रहो; क्योंकि हे पुत्र ! मैं तुम्हारे उच्च शिखरपर चढ़ने में असमर्थ हूँ ॥ १७-१८.५ ॥

एवमुक्त्वा मुनिर्याम्यदिशं प्रति गमोत्सुकः ॥ १९ ॥
आरुह्य तस्य शिखराण्यवारुहदनुक्रमात् ।
गतो याम्यदिशं चापि श्रीशैलं प्रेक्ष्य वर्त्मनि ॥ २० ॥
मलयाचलमासाद्य तत्राश्रमपरोऽभवत् ।
इस प्रकार कहकर दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करनेकी इच्छावाले अगस्त्यमुनि उस विन्ध्यके शिखरोंपर चढ़कर क्रमश: नीचे पृथ्वीपर उतर आये और वहाँसे दक्षिण दिशाकी ओर चल पड़े । मार्गमें श्रीशैलका अवलोकन करते हुए मलयाचलपर आकर आश्रममें निवास करने लगे ॥ १९-२०.५ ॥

सापि देवी तत्र विन्ध्यमागता मनुपूजिता ॥ २१ ॥
लोकेषु प्रथिता विन्ध्यवासिनीति च शौनक ।
मनुके द्वारा पूजित वे भगवती भी वहीं विन्ध्यगिरिपर आ गयीं । हे शौनक ! वे ही देवी समस्त लोकोंमें विन्ध्यवासिनी नामसे विख्यात हो गयीं ॥ २१.५ ॥

सूत उवाच
एतच्चरित्रं परमं शत्रुनाशनमुत्तमम् ॥ २२ ॥
अगस्त्यविन्ध्यनगयोराख्यानं पापनाशनम् ।
राज्ञां विजयदं तच्च द्विजानां ज्ञानवर्धनम् ॥ २३ ॥
वैश्यानां धान्यधनदं शूद्राणां सुखदं तथा ।
धर्मार्थी धर्ममाप्नोति धनार्थी धनमाप्नुयात् ॥ २४ ॥
कामानवाप्नुयात्कामी भक्त्या चास्य सकृच्छ्रवात् ।
सूतजी बोले-हे मुनियो ! इन देवीका चरित्र परम पावन तथा शत्रुओंका नाश करनेवाला है । अगस्त्य तथा विन्ध्यगिरिका यह उपाख्यान समस्त पापोंको नष्ट कर देनेवाला है । यह आख्यान राजाओंको विजय दिलाता है तथा द्विजोंके ज्ञानकी वृद्धि करता है । यह वैश्योंके लिये धन-धान्यदायक तथा शूद्रोंके लिये सुखप्रद है । इस आख्यानके भक्तिपूर्वक एक बार श्रवण करनेसे धर्म चाहनेवाला धर्म प्राप्त करता है, धनकी अभिलाषा रखनेवाला धन प्राप्त कर लेता है और सकाम पुरुष अपने सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है ॥ २२-२४.५ ॥

एवं स्वायम्भुवमनुर्देवीमाराध्य भक्तितः ॥ २५ ॥
लेभे राज्यं धरायाश्च निजमन्वन्तराश्रयम् ।
इत्येतद्वर्णितं सौम्य मया मन्वन्तराश्रितम् ।
आद्यं चरित्रं श्रीदेव्याः किं पुनः कथयामि ते ॥ २६ ॥
इस प्रकार स्वायम्भुव मनुने भक्तिपूर्वक देवीकी आराधना करके अपने मन्वन्तरपर्यन्त पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया । हे सौम्य ! मन्वन्तरसे सम्बन्ध रखनेवाले भगवती श्रीदेवीके इस आद्य चरित्रका वर्णन मैंने कर दिया; अब आगे किस प्रसंगका वर्णन आपसे करूँ ? ॥ २५-२६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां दशमस्कन्धे
विन्ध्यवृद्ध्यवरोधवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयाँ संहितायां दशमस्कन्धे विन्ध्यवृद्ध्यवरोधवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥


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