श्रीनारायण बोले-हे महामुने ! मैंने इन आद्य स्वायम्भुव मनुका वर्णन कर दिया, जिन्होंने देवीकी उपासनासे निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया । उन मनुके प्रियव्रत तथा उत्तानपाद नामक महान् तेजस्वी दो पुत्र हुए । राज्यका भलीभाँति पालन करनेवाले वे दोनों भूलोकमें अति प्रसिद्ध हुए ॥ ४-५ ॥
द्वितीयश्च मनुः स्वारोचिष उक्तो मनीषिभिः । प्रियव्रतसुतः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥ ६ ॥ स स्वारोचिषनामापि कालिन्दीकूलतो मनुः ।
विद्वानोंने स्वारोचिष मनुको द्वितीय मनु कहा है । अमित पराक्रमवाले वे श्रीमान् स्वारोचिष मनु राजा प्रियव्रतके पुत्र थे ॥ ६ ॥
निवासं कल्पयामास सर्वसत्त्वप्रियङ्करः ॥ ७ ॥ जीर्णपत्राशनो भूत्वा तपः कर्तुमनुव्रतः । देव्या मूर्तिं मृण्मयीं च पूजयामास भक्तितः ॥ ८ ॥
सभी प्राणियोंका हित करनेवाले वे स्वारोचिष नामक मनु यमुनाके तटपर निवास करने लगे । वे सूखे पत्तोंके आहारपर रहकर एक महान् व्रतीके रूपमें तपस्या करनेमें संलग्न हो गये और भगवतीकी मृण्मयी मूर्ति बनाकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करने लगे ॥ ७-८ ॥
एवं द्वादश वर्षाणि वनस्थस्य तपस्यतः । देवी प्रादुरभूत्तात सहस्रार्कसमद्युतिः ॥ ९ ॥
हे तात ! इस प्रकार वनमें रहकर बारह वर्षोंतक तपस्या करनेवाले उन मनुके समक्ष हजारों सूर्योके समान तेजवाली देवी प्रकट हो गयीं ॥ ९ ॥
तत्पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली उन देवेश्वरीने उस स्तवराजसे प्रसन्न होकर स्वारोचिष मनुको सम्पूर्ण मन्वन्तरका आधिपत्य प्रदान कर दिया । उसी समयसे भगवती जगद्धात्रीको तारिणी मानकर उनकी उपासना करनेकी प्रथा चल पड़ी ॥ १०.५ ॥
एवं स्वारोचिषमनुस्तारिण्याराधनात्ततः ॥ ११ ॥ आधिपत्यं च लेभे स सर्वारातिविवर्जितम् । धर्मं संस्थाप्य विधिवद्राज्यं पुत्रैः समं विभुः ॥ १२ ॥ भुक्त्वा जगाम स्वर्लोकं निजमन्वन्तराश्रयात् ।
इस प्रकार स्वारोचिष मनुने उन तारिणीदेवीकी उपासनासे समस्त शत्रुओंसे रहित राज्य प्राप्त कर लिया । इसके अनन्तर वे ऐश्वर्यसम्पन्न मनु विधिपूर्वक धर्मकी स्थापना करके पुत्रोंके साथ अपना राज्य भोगकर अन्तमें अपने मन्वन्तरका अधिकार त्यागकर स्वर्गलोक चले गये ॥ ११-१२.५ ॥
तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः ॥ १३ ॥ गङ्गाकूले तपस्तप्त्वा वाग्भवं सञ्जपन् रहः । वर्षाणि त्रीण्युपवसन् देव्यनुग्रहमाविशत् ॥ १४ ॥
इसके बाद प्रियव्रतके उत्तम नामक पुत्र तृतीय मनु हुए । उन्होंने गंगाके तटपर रहकर एकान्तमें निरन्तर भगवतीके वाग्भव मन्त्रका जप करते हुए तीन वर्षांतक तप करके देवीका अनुग्रह प्राप्त किया ॥ १३-१४ ॥
भक्तिपूर्ण मनसे उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा भगवतीकी स्तुति करके उन्होंने निष्कंटक राज्य तथा दीर्घजीवी सन्तान प्राप्त की ॥ १५ ॥
राज्योत्थान्यानि सौख्यानि भुक्त्वा धर्मान्युगस्य च । सोऽप्याजगाम पदवीं राजर्षिवरभाविताम् ॥ १६ ॥
राज्यसे प्राप्त होनेवाले सुखोंका भोग करके तथा युग-धर्मोंका पालन करके वे अन्य श्रेष्ठ राजर्षियोंद्वारा प्राप्त पदपर पहुँच गये ॥ १६ ॥
चतुर्थस्तामसो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः । नर्मदादक्षिणे कूले समाराध्य जगन्मयीम् ॥ १७ ॥ महेश्वरीं कामराजकूटजापपरायणः । वासन्ते शारदे काले नवरात्रसपर्यया ॥ १८ ॥ तोषयामास देवेशीं जलजाक्षीमनूपमाम् ।
तामस नामवाले चौथे मनु प्रियव्रतके पुत्र थे । नर्मदा नदीके दक्षिणी तटपर गुह्य कामबीज मन्त्रका सतत जप करते हुए उन्होंने जगद्व्यापिनी महेश्वरीकी आराधना की । चैत्र तथा आश्विनमासके नवरात्रमें उपासनाके द्वारा उन्होंने कमलके समान नेत्रोंवाली अनुपमेय देवेश्वरीको सन्तुष्ट किया ॥ १७-१८.५ ॥
अति श्रेष्ठ स्तोत्रोंसे देवीका स्तवन करके उनकी कृपा प्राप्तकर तामस मनुने निःशंक होकर निष्कण्टक विशाल राज्यका भोग किया ॥ १९.५ ॥
पुत्रान्वलोद्धताञ्छूरान्दश वीर्यनिकेतनान् ॥ २० ॥ उत्पाद्य निजभार्यायां जगामाम्बरमुत्तमम् ।
अपनी भार्यासे दस ओजस्वी, शक्तिशाली तथा पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करके वे उत्तम लोकको प्राप्त हुए ॥ २०.५ ॥
पञ्चमो मनुराख्यातो रैवतस्तामसानुजः ॥ २१ ॥ कालिन्दीकूलमाश्रित्य जजाप कामसंज्ञकम् । बीजं परमवाग्दर्पदायकं साधकाश्रयम् ॥ २२ ॥
तामस मनुके अनुज रैवतको पाँचवाँ मनु कहा गया है । यमुनाके तटपर रहकर उन्होंने परम वाक्शक्ति तथा प्रतिष्ठा प्रदान करनेवाले एवं साधकोंके लिये आश्रयस्वरूप कामबीजसंज्ञक मन्त्रका जप किया ॥ २१-२२ ॥
एतदाराधनादाप स्वाराज्यर्द्धिमनुत्तमाम् । बलमप्रहतं लोके सर्वसिद्धिविधायकम् ॥ २३ ॥ सन्ततिं चिरकालीनां पुत्रपौत्रमयीं शुभाम् । धर्मान्व्यस्य व्यवस्थाप्य विषयानुपभुज्य च । जगामाप्रतिमः शूरो महेन्द्रालयमुत्तमम् ॥ २४ ॥
भगवतीकी इस आराधनासे उन्होंने उत्तम समृद्धिसे सम्पन्न अपना राज्य तथा जगत्में सभी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाला अप्रतिहत बल प्राप्त कर लिया । उन्होंने शुभ तथा पुत्र-पौत्रसे सम्पन्न सन्तति प्राप्त की । पुनः लोकमें धर्मकी स्थापना करके, राज्यकी व्यवस्था करके तथा राज्य-सुख भोगकर अप्रतिम शूर उन रैवत मनुने उत्तम इन्द्रपुरीके लिये प्रस्थान किया ॥ २३-२४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे मनूत्पत्तिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां दशमस्कन्धे मनूत्यत्तिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥