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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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त्रिपुण्ड‍धारणमाहात्म्यवर्णनम् -
भस्म तथा त्रिपुण्ड-धारणका माहात्म्य -


श्रीनारायण उवाच
महापातकसङ्‌घाश्च पातकान्यपराण्यपि ।
नश्यन्ति मुनिशार्दूल सत्यं सत्यं न चान्यथा ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! भस्म धारण करनेसे महापातकोंके समूह तथा अन्य पातक भी नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सच-सच कह रहा हूँ । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १ ॥

एकं भस्म धृतं येन तस्य पुण्यफलं शृणु ।
यतीनां ज्ञानदं प्रोक्तं वानस्थानां विरक्तिदम् ॥ २ ॥
गृहस्थानां मुने तद्वद्धर्मवृद्धिकरं तथा ।
ब्रह्मचर्याश्रमस्थानां स्वाध्यायप्रदमेव च ॥ ३ ॥
शूद्राणां पुण्यदं नित्यमन्येषां पापनाशनम् ।
जिसने एकमात्र भस्म ही धारण किया हो, उसके पुण्यफलके विषयमें सुनिये । हे मुने ! यह भस्मधारण संन्यासियोंको ब्रह्मज्ञान देनेवाला, वानप्रस्थलोगोंको विरक्ति प्रदान करनेवाला कहा गया है । उसी प्रकार यह गृहस्थोंके धर्मकी वृद्धि करनेवाला, ब्रह्मचर्य-आश्रममें स्थित लोगोंके लिये स्वाध्यायके प्रति प्रेरणा देनेवाला, शूद्रोंको नित्य पुण्य प्रदान करनेवाला तथा अन्य लोगोंके पापोंका नाश करनेवाला है ॥ २-३.५ ॥

भस्मनोद्धूलनं चैव तथा तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ४ ॥
रक्षार्थं सर्वभूतानां विधत्ते वैदिकी श्रुतिः ।
भस्म लगाना तथा तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना सभी जीवोंकी रक्षाके लिये है-वैदिकी श्रुति ऐसा विधान करती है ॥ ४.५ ॥

भस्मनोद्धूलनं चैव तथा तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ५ ॥
यज्ञत्वेनैव सर्वेषां विधत्ते वैदिकी श्रुतिः ।
भस्म लगाना तथा तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना सभी लोगोंके लिये यज्ञतुल्य है-वैदिकी श्रुति ऐसा विधान करती है ॥ ५.५ ॥

भस्मनोद्धूलनं चैव तथा तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ६ ॥
सर्वधर्मतया तेषां विधत्ते वैदिकी श्रुतिः ।
भस्म लगाना तथा तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना सभी (पाशुपत, शैव आदि) धर्मों में सामान्य नियम है-वैदिकी श्रुति ऐसा विधान करती है ॥ ६.५ ॥

भस्मनोद्धूलनं चैव तथा तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ७ ॥
माहेश्वराणां लिङ्‌गार्थं विधत्ते वैदिकी श्रुतिः ।
भस्म लगाना तथा तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना माहेश्वर लोगोंका चिह्न है-वैदिकी श्रुति ऐसा विधान करती है ॥ ७.५ ॥

भस्मनोद्धूलनं चैव तथा तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ८ ॥
विज्ञानार्थं च सर्वेषां विधत्ते वैदिकी श्रुतिः ।
भस्म लगाना तथा तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना सभी लोगोंके लिये ज्ञान-प्राप्तिका साधन है-वैदिकी श्रुति ऐसा विधान करती है ॥ ८.५ ॥

शिवेन विष्णुना चैव ब्रह्मणा वज्रिणा तथा ॥ ९ ॥
हिरण्यगर्भेण तदवतारैर्वरुणादिभिः ।
देवताभिर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मकम् ॥ १० ॥
शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, हिरण्यगर्भ तथा उनके अवतारोंने और वरुण आदि देवताओंने भी त्रिपुण्ड्र तथा उर्दूलनके रूपमें भस्म धारण किया था ॥ ९-१० ॥

उमादेव्या च लक्ष्या च वाचा चान्याभिरास्तिकैः ।
सर्वस्त्रीभिर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना ॥ ११ ॥
देवी पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, अन्य सभी देवांगनाओं तथा अन्य आस्तिकजनोंने त्रिपुण्ड तथा उद्धलनके रूपमें भस्म धारण किया था ॥ ११ ॥

यक्षराक्षसगन्धर्वसिद्धविद्याधरादिभिः ।
मुनिभिश्च धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना ॥ १२ ॥
यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर तथा मुनि आदिने भी अपने शरीरपर भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारण किया था ॥ १२ ॥

ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रेरपि च सङ्‌करैः ।
अपभ्रंशैर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना ॥ १३ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर तथा वर्णधर्मसे च्युत लोगोंने भी अपने शरीरपर भस्म तथा त्रिपुण्ड धारण किया था ॥ १३ ॥

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च यैः समाचरितं मुदा ।
त एव शिष्टा विद्वांसो नेतरे मुनिपुङ्‌गव ॥ १४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! जो लोग प्रसन्नतापूर्वक भस्मका अनुलेपन करते हैं तथा त्रिपुण्ड्र धारण करते हैं, वे ही शिष्ट तथा विद्वान् हैं, अन्य लोग नहीं ॥ १४ ॥

शिवलिङ्‌गं मणिः सख्यं मन्त्रः पञ्चाक्षरस्तथा ।
विभूतिरौषधं पुंसां मुक्तिस्त्रीवश्यकर्मणि ॥ १५ ॥
मोक्षरूपिणी नारीको वशीभूत करनेके निमित्त मनुष्योंके लिये शिवलिंग एक मणिरूप आभूषण है, पंचाक्षरमन्त्र (नमः शिवाय) मित्र है और भस्म औषधि है ॥ १५ ॥

भुनक्ति यत्र भस्माङ्‌गो मूर्खो वा पण्डितोऽपि वा ।
तत्र भुङ्‌क्ते महादेवः सपत्‍नीको वृषध्वजः ॥ १६ ॥
जहाँ मूर्ख या पण्डित कोई भी अपने शरीरमें भस्म धारण करके भोजन करता है, वहाँ मानो वृषध्वज महादेव अपनी भार्या पार्वतीके साथ भोजन करते हैं ॥ १६ ॥

भस्मसञ्छन्नसर्वाङ्‌गमनुगच्छति यः पुमान् ।
सर्वपातकयुक्तोऽपि पूजितो मानवोऽचिरात् ॥ १७ ॥
जो मनुष्य सर्वांगमें भस्म धारण करनेवालेका अनुगमन करता है, वह सब पापोंसे युक्त होनेपर भी शीघ्र ही सबका पूजनीय हो जाता है ॥ १७ ॥

भस्मसञ्छन्नसर्वाङ्‌गं यः स्तौति श्रद्धया सह ।
सर्वपातकयुक्तोऽपि पूज्यते मानवोऽचिरात् ॥ १८ ॥
जो मनुष्य सर्वांगमें भस्म धारण करनेवालेकी श्रद्धापूर्वक स्तुति करता है, वह सभी पापोंसे युक्त होनेपर भी शीघ्र ही सबके द्वारा पूजित होता है ॥ १८ ॥

त्रिपुण्ड्रधारिणे भिक्षाप्रदानेन हि केवलम् ।
तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम् ॥ १९ ॥
जिसने त्रिपुण्ड्र धारण करनेवालेको केवल भिक्षाभर दे दी, उसने मानो वेदोंका अध्ययन कर लिया, सम्पूर्ण श्रुतियोंको सुन लिया तथा सभी धार्मिक कार्योंको कर लिया ॥ १९ ॥

येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना कृतम् ।
कीकटेष्वपि देशेषु यत्र भूतिविभूषणः ॥ २० ॥
मानवस्तु वसेन्नित्यं काशीक्षेत्रसमं हि तत् ।
यदि कोई ब्राह्मण अपने मस्तकपर भस्मसे त्रिपुण्ड धारण करके कीकट आदि देशोंमें भी नित्य निवास करता हो; तो विभूतिसे विभूषित उस मनुष्यके लिये वह स्थान काशीक्षेत्रके समान हो जाता है ॥ २०.५ ॥

दुःशीलः शीलयुक्तो वा योगयुक्तोऽप्यलक्षणः ॥ २१ ॥
भूतिशासनयुक्तो वा स पूज्यो मम पुत्रवत् ।
कोई मनुष्य आचारवान् हो या आचारहीन, योगसम्पन्न हो या योग-लक्षणोंसे रहित, यदि उसने केवल भस्ममात्र धारण किया है तो वह मेरे पुत्र ब्रह्माके समान पूजनीय है ॥ २१.५ ॥

छद्मनापि चरेद्यो हि भूतिशासनमैश्वरम् ॥ २२ ॥
सोऽपि यां गतिमाप्नोति न तां यज्ञशतैरपि ।
छद्मसे भी यदि कोई व्यक्ति ऐश्वर्यमय भस्म धारण करता है, तो वह भी उस गतिको प्राप्त करता है, जो सैकड़ों यज्ञ करनेसे भी प्राप्त नहीं की जा सकती ॥ २२.५ ॥

सम्पर्काल्लीलया वापि भयाद्वा धारयेत्तु यः ॥ २३ ॥
विधियुक्तो विभूतिं तु स च पूज्यो यथा ह्यहम् ।
जो भस्म धारण करनेवालेके सम्पर्कसे, विनोदमें अथवा भयसे ही विधिपूर्वक भस्म धारण करता है, वह मेरी तरह पूजनीय हो जाता है ॥ २३.५ ॥

शिवस्य विष्णोर्देवानां ब्रह्मणस्तृप्तिकारणम् ॥ २४ ॥
पार्वत्याश्च महालक्ष्या भारत्यास्तृप्तिकारणम् ।
यह भस्म ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अन्य देवगण, पार्वती, महालक्ष्मी तथा सरस्वतीकी तृप्तिका कारण है ॥ २४.५ ॥

न दानेन न यज्ञेन न तपोभिः सुदुर्लभैः ॥ २५ ॥
न तीर्थयात्रया पुण्यं त्रिपुण्ड्रेण च लभ्यते ।
जो पुण्य त्रिपुण्ड्र धारण करनेसे प्राप्त होता है; वह पुण्य न दानसे, न यज्ञसे, न दुःसाध्य तपस्याओंसे और न तो तीर्थयात्रासे ही प्राप्त होता है ॥ २५.५ ॥

दानं यज्ञाश्च धर्माश्च तीर्थयात्राश्च नारद ॥ २६ ॥
ध्यानं तपस्त्रिपुण्ड्रस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
हे नारद ! दान, सभी यज्ञ, सभी धर्म, तीर्थयात्रा, ध्यान तथा तपस्या आदि त्रिपुण्डकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते ॥ २६.५ ॥

यथा राजा स्वचिह्नाङ्‌कं स्वजनं मन्यते सदा ॥ २७ ॥
तथा शिवस्त्रिपुण्ड्राङ्‌कं स्वकीयमिव मन्यते ।
जिस प्रकार राजा अपने चिह्नसे अंकित व्यक्तिको स्वजन समझता है, उसी प्रकार भगवान् शिव त्रिपुण्ड्र-चिह्न धारण करनेवालेको सदा अपना मानते हैं ॥ २७.५ ॥

द्विजातिर्वान्यजातिर्वा शुद्धचित्तेन भस्मना ॥ २८ ॥
धारयेद्यस्त्रिपुण्ड्राङ्‌कं रुद्रस्तेन वशीकृतः ।
द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) अथवा अन्य किसी जातिका मनुष्य यदि शुद्ध मनसे भस्मद्वारा त्रिपुण्ड्रका चिह्न धारण करे तो भगवान् शिव उसके वशीभूत हो जाते हैं ॥ २८.५ ॥

त्यक्तसर्वाश्रमाचारो लुप्तसर्वक्रियोऽपि सः ॥ २९ ॥
सकृत्तिर्यक्त्रिपुण्ड्राङ्‌कं धारयेत्सोऽपि मुच्यते ।
जिसने समस्त आश्रमोंके आचारोंका त्याग कर दिया है तथा समस्त नित्य-नैमित्तिक क्रियाओंको छोड़ दिया है, वह भी यदि एक बार त्रिपुण्ड्र-चिह्न धारण कर ले तो मुक्त हो जाता है ॥ २९.५ ॥

नास्य ज्ञानं परीक्षेत न कुलं न व्रतं तथा ॥ ३० ॥
त्रिपुण्ड्राङ्‌कितभालेन पूज्य एव हि नारद ।
हे नारद ! इस त्रिपुण्ड्धारीके न तो ज्ञानकी, न उसके कुलकी और न तो उसके व्रतकी ही परीक्षा करे; क्योंकि वह तो अपने त्रिपुण्ड्रांकित मस्तकके कारण ही पूज्य है ॥ ३०.५ ॥

शिवमन्त्रात्परो मन्त्रो नास्ति तुल्यं शिवात्परम् ॥ ३१ ॥
शिवार्चनात्परं पुण्यं न हि तीर्थं च भस्मना ।
शिवमन्त्रसे बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं है, शिवके समान कोई दूसरा देवता नहीं है, शिवके पूजनसे बढ़कर कोई पुण्य नहीं है और भस्मसे बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है । ३१.५ ॥

रुद्राग्नेर्यत्परं तीर्थं तद्‍भस्म परिकीर्तितम् ॥ ३२ ॥
ध्वंसनं सर्वदुःखानां सर्वपापविशोधनम् ।
रुद्राग्निका जो परम तीर्थ है, उसे ही भस्म कहा गया है, वह सभी प्रकारके कष्टोंका नाश करनेवाला तथा सभी पापोंका शोधन करनेवाला है । ३२.५ ॥

अन्त्यजो वाधमो वापि मूर्खो वा पण्डितोऽपि वा ॥ ३३ ॥
यस्मिन्देशे वसेन्नित्यं भूतिशासनसंयुतः ।
तस्मिन्सदाशिवः सोमः सर्वभूतगणैर्वृतः ।
सर्वतीर्थेश्च संयुक्तः सान्निध्यं कुरुते सदा ॥ ३४ ॥
अन्त्यज, निर्धन, मूर्ख अथवा पण्डित कोई भी हो, वह नित्य भस्म धारण करके जिस देशमें निवास करता है, सदाशिव महादेव सभी भूतगणोंको साथमें लेकर सभी तीर्थोसहित पार्वतीके साथ उस स्थानपर सदा विराजमान रहते हैं ॥ ३३-३४ ॥

एतानि पञ्चशिवमन्त्रपवित्रितानि
     भस्मानि कामदहनाङ्‌गविभूषितानि ।
त्रैपुण्ड्रकाणि रचितानि ललाटपट्टे
     लुम्पन्ति दैवलिखितानि दुरक्षराणि ॥ ३५ ॥
कामदेवको भस्म करनेवाले भगवान् शिवके अंगके भूषणस्वरूप तथा पंच-शिवमन्त्रोंसे पवित्र की गयी यह भस्मराशि त्रिपुण्डरूपमें [ललाटपर] धारण करनेसे ललाटपट्टपर विधाताके द्वारा लिखे गये अभाग्यसूचक अक्षरोंको भी मिटा देती है ॥ ३५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
त्रिपुण्ड‍धारणमाहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रिपुण्डधारणमाहात्म्यवर्णन नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥


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