जो तीनों सन्ध्याओं (प्रातः, मध्याह्न एवं सायं)-के समय श्वेत भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ ३ ॥
योगी सर्वाङ्गकं स्तानमापादतलमस्तकम् । त्रिसन्ध्यमाचरेन्नित्यमाशु योगमवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
जो योगी तीनों सन्ध्याओंको करते समय पैरोंके तलवेसे लेकर मस्तकपर्यन्त सभी अंगोंमें नित्य भस्म लगाता है (भस्मस्नान करता है), वह शीघ्र ही योगस्थिति प्राप्त कर लेता है ॥ ४ ॥
भस्मस्नानेन पुरुषः कुलस्योद्धारको भवेत् । भस्मस्नानं जलस्नानादसंख्येयगुणान्वितम् ॥ ५ ॥
भस्मस्नानसे मनुष्य अपने कुलका उद्धार करनेवाला हो जाता है । भस्मस्नान जलस्नानकी अपेक्षा असंख्य गुना फलदायी होता है ॥ ५ ॥
अपने शरीरके सभी अंगोंमें भस्म धारण किये हुए व्यक्तिको देखकर जो मनुष्य [श्रद्धाके साथ] उठ जाता है, उसे देखकर देवराज इन्द्र भी दण्डवत् प्रणाम करते हैं ॥ १२ ॥
हे मुने ! जो लोग भस्म धारण करके अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करते हैं, उनके लिये वह भी भक्ष्य हो जाता है । इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥
यः स्नाति भस्मना नित्यं जले स्नात्वा ततः परम् । ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽऽथवादरात् ॥ १४ ॥ सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् । आग्नेयं भस्मना स्नानं यतीनां च विशिष्यते ॥ १५ ॥
जो जलमें स्नान करनेके अनन्तर श्रद्धापूर्वक नित्य भस्मस्नान करता है, वह ब्रह्मचारी हो अथवा गृहस्थ हो अथवा वानप्रस्थी हो, सभी पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है । यतियोंके लिये भस्मके द्वारा अग्निस्नानको विशिष्ट कहा गया है ॥ १४-१५ ॥
जलस्नानकी अपेक्षा भस्मस्नान श्रेष्ठ होता है; इसीसे आई (प्रकृति-बन्धन) का नष्ट होना सम्भव है । आर्द्रको 'प्रकृति' समझना चाहिये और इस प्रकृतिको ही 'बन्धन' कहा गया है । अतएव इस प्रकृतिरूप बन्धनको काटनेके लिये भस्मसे स्नान करना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! तीनों लोकोंमें भस्मके समान कुछ भी नहीं है । १६-१७ ॥
रक्षार्थं मङ्गलार्थं च पवित्रार्थं पुरा सुरैः । भस्म दृष्ट्वा मुने पूर्वं दत्तं देव्यै प्रियेण तु ॥ १८ ॥
पूर्व कालमें देवताओंने अपनी रक्षाके लिये; अपने कल्याणके लिये और पवित्रताके लिये भस्मको स्वीकार किया था । हे मुने ! सबसे पहले शिवजीने भस्म प्राप्त करके इसे देवी पार्वतीको दिया था ॥ १८ ॥
तस्मादेतच्छिरःस्नानमाग्नेयं यः समाचरेत् । भवपाशैर्विनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ १९ ॥
अतएव जो मनुष्य इस आग्नेय शिर:स्नानको करता है, वह सांसारिक बन्धनोंसे विमुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ १९ ॥
ज्वर, राक्षस, पिशाच, पूतनारोग, कुष्ठ, गुल्मरोग, सभी प्रकारका भगंदर रोग, अस्सी प्रकारके वातरोग, चौंसठ प्रकारके पित्तरोग, एक सौ पाँच प्रकारके कफरोग, बाघ आदि जन्तुओंका भय, चोरोंका भय और अन्य प्रकारके दुष्टग्रह-ये सब भस्मस्नानसे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सिंहके द्वारा हाथी विनष्ट कर दिये जाते हैं ॥ २०-२१.५ ॥
शुद्धशीतजलेनैव भस्मना च त्रिपुण्ड्रकम् ॥ २२ ॥ यो धारयेत्परं ब्रह्म स प्राप्नोति न संशयः । (भस्मना च त्रिपुण्ड्रं च यः कोऽपि धारयेत्परम् । स ब्रह्मलोकमाप्नोति मुक्तपापो न संशयः ॥) यथाविधि ललाटे वै वह्निवीर्यप्रधारणात् ॥ २३ ॥ नाशयेल्लिखितां यामीं ललाटस्थां लिपिं ध्रुवम् । कण्ठोपरिकृतं पापं नाशयेत्तत्प्रधारणात् ॥ २४ ॥
जो मनुष्य शुद्ध तथा शीतल जल मिलाकर भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त करता है । इसमें सन्देह नहीं है । (जो कोई भी मनुष्य भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकको जाता है; इसमें संशय नहीं है) । ललाटपर विधिपूर्वक इस अग्निवीर्यरूपी भस्मको धारण करनेसे यह मनुष्यके भालपर अंकित यमकी लिपिको भी निश्चितरूपसे मिटा देता है । कण्ठके ऊपरी भागसे किया गया पाप भी उसके धारणसे नष्ट हो जाता है । २२-२४ ॥
कण्ठे च धारणात्कण्ठभोगादिकृतपातकम् । बाह्वोर्बाहुकृतं पापं वक्षसा मनसा कृतम् ॥ २५ ॥ नाभ्यां शिश्नकृतं पापं गुदे गुदकृतं हरेत् । पार्श्वयोर्धारणाद्ब्रह्मन् परस्त्र्यालिङ्गनादिकम् ॥ २६ ॥
कण्ठद्वारा अभक्ष्य पदाथोंके भोगजनित पाप कण्ठपर भस्म धारण करनेसे, बाहुद्वारा किया गया पाप दोनों बाहुओंपर भस्म लगानेसे तथा मनद्वारा किये गये पाप वक्षःस्थलपर भस्म धारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं । नाभिपर भस्म लगानेसे लिंगजनित पाप तथा गुदापर भस्म लगानेसे गुदेन्द्रियजनित पाप मिट जाता है । हे ब्रह्मन् ! दोनों पार्श्वमें भस्म धारण करनेसे परनारीका आलिंगन आदि करनेसे लगा हुआ पाप विनष्ट हो जाता है ॥ २५-२६ ॥
तद्भस्मधारणं शस्तं सर्वत्रैव त्रिलिङ्गकम् । ब्रह्मविष्णुमहेशानां त्रय्यग्नीनां च धारणम् ॥ २७ ॥ गुणलोकत्रयाणां च धारणं तेन वै कृतम् ।
सर्वत्र तीन तिर्यक् रेखावाला (त्रिपुण्ड्र) भस्म प्रशस्त माना गया है । जिसने त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया, उसने मानो ब्रह्मा, विष्णु, महेश; तीनों अग्नि (गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि); तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) और तीनों लोकोंको धारण कर लिया ॥ २७.५ ॥
भस्मच्छन्नो द्विजो विद्वान्महापातकसम्भवैः ॥ २८ ॥ दोषैर्वियुज्यते सद्यो मुच्यते च न संशयः ।
भस्म धारण करनेवाला विद्वान् द्विज महापातकजन्य दोषोंसे शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ २८.५ ॥
भस्म धारण करनेवाले मनुष्यके दोष भस्मकी अग्निके सम्पर्कसे नष्ट हो जाते हैं । भस्म-स्नानसे विशुद्ध आत्मावाला व्यक्ति आत्मनिष्ठ कहा गया है ॥ २९.५ ॥
भस्मना दिग्धसर्वाङ्गो भस्मदीप्तत्रिपुण्ड्रकः ॥ ३० ॥ भस्मशायी च पुरुषो भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ।
अपने सर्वांगमें भस्म लगानेवाला, भस्मसे प्रदीप्त त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाला तथा भस्मपर ही शयन करनेवाला पुरुष 'भस्मनिष्ठ' कहा गया है ॥ ३०.५ ॥
भूतप्रेतपिशाचाद्या रोगाश्चातीव दुःसहाः ॥ ३१ ॥ भस्मनिष्ठस्य सान्निध्याद्विद्रवन्ति न संशयः ।
भूत, प्रेत, पिशाच आदि बाधाएँ तथा अति दुःसह रोग भस्म धारण करनेवालेके पाससे भाग जाते हैं; इसमें सन्देह नहीं है । ३१.५ ॥
भासनाद्भसितं प्रोक्तं भस्म कल्मषभक्षणात् ॥ ३२ ॥ भूतिर्भूतिकरी पुंसां रक्षा रक्षाकरी पुरा ।
इस भस्मको ब्रह्मका भास करानेसे 'भसित', पापका भक्षण करनेके कारण 'भस्म', मनुष्योंको भूति (ऐश्वर्य तथा सिद्धियाँ आदि) प्रदान करनेसे 'भूति' तथा रक्षा करनेके कारण 'रक्षा' कहा गया है ॥ ३२.५ ॥
त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए मनुष्यको अपने सम्मुख देखकर भूत-प्रेत आदि भयभीत होकर काँपने लगते हैं और वे शीघ्र ही उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे भगवान् रुद्रके स्मरणमात्रसे पाप दग्ध हो जाते हैं ॥ ३३-३४ ॥
हजारों प्रकारके दुष्कृत्योंको करके भी जो मनुष्य भस्मसे स्नान करता है, उसके उन सभी कुकर्मोंको भस्म उसी प्रकार जला डालता है; जैसे अग्नि अपने तेजसे वनको भस्म कर देती है ॥ ३५ ॥
जो द्विज घोर पाप करके भी यदि मृत्युके समय भस्मस्नान कर लेता है, वह तत्काल समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥
भस्मस्नानाद्धि शुद्धात्मा जितक्रोधो जितेन्द्रियः । मत्समीपं समागम्य न स भूयोऽभिवर्तते ॥ ३७ ॥
भस्मस्नान करके शुद्ध आत्मावाला, क्रोधको जीत लेनेवाला तथा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण कर लेनेवाला मनुष्य मेरे सांनिध्यमें आकर पुनः जन्म-मरणके बन्धनमें नहीं पड़ता ॥ ३७ ॥
दीर्घ आयुकी इच्छा रखनेवाले, विपुल ऐश्वर्यकी अभिलाषा रखनेवाले अथवा मोक्षकी कामना करनेवाले विद्वान् द्विजको भस्म और ब्रह्मा, विष्णु, शिवके स्वरूपवाले परम पवित्र त्रिपुण्ड्रको नित्य धारण करना चाहिये ॥ ३९.५ ॥
ये घोरा राक्षसाः प्रेता ये चान्ये क्षुद्रजन्तवः ॥ ४० ॥ त्रिपुण्ड्रधारणं दृष्ट्वा पलायन्ते न संशयः ।
भयंकर राक्षस, प्रेत तथा जो भी अन्य क्षुद्र जन्तु हैं, वे सभी त्रिपुण्ड धारण किये हुए मनुष्यको देखकर भाग जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४०.५ ॥
जलका स्नान केवल बाह्य मलको धोनेवाला है, किंतु पवित्र भस्मस्नान बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके मलोंको नष्ट करनेवाला है । अत: जलस्नानका परित्याग करके भी भस्मस्नानके लिये तत्पर होना चाहिये; इसमें संशय नहीं है ॥ ४२-४३ ॥
भीतर तथा बाहरसे शुद्ध होनेपर ही मनुष्य शिवपूजाका फल प्राप्त कर सकता है । जो जलस्नान है वह तो केवल बाह्य मलका नाश करता है, किंतु वह भस्मस्नान प्राणीके बाहरी तथा भीतरी दोनों प्रकारके मलोंको बड़ी तीव्रतापूर्वक विनष्ट कर देता है ॥ ४५.५ ॥
तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं)-में प्रयत्नपूर्वक भस्मस्नान करना चाहिये । भस्मस्नान श्रौतकर्म कहा गया है, अत: इसका परित्याग करनेवाला पतित हो जाता है ॥ ५२.५ ॥
विधिपूर्वक शौच आदि कृत्य करनेके बाद भी बिना भस्मस्नानके कोई द्विज पवित्र अन्त:करणवाला नहीं हो सकता और वह किसी कृत्यको सम्पादित करनेका अधिकारी भी नहीं हो सकता है । ॥ ५४.५ ॥
हे मुनि श्रेष्ठ ! यह मैंने श्रीभस्मस्नानके मात्र एक अंशका वर्णन आपसे किया है । अब मैं भस्मस्नानसे प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें पुनः बताऊँगा, सावधान मनसे सुनिये ॥ ५६-५७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे विभूतिधारणमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे विभूतिधारणमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥