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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
चतुर्दशोऽध्यायः

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विभूतिधारणमाहात्म्यवर्णनम् -
भस्मस्नानका महत्त्व -


श्रीनारायण उवाच
भस्मदिग्धशरीराय यो ददाति धनं मुदा ।
तस्य सर्वाणि पापानि विनश्यन्ति न संशयः ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-जो मनुष्य शरीरमें भस्म धारण करनेवालेको प्रसन्नतापूर्वक धन देता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १ ॥

श्रुतयः स्मृतयः सर्वाः पुराणान्यखिलान्यपि ।
वदन्ति भूतिमाहाम्यं तत्तस्माद्धारयेद्‌द्विजः ॥ २ ॥
सभी श्रुतियाँ, स्मृतियाँ एवं समस्त पुराण भी विभूतिके माहात्म्यका वर्णन करते हैं, अतएव द्विजको विभूति धारण करना चाहिये ॥ २ ॥

सितेन भस्मना कुर्यात्त्रिसन्ध्यं यस्त्रिपुण्ड्रकम् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ ३ ॥
जो तीनों सन्ध्याओं (प्रातः, मध्याह्न एवं सायं)-के समय श्वेत भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ ३ ॥

योगी सर्वाङ्‌गकं स्तानमापादतलमस्तकम् ।
त्रिसन्ध्यमाचरेन्नित्यमाशु योगमवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
जो योगी तीनों सन्ध्याओंको करते समय पैरोंके तलवेसे लेकर मस्तकपर्यन्त सभी अंगोंमें नित्य भस्म लगाता है (भस्मस्नान करता है), वह शीघ्र ही योगस्थिति प्राप्त कर लेता है ॥ ४ ॥

भस्मस्नानेन पुरुषः कुलस्योद्धारको भवेत् ।
भस्मस्नानं जलस्नानादसंख्येयगुणान्वितम् ॥ ५ ॥
भस्मस्नानसे मनुष्य अपने कुलका उद्धार करनेवाला हो जाता है । भस्मस्नान जलस्नानकी अपेक्षा असंख्य गुना फलदायी होता है ॥ ५ ॥

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम् ।
तत्फलं लभते सर्वं भस्मस्नानान्न संशयः ॥ ६ ॥
सभी तीथौंका सेवन करनेसे जो पूण्य होता है तथा जो फल मिलता है, वह फल केवल भस्मस्नानसे ही प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ६ ॥

महापातकयुक्तो वा युक्तो वाप्युपपातकैः ।
भस्मस्नानेन तत्सर्वं दहत्यग्निरिवेन्धनम् ॥ ७ ॥
मनुष्य चाहे जितने भी महापातकों अथवा उपपातकोंसे युक्त हो; केवल भस्मस्नान उसके सभी पापोंको उसी प्रकार दग्ध कर देता है, जैसे अग्नि ईंधनको ॥ ७ ॥

भस्मस्नानात्परं स्नानं पवित्रं नैव विद्यते ।
एवमुक्तं शिवेनादौ तदा स्नातः स्वयं शिवः ॥ ८ ॥
'भस्मस्नानसे बढ़कर पवित्र कोई दूसरा स्नान नहीं है'-ऐसा शिवजीने कहा है और शिवजीने ही सर्वप्रथम स्वयं भस्मस्नान किया था ॥ ८ ॥

तदाप्रभृति ब्रह्माद्या मुनयश्च शिवार्थिनः ।
सर्वकर्मसु यत्‍नेन भस्मस्नानं प्रचक्रिरे ॥ ९ ॥
उसी समयसे कल्याणकी इच्छावाले ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनिगण सभी कर्मोंमें तत्परतापूर्वक भस्मस्नान करने लगे ॥ ९ ॥

तस्मादेतच्छिरःस्नानमाग्नेयं यः समाचरेत् ।
अनेनैव शरीरेण स हि रुद्रो न संशयः ॥ १० ॥
अतएव जो मनुष्य यह आग्नेय नामक शिरःस्नान करता है, वह इसी शरीरसे साक्षात् रुद्रस्वरूप हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १० ॥

ये भस्मधारिणं दृष्ट्वा परितृप्ता भवन्ति ते ।
देवासुरमुनीन्द्रैश्च पूज्या नित्यं न संशयः ॥ ११ ॥
जो लोग भस्म धारण किये हुए व्यक्तिको देखकर आनन्दित होते हैं; वे देवताओं, दैत्यों तथा महर्षियोंसे नित्य पूजित होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११ ॥

भस्मसञ्छन्नसर्वाङ्‌गं दृष्ट्वोत्तिष्ठति यः पुमान् ।
तं दृष्ट्वा देवराजोऽपि दण्डवत्प्रणमिष्यति ॥ १२ ॥
अपने शरीरके सभी अंगोंमें भस्म धारण किये हुए व्यक्तिको देखकर जो मनुष्य [श्रद्धाके साथ] उठ जाता है, उसे देखकर देवराज इन्द्र भी दण्डवत् प्रणाम करते हैं ॥ १२ ॥

अभक्ष्यभक्षणं येषां भस्मधारणपूर्वकम् ।
तेषां तद्‍भक्ष्यमेव स्यान्मुने नात्र विचारणा ॥ १३ ॥
हे मुने ! जो लोग भस्म धारण करके अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करते हैं, उनके लिये वह भी भक्ष्य हो जाता है । इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥

यः स्नाति भस्मना नित्यं जले स्नात्वा ततः परम् ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽऽथवादरात् ॥ १४ ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् ।
आग्नेयं भस्मना स्नानं यतीनां च विशिष्यते ॥ १५ ॥
जो जलमें स्नान करनेके अनन्तर श्रद्धापूर्वक नित्य भस्मस्नान करता है, वह ब्रह्मचारी हो अथवा गृहस्थ हो अथवा वानप्रस्थी हो, सभी पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है । यतियोंके लिये भस्मके द्वारा अग्निस्नानको विशिष्ट कहा गया है ॥ १४-१५ ॥

आर्द्रस्नानाद्वरं भस्मस्नानमार्द्रवधो ध्रुवः ।
आर्द्रं तु प्रकृतिं विद्यात्प्रकृतिं बन्धनं विदुः ॥ १६ ॥
प्रकृतेस्तु प्रहाणाय भस्मना स्नानमिष्यते ।
भस्मना सदृशं ब्रह्यन्नास्ति लोकत्रयेष्वपि ॥ १७ ॥
जलस्नानकी अपेक्षा भस्मस्नान श्रेष्ठ होता है; इसीसे आई (प्रकृति-बन्धन) का नष्ट होना सम्भव है । आर्द्रको 'प्रकृति' समझना चाहिये और इस प्रकृतिको ही 'बन्धन' कहा गया है । अतएव इस प्रकृतिरूप बन्धनको काटनेके लिये भस्मसे स्नान करना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! तीनों लोकोंमें भस्मके समान कुछ भी नहीं है । १६-१७ ॥

रक्षार्थं मङ्‌गलार्थं च पवित्रार्थं पुरा सुरैः ।
भस्म दृष्ट्वा मुने पूर्वं दत्तं देव्यै प्रियेण तु ॥ १८ ॥
पूर्व कालमें देवताओंने अपनी रक्षाके लिये; अपने कल्याणके लिये और पवित्रताके लिये भस्मको स्वीकार किया था । हे मुने ! सबसे पहले शिवजीने भस्म प्राप्त करके इसे देवी पार्वतीको दिया था ॥ १८ ॥

तस्मादेतच्छिरःस्नानमाग्नेयं यः समाचरेत् ।
भवपाशैर्विनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ १९ ॥
अतएव जो मनुष्य इस आग्नेय शिर:स्नानको करता है, वह सांसारिक बन्धनोंसे विमुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ १९ ॥

ज्वररक्षःपिशाचाश्च पूतनाकुष्ठगुल्मकाः ।
भगन्दराणि सर्वाणि चाशीतिर्वातरोगकाः ॥ २० ॥
चतुःषष्टिः पित्तरोगाः श्लेष्मा सप्तत्रिपञ्चकाः ।
व्याघ्रचौरभयं चैवाप्यन्ये दुष्टग्रहा अपि ॥ २१ ॥
भस्मस्नानेन नश्यन्ति सिंहेनैव यथा गजाः ।
ज्वर, राक्षस, पिशाच, पूतनारोग, कुष्ठ, गुल्मरोग, सभी प्रकारका भगंदर रोग, अस्सी प्रकारके वातरोग, चौंसठ प्रकारके पित्तरोग, एक सौ पाँच प्रकारके कफरोग, बाघ आदि जन्तुओंका भय, चोरोंका भय और अन्य प्रकारके दुष्टग्रह-ये सब भस्मस्नानसे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सिंहके द्वारा हाथी विनष्ट कर दिये जाते हैं ॥ २०-२१.५ ॥

शुद्धशीतजलेनैव भस्मना च त्रिपुण्ड्रकम् ॥ २२ ॥
यो धारयेत्परं ब्रह्म स प्राप्नोति न संशयः ।
(भस्मना च त्रिपुण्ड्रं च यः कोऽपि धारयेत्परम् ।
स ब्रह्मलोकमाप्नोति मुक्तपापो न संशयः ॥)
यथाविधि ललाटे वै वह्निवीर्यप्रधारणात् ॥ २३ ॥
नाशयेल्लिखितां यामीं ललाटस्थां लिपिं ध्रुवम् ।
कण्ठोपरिकृतं पापं नाशयेत्तत्प्रधारणात् ॥ २४ ॥
जो मनुष्य शुद्ध तथा शीतल जल मिलाकर भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त करता है । इसमें सन्देह नहीं है । (जो कोई भी मनुष्य भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकको जाता है; इसमें संशय नहीं है) । ललाटपर विधिपूर्वक इस अग्निवीर्यरूपी भस्मको धारण करनेसे यह मनुष्यके भालपर अंकित यमकी लिपिको भी निश्चितरूपसे मिटा देता है । कण्ठके ऊपरी भागसे किया गया पाप भी उसके धारणसे नष्ट हो जाता है । २२-२४ ॥

कण्ठे च धारणात्कण्ठभोगादिकृतपातकम् ।
बाह्वोर्बाहुकृतं पापं वक्षसा मनसा कृतम् ॥ २५ ॥
नाभ्यां शिश्नकृतं पापं गुदे गुदकृतं हरेत् ।
पार्श्वयोर्धारणाद्‌ब्रह्मन् परस्त्र्यालिङ्‌गनादिकम् ॥ २६ ॥
कण्ठद्वारा अभक्ष्य पदाथोंके भोगजनित पाप कण्ठपर भस्म धारण करनेसे, बाहुद्वारा किया गया पाप दोनों बाहुओंपर भस्म लगानेसे तथा मनद्वारा किये गये पाप वक्षःस्थलपर भस्म धारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं । नाभिपर भस्म लगानेसे लिंगजनित पाप तथा गुदापर भस्म लगानेसे गुदेन्द्रियजनित पाप मिट जाता है । हे ब्रह्मन् ! दोनों पार्श्वमें भस्म धारण करनेसे परनारीका आलिंगन आदि करनेसे लगा हुआ पाप विनष्ट हो जाता है ॥ २५-२६ ॥

तद्‍भस्मधारणं शस्तं सर्वत्रैव त्रिलिङ्‌गकम् ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां त्रय्यग्नीनां च धारणम् ॥ २७ ॥
गुणलोकत्रयाणां च धारणं तेन वै कृतम् ।
सर्वत्र तीन तिर्यक् रेखावाला (त्रिपुण्ड्र) भस्म प्रशस्त माना गया है । जिसने त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया, उसने मानो ब्रह्मा, विष्णु, महेश; तीनों अग्नि (गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि); तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) और तीनों लोकोंको धारण कर लिया ॥ २७.५ ॥

भस्मच्छन्नो द्विजो विद्वान्महापातकसम्भवैः ॥ २८ ॥
दोषैर्वियुज्यते सद्यो मुच्यते च न संशयः ।
भस्म धारण करनेवाला विद्वान् द्विज महापातकजन्य दोषोंसे शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ २८.५ ॥

भस्मनिष्ठस्य दह्यन्ते दोषा भस्माग्निसङ्‌गमात् ॥ २९ ॥
भस्मस्नानविशुद्धात्मा आत्मनिष्ठ इति स्मृतः ।
भस्म धारण करनेवाले मनुष्यके दोष भस्मकी अग्निके सम्पर्कसे नष्ट हो जाते हैं । भस्म-स्नानसे विशुद्ध आत्मावाला व्यक्ति आत्मनिष्ठ कहा गया है ॥ २९.५ ॥

भस्मना दिग्धसर्वाङ्‌गो भस्मदीप्तत्रिपुण्ड्रकः ॥ ३० ॥
भस्मशायी च पुरुषो भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ।
अपने सर्वांगमें भस्म लगानेवाला, भस्मसे प्रदीप्त त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाला तथा भस्मपर ही शयन करनेवाला पुरुष 'भस्मनिष्ठ' कहा गया है ॥ ३०.५ ॥

भूतप्रेतपिशाचाद्या रोगाश्चातीव दुःसहाः ॥ ३१ ॥
भस्मनिष्ठस्य सान्निध्याद्विद्रवन्ति न संशयः ।
भूत, प्रेत, पिशाच आदि बाधाएँ तथा अति दुःसह रोग भस्म धारण करनेवालेके पाससे भाग जाते हैं; इसमें सन्देह नहीं है । ३१.५ ॥

भासनाद्‍भसितं प्रोक्तं भस्म कल्मषभक्षणात् ॥ ३२ ॥
भूतिर्भूतिकरी पुंसां रक्षा रक्षाकरी पुरा ।
इस भस्मको ब्रह्मका भास करानेसे 'भसित', पापका भक्षण करनेके कारण 'भस्म', मनुष्योंको भूति (ऐश्वर्य तथा सिद्धियाँ आदि) प्रदान करनेसे 'भूति' तथा रक्षा करनेके कारण 'रक्षा' कहा गया है ॥ ३२.५ ॥

त्रिपुण्ड्रधारिणं दृष्ट्वा भूतप्रेतपुरःसराः ॥ ३३ ॥
भीताः प्रकम्पिताः शीघ्रं नश्यन्त्येव न संशयः ।
स्मरणादेव रुद्रस्य यथा पापं प्रणश्यति ॥ ३४ ॥
त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए मनुष्यको अपने सम्मुख देखकर भूत-प्रेत आदि भयभीत होकर काँपने लगते हैं और वे शीघ्र ही उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे भगवान् रुद्रके स्मरणमात्रसे पाप दग्ध हो जाते हैं ॥ ३३-३४ ॥

अप्यकार्यसहस्राणि कृत्वा यः स्नाति भस्मना ।
तत्सर्वं दहते भस्म यथाग्निस्तेजसा वनम् ॥ ३५ ॥
हजारों प्रकारके दुष्कृत्योंको करके भी जो मनुष्य भस्मसे स्नान करता है, उसके उन सभी कुकर्मोंको भस्म उसी प्रकार जला डालता है; जैसे अग्नि अपने तेजसे वनको भस्म कर देती है ॥ ३५ ॥

कृत्वापि चातुलं पापं मृत्युकालेऽपि यो द्विजः ।
भस्मस्नायी भवेत्कश्चित्क्षिप्रं पापैः प्रमुच्यते ॥ ३६ ॥
जो द्विज घोर पाप करके भी यदि मृत्युके समय भस्मस्नान कर लेता है, वह तत्काल समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥

भस्मस्नानाद्धि शुद्धात्मा जितक्रोधो जितेन्द्रियः ।
मत्समीपं समागम्य न स भूयोऽभिवर्तते ॥ ३७ ॥
भस्मस्नान करके शुद्ध आत्मावाला, क्रोधको जीत लेनेवाला तथा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण कर लेनेवाला मनुष्य मेरे सांनिध्यमें आकर पुनः जन्म-मरणके बन्धनमें नहीं पड़ता ॥ ३७ ॥

वनस्पतिगते सोमे भस्मोद्धूलितविग्रहः ।
अर्चितं शङ्‌करं दृष्ट्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३८ ॥
सोमवती अमावास्याके दिन भस्मसे अनुलिप्त देहवाला व्यक्ति पूजित हुए भगवान् शिवका दर्शन करके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३८ ॥

आयुष्कामोऽथवा विद्वान्भूतिकामोऽथवा नरः ।
नित्यं वै धारयेद्‍भस्म मोक्षकामी च वै द्विजः ॥ ३९ ॥
त्रिपुण्ड्रं परमं पुण्यं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।
दीर्घ आयुकी इच्छा रखनेवाले, विपुल ऐश्वर्यकी अभिलाषा रखनेवाले अथवा मोक्षकी कामना करनेवाले विद्वान् द्विजको भस्म और ब्रह्मा, विष्णु, शिवके स्वरूपवाले परम पवित्र त्रिपुण्ड्रको नित्य धारण करना चाहिये ॥ ३९.५ ॥

ये घोरा राक्षसाः प्रेता ये चान्ये क्षुद्रजन्तवः ॥ ४० ॥
त्रिपुण्ड्रधारणं दृष्ट्वा पलायन्ते न संशयः ।
भयंकर राक्षस, प्रेत तथा जो भी अन्य क्षुद्र जन्तु हैं, वे सभी त्रिपुण्ड धारण किये हुए मनुष्यको देखकर भाग जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४०.५ ॥

कृत्वा शौचादिकं कर्म स्नात्वा तु विमले जले ॥ ४१ ॥
भस्मनोद्धूलनं कार्यमापादतलमस्तकम् ।
शौच आदि कार्योसे निवृत्त होकर स्वच्छ जलमें स्नान करनेके पश्चात् मस्तकसे लेकर पैरके तलवेतक भस्म धारण करना चाहिये ॥ ४१.५ ॥

केवलं वारुणं स्नानं देहे बाह्यमलापहम् ॥ ४२ ॥
विभूतिस्तानमनघं बाह्यान्तरमलापहम् ।
त्यक्त्वापि वारुणं स्नानं तत्परः स्यान्न संशयः ॥ ४३ ॥
जलका स्नान केवल बाह्य मलको धोनेवाला है, किंतु पवित्र भस्मस्नान बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके मलोंको नष्ट करनेवाला है । अत: जलस्नानका परित्याग करके भी भस्मस्नानके लिये तत्पर होना चाहिये; इसमें संशय नहीं है ॥ ४२-४३ ॥

कृतमप्यकृतं सत्यं भस्मस्नानं विना मुने ।
भस्मस्नानं श्रुतिप्रोक्तमाग्नेयं स्नानमुच्यते ॥ ४४ ॥
हे मुने ! भस्मस्नानके बिना किया गया कृत्य न किये हुएके बराबर हो जाता है, यह सत्य है । यह वेदोक्त भस्मस्नान ही आग्नेयस्नान' कहा जाता है ॥ ४४ ॥

अन्तर्बहिश्च संशुद्धं शिवपूजाफलं लभेत् ।
यद्‌बाह्यमलमात्रस्य नाशकं स्तानमस्ति तत् ॥ ४५ ॥
तन्नाशयति तीव्रेण प्राणिबाह्यान्तरं मलम् ।
भीतर तथा बाहरसे शुद्ध होनेपर ही मनुष्य शिवपूजाका फल प्राप्त कर सकता है । जो जलस्नान है वह तो केवल बाह्य मलका नाश करता है, किंतु वह भस्मस्नान प्राणीके बाहरी तथा भीतरी दोनों प्रकारके मलोंको बड़ी तीव्रतापूर्वक विनष्ट कर देता है ॥ ४५.५ ॥

कृत्वापि कोटिशो नित्यं वारुणं स्नानमादरात् ॥ ४६ ॥
न भवत्येव पूतात्मा भस्मस्नानं विना मुने ।
हे मुने ! नित्य करोड़ों बार श्रद्धापूर्वक जलस्नान करके भी कोई मनुष्य बिना भस्मस्नान किये पवित्र आत्मावाला नहीं हो सकता ॥ ४६.५ ॥

यद्‍भस्मस्नानमाहाम्यं तद्वेदो वेद तत्त्वतः ॥ ४७ ॥
यद्वा वेद महादेवः सर्वदेवशिखामणिः ।
भस्मस्नानका जो माहात्म्य है, उसे तात्त्विकरूपसे या तो वेद जानते हैं और या समस्त देवताओंके शिखामणिस्वरूप भगवान् महादेव जानते हैं ॥ ४७.५ ॥

भस्मस्नानमकृत्वैव यः कुर्यात्कर्म वैदिकम् ॥ ४८ ॥
स तत्कर्मकलार्धार्धमपि नाप्नोति वस्तुतः ।
जो मनुष्य भस्मस्नान किये बिना ही वैदिक कर्म करता है, वह वस्तुतः उस कर्मकी चौथाई कलाके बराबर भी फल नहीं प्राप्त करता ॥ ४८.५ ॥

यः करिष्यति यत्‍नेन भस्मस्नानं यथाविधि ॥ ४९ ॥
स एवैकः सर्वकर्मस्वधिकारी श्रुतिश्रुतः ।
जो मनुष्य प्रयलपूर्वक विधि-विधानसे भस्मस्नान करता है, एकमात्र वही समस्त कर्मोका अधिकारी है; वेदोंमें ऐसा प्रतिपादित किया गया है ॥ ४९.५ ॥

पावनं पावनानां च भस्मस्नानं श्रुतिश्रुतम् ॥ ५० ॥
न करिष्यति यो मोहात्स महापातकी भवेत् ।
यह वेदप्रतिपादित भस्मस्नान पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाला है । जो अज्ञानवश भस्मस्नान नहीं करता, वह महापातकी होता है ॥ ५०.५ ॥

अनन्तैर्वारुणैः स्नानैर्यत्पुण्यं प्राप्यते द्विजैः ॥ ५१ ॥
ततोऽनन्तगुणं पुण्यं भस्मस्नानादवाप्यते ।
द्विजगण असंख्य बार जलस्नान करके जो पुण्य प्राप्त करते हैं, उसका अनन्तगुना पुण्य केवल भस्मस्नानसे ही उन्हें मिल जाता है । ५१.५ ॥

कालत्रयेऽपि कर्तव्यं भस्मस्नानं प्रयत्‍नतः ॥ ५२ ॥
भस्मस्नानं स्मृतं श्रौतं तत्त्यागी पतितो भवेत् ।
तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं)-में प्रयत्नपूर्वक भस्मस्नान करना चाहिये । भस्मस्नान श्रौतकर्म कहा गया है, अत: इसका परित्याग करनेवाला पतित हो जाता है ॥ ५२.५ ॥

मूत्राद्युत्सर्जनान्ते तु भस्मस्नानं प्रयत्‍नतः ॥ ५३ ॥
कर्तव्यमन्यथा पूता न भविष्यन्ति मानवाः ।
मल-मूत्र आदिका त्याग करनेके पश्चात् प्रयत्नके साथ भस्मस्नान करना चाहिये, अन्यथा इसे न करनेवाले मनुष्य पवित्र नहीं होंगे ॥ ५३.५ ॥

विधिवत्कृतशौचोऽपि भस्मस्नानं विना द्विजः ॥ ५४ ॥
न भविष्यति पूतात्मा नाधिकार्यपि कर्मणि ।
विधिपूर्वक शौच आदि कृत्य करनेके बाद भी बिना भस्मस्नानके कोई द्विज पवित्र अन्त:करणवाला नहीं हो सकता और वह किसी कृत्यको सम्पादित करनेका अधिकारी भी नहीं हो सकता है । ॥ ५४.५ ॥

अपानवायुनिर्याते जृम्भणे स्कन्दने क्षुते ॥ ५५ ॥
श्लेष्मोद्‌गारेऽपि कर्तव्यं भस्मस्नानं प्रयत्‍नतः ।
अपान वायु निकलनेपर, जम्हाई आनेपर, दस्त हो जानेपर तथा श्लेष्मा (कफ) निकलनेपर प्रयत्नपूर्वक भस्मस्नान करना चाहिये ॥ ५५.५ ॥

श्रीभस्मस्नानमाहात्म्यस्यैकदेशोऽत्र वर्णितः ॥ ५६ ॥
पुनश्च सम्प्रवक्ष्यामि भस्मस्नानोत्थितं फलम् ।
सावधानेन मनसा श्रोतव्यं मुनिपुङ्‌गव ॥ ५७ ॥
हे मुनि श्रेष्ठ ! यह मैंने श्रीभस्मस्नानके मात्र एक अंशका वर्णन आपसे किया है । अब मैं भस्मस्नानसे प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें पुनः बताऊँगा, सावधान मनसे सुनिये ॥ ५६-५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
विभूतिधारणमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे विभूतिधारणमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥


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