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गायत्रीमन्त्रकवचवर्णनम् -
श्रीगायत्रीका ध्यान और गायत्रीकवचका वर्णन -
नारद उवाच स्वामिन्सर्वजगन्नाथ संशयोऽस्ति मम प्रभो । चतुःषष्टिकलाभिज्ञ पातकाद्योगविद्वर ॥ १ ॥ मुच्यते केन पुण्येन ब्रह्मरूपः कथं भवेत् । देहश्च देवतारूपो मन्त्ररूपो विशेषतः ॥ २ ॥ कर्म तच्छ्रोतुमिच्छामि न्यासं च विधिपूर्वकम् । ऋषिश्छन्दोऽधिदैवं च ध्यानं च विधिवद्विभो ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-हे स्वामिन् ! हे सम्पूर्ण जगत्के नाथ ! हे प्रभो ! हे चौंसठ कलाओंके ज्ञाता ! हे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! मनुष्य किस पुण्यकर्मसे पापमुक्त हो सकता है, किस प्रकार ब्रह्मरूपत्व प्राप्त कर सकता है और किस कर्मसे उसका देह देवतारूप तथा विशेषरूपसे मन्त्ररूप हो सकता है ? हे प्रभो ! उस कर्मके विषयमें साथ ही विधिपूर्वक न्यास, ऋषि, छन्द, अधिदेवता तथा ध्यानको विधिवत् सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥
श्रीनारायण उवाच अस्त्येकं परमं गुह्यं गायत्रीकवचं तथा । पठनाद्धारणान्मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-गायत्रीकवच नामक एक परम गोपनीय उपाय है, जिसके पाठ करने तथा धारण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं तथा वह स्वयं देवीरूप हो जाता है ॥ ४ ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति देवीरूपश्च जायते । गायत्रीकवचस्यास्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ५ ॥ ऋषयो ऋग्यजुःसामाथर्वश्छन्दांसि नारद । ब्रह्मरूपा देवतोक्ता गायत्री परमा कला ॥ ६ ॥
हे नारद ! इस गायत्रीकवचके ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ऋषि हैं । ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व इसके छन्द हैं । परम कलाओंसे सम्पन्न ब्रह्मस्वरूपिणी 'गायत्री' इसकी देवता कही गयी हैं ॥ ५-६ ॥
तद् बीजं भर्ग इत्येषा शक्तिरुक्ता मनीषिभिः । कीलकं च धियः प्रोक्तं मोक्षार्थे विनियोजनम् ॥ ७ ॥
भर्ग इसका बीज है, विद्वानोंने स्वयं इसीको शक्ति कहा है, बुद्धिको इसका कीलक कहा गया है और मोक्षके लिये इसके विनियोगका भी विधान बताया गया है ॥ ७ ॥
[हे नारद !] अब मैं साधकोंको उनके अभीष्टकी प्राप्ति करानेवाले ध्यानका वर्णन करूंगा । मोती, मूंगा, स्वर्ण, नील और धवल आभावाले [पाँच] मुखों, तीन नेत्रों तथा चन्द्रकलायुक्त रलमुकुटको धारण करनेवाली, चौबीस अक्षरोंसे विभूषित और हाथोंमें वरद-अभयमुद्रा, अंकुश, चाबुक, शुभ्र कपाल, रज्जु, शंख, चक्र तथा दो कमलपुष्प धारण करनेवाली भगवती गायत्रीका मैं ध्यान करता हूँ ॥ ९-१० ॥
गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे । ब्रह्मसन्ध्या तु मे पश्चादुत्तरायां सरस्वती ॥ ११ ॥ पार्वती मे दिशं रक्षेत्पावकीं जलशायिनी । यातुधानी दिशं रक्षेद् यातुधानभयङ्करी ॥ १२ ॥ पावमानीं दिशं रक्षेत्पवमानविलासिनी । दिशं रौद्रीं च मे पातु रुद्राणी रुद्ररूपिणी ॥ १३ ॥ ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा । एवं दश दिशो रक्षेत्सर्वाङ्गं भुवनेश्वरी ॥ १४ ॥
[इस प्रकार ध्यान करके कवचका पाठ करे-] पूर्व दिशामें गायत्री मेरी रक्षा करें, दक्षिण दिशामें सावित्री रक्षा करें, पश्चिममें ब्रह्मसन्ध्या तथा उत्तरमें सरस्वती मेरी रक्षा करें । जलमें व्याप्त रहनेवाली भगवती पार्वती अग्निकोणमें मेरी रक्षा करें । राक्षसोंमें भय उत्पन्न करनेवाली भगवती यातुधानी नैर्ऋत्यकोणमें मेरी रक्षा करें । वायुमें विलासलीला करनेवाली भगवती पावमानी वायव्यकोणमें मेरी रक्षा करें । रुद्ररूप धारण करनेवाली भगवती रुद्राणी ईशानकोणमें मेरी रक्षा करें । ब्रह्माणी ऊपरकी ओर तथा वैष्णवी नीचेकी ओर मेरी रक्षा करें । इस प्रकार भगवती भुवनेश्वरी दसों दिशाओंमें मेरे सम्पूर्ण अंगोंकी रक्षा करें ॥ ११-१४ ॥
तत्पदं पातु मे पादौ जङ्घे मे सवितुः पदम् । वरेण्यं कटिदेशे तु नाभिं भर्गस्तथैव च ॥ १५ ॥ देवस्य मे तद्धृदयं धीमहीति च गल्लयोः । थियः पदं च मे नेत्रे यः पदं मे ललाटकम् ॥ १६ ॥
'तत्' पद मेरे दोनों पैरोंकी, 'सवितुः' पद मेरी दोनों जंघाओंकी, 'वरेण्यं' पद कटिदेशकी, 'भर्गः' पद नाभिकी, 'देवस्य' पद हदयकी, 'धीमहि' पद दोनों कपोलोंकी, 'धियः' पद दोनों नेत्रोंकी, 'यः' पद ललाटकी, 'नः' पद मस्तककी तथा 'प्रचोदयात्' पद मेरी शिखाकी रक्षा करे ॥ १५-१६॥
नः पातु मे पदं मूर्ध्नि शिखायां मे प्रचोदयात् । तत्पदं पातु मूर्धानं सकारः पातु भालकम् ॥ १७ ॥ चक्षुषी तु विकारार्णस्तुकारस्तु कपोलयोः । नासापुटं वकारार्णो रेकारस्तु मुखे तथा ॥ १८ ॥ णिकार ऊर्ध्वमोष्ठं तु यकारस्त्वधरोष्ठकम् । आस्यमध्ये भकारार्णो र्गोकारश्चिबुके तथा ॥ १९ ॥ देकारः कण्ठदेशे तु वकारः स्कन्धदेशकम् । स्थकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वामहस्तकम् ॥ २० ॥ मकारो हृदयं रक्षेद्धिकार उदरे तथा । धिकारो नाभिदेशे तु योकारस्तु कटिं तथा ॥ २१ ॥ गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू द्वौ नः पदाक्षरम् । प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जङ्घदेशकम् ॥ २२ ॥ दकारं गुल्फदेशे तु यकारः पदयुग्मकम् । तकारव्यञ्जनं चैव सर्वाङ्गं मे सदावतु ॥ २३ ॥
'तत्' पद मस्तककी रक्षा करे तथा 'स' कार ललाटकी रक्षा करे । इसी तरह 'वि' कार दोनों नेत्रोंकी, 'तु' कार दोनों कपोलोंकी, 'व' कार नासापुटकी, 'रे' कार मुखकी, 'णि' कार ऊपरी ओष्ठकी, 'य' कार नीचेके ओष्ठकी, 'भ' कार मुखके मध्यभागकी, रेफयुक्त 'गो' कार (\) तुड़ीकी, 'दे' कार कण्ठकी, 'व' कार कन्धोंकी, 'स्य' कार दाहिने हाथकी, 'धी' कार बायें हाथकी, 'म' कार हृदयकी, 'हि' कार उदरकी, 'धि' कार नाभिदेशकी. 'यो' कार कटिप्रदेशकी. पुनः 'यो' कार गुह्य अंगोंकी, 'नः' पद दोनों ऊरुओंकी, 'प्र' कार दोनों घुटनोंकी, 'चो' कार दोनों जंघाओंकी, 'द' कार गुल्फोंकी, 'या' कार दोनों पैरोंकी और 'त' कार व्यंजन (त्) सर्वदा मेरे सम्पूर्ण अंगोंकी रक्षा करे ॥ १७-२३ ॥
[हे नारद !] भगवती गायत्रीका यह दिव्य कवच सैकड़ों विनोंका विनाश करनेवाला, चौंसठ कलाओं तथा समस्त विद्याओंको देनेवाला और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है । इस कवचके प्रभावसे व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और परब्रह्मभावकी प्राप्ति कर लेता है । इसे पढ़ने अथवा सुननेसे भी मनुष्य एक हजार गोदानका फल प्राप्त कर लेता है ॥ २४-२५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां द्वादशस्कन्धे गायत्रीमन्त्रकवचवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां द्वादशस्कन्धे गायत्रीमन्बकवचवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥