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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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श्रीगायत्रीस्तोत्रवर्णनम् -
गायत्रीस्तोत्र तथा उसके पाठका फल -


नारद उवाच
भक्तानुकम्पिन् सर्वज्ञ हृदयं पापनाशनम् ।
गायत्र्याः कथितं तस्माद् गायत्र्या स्तोत्रमीरय ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे सर्वज्ञ ! आपने पापोंका नाश करनेवाले गायत्रीहृदयका तो वर्णन कर दिया; अब गायत्रीस्तोत्रका कथन कीजिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच
आदिशक्ते जगन्मातर्भक्तानुग्रहकारिणि ।
सर्वत्र व्यापिकेऽनन्ते श्रीसन्ध्ये ते नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे आदिशक्ते ! हे जगन्मातः ! हे भक्तोंपर कृपा करनेवाली ! हे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली ! हे अनन्ते ! हे श्रीसन्ध्ये ! आपको नमस्कार है ॥ २ ॥

त्वमेव सन्ध्या गायत्री सावित्री च सरस्वती ।
बाह्मी च वैष्णवी रौद्री रक्ता श्वेता सितेतरा ॥ ३ ॥
आप ही सन्ध्या, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, ब्राह्मी, वैष्णवी तथा रौद्री हैं । आप रक्त, श्वेत तथा कृष्ण वर्णीवाली हैं ॥ ३ ॥

प्रातर्बाला च मध्याह्ने यौवनस्था भवेत्पुनः ।
वृद्धा सायं भगवती चिन्त्यते मुनिभिः सदा ॥ ४ ॥
आप प्रात:कालमें बाल्यावस्थावाली, मध्याह्नकालमें युवावस्थासे युक्त तथा सायंकालमें वृद्धावस्थासे सम्पन्न हो जाती हैं । मुनिगण इन रूपोंमें आप भगवतीका सदा चिन्तन करते रहते हैं ॥ ४ ॥

हंसस्था गरुडारूढा तथा वृषभवाहिनी ।
ऋग्वेदाध्यायिनी भूमौ दृश्यते या तपस्विभिः ॥ ५ ॥
यजुर्वेदं पठन्ती च अन्तरिक्षे विराजते ।
सा सामगापि सर्वेषु भ्राम्यमाणा तथा भुवि ॥ ६ ॥
आप प्रातःकाल हंसपर, मध्याह्नकालमें गरुडपर तथा सार्यकालमें वृषभपर विराजमान रहती हैं । आप ऋग्वेदका पाठ करती हुई भूमण्डलपर तपस्वियोंको दृष्टिगोचर होती हैं । आप यजुर्वेदका पाठ करती हुई अन्तरिक्षमें विराजमान रहती हैं । वही आप सामगान करती हुई भूमण्डलपर सर्वत्र भ्रमण करती रहती हैं ॥ ५-६ ॥

रुद्रलोकं गता त्वं हि विष्णुलोकनिवासिनी ।
त्वमेव ब्रह्मणो लोकेऽमर्त्यानुग्रहकारिणी ॥ ७ ॥ ॥
विष्णुलोकमें निवास करनेवाली आप रुद्रलोकमें भी गमन करती हैं । देवताओंपर अनुग्रह करनेवाली आप ब्रह्मलोकमें भी विराजमान रहती हैं ॥ ७ ॥

सप्तर्षिप्रीतिजननी माया बहुवरप्रदा ।
शिवयोः करनेत्रोत्था ह्यश्रुस्वेदसमुद्‍भवा ॥ ८ ॥
आनन्दजननी दुर्गा दशधा परिपढ्यते ।
वरेण्या वरदा चैव वरिष्ठा वरवर्णिनी ॥ ९ ॥
गरिष्ठा च वरार्हा च वरारोहा च सप्तमी ।
नीलगङ्‌गा तथा सन्ध्या सर्वदा भोगमोक्षदा ॥ १० ॥
मायास्वरूपिणी आप सप्तर्षियोंको प्रसन्न करनेवाली तथा अनेक प्रकारके वर प्रदान करनेवाली हैं । आप शिवशक्तिके हाथ, नेत्र, अश्रु तथा स्वेदसे दस प्रकारकी दुर्गाके रूपमें प्रादुर्भूत हुई हैं । आप आनन्दकी जननी हैं । वरेण्या, वरदा, वरिष्ठा, वरवर्णिनी, गरिष्ठा, वराहा, सातवीं वरारोहा, नीलगंगा, सन्ध्या और भोगमोक्षदा-आपके ये दस नाम हैं ॥ ८-१० ॥

भागीरथी मर्त्यलोके पाताले भोगवत्यपि ।
त्रिलोकवाहिनी देवी स्थानत्रयनिवासिनी ॥ ११ ॥
आप मृत्युलोकमें भागीरथी, पातालमें भोगवती और स्वर्गमें त्रिलोकवाहिनी (मन्दाकिनी)-देवीके रूपमें तीनों लोकोंमें निवास करती हैं ॥ ११ ॥

भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री लोकधारिणी ।
भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः ॥ १२ ॥
महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि ।
तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक् ॥ १३ ॥
कमला विष्णुलोके च गायत्री ब्रह्मलोकदा ।
रुद्रलोके स्थिता गौरी हरार्धाङ्‌गनिवासिनी । १४ ॥
लोकको धारण करनेवाली आप ही धरित्रीरूपसे भूलोकमें निवास करती हैं । आप भुवर्लोकमें वायुशक्ति, स्वर्लोकमें तेजोनिधि, महर्लोकमें महासिद्धि, जनलोकमें जना, तपोलोकमें तपस्विनी, सत्यलोकमें सत्यवाक्, विष्णुलोकमें कमला, ब्रह्मलोकमें गायत्री और रुद्रलोकमें शंकरके अर्धागमें निवास करनेवाली गौरीके रूपमें स्थित हैं ॥ १२-१४ ॥

अहमो महतश्चैव प्रकृतिस्त्वं हि गीयसे ।
साम्यावस्थात्मिका त्वं हि शबलब्रह्मरूपिणी ॥ १५ ॥
अहंकार और महत् तत्त्वोंकी प्रकृतिके रूपमें आप ही कही जाती हैं । नित्य साम्य अवस्थामें विराजमान आप शबल ब्रह्मस्वरूपिणी हैं ॥ १५ ॥

ततः परा परा शक्तिः परमा त्वं हि गीयसे ।
इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिस्त्रिशक्तिदा ॥ १६ ॥
आप उससे भी बड़ी 'पराशक्ति' तथा 'परमा' कही गयी हैं । आप इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिके रूपमें विद्यमान हैं और इन तीनों शक्तियोंको प्रदान करनेवाली हैं ॥ १६ ॥

गङ्‌गा च यमुना चैव विपाशा च सरस्वती ।
सरयूर्देविका सिन्धुर्नर्मदैरावती तथा ॥ १७ ॥
गोदावरी शतद्रूश्च कावेरी देवलोकगा ।
कौशिकी चन्द्रभागा च वितस्ता च सरस्वती ॥ १८ ॥
गण्डकी तापिनी तोया गोमती वेत्रवत्यपि ।
इडा च पिङ्‌गला चैव सुषुष्णा च तृतीयका ॥ १९ ॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषापूषा तथैव च ।
अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्‌खिनी प्राणवाहिनी ॥ २० ॥
नाडी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधैः ।
हृत्पद्मस्था प्राणशक्तिः कण्ठस्था स्वप्ननायिका ॥ २१ ॥
तालुस्था त्वं सदाधारा बिन्दुस्था बिन्दुमालिनी ।
मूले तु कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा ॥ २२ ॥
शिखामध्यासना त्वं हि शिखाग्रे तु मनोन्मनी ।
किमन्यद् बहुनोक्तेन यत्किञ्चिज्जगतीत्रये ॥ २३ ॥
आप गंगा, यमुना, विपाशा, सरस्वती, सरयू, देविका, सिन्धु, नर्मदा, इरावती, गोदावरी, शतद्, देवलोक गमन करनेवाली कावेरी, कौशिकी, चन्द्रभागा, वितस्ता, सरस्वती, गण्डकी, तापिनी, तोया, गोमती तथा वेत्रवती नदियोंके रूपमें विराजमान हैं और इडा, पिंगला, तीसरी सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, अपूषा, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी-इन प्राणवाहिनी नाड़ियोंके रूपमें आपको ही प्राचीन विद्वानोंने शरीरमें स्थित बताया है । आप हृदयकमलमें प्राणशक्तिके रूपमें, कण्ठदेशमें स्वप्ननायिकाके रूपमें, तालुओंमें सर्वाधारस्वरूपिणीके रूपमें और भ्रूमध्यमें बिन्दुमालिनीके रूपमें विराजमान रहती हैं । आप मूलाधारमें कुण्डलीशक्तिके रूपमें तथा चूडामूलपर्यन्त व्यापिनीशक्तिके रूपमें स्थित हैं । शिखाके मध्यभागमें परमात्मशक्तिके रूपमें तथा शिखाके अग्रभागमें मनोन्मनीशक्तिके रूपमें आप ही विराजमान रहती हैं । हे महादेवि ! अधिक कहनेसे क्या लाभ ? तीनों लोकोंमें जो कुछ भी है, वह सब आप ही हैं । हे सन्ध्ये ! मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिके लिये आपको नमस्कार है ॥ १७-२३॥

तत्सर्वं त्वं महादेवि श्रिये सन्ध्ये नमोऽस्तु ते ।
इतीदं कीर्तितं स्तोत्रं सन्ध्यायां बहुपुण्यदम् ॥ २४ ॥
महापापप्रशमनं महासिद्धिविधायकम् ।
य इदं कीर्तयेत्स्तोत्रं सन्ध्याकाले समाहितः ॥ २५ ॥
अपुत्रः प्राप्नुयात्युत्रं धनार्थी धनमाप्नुयात् ।
सर्वतीर्थतपोदानयज्ञयोगफलं लभेत् ॥ २६ ॥
[हे नारद !] सन्ध्याके समय पढ़ा गया यह स्तोत्र अत्यधिक पुण्य प्रदान करनेवाला, महान् पापोंका नाश करनेवाला तथा महान् सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला है । जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर सन्ध्याकालमें इस गायत्रीस्तोत्रका पाठ करता है, वह यदि पुत्रहीन है तो पुत्र और यदि धनका अभिलाषी है तो धन प्राप्त कर लेता है । ऐसा करनेवालेको समस्त तीर्थ, तप, दान, यज्ञ तथा योगका फल प्राप्त हो जाता है और दीर्घ कालतक सुखोंका उपभोग करके अन्तमें वह मोक्षको प्राप्त होता है ॥ २४-२६ ॥

भोगान्भुक्त्वा चिरंकालमन्ते मोक्षमवाप्नुयात् ।
तपस्विभिः कृतं स्तोत्रं स्नानकाले तु यः पठेत् ॥ २७ ॥
यत्र कुत्र जले मग्नः सन्ध्यामज्जनजं फलम् ।
लभते नात्र सन्देहः सत्यं सत्यं च नारद ॥ २८ ॥
हे नारद ! जो पुरुष स्नानकालमें तपस्वियोंद्वारा किये गये इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह जहाँ कहीं भी जलमें स्नान करे, उसे सन्ध्यारूपी मज्जनसे होनेवाला फल प्राप्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है; मेरा यह कथन सत्य है, सत्य है ॥ २७-२८ ॥

शृणुयाद्योऽपि तद्‍भक्त्या स तु पापात्प्रमुच्यते ।
पीयूषसदृशं वाक्यं सन्ध्योक्तं नारदेरितम् ॥ २९ ॥
हे नारद ! सन्ध्याको उद्देश्य करके कहे गये इस अमृततुल्य स्तोत्रको जो भी व्यक्ति भक्तिपूर्वक सुनता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है ॥ २९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे श्रीगायत्रीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां द्वादशस्कन्धे श्रीगायत्रीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥


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