हे राजेन्द्र ! चूंकि अपने पिताकी दुर्गतिके विषयमें जानकर आप अत्यन्त विषादग्रस्त हैं, अतएव हे राजन् ! अब आप अपने पिताके उद्धारके निमित्त देवीयज्ञ कीजिये । आप विधि-विधानके अनुसार महादेवीके सर्वोत्तमोत्तम मन्त्रकी दीक्षा ग्रहण कीजिये, जो मनुष्यजन्मको सार्थक कर देता है । ३-४ ॥
सूतजी बोले-उसे सुनकर नृपश्रेष्ठ जनमेजयने मुनीन्द्र व्याससे प्रार्थना करके उन्हींसे विधिपूर्वक देवीके प्रणवसंज्ञक महामन्त्रकी दीक्षा ग्रहण की । तत्पश्चात् महाराजने नवरात्रके आनेपर धौम्य आदि मुनियोंको बुलाकर धनकी कृपणता किये बिना शीघ्रतापूर्वक अम्बायज्ञ आरम्भ कर दिया । इसमें उन्होंने भगवती जगदम्बाकी प्रसन्नताके लिये उनके समक्ष ब्राह्मणोंके द्वारा इस परम उत्तम देवीभागवतमहापुराणका पाठ कराया ॥ ५-७.५ ॥
ब्राह्मणान्भोजयामासाप्यसंख्यातान्सुवासिनीः ॥ ८ ॥ कुमारीर्वटुकादींश्च दीनानाथांस्तथैव च । द्रव्यप्रदानैस्तान्सर्वान् सन्तोष्य वसुधाधिपः ॥ ९ ॥ समाप्य यज्ञं संस्थाने संस्थितो यावदेव हि । तावदेव हि चाकाशान्नारदः समवातरत् ॥ १० ॥ रणयन्महतीं वीणां ज्वलदग्निशिखोपमः ।
इस यज्ञमें उन्होंने असंख्य ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारी कन्याओं, ब्रह्मचारियों, दीनों तथा अनाथोंको भोजन कराया । तत्पश्चात् धन-दानके द्वारा उन सभीको पूर्ण सन्तुष्ट करनेके बाद पृथ्वीपति जनमेजय यज्ञ समाप्त करके ज्यों ही अपने स्थानपर विराजमान हुए, उसी समय प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान तेजवाले देवर्षि नारद अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए आकाशसे उतरे ॥ ८-१०.५ ॥
ससम्भमः समुत्थाय दृष्ट्वा तं नारदं मुनिम् ॥ ११ ॥ आसनाद्युपचारैश्च पूजयामास भूमिपः । कृत्वा तु कुशलप्रश्नं पप्रच्छागमकारणम् ॥ १२ ॥
उन नारदमुनिको देखकर आश्चर्यचकित हो महाराज जनमेजय अपने आसनसे उठ खड़े हुए और उन्होंने आसन आदि उपचारोंसे उनका पूजन किया । तत्पश्चात् वे कुशल-क्षेमसम्बन्धी प्रश्न करके उनके आनेका कारण पूछने लगे ॥ ११-१२ ॥
राजोवाच कुत आगमनं साधो ब्रूहि किं करवाणि ते । सनाथोऽहं कृतार्थोऽहं त्वदागमनकारणात् ॥ १३ ॥ इति राज्ञो वचः श्रुत्वा प्रोवाच मुनिसत्तमः । अद्याश्चर्यं मया दृष्टं देवलोके नृपोत्तम ॥ १४ ॥
राजा बोले-हे साधो ! आप कहाँसे आ रहे हैं ? आप मुझे यह बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूं ? मैं आपके आगमनसे सनाथ और कृतार्थ हो गया हूँ ॥ १३ ॥
तन्निवेदयितुं प्राप्तस्त्वत्सकाशे सुविस्मितः । पिता ते दुर्गतिं प्राप्तो निजकर्मविपर्ययात् ॥ १५ ॥
राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदने कहा-हे नृपश्रेष्ठ ! आज मैंने देवलोकमें एक आश्चर्यजनक घटना देखी है । उसीको बतानेके लिये मैं विस्मित होकर आपके पास आया हूँ ॥ १४ ॥
स एवायं दिव्यरूपवपुर्भूत्वाधुनैव हि । देवदेवैः स्तुतः सम्यगप्सरोभिः समन्ततः ॥ १६ ॥
अपने विपरीत कर्मोके कारण आपके पिताजी दुर्गतिमें पड़े हुए थे । वे ही अब दिव्य शरीर धारण करके श्रेष्ठ विमानपर चढ़कर श्रेष्ठ देवताओं तथा अप्सराओंसे चारों ओरसे भलीभाँति स्तुत होते हुए मणिद्वीपको चले गये हैं ॥ १५-१६ ॥
विमानवरमारुह्य मणिद्वीपं गतोऽभवत् । देवीभागवतस्यास्य श्रवणोत्थफलेन च ॥ १७ ॥ अम्बामखफलेनापि पिता ते सुगतिं गतः । धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि जीवितं सफलं तव ॥ १८ ॥ नरकादुद्धृतस्तातस्त्वया तु कुलभूषण । देवलोके स्फीतकीर्तिस्तवाद्य विपुलाभवत् ॥ १९ ॥
इस देवीभागवतके श्रवणजनितफल तथा देवीयज्ञके फलसे ही आपके पिताजी उत्तम गतिको प्राप्त हुए हैं । हे कुलभूषण ! आप धन्य तथा कृतकृत्य हो गये हैं और आपका जीवन सफल हो गया । आपने नरकसे अपने पिताजीका उद्धार कर दिया है और आज देवलोकमें आपकी महान् कीर्ति और अधिक विस्तृत हो गयी है । १७–१९ ॥
सूत उवाच नारदोक्तं समाकर्ण्य प्रेमगद्गदितान्तरः । पपात पादाम्बुजयोर्व्यासस्याद्भुतकर्मणः ॥ २० ॥ तवानुग्रहतो देव कृतार्थोऽहं महामुने । किं मया प्रतिकर्तव्यं नमस्कारादृते तव ॥ २१ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनीश्वरो !] नारदजीका यह वचन सुनकर महाराज जनमेजयका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया और वे अद्भुत कर्मोवाले व्यासजीके चरण-कमलोंपर गिर पड़े । [वे कहने लगे-] हे देव ! आपकी कृपासे ही मैं कृतार्थ हुआ हूँ । हे महामुने ! नमस्कारके अतिरिक्त मैं आपके लिये विशेष कर ही क्या सकता हूँ । हे मुने ! आप मुझपर इसी प्रकार अनुग्रह सदा करते रहें । २०-२१ ॥
अनुग्राह्यः सदैवाहमेवमेव त्वया मुने । इति राज्ञो वचः श्रुत्वाप्याशीर्भिरभिनन्य च ॥ २२ ॥ उवाच वचनं श्लक्ष्णं भगवान् बादरायणः । राजन्सर्वं परित्यज्य भज देवीपदाम्बुजम् ॥ २३ ॥ देवीभागवतं चैव पठ नित्यं समाहितः । अम्बामखं सदा भक्त्या कुरु नित्यमतन्द्रितः ॥ २४ ॥ अनायासेन तेन त्वं मोक्ष्यसे भवबन्धनात् ।
राजाका यह वचन सुनकर भगवान् बादरायण व्यासने अपने आशीर्वचनोंसे उनका अभिनन्दनकर मधुर वाणीमें कहा-हे राजन् ! सब कुछ त्याग करके आप भगवतीके चरणकमलोंकी उपासना कीजिये और दत्तचित्त होकर नित्य देवीभागवतपुराणका पाठ कीजिये । साथ ही नित्य आलस्यरहित होकर भक्तिपूर्वक देवीयज्ञका अनुष्ठान कीजिये; उसके फलस्वरूप आप भव-बन्धनसे अनायास ही छूट जायेंगे ॥ २२-२४.५ ॥
सन्त्यन्यानि पुराणानि हरिरुद्रमुखानि च ॥ २५ ॥ देवीभागवतस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् । सारमेतत्पुराणानां वेदानां चैव सर्वशः ॥ २६ ॥
यद्यपि विष्णुपुराण तथा शिवपुराण आदि अनेक पुराण हैं, किंतु वे इस देवीभागवतपुराणकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते । यह देवीभागवत समस्त वेदों तथा पुराणोंका सारस्वरूप है ॥ २५-२६ ॥
हे जनमेजय ! जिस देवीभागवतपुराणका पाठ करनेसे वेद-पाठके समान पुण्य प्राप्त होता है, उसका पाठ श्रेष्ठ विद्वानोंको प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ २८ ॥
इत्युक्त्वा नृपवर्यं तं जगाम मुनिराट् ततः । जग्मुश्चैव यथास्थानं धौम्यादिमुनयोऽमलाः ॥ २९ ॥ देवीभागवतस्यैव प्रशंसां चकुरुत्तमाम् । राजा शशास धरणीं ततः सन्तुष्टमानसः । देवीभागवतं चैव पठच्छृण्वन्तिरन्तरम् ॥ ३० ॥
उन नृपश्रेष्ठ जनमेजयसे ऐसा कहकर मुनिराज व्यास चले गये । उसके बाद विमलात्मा धौम्य आदि मुनि भी अपने-अपने स्थानोंको चले गये । उन्होंने देवीभागवतकी ही श्रेष्ठ प्रशंसा की । तदनन्तर सन्तुष्ट मनवाले महाराज जनमेजय देवीभागवतपुराणका निरन्तर पाठ तथा श्रवण करते हुए पृथ्वीका शासन करने लगे ॥ २९-३० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादलसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे जनमेजयेनाम्बामखकरण-देवीभागवतश्रवणपूर्वकं स्वपित्रुद्धारवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां द्वादशस्कन्धे जनमेजयेनाम्बामखकरण देवीभागवतश्रवणपूर्वक स्वपित्रुद्धारवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥