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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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मणिद्वीपवर्णनम् -
भगवती जगदम्बाके मण्डपका वर्णन तथा मणिद्वीपकी महिमा -


व्यास उवाच
तदेव देवीसदनं मध्यभागे विराजते ।
सहस्रस्तम्भसंयुक्ताश्चत्वारस्तेषु मण्डपाः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-त्रिकोणके मध्यभागमें भगवती जगदम्बाका वही चिन्तामणि नामक भवन विराजमान है । उसमें हजार स्तम्भोंवाले चार मण्डप विद्यमान हैं ॥ १ ॥

शृङ्‌गारमण्डपश्चैको मुक्तिमण्डप एव च ।
ज्ञानमण्डपसंज्ञस्तु तृतीय परिकीर्तितः ॥ २ ॥
एकान्तमण्डपश्चैव चतुर्थः परिकीर्तितः ।
उनमें पहला शृंगारमण्डप, दूसरा मुक्तिमण्डप, तीसरा ज्ञानमण्डप और चौथा एकान्तमण्डप कहा गया है ॥ २.५ ॥

नानावितानसंयुक्ता नानाधूपैस्तु धूपिता ॥ ३ ॥
कोटिसूर्यसमाः कान्त्या भ्राजन्ते मण्डपाः शुभाः ।
अनेक प्रकारके वितानोंसे युक्त तथा नानाविध धूपोंसे सुवासित ये सुन्दर मण्डप कान्तिमें करोड़ों सूर्योंके समान दीप्तिमान् रहते हैं ॥ ३.५ ॥

तन्मण्डपानां परितः काश्मीरवनिका स्मृता ॥ ४ ॥
मल्लिकाकुन्दवनिका यत्र पुष्कलकाः स्थिताः ।
असंख्याता मृगमदैः पूरितास्तत्स्रवा नृप ॥ ५ ॥
महापद्माटवी तद्वद्‌रत्‍नसोपाननिर्मिता ।
सुधारसेन सम्पूर्णा गुञ्जन्मत्तमधुव्रता ॥ ६ ॥
हंसकारण्डवाकीर्णा गन्धपूरितदिक्तटा ।
वनिकानां सुगन्धैस्तु मणिद्वीपं सुवासितम् ॥ ७ ॥
हे राजन् ! उन मण्डपोंके चारों ओर केसर, मल्लिका और कुन्दकी वाटिकाएं बतायी गयी हैं, जिनमें मृगमदोंसे परिपूर्ण तथा मदनावी असंख्य गन्धमृग स्थित हैं । उसी प्रकार मण्डपोंके चारों ओर रत्नसे निर्मित सोपानोंवाली महापद्माटवी है । वह अमृतरससे परिपूर्ण, गुंजार करते हुए मतवाले भौरोंसे युक्त, कारण्डवों तथा हंसोंसे सदा सुशोभित और चारों ओरसे सुगन्धसे परिपूर्ण तटवाली है । इस प्रकार वह मणिद्वीप इन वाटिकाओंकी सुगन्धोंसे सदा सुवासित रहता है ॥ ४-७ ॥

शृङ्‌गारमण्डपे देव्यो गायन्ति विविधैः स्वरैः ।
सभासदो देववरा मध्ये श्रीजगदम्बिका ॥ ८ ॥
मुक्तिमण्डपमध्ये तु मोचयत्यनिशं शिवा ।
ज्ञानोपदेशं कुरुते तृतीये नृप मण्डपे ॥ ९ ॥
चतुर्थमण्डपे चैव जगद्‌रक्षाविचिन्तनम् ।
मन्त्रिणीसहिता नित्यं करोति जगदम्बिका ॥ १० ॥
शृंगारमण्डपके मध्यभागमें विराजमान जगदम्बिकाके चारों ओर सभासद्के रूपमें श्रेष्ठ देवगण विद्यमान रहते हैं और वहाँ देवियाँ नानाविध स्वरोंमें सदा गाती रहती हैं । मुक्तिमण्डपके मध्यमें विराजमान होकर कल्याणमयी भगवती जगदम्बा भक्तोंको सदा मुक्ति प्रदान करती रहती हैं और हे राजन् ! तीसरे ज्ञानमण्डपमें विराजमान होकर वे ज्ञानका उपदेश करती हैं । एकान्तमण्डप नामक चौथे मण्डपमें अपनी मन्त्रिणियोंके साथ भगवती जगत्की रक्षाके विषयमें नित्य विचारविमर्श किया करती हैं ॥ ८-१० ॥

चिन्तामणिगृहे राजञ्छक्तितत्त्वात्मकैः परैः ।
सोपानैर्दशभिर्युक्तो मञ्चकोऽप्यधिराजते ॥ ११ ॥
हे राजन् ! चिन्तामणिगृहमें भगवतीके शक्तितत्त्वरूपी दस श्रेष्ठ सोपानोंसे युक्त उनका मंच अत्यधिक सुशोभित होता है ॥ ११ ॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः ।
एते मञ्चखराः प्रोक्ताः फलकस्तु सदाशिवः ॥ १२ ॥
तस्योपरि महादेवो भुवनेशो विराजते ।
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और सदाशिव ईश्वर-ये उस मंचके पाये कहे गये हैं । सदाशिव मंचके फलक हैं । उसके ऊपर भुवनेश्वर महादेव विराजमान हैं । १२.५ ॥

या देवी निजलीलार्थं द्विधाभूता बभूव ह ॥ १३ ॥
सृष्ट्यादौ तु स एवायं तदर्धाङ्‌गो महेश्वरः ।
सृष्टिके आदिमें अपनी लीला करनेके लिये जो भगवती स्वयं दो रूपोंमें प्रकट हुई थीं, उन्हींके अधांगस्वरूप ये भगवान् महेश्वर हैं ॥ १३.५ ॥

कन्दर्पदर्पनाशोद्यत्कोटिकन्दर्पसुन्दरः ॥ १४ ॥
पञ्चवक्त्रस्त्रिनेत्रश्च मणिभूषणभूषितः ।
वे कामदेवके अभिमानका नाश करने में परम कुशल, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर, पाँच मुख तथा तीन नेत्रोंसे युक्त और मणिके भूषणोंसे विभूषित हैं ॥ १४.५ ॥

हरिणाभीतिपरशून् वरं च निजबाहुभिः ॥ १५ ॥
दधानः षोडशाब्दोऽसौ देवः सर्वेश्वरो महान् ।
सदा सोलह वर्षके प्रतीत होनेवाले वे सर्वेश्वर महादेव अपनी भुजाओंमें हरिण, अभयमुद्रा, परशु तथा वरमुद्रा धारण किये हुए हैं ॥ १५.५ ॥

कोटिसूर्यप्रतीकाशश्चन्द्रकोटिसुशीतलः ॥ १६ ॥
शुद्धस्फटिकसंकाशस्त्रिनेत्रः शीतलद्युतिः ।
वे त्रिनेत्र महादेव करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान, करोड़ों चन्द्रमाके समान शीतल, शुद्ध स्फटिकमणिके समान आभावाले तथा शीतल कान्तिवाले हैं ॥ १६.५ ॥

वामाङ्‌गे सन्तिषण्णास्य देवी श्रीभुवनेश्वरी ॥ १७ ॥
नवरत्‍नगणाकीर्णकाञ्चीदामविराजिता ।
तप्तकाञ्चनसन्नद्धवैदूर्याङ्‌गदभूषणा ॥ १८ ॥
इनके वाम अंकमें देवी श्रीभुवनेश्वरी विराजमान हैं, वे नौ प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णकी करधनीसे सुशोभित हैं और तप्त सुवर्ण तथा वैदूर्यमणिसे निर्मित बाजूबन्दसे भूषित हैं ॥ १७-१८ ॥

कनच्छ्रीचक्रताटङ्‌कविटङ्‌कवदनाम्बुजा ।
ललाटकान्तिविभवविजितार्थसुधाकरा ॥ १९ ॥
कमलके समान मुखवाली भगवतीके कानोंमें श्रीचक्रकी आकृतिके समान सुवर्णका कर्णफूल सुशोभित हो रहा है । उनके ललाटकी कान्तिके वैभवने अर्धचन्द्रके सौन्दर्यको जीत लिया है ॥ १९ ॥

बिम्बकान्तितिरस्कारिरदच्छदविराजिता ।
लसत्कुङ्‌कुमकस्तुरीतिलकोद्‍भासितानना ॥ २० ॥
वे बिम्बाफलकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाले होठोंसे सुशोभित हैं । कुमकुम-कस्तूरीके तिलकसे अनुलिप्त उनका मुखमण्डल अति प्रकाशित है ॥ २० ॥

दिव्यचूडामणिस्फारचञ्चच्चन्द्रकसूर्यका ।
उद्यत्कविसमस्वच्छनासाभरणभासुरा ॥ २१ ॥
कान्तियुक्त चन्द्रमा तथा सूर्यके समान दिव्य तथा उज्ज्वल रत्नमय चूडामणि उनके मस्तकपर विराजमान है । उदयकालीन शुक्रनक्षत्रके सदृश स्वच्छ नासिकाभूषणसे वे सुशोभित हैं ॥ २१ ॥

चिन्ताकलम्बितस्वच्छमुक्तागुच्छविराजिता ।
पाटीरपङ्‌ककर्पूरकुङ्‌कुमालङ्‌कृतस्तनी ॥ २२ ॥
चिन्ताक नामक कण्ठभूषणमें लटकते हुए मोतीके गुच्छसे वे सुशोभित हो रही हैं । चन्दन, कपूर और कुमकुमके अनुलेपसे उनका वक्षःस्थल अलंकृत है ॥ २२ ॥

विचित्रविविधाकल्पा कम्बुसंकाशकन्धरा ।
दाडिमीफलबीजाभदन्तपङ्‌क्तिविराजिता ॥ २३ ॥
वे अनेक रूपोंसे सुसज्जित, शंखके समान ग्रीवावाली तथा अनारके दानोंके सदृश दन्तपंक्तिसे सुशोभित हो रही हैं ॥ २३ ॥

अनर्घ्यरत्‍नघटितमुकुटाञ्चितमस्तका ।
मत्तालिमालाविलसदलकाढ्यमुखाम्बुजा ॥ २४ ॥
वे अपने मस्तकपर बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित मुकुट धारण किये रहती हैं । उनके मुखकमलपर मतवाले भ्रमरोंकी पंक्तिके सदृश अलकावली सुशोभित है ॥ २४ ॥

कलङ्‌ककार्श्यनिर्मुक्तशरच्चन्द्रनिभानना ।
जाह्नवीसलिलावर्तशोभिनाभिविभूषिता ॥ २५ ॥
वे कलंककी कालिमासे रहित शारदीय चन्द्रमाके सदृश मुखमण्डलवाली हैं और गंगाके जलावर्त (भँवर)-तुल्य सुन्दर नाभिसे विभूषित हैं ॥ २५ ॥

माणिक्यशकलाबद्धमुद्रिकाङ्‌गुलिभूषिता ।
पुण्डरीकदलाकारनयनत्रयसुन्दरी ॥ २६ ॥
वे माणिक्यके दानोंसे जटित मुद्रिकासे युक्त अँगुलियोंसे सुशोभित हैं और कमलदलकी आकृतिवाले तीन नेत्रोंसे वे अत्यन्त सौन्दर्यमयी प्रतीत होती हैं ॥ २६ ॥

कल्पिताच्छमहारागपद्यरागोज्ज्वलप्रभा ।
रत्‍नकिङ्‌किणिकायुक्तरत्‍नकङ्‌कणशोभिता ॥ २७ ॥
वे शानपर चढ़ाकर अतीव स्वच्छ किये गये महाराग तथा पद्मरागमणिके सदृश उज्ज्वल कान्तिसे सम्पन्न हैं और रत्नमय धुंघरूवाली करधनी तथा रत्ननिर्मित कंकणसे सुशोभित हैं ॥ २७ ॥

मणिमुक्तासरापारलसत्पदकसन्ततिः ।
रत्‍नाङ्‌गुलिप्रविततप्रभाजाललसत्करा ॥ २८ ॥
उनके चरणकमल मणियों और मोतियोंकी मालाओंमें विराजमान रहनेवाली अपार शोभासे सम्पन्न हैं । वे रत्नोंसे युक्त अँगुलियोंसे फैलते हुए प्रभाजालसे सुशोभित हाथवाली हैं ॥ २८ ॥

कञ्चुकीगुम्फितापारनानारत्‍नततिद्युतिः ।
मल्लिकामोदिधम्मिल्लमल्लिकालिसरावृता ॥ २९ ॥
उनकी कंचुकीमें गुथे हुए नानाविध रत्नोंकी पंक्तियोंसे अनुपम प्रकाश निर्गत हो रहा है । मल्लिकाकी सुगन्धिसे पूर्ण केशके जूड़ेपर स्थित मल्लिकाकी मालापर मँडरानेवाले भौंरोंके समूहसे देवी सुशोभित हो रही हैं ॥ २९ ॥

सुवृत्तनिविडोत्तुङ्‌गकुचभारालसा शिवा ।
वरपाशाङ्‌कुशाभीतिलसद्बाहुचतुष्टया ॥ ३० ॥
वृत्ताकार, सघन तथा उन्नत उरोजोंके भारसे कल्याणमयी भगवती अलसायी हुई प्रतीत होती हैं । उनकी चारों भुजाओंमें वर, पाश, अंकुश तथा अभयमुद्रा सुशोभित हो रही है ॥ ३० ॥

सर्वशृङ्‌गारवेषाढ्या सुकुमाराङ्‌गवल्लरी ।
सौन्दर्यधारासर्वस्वा निर्व्याजकरुणामयी ॥ ३१ ॥
वे भगवती समस्त श्रृंगारवेषसे सम्पन्न, लताके समान अत्यन्त कोमल अंगोंवाली, समस्त सौन्दर्योकी आधारस्वरूपा तथा निष्कपट करुणासे ओतप्रोत हैं ॥ ३१ ॥

निजसंलापमाधुर्यविनिर्भर्त्सितकच्छपी ।
कोटिकोटिरवीन्दूनां कान्तिं या बिभ्रती परा ॥ ३२ ॥
वे अपनी वाणीकी मधुरतासे वीणाके स्वरोंको भी तुच्छ कर देती हैं । वे परा भगवती करोड़ों करोड़ों सूर्यों तथा चन्द्रमाओंकी कान्ति धारण करती हैं ॥ ३२ ॥

नानासखीभिर्दासीभिस्तथा देवाङ्‌गनादिभिः ।
सर्वाभिर्देवताभिस्तु समन्तात्परिवेष्टिता ॥ ३३ ॥
वे बहुत-सी सखियों, दासियों, देवांगनाओं तथा समस्त देवताओंसे चारों ओरसे सदा घिरी रहती हैं । ॥ ३३ ॥

इच्छाशक्त्या ज्ञानशक्त्या क्रियाशक्त्या समन्विता ।
लज्जा तुष्टिस्तथा पुष्टिः कीर्तिः कान्तिः क्षमा दया ॥ ३४ ॥
बुद्धिर्मा स्मृतिर्लक्ष्मीर्मूर्तिमत्योऽङ्‌गनाः स्मृताः ।
जया च विजया चैवाप्यजिता चापराजिता ॥ ३५ ॥
नित्या विलासिनी दोग्ध्री त्वघोरा मङ्‌गला नव ।
पीठशक्तय एतास्तु सेवन्ते यां पराम्बिकाम् ॥ ३६ ॥
वे इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिसे सम्पन्न हैं । लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, कीर्ति, कान्ति, क्षमा, दया, बुद्धि, मेधा, स्मृति तथा लक्ष्मी-ये मूर्तिमती अंगनाएँ कही गयी हैं । जया, विजया, अजिता, अपराजिता, नित्या, विलासिनी, दोग्ध्री, अघोरा और मंगला-ये नौ पीठशक्तियाँ उन भगवती पराम्बाकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं ॥ ३४-३६ ॥

यस्यास्तु पार्श्वभागे स्तो निधी तौ शङ्‌खपद्मकौ ।
नवरत्‍नवहा नद्यस्तथा वै काञ्चनस्रवाः ॥ ३७ ॥
सप्तधातुवहा नद्यो निधिभ्यां तु विनिर्गताः ।
सुधासिन्ध्वन्तगामिन्यस्ताः सर्वा नृपसत्तम ॥ ३८ ॥
शंख तथा पद्म नामक वे दोनों निधियाँ उन भगवतीके पार्श्वभागमें विराजमान रहती हैं । नवरत्नवहा (नौ प्रकारके रत्नोंका वहन करनेवाली), कांचनस्रवा (स्वर्णका साव करनेवाली) तथा सप्तधातुवहा (सातों धातुओंका वहन करनेवाली) नामक नदियाँ उन्हीं दोनों निधियोंसे निकली हुई हैं और हे राजेन्द्र ! वे सभी नदियाँ अन्तमें सुधा-सिन्धुमें जाकर समाहित होती हैं ॥ ३७-३८ ॥

सा देवी भुवनेशानी तद्वामाङ्‌के विराजते ।
सर्वेशत्वं महेशस्य यत्सङ्‌गादेव नान्यथा ॥ ३९ ॥
वे भगवती भुवनेश्वरी परमेश्वरके वाम अंकमें विराजमान रहती हैं । उन्हीं भगवतीके सानिध्यसे महेश्वरको सर्वेश्वरत्व प्राप्त है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३९ ॥

चिन्तामणिगृहस्यास्य प्रमाणं शृणु भूमिप ।
सहस्रयोजनायामं महान्तस्तत्प्रचक्षते ॥ ४० ॥
हे भूपाल ! अब आप इस चिन्तामणिगृहके परिमाणके विषयमें सुनिये । यह विशाल भवन हजार योजन विस्तारवाला कहा जाता है ॥ ४० ॥

तदुत्तरे महाशालाः पूर्वस्माद् द्विगुणाः स्मृताः ।
अन्तरिक्षगतं त्वेतन्निराधारं विराजते ॥ ४१ ॥
उसके उत्तर भागमें अनेक विशाल प्राकार हैं, जो परिमाणमें पूर्व प्राकारसे दुगुने कहे गये हैं । भगवतीका यह मणिद्वीप बिना किसी आधारके अन्तरिक्षमें विराजमान है ॥ ४१ ॥

सङ्‌कोचश्च विकासश्च जायतेऽस्य निरन्तरम् ।
पटवत्कार्यवशतः प्रलये सर्जने तथा ॥ ४२ ॥
जैसे किसी कार्यवश पटका संकोच तथा विकास होता रहता है, वैसे ही प्रलयावस्थामें इस मणिद्वीपका संकोच तथा सृष्टिकालमें विकास हो जाता है । इसका सृष्टि-विनाश नहीं होता ॥ ४२ ॥

शालानां चैव सर्वेषां सर्वकान्तिपरावधि ।
चिन्तामणिगृहं प्रोक्तं यत्र देवी महोमयी ॥ ४३ ॥
सभी परकोटोंकी सम्पूर्ण कान्तिकी परम सीमाको ही चिन्तामणिगृह कहा गया है, जहाँ तेजोमयी देवी विराजमान रहती हैं ॥ ४३ ॥

ये ये उपासकाः सन्ति प्रतिब्रह्माण्डवर्तिनः ।
देवेषु नागलोकेषु मनुष्येष्वितरेषु च ॥ ४४ ॥
हे भूपाल ! प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले तथा देवलोक, नागलोक, मनुष्यलोक एवं अन्य लोकोंमें निवास करनेवाले जो भी श्रीदेवी भुवनेश्वरीके उपासक हैं, वे सब इसी मणिद्वीपको प्राप्त होते हैं । ४४ ॥

श्रीदेव्यास्ते च सर्वेऽपि तजन्त्यत्रैव भूमिप ।
देवीक्षेत्रे ये त्यजन्ति प्राणान्देव्यर्चने रताः ॥ ४५ ॥
ते सर्वे यान्ति तत्रैव यत्र देवी महोत्सवा ।
जो लोग भगवतीकी आराधनामें संलग्न रहते हुए देवीक्षेत्र में प्राणोत्सर्ग करते हैं वे सब वहीं जाते हैं, जहाँ महानन्दस्वरूपिणी भगवती विराजमान रहती हैं । ४५.५ ॥

घृतकुल्या दुग्धकुल्या दधिकुल्या मधुस्रवाः ॥ ४६ ॥
स्यन्दन्ति सरितः सर्वास्तथामृतवहाः पराः ।
द्राक्षारसवहाः काश्चिज्जम्बूरसवहाः पराः ॥ ४७ ॥
आम्रेक्षुरसवाहिन्यो नद्यस्तास्तु सहस्रशः ।
घृतकुल्या, दुग्धकुल्या, दधिकुल्या तथा मधुखवा नदियाँ वहाँ सदा प्रवाहित रहती हैं । उसी प्रकार अमृतवहा, द्राक्षारसवहा, जम्बूरसवहा, आम्ररसवाहिनी तथा इक्षुरसवाहिनी हजारों अन्य नदियाँ भी वहाँ हैं ॥ ४६-४७.५ ॥

मनोरथफला वृक्षा वाप्यः कूपास्तथैव च ॥ ४८ ॥
यथेष्टपानफलदा न न्यूनं किञ्चिदस्ति हि ।
वहाँ मनोरथरूपी फलवाले अनेक वृक्ष तथा वैसे ही बावलियाँ और कूप भी विद्यमान हैं, जो प्राणियोंकी इच्छाके अनुरूप उन्हें यथेष्ट फल तथा जल प्रदान करते हैं । वहाँ किसी प्रकारका अभाव नहीं है ॥ ४८.५ ॥

न रोगपलितं वापि जरा वापि कदाचन ॥ ४९ ॥
न चिन्ता न च मात्सर्यं कामक्रोधादिकं तथा ।
उस मणिद्वीपमें किसीको भी रोगोंसे जर्जरता, बुढ़ापा, चिन्ता, मात्सर्य, काम, क्रोध आदि कभी नहीं होते ॥ ४९.५ ॥

सर्वे युवानः सस्त्रीका सहस्रादित्यवर्चसः ॥ ५० ॥
भजन्ति सततं देवीं तत्र श्रीभुवनेश्वरीम् ।
वहाँ रहनेवाले सभी लोग युवावस्थासे सम्पन्न, स्त्रीयुक्त और हजारों सूकि समान तेजस्वी रहते हैं और वे श्रीभुवनेश्वरदेवीकी निरन्तर उपासना करते हैं ॥ ५०.५ ॥

केचित्सलोकतापन्नाः केचित्सामीप्यतां गताः ॥ ५१ ॥
सरूपतां गताः केचित्सार्ष्टितां च परे गताः ।
उपासना-परायण लोगोंमेंसे कुछ लोग सालोक्य मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं, कुछ सामीप्य मुक्तिको प्राप्त हुए हैं, कुछ सारूप्य मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं तथा कुछ अन्य प्राणी साटि मुक्तिके अधिकारी हुए हैं ॥ ५१.५ ॥

या यास्तु देवतास्तत्र प्रतिब्रह्माण्डवर्तिनाम् ॥ ५२ ॥
समष्टयः स्थितास्तास्तु सेवन्ते जगदीश्वरीम् ।
सप्तकोटिमहामन्त्रा मूर्तिमन्त उपासते ॥ ५३ ॥
महाविद्याश्च सकलाः साम्यावस्थात्मिकां शिवाम् ।
कारणब्रह्मरूपां तां मायाशबलविग्रहाम् ॥ ५४ ॥
प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले जो-जो देवता हैं, उनके अनेक समूह वहाँ स्थित रहकर जगदीश्वरीकी उपासना करते हैं । मूर्तिमान् होकर सात करोड़ महामन्त्र तथा समस्त महाविद्याएँ उन साम्यावस्थावाली, कारणब्रह्मस्वरूपिणी तथा मायाशबलविग्रह धारण करनेवाली कल्याणमयी भगवतीकी उपासनामें तत्पर रहते हैं ॥ ५२-५४ ॥

इत्थं राजन् मया प्रोक्तं मणिद्वीपं महत्तरम् ।
न सूर्यचन्द्रौ नो विद्युत्कोटयोऽग्निस्तथैव च ॥ ५५ ॥
एतस्य भासा कोट्यंशकोट्यंशेनापि ते समाः ।
क्यचिद्विद्रुमसकाशं क्वचिन्मरकतच्छवि ॥ ५६ ॥
विद्युद्‍भानुसमच्छायं मध्यसूर्यसमं क्वचित् ।
विद्युत्कोटिमहाधारा सारकान्तिततं क्वचित् ॥ ५७ ॥
क्यचित्सिन्दूरनीलेन्द्रमाणिक्यसदृशच्छवि ।
हीरसारमहागर्भधगद्धगितदिक्तटम् ॥ ५८ ॥
कान्त्या दावानलसमं तप्तकाञ्चनसन्निभम् ।
क्यचिच्चन्द्रोपलोद्‌गारं सूर्योद्‌गारं च कुत्रचित् ॥ ५९ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने अत्यन्त महान् मणिद्वीपका वर्णन कर दिया । करोड़ों सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत् और अग्नि-वे सब इस मणिद्वीपकी प्रभाके करोड़वें अंशके करोड़वें अंशके भी बराबर नहीं हैं । वहाँ कहींपर मूंगेके समान प्रकाश फैल रहा है, कहीं मरकतमणिकी छवि छिटक रही है, कहीं विद्युत् तथा भानुसदृश तेज विद्यमान है, कहीं मध्याह्नकालीन सूर्यके समान प्रचण्ड तेज फैला हुआ है और कहीं करोड़ों बिजलियोंकी महान् धाराओंकी दिव्य कान्ति व्याप्त है । कहीं सिन्दूर, नीलेन्द्रमणि और माणिक्यके समान छवि विद्यमान है । कुछ दिशाओंका भाग हीरा-मोतीकी रश्मियोंसे प्रकाशित हो रहा है, वह कान्तिमें दावानल तथा तपाये हुए सुवर्णक समान प्रतीत हो रहा है । कहीं-कहीं चन्द्रकान्तमणि और सूर्यकान्तमणिसे बने स्थान हैं ॥ ५५-५९ ॥

रत्‍नशृङ्‌गिसमायुक्तं रत्‍नप्राकारगोपुरम् ।
रत्‍नपत्रै रत्‍नफलैर्वक्षैश्च परिमण्डितम् ॥ ६० ॥
इस मणिद्वीपका शिखर रनमय तथा इसके प्राकार और गोपुर भी रत्ननिर्मित हैं । यह रत्नमय पत्रों, फलों तथा वृक्षोंसे पूर्णत: मण्डित है ॥ ६० ॥

नृत्यन्मयूरसङ्‌घैश्च कपोतरणितोज्ज्वलम् ।
कोकिलाकाकलीलापैः शुकलापैश्च शोभितम् ॥ ६१ ॥
यह पुरी मयूरसमूहोंके नृत्यों, कबूतरोंकी बोलियों और कोयलोंकी काकली तथा शुक्रकी मधुर ध्वनियोंसे सुशोभित रहती है । ६१ ॥

सुरम्यरमणीयाम्बुलक्षावधिसरोवृतम् ।
तन्मध्यभागविलसद्विकचद्‌रत्‍नपङ्‌कजैः ॥ ६२ ॥
यह सुरम्य तथा रमणीय जलवाले लाखों सरोवरोंसे घिरा हुआ है । इस मणिद्वीपका मध्यभाग विकसित रत्नमय कमलोंसे सुशोभित है ॥ १२ ॥

सुगन्धिभिः समन्तात्तु वासितं शतयोजनम् ।
मन्दमारुतसम्भिन्नचलद्द्रुमसमाकुलम् ॥ ६३ ॥
उसके चारों ओर सौ योजनतकका क्षेत्र उत्तम गन्धोंसे सर्वदा सुवासित रहता है । मन्द गतिसे प्रवाहित वायुके द्वारा हिलाये गये वृक्षोंसे यह व्याप्त रहता है । ६३ ॥

चिन्तामणिसमूहानां ज्योतिषा वितताम्बरम् ।
रत्‍नप्रभाभिरभितो धगद्धगितदिक्तटम् ॥ ६४ ॥
चिन्तामणिके समूहोंकी ज्योतिसे वहाँका विस्तृत आकाश सदा प्रकाशित रहता है और रत्नोंकी प्रभासे सभी दिशाएँ प्रज्वलित रहती हैं ॥ ६४ ॥

वृक्षवातमहागन्धवातवातसुपूरितम् ।
धूपधूपायितं राजन् मणिदीपायुतोज्ज्वलम् ॥ ६५ ॥
वृक्षसमूहोंकी मधुर सुगन्धोंसे सुपूरित वायु वहाँ सदा बहती रहती है । हे राजन् ! दस हजार योजनतक प्रकाशमान वह मणिद्वीप सदा सुगन्धित धूपसे सुवासित रहता है ॥ ६५ ॥

मणिजालकसच्छिद्रतरलोदरकान्तिभिः ।
दिङ्‌मोहजनकं चैतद्दर्पणोदरसंयुतम् ॥ ६६ ॥
रत्नमयी जालियोंके छिद्रोंसे निकलनेवाली चपल किरणोंकी कान्ति तथा दर्पणसे युक्त यह मणिद्वीप दिशाभ्रम उत्पन्न कर देनेवाला है ॥ ६६ ॥

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य शृङ्‌गारस्याखिलस्य च ।
सर्वज्ञतायाः सर्वायास्तेजसश्चाखिलस्य वै ॥ ६७ ॥
पराक्रमस्य सर्वस्य सर्वोत्तमगुणस्य च ।
सकलाया दयायाश्च समाप्तिरिह भूपते ॥ ६८ ॥
हे राजन् ! समग्र ऐश्वर्य, सम्पूर्ण शृंगार, समस्त सर्वज्ञता, समग्र तेज, अखिल पराक्रम, समस्त उत्तम गुण और समग्र दयाकी इस मणिद्वीपमें अन्तिम सीमा है ॥ ६७-६८ ॥

राज्ञ आनन्दमारभ्य ब्रह्मलोकान्तभूमिषु ।
आनन्दा ये स्थिताः सर्वे तेऽत्रैवान्तर्भवन्ति हि ॥ ६९ ॥
एक राजाके आनन्दसे लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त जो-जो आनन्द हो सकते हैं, वे सब इस मणिद्वीपके आनन्दमें अन्तर्निहित हैं ॥ ६९ ॥

इति ते वर्णितं राजन् मणिद्वीपं महत्तरम् ।
महादेव्याः परं स्थानं सर्वलोकोत्तमोत्तमम् ॥ ७० ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे अति महनीय मणिद्वीपका वर्णन कर दिया । महादेवीका यह परम धाम सम्पूर्ण उत्तम लोकोंसे भी उत्तम है ॥ ७० ॥

एतस्य स्मरणात्सद्यः सर्वं पापं विनश्यति ।
प्राणोत्क्रमणसन्धौ तु स्मृत्वा तत्रैव गच्छति ॥ ७१ ॥
इस मणिद्वीपके स्मरणमात्रसे सम्पूर्ण पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और मृत्युकालमें इसका स्मरण हो जानेपर प्राणी उसी पुरीको प्राप्त हो जाता है । ७१ ॥

अध्यायपञ्चकं त्वेतत्पठेन्नित्यं समाहितः ।
भूतप्रेतपिशाचादिबाधा तत्र भवेन्न हि ॥ ७२ ॥
इन पाँच अध्यायोंका (अध्याय आठसे लेकर बारहतक) जो प्राणी सावधान होकर नित्य पाठ करता है; उसे भूत, प्रेत, पिशाच आदि बाधाएँ नहीं होतीं ॥ ७२ ॥

नवीनगृहनिर्माणे वास्तुयागे तथैव च ।
पतितव्यं प्रयत्‍नेन कल्याणं तेन जायते ॥ ७३ ॥
नये भवनके निर्माण तथा वास्तुयज्ञके अवसरपर प्रयत्नपूर्वक इसका पाठ करना चाहिये; उससे कल्याण होता है ॥ ७३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां
द्वादशस्कन्धे मणिद्वीपवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां द्वादशस्कन्धे मणिद्वीपवर्णन नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥


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