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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
प्रथमोऽध्यायः



आदिसर्गकथनम् -
मंगलाचरण, शौनक-उग्रश्रवा-संवाद, वृष्णिवंशियोंका विस्तृत चरित्र सुननेके लिये जनमेजयकी प्रार्थना और आदिसृष्टिका वर्णन


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥
बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण (अथवा अन्तर्यामी नारायण), नर (नारायणसखा अर्जुन अथवा आदि जीव हिरण्यगर्भ) तथा नरोत्तम (इन हिरण्यगर्भ एवं अन्तर्यामीसे भी श्रेष्ठ शुद्ध सच्चिदानन्दघन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण)-को और (इन नर-नारायण तथा नरोत्तमके तत्त्वको प्रकट करनेवाली) देवी सरस्वतीको एवं (देवी सरस्वतीने संसारपर अनुग्रह करनेके लिये जिनके शरीरमें प्रवेश किया है, उन) व्यासजीको प्रणाम करके अविद्यारूपी अज्ञानान्धकारको जीतनेवाले इतिहास-पुराणादि ग्रन्थोंका पाठ आरम्भ करे ॥ १ ॥

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं
     पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च ।
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं
     किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥ २ ॥
(सौति कहते हैं-) जो व्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय), पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्कर तीर्थक जलमें स्नान करनेकी क्या आवश्यकता है ? (महाभारत-कथा उससे भी अधिक पावन है) ॥ २ ॥

जयति पराशरसूनुः
     सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः ।
यस्यास्यकमलगलितं
     वाङ्मयममृतं जगत्पिबति ॥ ३ ॥
माता सत्यवतीके हृदयको आनन्द प्रदान करनेवाले उन पराशर-पुत्र व्यासको जय हो, जिनके मुखारविन्दसे निकले हुए वाङ्मयरूपी अमृतका सारा संसार पान करता है ॥ ३ ॥

यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति
     विप्राय वेदविदुषे बहुविश्रुताय ।
पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च तद्वत्
     तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ॥ ४ ॥
जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सौ गौएँ दान देता है और जो पुण्यदायिनी महाभारत-कथाका श्रवणमात्र करता है-इन दोनोंमेंसे प्रत्येकको बराबर ही फल मिलता है ॥ ४ ॥

शताश्वमेधस्य यदत्र पुण्यं
     चतुःसहस्रस्य शतक्रतोश्च ।
भवेदनन्तं हरिवंशदानात्
     प्रकीर्तितं व्यासमहर्षिणा च ॥ ५ ॥
जो चार हजार अक्षय अन्नसत्रोंसे युक्त तथा इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाले हैं, उन सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेसे इस लोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है, वही अनन्त पुण्य इस हरिवंशग्रन्थका दान करनेसे उपलब्ध होता है। यह बात महर्षि व्यासजीने कही है ॥ ५ ॥

यद् वाजपेयेन तु राजसूयाद्
     दृष्टं फलं हस्तिरथेन चान्यत् ।
तल्लभ्यते व्यासवचः प्रमाणं
     गीतं च वाल्मीकिमहर्षिणा च ॥ ६ ॥
वाजपेय और राजसूय यज्ञोंके अनुष्ठानसे तथा हाथी जुते हुए रथके दानसे जिस फलकी प्राप्ति देखी या बतायी गयी है, वही फल हरिवंश-ग्रन्थका दान करनेसे मिल जाता है। इसमें व्यासजीका वचन प्रमाण है तथा महर्षि वाल्मीकिने भी इसी माहात्म्यका गान किया है ॥ ६ ॥

यो हरिवंशं लेखयति
     यथाविधिना महातपाः सपदि ।
स जयति हरिपदकमलं
     मधुपो हि यथा रसेन लुब्धः ॥ ७ ॥
जो महातपस्वी पुरुष शास्त्रीय विधिके अनुसार हरिवंशको लिखता या लिखवाता है, वह रसपर लुभाये हुए भंवरेके समान भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोपर पहुँच जाता है ॥ ७ ॥

पितामहाद्यं प्रवदन्ति षष्ठं
     महर्षिमक्षय्यविभूतियुक्तम् ।
नारायणस्यांशजमेकपुत्रं
     द्वैपायनं वेद महानिधानम् ॥ ८ ॥
ब्रह्माजीके आदि कारण श्रीनारायणको जिनसे ऊपरकी छठी पीढ़ीका पुरुष बताते हैं, जो अक्षय विभूतियोंसे युक्त तथा नारायणके अंशसे प्रकट हैं, एकमात्र शुकदेव ही जिनके पुत्र हैं (अथवा जो अपने पिता पराशरके एक ही पुत्र हैं), वैदिक ज्ञानके महानिधिस्वरूप उन महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासकी मैं उपासना करता हूँ ॥ ८ ॥

आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ।
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ॥ ९ ॥
असच्च सदसच्चैव यद्विश्वं सदसत्परम् ।
परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ॥ १०॥
मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम् ।
नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् ॥ ११॥
नैमिषारण्ये कुलपतिः शौनकस्तु महामुनिः ।
सौतिं पप्रच्छ धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १२॥
नैमिषारण्यकी बात है, सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ, धर्मात्मा एवं कुलपति महामुनि शौनकने सबके आदि कारण, अन्तर्यामी पुरुष, पुरुहूत (बहुत-से यजमानोंद्वारा दी गयी आहुतिको ग्रहण करनेवाले), पुरुष्टुत (बहुसंख्यक उपासकोंद्वारा स्तुत्य), ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर (प्रणवमय अथवा एक अविनाशी), ब्रह्म (परमात्मा), व्यक्ताव्यक्तस्वरूप, सनातन, असत् (कार्यरूप), सदसत् (कारण और कार्यरूप), अखिल विश्वमय, सत् और असत्-दोनोंसे पर (विलक्षण), कारण और कार्य दोनोंके स्रष्टा, पुरातन, सर्वोत्कृष्ट, अविकारी, मङ्गलकारी, मङ्गलरूप, सर्वव्यापी, सबके द्वारा वरणीय, पापरहित, परम पवित्र, इन्द्रियोंके प्रेरक तथा समस्त चराचर जगत्के गुरु श्रीहरिको प्रणाम करके लोमहर्षण सूतके पुत्र उग्रश्रवासे इस प्रकार पूछा ॥ ९-१२ ॥

शौनक उवाच
सौते सुमहदाख्यानं भवता परिकीर्तितम् ।
भारतानां च सर्वेषां पार्थिवानां तथैव च ॥ १३॥
देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् ॥
दैत्यानामथ सिद्धानां गुह्यकानां तथैव च ॥ १४॥
अत्यद्भुतानि कर्माणि विक्रमा धर्मनिश्चयाः ॥
विचित्राश्च कथायोगा जन्म चाग्र्यमनुत्तमम् ॥ १५॥
कथितं भवता पुण्यं पुराणं श्लक्ष्णया गिरा ॥
मनःकर्णसुखं सौते प्रीणात्यमृतसंमितम् ॥ १६॥
तत्र जन्म कुरूणां वै त्वयोक्तं लौमहर्षणे ॥
न तु वृष्ण्यन्धकानां च तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥ १७॥
शौनकजीने कहा-सूतनन्दन ! आपने भरतवंशियों, अन्य सब राजाओं, देवताओं, दानवों, गन्धवों, नागों, राक्षसों, दैत्यों, सिद्धों तथा गुहाकोंसे सम्बन्ध रखनेवाला यह बहुत बड़ा उपाख्यान (महाभारत) कह सुनाया। आपने (ऋषि-महर्षियोंके) अद्भुत कर्म, (शूरवीरोंके) बल-विक्रम, धर्मतत्त्वके निर्णय, विचित्र-विचित्र कथाप्रसङ्ग तथा (द्रोण आदिके) श्रेष्ठ एवं परम उत्तम जन्मवृत्तान्त आदि प्राचीन एवं पुण्यप्रद विषयोंका अपनी मधुर वाणीद्वारा वर्णन किया है। उग्रश्रवाजी ! मन और कानोंको सुख देनेवाला यह प्रसङ्ग मुझे अमृतके समान तृप्ति प्रदान करता है। लोमहर्षणकुमार ! आपने महाभारत सुनाते समय कुरुवंशियोंके ही जन्मका विशेषरूपसे वर्णन किया है, वृष्णि तथा अन्धकवंशके वीरोंके जन्मका नहीं; अतः अब आप उन सबके जन्म-कर्मका भी वर्णन कीजिये ॥ १३-१७ ॥

सौतिरुवाच ॥
जनमेजयेन यत्पृष्टः शिष्यो व्यासस्य धर्मवित् ।
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि वृष्णीनां वंशमादितः ॥ १८ ॥
श्रुत्वेतिहासं कार्त्स्न्येन भारतानां स भारतः ।
जनमेजयो महाप्राज्ञो वैशम्पायनमब्रवीत् ॥ १९ ॥
सूत-पुत्र उग्रश्रवाने कहा-शौनकजी ! जनमेजयने व्यासजीके धर्मवेत्ता शिष्य वैशम्पायनजीसे जो कुछ पूछा था, उसीके अनुसार मैं आरम्भसे ही वृष्णियोंके वंशका आपसे वर्णन करता हूँ। भरतवंशी राजाओंके इतिहासको पूर्णरूपसे सुनकर भरतनन्दन महाबुद्धिमान् जनमेजयने वैशम्पायनजीसे कहा ॥ १८-१९ ॥

जनमेजय उवाच
महाभारतमाख्यानं बह्वर्थं श्रुतिविस्तरम् ।
कथितं भवता पूर्वं विस्तरेण मया श्रुतम् ॥ २० ॥
तत्र शूराः समाख्याता बहवः पुरुषर्षभाः ।
नामभिः कर्मभिश्चैव वृष्ण्यन्धकमहारथाः ॥ २१ ॥
तेषां कर्मावदातानि त्वयोक्तानि द्विजोत्तम ।
तत्र तत्र समासेन विस्तरेणैव मे प्रभो ॥ २२ ॥
न च मे तृप्तिरस्तीह कथ्यमाने पुरातने ।
एकश्चैव मतो राशिर्वृष्णयः पाण्डवास्तथा ॥ २३ ॥
भवांश्च वंशकुशलस्तेषां प्रत्यक्षदर्शिवान् ।
कथयस्व कुलं तेषां विस्तरेण तपोधन ॥ २४ ॥
यस्य यस्यान्वये ये ये तांस्तानिच्छामि वेदितुम् ।
स त्वं सर्वमशेषेण कथयस्व महामुने ।
तेषां पूर्वविसृष्टिं च विचिन्त्येमां प्रजापतेः ॥ २५ ॥
जनमेजयने कहा-मुने ! आपने पहले वेदके अर्थको स्पष्ट करके विस्तृतरूपमें वर्णन करनेवाली, (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि) अनेक अर्थोसे भरी हुई जो महाभारतकी कथा विस्तारपूर्वक कही, उसको मैंने सुन लिया। उस महाभारत कथामें आपने बहुत-से पुरुषश्रेष्ठ शूरोंका वर्णन किया तथा बहुत-से वृष्णि और अन्धकवंशी महारथियोंके नाम और कर्म भी बताये। द्विजोत्तम ! उनके उत्तम कर्मोंका भी आपने उन-उन स्थलोंमें संक्षिप्तरूपसे वर्णन किया है। प्रभो ! अब आप उनको विस्तारपूर्वक सुनाइये। आपने पहले जो संक्षिप्तरूपसे वर्णन किया, उससे मेरी तृप्ति नहीं हुई है। ये वृष्णि और पाण्डव एक ही राशि (कुटुम्ब)-के माने जाते हैं। तपोधन ! आप वंशोंकी कथा कहनेमें चतुर हैं और उनकी सब बातोंको आपने प्रत्यक्ष देखा है। अतएव उनके कुलका आप विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। महामुने ! जिस-जिसके कुलमें जो-जो उत्पन्न हुए हों, उन सबको मैं जानना चाहता हूँ; अतएव प्रजापतिसे आरम्भ करके पूर्वकालमें उनकी जिस प्रकार सृष्टि हुई है, उन सबका विचार करके आप मुझे पूर्णरूपसे सब कथा सुनाइये ॥ २०-२५ ॥

सौतिरुवाच
सत्कृत्य परिपृष्टस्तु स महात्मा महातपाः ।
विस्तरेणानुपूर्व्यां च कथयामास तां कथाम् ॥ २६ ॥
उग्रश्रवाने कहा-जब सत्कारपूर्वक उनसे यह बात पूछी गयी, तब वे महातपस्वी महात्मा वैशम्पायन क्रमशः और विस्तारके साथ उस वंशावलिकी कथा कहने लगे ॥ २६ ॥

वैशम्पायन उवाच
शृणु राजन् कथां दिव्यां पुण्यां पापप्रमोचनीम् ।
कथ्यमानां मया चित्रां बह्वर्थां श्रुतिसम्मिताम् ॥ २७ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-राजन् ! सुनो, यह (वृष्णिवंशियोंके जन्मकी) कथा अलौकिक, पुण्यमयी और पापोंसे मुक्त करनेवाली है, इसमें (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि) अनेक पुरुषार्थोंका उपदेश है, इस वेदके समान माननीय तथा आचर्यमयी कथाका मैं आपसे वर्णन करता हूँ ॥ २७ ॥

यश्चेमां धारयेद्वापि शृणुयाद् वाप्यभीक्ष्णशः ।
स्ववंशधारणं कृत्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ २८ ॥
जो इस कथाको अपने हृदयमें धारण करता है या इसको पुस्तकके रूपमें अपने घरमें स्थापित करता है अथवा बार-बार इसको सुनता है, वह (इस लोकमें) अपने वंशको स्थापित कर अन्तमें स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ २८ ॥

अव्यक्तं कारणं यत् तन्नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं पुरुषं तस्मान्निर्ममे विश्वमीश्वरम् ॥ २९ ॥
जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूत अव्यक्त प्रकृति है, उसीको 'प्रधान' कहते हैं। सर्वशक्तिमान् पुरुषने उसीसे इस विश्वका निर्माण किया है ॥ २९ ॥

तं वै विद्धि महाराज ब्रह्माणममितौजसम् ।
स्रष्टारं सर्वभूतानां नारायणपरायणम् ॥ ३० ॥
महाराज ! तुम अमित तेजस्वी ब्रह्माजीको ही पुरुष समझो। वे समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले तथा भगवान् नारायणके आश्रित हैं ॥ ३० ॥

अहङ्कारस्तु महतस्तस्माद्भूतानि जज्ञिरे ।
भूतभेदाश्च भूतेभ्य इति सर्गः सनातनः ॥ ३१ ॥
(प्रकृतिसे महत्तत्त्व,) महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकारसे सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए। भूतोंके जो स्थूल भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतोंसे ही प्रकट हुए हैं। यह (अनादिकालसे प्रवाहरूपसे चला आनेवाला) सनातन सर्ग है ॥ ३१ ॥

विस्तारावयवं चैव यथाप्रज्ञं यथाश्रुतिः ।
कीर्त्यमानं शृणु मया पूर्वेषां कीर्तिवर्धनम् ॥ ३२ ॥
अब जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुजनोंसे सुन रखा है, उसके अनुसार मैं भूतसर्गका विस्तारपूर्वक वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो। यह प्रसंग पूर्वजोंकी कीर्तिका विस्तार करनेवाला है ॥ ३२ ॥

धन्यं यशस्यं शत्रुघ्नं स्वर्ग्यमायुःप्रवर्धनम् ।
कीर्तनं स्थिरकीर्तीनां सर्वेषां पुण्यकर्मणाम् ॥ ३३ ॥
स्थिर कीर्तिवाले उन समस्त पुण्यकर्मा पूर्वजोंके यशका कीर्तन धन और यशकी वृद्धि करनेवाला, शत्रुओंका नाशक, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा आयु बढ़ानेवाला है ॥ ३३ ॥

तस्मात्कल्पाय ते कल्पः समग्रं शुचये शुचिः ।
आ वृष्णिवंशाद्वक्ष्यामि भूतसर्गमनुत्तमम् ॥ ३४ ॥
तुम इस विषयको हृदयंगम करनेमें समर्थ और शुद्ध हो और मैं इसका वर्णन करनेमें समर्थ हूँ। अतः पवित्र होकर आरम्भसे वृष्णिवंशपर्यन्त परम उत्तम भूतसर्गका वर्णन करूंगा ॥ ३४ ॥

ततः स्वयम्भूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥ ३५ ॥
तदनन्तर स्वयम्भू भगवान् नारायणने नाना प्रकारकी प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे सबसे पहले जलकी ही सृष्टि की। फिर उस जलमें अपनी शक्तिका आधान किया ॥ ३५ ॥

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥ ३६ ॥
जलका दूसरा नाम है नार, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नरसे हुई है । वह जल पूर्वकालमें भगवान्का अयन हुआ, इसलिये वे 'नारायण' कहलाते हैं ॥ ३६ ॥

हिरण्यवर्णमभवत् तदण्डमुदकेशयम् ।
तत्र जज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयम्भूरिति नः श्रुतम् ॥ ३७ ॥
भगवान्ने जलमें जो अपनी शक्तिका आधान किया था, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ, वह दीर्घकालतक जलमें ही स्थित था । उसीमें स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए-ऐसा हमने सुना है ॥ ३७ ॥

हिरण्यगर्भो भगवानुषित्वा परिवत्सरम् ।
तदण्डमकरोद् द्वैधं दिवं भुवमथापि च ॥ ३८ ॥
भगवान् हिरण्यगर्भने उस अण्डमें एक वर्षतक निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये । फिर एक टुकड़ेसे धुलोक बनाया और दूसरेसे भूलोक ॥ ३८ ॥

तयोः शकलयोर्मध्ये आकाशमसृजत्प्रभुः ।
अप्सु पारिप्लवां पृथ्वीं दिशश्च दशधा दधे ॥ ३९ ॥
उन दोनों टुकड़ोंके बीचमें भगवान् ब्रह्माने आकाश (अवकाश)-की सृष्टि की । जलके ऊपर तैरती हुई पृथ्वीको स्थापित किया । फिर दसों दिशाएँ निश्चित की ॥ ३९ ॥

तत्र कालं मनो वाचं कामं क्रोधमथो रतिम् ।
ससर्ज सृष्टिं तद्‌रूपां स्रष्टुमिच्छन् प्रजापतीन् ॥ ४० ॥
उस ब्रह्माण्डके भीतर ही उन्होंने काल, मन, वाणी, काम, क्रोध तथा रति आदि भावोंकी सृष्टि की । फिर इन भावोंके अनुरूप सृष्टि करनेकी इच्छावाले ब्रह्माजीने निम्नाङ्कित (सात) प्रजापतियोंको उत्पन्न किया ॥ ४० ॥

मरीचिमत्र्यङ्गिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
वसिष्ठं च महातेजाः सोऽसृजत् सप्त मानसान् ॥ ४१ ॥
उनके नाम इस प्रकार हैं-मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ । महातेजस्वी ब्रह्माने इन सातोंकी अपने मन (संकल्प)-से सृष्टि की (अतः ये उनके मानस पुत्र हैं) ॥ ४१ ॥

सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ।
नारायणात्मकानां वै सप्तानां ब्रह्मजन्मनाम् ॥ ४२ ॥
ततोऽसृजत् पुनर्ब्रह्मा रुद्रं रोषात्मसम्भवम् ।
सनत्कुमारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम् ॥ ४३ ॥
पुराणोंमें ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं । भगवान् नारायणमें मन लगाये रहनेवाले इन सात ब्राह्मणोंकी सष्टिके अनन्तर ब्रह्माजीने अपने रोषसे रुद्रको प्रकट किया । फिर पूर्वजोंके भी पूर्वज भगवान् सनत्कुमारजीको उत्पन्न किया ॥ ४२-४३ ॥

सप्तैते जनयन्ति स्म प्रजा रुद्रश्च भारत ।
स्कन्दः सनत्कुमारश्च तेजः संक्षिप्य तिष्ठतः ॥ ४४ ॥
भरतनन्दन ! ये मरीचि आदि सात ऋषि तथा रुद्रदेव प्रजाकी सृष्टि करने लगे । स्कन्द और सनत्कुमार-ये दोनों अपने तेजका संवरण करके रहते हैं ॥ ४४ ॥

तेषां सप्त महावंशा दिव्या देवगणान्विताः ।
क्रियावन्तः प्रजावन्तो महर्षिभिरलंकृताः ॥ ४५ ॥
उक्त सात महर्षियोंके सात बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं। देवता भी इन्हीं वंशोंके अन्तर्गत हैं। उन सातों वंशोंके लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान् हैं। उन वंशोंको बड़े-बड़े ऋषियोंने सुशोभित किया है।॥ ४५ ॥

विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च ।
वयांसि च ससर्जादौ पर्जन्यं च ससर्ज ह ॥ ४६ ॥
इसके बाद ब्रह्माजीने पहले विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित (सीधा) इन्द्र-धनुष, पक्षिसमुदाय तथा पर्जन्यकी सृष्टि की॥ ४६॥

ऋचो यजूंषि सामानि निर्ममे यज्ञसिद्धये ।
मुखाद् देवानजनयत् पितृंश्चेशोऽपि वक्षसः ॥ ४७ ॥
फिर ब्रह्माजीने यज्ञकी सिद्धिके लिये (नित्यसिद्ध) ऋक्, यजुः और सामका आविष्कार किया। फिर ऐश्वर्यशील ब्रह्माने अपने मुखसे देवताओंको और वक्षःस्थलसे पितरोंको प्रकट किया ॥ ४७॥

प्रजनाच्च मनुष्यान् वै जघनान्निर्ममेऽसुरान् ।
साध्यानजनयद् देवानित्येवमनुशुश्रुम ॥ ४८ ॥
फिर उन्होंने उपस्थेन्द्रियसे मनुष्योंको और जंघाओंसे असुरोंको उत्पन्न किया । तदनन्तर उन्होंने साध्य नामक प्राचीन देवताओंको प्रकट किया, ऐसा हमने सुना है ॥ ४८ ॥

उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।
आपवस्य प्रजासर्गं सृजतो हि प्रजापतेः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार प्रजाकी सृष्टि रचते हुए उन आपव (अर्थात् जलमें प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्माके अङ्गोंमेंसे उच्च तथा साधारण श्रेणीके बहुत-से प्राणी प्रकट हुए ॥ ४९ ॥

सृज्यमानाः प्रजा नैव विवर्धन्ते यदा तदा ।
द्विधा कृत्वाऽऽत्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ॥ ५० ॥
अर्धेन नारी तस्यां स ससृजे विविधाः प्रजाः ।
दिवं च पृथिवीं चैव महिम्ना व्याप्य तिष्ठतः ॥ ५१ ॥
इस प्रकार वे आपव प्रजापति (मानसिक) प्रजाओंको रच रहे थे; परंतु वे प्रजाएँ जब (अधिक) न बढ़ीं, तब वे अपने शरीरके दो भाग कर, एक भागसे पुरुष और दूसरे भागसे नारी हो गये और (उस नारीने गाय, घोड़ी आदि जिस-जिस रूपको धारण किया, पुरुषने उसी जातिके बैल, घोड़े आदिका रूप धारण किया,) इस प्रकार उन्होंने उस नारीमें अनेक प्रकारकी मैथुनी-प्रजाओंको रचा । इस प्रकार वे पुरुष और नारी अपनी महिमासे स्वर्ग और पृथ्वीपर व्याप्त हो गये ॥ ५०-५१ ॥


विराजमसृजद् विष्णुः सोऽसृजत्पुरुषं विराट् ।
पुरुषं तं मनुं विद्धि तद्वै मन्वन्तरं स्मृतम् ॥ ५२ ॥
भगवान् विष्णुने विराट् पुरुष (आपव प्रजापति या ब्रह्मा)-की सृष्टि की थी और विराट्ने पुरुषकी । उस वैराज पुरुषको तुम मनु समझो (और उनकी स्त्रीको शतरूपा) । मनुके समयको ही मन्वन्तरकाल कहा गया है ॥ ५२ ॥

द्वितीयमापवस्यैतन्मनोरन्तरमुच्यते ।
स वैराजः प्रजासर्गं ससर्ज पुरुषः प्रभुः ।
नारायणविसर्गः स प्रजास्तस्याप्ययोनिजाः ॥ ५३ ॥
आपवपुत्र मनुकी जो यह दूसरी योनिज सृष्टि है, यहींसे मन्वन्तरका आरम्भ बताया जाता है । इस प्रकार शक्तिशाली वैराज पुरुष (मनु)-ने प्रजासर्गकी सृष्टि की । आपव प्रजापतिको नारायणसर्ग कहा गया है (क्योंकि वे नारायणसे ही प्रकट हुए हैं) । उनकी अयोनिजा प्रजा प्रथम सर्ग है (और मनुकी योनिजा प्रजा द्वितीय सर्ग) ॥ ५३ ॥

आयुष्मान् कीर्तिमान् धन्यः प्रजावाञ्छ्रुतवांस्तथा ।
आदिसर्गं विदित्वेमं यथेष्टां गतिमाप्नुयात् ॥ ५४ ॥
जो इस आदि सृष्टिको इस प्रकार जान लेता है, वह आयुष्मान्, कीर्तिमान्, धन्यवादका पात्र, संतानवान् और विद्वान् होता है, उसे इच्छानुसार उत्तम गति प्राप्त होती है ॥ ५४ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि
आदिसर्गकथने प्रथमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें आदिसृष्टिका वर्णनविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥ हरिः ॐ तत्सत्




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